Books - गायत्री महाविज्ञान
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ध्यान - मनोमय कोश की साधना
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ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मनःक्षेत्र में की जाती है। मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे आकर्षण का प्रधान केन्द्र बनती है। उस आकर्षण की ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियाँ खिंच जाती हैं, फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीयकरण होने लगता है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौहकणों को सब दिशाओं से खींचकर अपने पास जमा कर लेता है। इसी प्रकार ध्यान द्वारा मन सब ओर से खिंचकर एक केन्द्रबिन्दु पर एकाग्र होता है, बिखरी हुई चित्त- प्रवृत्तियाँ एक जगह सिमट जाती हैं।
कोई आदर्श, लक्ष्य, इष्ट निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है, मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। साँचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी आकृति बन जाती है, जैसी उस साँचे में होती है। कीट- भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले जाता है और उसके चारों ओर लगातार गुंजन करता है। झींगुर इस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को, उसकी चेष्टाओं को एकाग्र भाव से निहारता है। झींगुर का मन भृंगमय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढाँचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, मांस, नस, नाड़ी, त्वचा आदि में मन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वाङ्गपूर्ण कायाकल्प होता है।
साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर- परिवर्तन नहीं होता। इसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक कायाकल्प करने में हर मनुष्य ध्यान- साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर जोर दिया है कि हर साधक को इष्टदेव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है- जीवन का प्रधान लक्ष्य निर्धारित करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है- उस लक्ष्य में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है कि मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं। एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दिशा में सभी मानसिक शक्तियाँ लग जाती हैं, फलस्वरूप साधक के गुण, स्वभाव, विचार, उपाय एवं काम अद्भुत गति से बढ़ते हैं, जो उसे अभीष्ट लक्ष्य तक सरलतापूर्वक स्वल्प काल में ही पहुँचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।
ध्यान साधना के लिए ही आदर्शों को, इष्टों को दिव्य रूपधारी देवताओं के रूप में मानकर उनमें मानसिक तन्मयता स्थापित करने का यौगिक विधान है। प्रीति सजातियों में होती है, इसलिए लक्ष्य रूप इष्ट को दिव्य देहधारी देव मानकर उसमें तन्मय होने का गूढ़ एवं रहस्यमय मनोवैज्ञानिक आधार स्थापित करना पड़ा है। एक- एक अभिलाषा एवं आदर्श का एक- एक इष्टदेव है, जैसे बल की प्रतीक दुर्गा, धन की प्रतीक लक्ष्मी, बुद्धि की प्रतीक सरस्वती, धार्मिक सम्पदा की गायत्री एवं भौतिक विज्ञान की प्रतीक सावित्री मानी गई है। गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातर, लोकमातर, धृति, तुष्टि, पुष्टि, आत्मदेवी यह षोडश मातृकाएँ प्रसिद्ध हैं। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री, ये नव दुर्गाएँ अपनी- अपनी विशेषताओं के कारण हैं।
ऐसा भी हो सकता है कि एक ही इष्टदेव को आवश्यकतानुसार विभिन्न गुणों वाला मान लिया जाए। एक महाशक्ति की विविध प्रयोजनों के लिए काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, बगला, मातङ्गी, कमला, इन्द्राणी, वैष्णवी, ब्रह्माणी, कौमारि, नरसिंही, वाराही, माहेश्वरी, भैरवी आदि विविध रूपों में उपासना की जाती है। एक ही महागायत्री की ह्रीं, श्रीं, क्लीं (सरस्वती, लक्ष्मी, काली) के तीनों रूपों में आराधना होती है। फिर इन तीनों में अनेक भेद हो जाते हैं। जो साधक मातृशक्ति की अपेक्षा पितृशक्ति में अधिक रुचि रखते हैं, जिन्हें नारीपरक शक्तितत्त्व की अपेक्षा पुरुषतत्त्व प्रधान (पुङ्क्षल्लग) दिव्य तत्त्व में विशेष मन लगता है, वे गणेश, नृसिंह, भैरव, शिव, विष्णु आदि इष्टों की उपासना करते हैं।
यहाँ किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं। अनेक देवताओं का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियाँ ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं। मनुष्य अपनी इच्छा, रुचि और आवश्यकतानुसार उन ईश्वरीय शक्तियों को प्राप्त करने के लिए, अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपना इष्ट, लक्ष्य चुनता है और उनमें तन्मय होते ही मनोवैज्ञानिक उपासना पद्धति द्वारा उन शक्तियों को अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में धारण कर लेता है।
