Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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गायत्री और ब्रह्म की एकता
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गायत्री कोई स्वतन्त्र देवी- देवता नहीं है। यह तो परब्रह्म परमात्मा का क्रिया भाग है। ब्रह्म निर्विकार है, अचिन्त्य है, बुद्धि से परे है, साक्षी रूप है, परन्तु अपनी क्रियाशील चेतना शक्ति रूप होने के कारण उपासनीय है और उस उपासना का अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त होता है। ईश्वर- भक्ति, ईश्वर- उपासना, ब्रह्म- साधना, आत्म- साक्षात्कार, ब्रह्म- दर्शन, प्रभुपरायणता आदि पुरुषवाची शब्दों का जो तात्पर्य और उद्देश्य है, वही ‘गायत्री उपासना’ आदि स्त्री वाची शब्दों का मन्तव्य है।
गायत्री उपासना वस्तुत: ईश्वर उपासना का एक अत्युत्तम सरल और शीघ्र सफल होने वाला मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति एक सुरम्य उद्यान से होते हुए जीवन के चरम लक्ष्य ‘ईश्वर प्राप्ति’ तक पहुँचते हैं। ब्रह्म और गायत्री में केवल शब्दों का अन्तर है, वैसे दोनों ही एक हैं। इस एकता के कुछ प्रमाण नीचे देखिए—
गायत्री छन्दसामहम्। —श्रीमद् भगवद् गीता अ० १०.३५
छन्दों में मैं गायत्री हूँ।
भूर्भुव: स्वरिति चैव चतुर्विंशाक्षरा तथा।
गायत्री चतुरोवेदा ओंकार: सर्वमेव तु॥ —बृ० यो० याज्ञ० २/६६
भूर्भुव: स्व: यह तीन महाव्याहृतियाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चारों वेद निस्सन्देह ओंकार (ब्रह्म) स्वरूप हैं।
देवस्य सवितुर्यस्य धियो यो न: प्रचोदयात्।
भर्गो वरेण्यं तद्ब्रह्म धीमहीत्यथ उच्यते॥ —विश्वामित्र
उस दिव्य तेजस्वी ब्रह्म का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करता है।
अथो वदामि गायत्रीं तत्त्वरूपां त्रयीमयीम्।
यया प्रकाश्यते ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम्॥ —गायत्री तत्त्व० श्लोक १
त्रिवेदमयी (वेदत्रयी) तत्त्व स्वरूपिणी गायत्री को मैं कहता हूँ, जिससे सच्चिदानन्द लक्षण वाला ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात् ज्ञात होता है।
गायत्री वा इदं सर्वम्। —नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/३
यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है।
गायत्री परमात्मा। —गायत्रीतत्त्व०
गायत्री (ही) परमात्मा है।
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है।
सप्रभं सत्यमानन्दं हृदये मण्डलेऽपि च।
ध्यायञ्जपेत्तदित्येतन्निष्कामो मुच्यतेऽचिरात्॥ —विश्वामित्र
प्रकाश सहित सत्यानन्द स्वरूप ब्रह्म को हृदय में और सूर्य मण्डल में ध्यान करता हुआ, कामना रहित हो गायत्री मन्त्र को यदि जपे, तो अविलम्ब संसार के आवागमन से छूट जाता है।
ओंकारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री स्यात्तदक्षरम्। —कूर्म पुराण उ० विभा० अ० १४/५७
ओंकार परब्रह्म स्वरूप है और गायत्री भी अविनाशी ब्रह्म है।
गायत्री तु परं तत्त्वं गायत्री परमागति:। —बृहत्पाराशर गायत्री मन्त्र पुरश्चरण वर्णनम् ४/४
गायत्री परम तत्त्व है, गायत्री परम गति है।
सर्वात्मा हि सा देवी सर्वभूतेषु संस्थिता।
गायत्री मोक्षहेतुश्च मोक्षस्थानमसंशयम्॥ —ऋषि शृंग
यह गायत्री देवी समस्त प्राणियों में आत्मा रूप में विद्यमान है, गायत्री मोक्ष का मूल कारण तथा सन्देह रहित मुक्ति का स्थान है।
गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:।
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
गायत्री ही दूसरे विष्णु हैं और शंकर जी दूसरे गायत्री ही हैं। ब्रह्माजी भी गायत्री में परायण हैं, क्योंकि गायत्री तीनों देवों का स्वरूप है।
गायत्री परदेवतेति गदिता ब्रह्मवै चिद्रूपिणी॥ ३॥ —गायत्री पुरश्चरण प०