ध्यानयोग साधना में मन की एकाग्रता के साथ- साथ लक्ष्य को, इष्ट को भी प्राप्त करके योग स्थिति उत्पन्न करने का दोहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मनःक्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पाँच अंग हैं- (१) स्थिति, (२) संस्थिति, (३) विगति, (४) प्रगति, (५) संस्मिति। इन पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।
‘स्थिति’ का तात्पर्य है—साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तट पर, एकान्त में, श्मशान में, स्नान करके, बिना स्नान किए, पद्मासन से, सिद्धासन से, किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाए, इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते हैं।
‘संस्थिति’ का अर्थ है—इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख, आकृति, आकार, मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
‘विगति’ कहते हैं—गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं, उनको जानना विगति कहा जाता है। ‘प्रगति’ कहते हैं—उपासना काल में साधक केमन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु, मित्र, माता- पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते से उपास्य देव को मानना हो, उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने के लिए प्रमुख ध्यानावस्था में विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा अपनी आन्तरिक भावनाओं को इष्टदेव के सम्मुख उपस्थित करना ‘प्रगति’ कहलाती है।
‘संस्मिति’ वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य, उपासक और उपास्य एक हो जाते हैं; दोनों में कोई भेद नहीं रहता है। भृंग कीट की सी तन्मयता, द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी, उपास्य और उपासक का अभेद, मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ, ऐसी अनुभूति का होना संस्मिति है। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है, उसे ‘संस्मिति’ कहते हैं।
एक ही इष्टदेव के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से ध्यान किए जाते हैं। साधक की आयु, स्थिति, मनोभूमि, वर्ण, संस्कार आदि के विचार से भी ध्यान की विधियों में स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति एवं संस्मिति की जो कई महत्त्वपूर्ण पद्धतियाँ हैं, उनका सविस्तार वर्णन इन पृष्ठों में नहीं हो सकता। यहाँ तो हमारा प्रयोजन मनोमय कोश को व्यवस्थित बनाने के लिए ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि बताना मात्र है। इसके लिए कुछ ध्यान नीचे दिए जाते हैं—
(१) चिकने पत्थर की या धातु की सुन्दर- सी गायत्री प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गन्ध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों से पूजन कीजिए। इस प्रकार नित्यप्रति पूजन आरम्भिक साधकों के लिए श्रद्धा बढ़ाने वाला, मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधक में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान यह पार्थिव पूजन ही है। मन्दिरों में मूर्तिपूजा का आधार यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।
(२) शुद्ध होकर पूर्व की ओर मुँह करके, कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैठिए। सामने गायत्री का चित्र रख लीजिए। विशेष मनोयोगपूर्वक उसी मुखाकृति या अंग- प्रत्यंगों को देखिए। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र की बारीकियाँ भी ध्यानावस्था में भलीभाँति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टाङ्ग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
(३) एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए। ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है, केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य पूर्व दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में विशेष मनोयोगपूर्वक देखिए। उसके बीच में हंसारूढ़ माता गायत्री की धुँधली- सी छवि दृष्टिगोचर होगी। अभ्यास से धीरे- धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।
(४) भावना कीजिए कि इस गायत्री- सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही हैं और वे रोमकूपों में होकर प्रवेश हुई आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।
(५) दिव्य तेजयुक्त, अत्यन्त सुन्दर, इतनी सुन्दर जितनी कि आप अधिक से अधिक कल्पना कर सकते हों, आकाश में दिव्य वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित माता का ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने की सुविधा होती है। माता के एक- एक अंग को विशेष मनोयोगपूर्वक देखिए। उसकी मुखाकृति, चितवन, मुस्कान, भाव- भंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए। माता अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मनःक्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेंगी।
(६) शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर शरीर की नस- नाड़ियों को निर्जीव की भाँति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे से निकलकर एक नीलवर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा की तरह अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क या हृदय में ऋतम्भरा बुद्धि के रूप में, तरण- तारिणी प्रज्ञा के रूप में प्रवेश कर रही है। उस परम दिव्य, परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय में सद्भाव और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहे हैं जैसे समुद्र में ज्वार- भाटा उमड़ते हैं। वह ध्रुव तारा, जो इस दिव्य धारा का प्रेरक है, सत्लोकवासिनी गायत्री माता ही है। भावना कीजिए कि जैसे बालक अपनी माता की गोद में खेलता और क्रीड़ा करता है, वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।
(७) मेरुदण्ड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भ्रूमध्य भाग (भृकुटि) में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत् की भाँति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषण एवं जागरण कर रही है, ऐसा विश्वास कीजिए।
(८) भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है, उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजोमयी माता विराजमान है और घोड़ों की लगाम उसने अपने हाथ में थाम रखी है। जो घोड़ा बिचकता है, वह चाबुक से उसका अनुशासन करती है और लगाम झटककर उसको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ- प्रदर्शन करती है। घोड़े भी माता से आतंकित होकर उसके अंकुश को स्वीकार करते हैं।
(९) हृदय स्थान के निकट, सूर्यचक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश का ध्यान कीजिए। यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें माता की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा के वस्तु स्वरूप की झाँकी होती है। आत्मसाक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्यचक्र ही है।
(१०) ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग, मनःक्षेत्र उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है। अपने समस्त पाप- ताप, विकार- संस्कार जल गए हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।
ऊपर कुछ सुगम एवं सर्वोपयोगी ध्यान बताए गए हैं। ये सरल और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना उत्तम है। वैसे अवकाश के अन्य समयों में भी जब चित्त शान्त हो, इन ध्यानों में से अपनी रुचि के अनुकूल ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है। साथ ही उपासना का आध्यात्मिक लाभ भी मिलने से यह ध्यान दोहरा हित साधन करते हैं।
कोई आदर्श, लक्ष्य, इष्ट निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है, मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। साँचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी आकृति बन जाती है, जैसी उस साँचे में होती है। कीट- भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले जाता है और उसके चारों ओर लगातार गुंजन करता है। झींगुर इस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को, उसकी चेष्टाओं को एकाग्र भाव से निहारता है। झींगुर का मन भृंगमय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढाँचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, मांस, नस, नाड़ी, त्वचा आदि में मन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वाङ्गपूर्ण कायाकल्प होता है।
साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर- परिवर्तन नहीं होता। इसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक कायाकल्प करने में हर मनुष्य ध्यान- साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर जोर दिया है कि हर साधक को इष्टदेव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है- जीवन का प्रधान लक्ष्य निर्धारित करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है- उस लक्ष्य में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है कि मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं। एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दिशा में सभी मानसिक शक्तियाँ लग जाती हैं, फलस्वरूप साधक के गुण, स्वभाव, विचार, उपाय एवं काम अद्भुत गति से बढ़ते हैं, जो उसे अभीष्ट लक्ष्य तक सरलतापूर्वक स्वल्प काल में ही पहुँचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।
ध्यान साधना के लिए ही आदर्शों को, इष्टों को दिव्य रूपधारी देवताओं के रूप में मानकर उनमें मानसिक तन्मयता स्थापित करने का यौगिक विधान है। प्रीति सजातियों में होती है, इसलिए लक्ष्य रूप इष्ट को दिव्य देहधारी देव मानकर उसमें तन्मय होने का गूढ़ एवं रहस्यमय मनोवैज्ञानिक आधार स्थापित करना पड़ा है। एक- एक अभिलाषा एवं आदर्श का एक- एक इष्टदेव है, जैसे बल की प्रतीक दुर्गा, धन की प्रतीक लक्ष्मी, बुद्धि की प्रतीक सरस्वती, धार्मिक सम्पदा की गायत्री एवं भौतिक विज्ञान की प्रतीक सावित्री मानी गई है। गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातर, लोकमातर, धृति, तुष्टि, पुष्टि, आत्मदेवी यह षोडश मातृकाएँ प्रसिद्ध हैं। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री, ये नव दुर्गाएँ अपनी- अपनी विशेषताओं के कारण हैं।
ऐसा भी हो सकता है कि एक ही इष्टदेव को आवश्यकतानुसार विभिन्न गुणों वाला मान लिया जाए। एक महाशक्ति की विविध प्रयोजनों के लिए काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, बगला, मातङ्गी, कमला, इन्द्राणी, वैष्णवी, ब्रह्माणी, कौमारि, नरसिंही, वाराही, माहेश्वरी, भैरवी आदि विविध रूपों में उपासना की जाती है। एक ही महागायत्री की ह्रीं, श्रीं, क्लीं (सरस्वती, लक्ष्मी, काली) के तीनों रूपों में आराधना होती है। फिर इन तीनों में अनेक भेद हो जाते हैं। जो साधक मातृशक्ति की अपेक्षा पितृशक्ति में अधिक रुचि रखते हैं, जिन्हें नारीपरक शक्तितत्त्व की अपेक्षा पुरुषतत्त्व प्रधान (पुङ्क्षल्लग) दिव्य तत्त्व में विशेष मन लगता है, वे गणेश, नृसिंह, भैरव, शिव, विष्णु आदि इष्टों की उपासना करते हैं।
यहाँ किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं। अनेक देवताओं का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियाँ ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं। मनुष्य अपनी इच्छा, रुचि और आवश्यकतानुसार उन ईश्वरीय शक्तियों को प्राप्त करने के लिए, अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपना इष्ट, लक्ष्य चुनता है और उनमें तन्मय होते ही मनोवैज्ञानिक उपासना पद्धति द्वारा उन शक्तियों को अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में धारण कर लेता है।
ध्यानयोग साधना में मन की एकाग्रता के साथ- साथ लक्ष्य को, इष्ट को भी प्राप्त करके योग स्थिति उत्पन्न करने का दोहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मनःक्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पाँच अंग हैं- (१) स्थिति, (२) संस्थिति, (३) विगति, (४) प्रगति, (५) संस्मिति। इन पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।
‘स्थिति’ का तात्पर्य है—साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तट पर, एकान्त में, श्मशान में, स्नान करके, बिना स्नान किए, पद्मासन से, सिद्धासन से, किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाए, इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते हैं।
‘संस्थिति’ का अर्थ है—इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख, आकृति, आकार, मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
‘विगति’ कहते हैं—गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं, उनको जानना विगति कहा जाता है। ‘प्रगति’ कहते हैं—उपासना काल में साधक केमन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु, मित्र, माता- पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते से उपास्य देव को मानना हो, उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने के लिए प्रमुख ध्यानावस्था में विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा अपनी आन्तरिक भावनाओं को इष्टदेव के सम्मुख उपस्थित करना ‘प्रगति’ कहलाती है।
‘संस्मिति’ वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य, उपासक और उपास्य एक हो जाते हैं; दोनों में कोई भेद नहीं रहता है। भृंग कीट की सी तन्मयता, द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी, उपास्य और उपासक का अभेद, मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ, ऐसी अनुभूति का होना संस्मिति है। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है, उसे ‘संस्मिति’ कहते हैं।
एक ही इष्टदेव के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से ध्यान किए जाते हैं। साधक की आयु, स्थिति, मनोभूमि, वर्ण, संस्कार आदि के विचार से भी ध्यान की विधियों में स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति एवं संस्मिति की जो कई महत्त्वपूर्ण पद्धतियाँ हैं, उनका सविस्तार वर्णन इन पृष्ठों में नहीं हो सकता। यहाँ तो हमारा प्रयोजन मनोमय कोश को व्यवस्थित बनाने के लिए ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि बताना मात्र है। इसके लिए कुछ ध्यान नीचे दिए जाते हैं—
(१) चिकने पत्थर की या धातु की सुन्दर- सी गायत्री प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गन्ध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों से पूजन कीजिए। इस प्रकार नित्यप्रति पूजन आरम्भिक साधकों के लिए श्रद्धा बढ़ाने वाला, मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधक में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान यह पार्थिव पूजन ही है। मन्दिरों में मूर्तिपूजा का आधार यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।
(२) शुद्ध होकर पूर्व की ओर मुँह करके, कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैठिए। सामने गायत्री का चित्र रख लीजिए। विशेष मनोयोगपूर्वक उसी मुखाकृति या अंग- प्रत्यंगों को देखिए। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र की बारीकियाँ भी ध्यानावस्था में भलीभाँति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टाङ्ग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
(३) एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए। ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है, केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य पूर्व दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में विशेष मनोयोगपूर्वक देखिए। उसके बीच में हंसारूढ़ माता गायत्री की धुँधली- सी छवि दृष्टिगोचर होगी। अभ्यास से धीरे- धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।
(४) भावना कीजिए कि इस गायत्री- सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही हैं और वे रोमकूपों में होकर प्रवेश हुई आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।
(५) दिव्य तेजयुक्त, अत्यन्त सुन्दर, इतनी सुन्दर जितनी कि आप अधिक से अधिक कल्पना कर सकते हों, आकाश में दिव्य वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित माता का ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने की सुविधा होती है। माता के एक- एक अंग को विशेष मनोयोगपूर्वक देखिए। उसकी मुखाकृति, चितवन, मुस्कान, भाव- भंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए। माता अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मनःक्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेंगी।
(६) शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर शरीर की नस- नाड़ियों को निर्जीव की भाँति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे से निकलकर एक नीलवर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा की तरह अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क या हृदय में ऋतम्भरा बुद्धि के रूप में, तरण- तारिणी प्रज्ञा के रूप में प्रवेश कर रही है। उस परम दिव्य, परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय में सद्भाव और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहे हैं जैसे समुद्र में ज्वार- भाटा उमड़ते हैं। वह ध्रुव तारा, जो इस दिव्य धारा का प्रेरक है, सत्लोकवासिनी गायत्री माता ही है। भावना कीजिए कि जैसे बालक अपनी माता की गोद में खेलता और क्रीड़ा करता है, वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।
(७) मेरुदण्ड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भ्रूमध्य भाग (भृकुटि) में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत् की भाँति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषण एवं जागरण कर रही है, ऐसा विश्वास कीजिए।
(८) भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है, उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजोमयी माता विराजमान है और घोड़ों की लगाम उसने अपने हाथ में थाम रखी है। जो घोड़ा बिचकता है, वह चाबुक से उसका अनुशासन करती है और लगाम झटककर उसको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ- प्रदर्शन करती है। घोड़े भी माता से आतंकित होकर उसके अंकुश को स्वीकार करते हैं।
(९) हृदय स्थान के निकट, सूर्यचक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश का ध्यान कीजिए। यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें माता की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा के वस्तु स्वरूप की झाँकी होती है। आत्मसाक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्यचक्र ही है।
(१०) ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग, मनःक्षेत्र उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है। अपने समस्त पाप- ताप, विकार- संस्कार जल गए हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।
ऊपर कुछ सुगम एवं सर्वोपयोगी ध्यान बताए गए हैं। ये सरल और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना उत्तम है। वैसे अवकाश के अन्य समयों में भी जब चित्त शान्त हो, इन ध्यानों में से अपनी रुचि के अनुकूल ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है। साथ ही उपासना का आध्यात्मिक लाभ भी मिलने से यह ध्यान दोहरा हित साधन करते हैं।