गायत्री परम श्रेष्ठ देवता और चित्त रूपी ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है।
गायत्री वा इदं सर्वं भूतं यदिदं किंच। —छान्दोग्योपनिषद् ३/१२/१
यह विश्व जो कुछ भी है, वह समस्त गायत्रीमय है।
नभिन्नां प्रतिपद्येत गायत्रीं ब्रह्मणा सह।
सोऽहमस्मीत्युपासीत विधिना येन केनचित् —व्यास
गायत्री और ब्रह्म में भिन्नता नहीं है। अत: चाहे जिस किसी भी प्रकार से ब्रह्म स्वरूपी गायत्री की उपासना करे।
गायत्री प्रत्यग्ब्रह्मौक्यबोधिका। —शकंर भाष्य
गायत्री प्रत्यक्ष अद्वैत ब्रह्म की बोधिका है।
परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाणपददायिनी।
ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठतृ देवता —— देवी भागवत स्कन्ध ९ अ.१/४२
गायत्री मोक्ष देने वाली, परमात्मस्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मन्त्रों की अधिष्ठात्री है।
गायत्र्याख्यं ब्रह्म गायत्र्यनुगतं गायत्री मुखेनोक्तम्॥ —छान्दोग्य० शकंर भाष्य ३/१२/१५
गायत्री स्वरूप एवं गायत्री से प्रकाशित होने वाला ब्रह्म गायत्री नाम से वर्णित है।
प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च।
उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठित —— तारानाथ कृ० गाय० व्या० पृ० २५
प्रणव, व्याहृति और गायत्री इन तीनों से परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए, उस ब्रह्म में आत्मा स्थित है।
ते वा एते पचं ब्रह्मपुरुषा: स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपा: स य एतानेवं पचं ब्रह्मपुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान् वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गलोकम्। —— छा० ३/१३/६
हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं। इन्हीं को वश में करे, जिससे हृदयस्थित गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो। उपासना करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है।
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टवक्षराण्यष्टक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत्स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद। —बृह० ५/१४/१
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ- ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। अत: जो गायत्री के प्रथम पद को भी जान लेता है, वह त्रिलोक विजयी होता है।
स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, सद्वितीयमैच्छत्। सहैतावानास। यथा स्त्रीपुमान्सौ संपरिष्वक्तौ स। इममेवात्मानं द्वेधा पातयत्तत: पतिश्च पत्नी चाभवताम्। —बृह० १/४/३
वह ब्रह्म रमण न कर सका, क्योंकि अकेला था। अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसका स्वरूप संयुक्त स्त्री- पुरुष की भाँति था। उसने दूसरे की इच्छा की तथा अपने संयुक्त रूप को द्विधा विभक्त किया, तब दोनों रूप पत्नी और पति भाव को प्राप्त हुए।
निर्गुण: परमात्मा तु त्वदाश्रयतया स्थित:।
तस्य भट्टरिकासि त्वं भुवनेश्वरि! भोगदा॥ —शक्ति दर्शन
परमात्मा निर्गुण है और तेरे ही आश्रित ठहरा हुआ है। तू ही उसकी साम्राज्ञी और भोगदा है।
शक्तिश्च शक्तिमद्रूपाद् व्यतिरेकं न वाञ्छति।
तादात्म्यमनयोर्नित्यं वह्निदाहिकयोरिव॥ — शक्ति दर्शन
शक्ति, शक्तिमान से कभी पृथक् नहीं रहती। इन दोनों का नित्य सम्बन्ध है। जैसे अग्रि और दाहक शक्ति का नित्य परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार शक्तिमान् का भी है।
सदैकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदैव ममास्य च।
योऽसौ साहमहं योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात्॥ —देवी भागवत पु० ३/६/२
शक्ति का और उस शक्तिमान् पुरुष का सदा सम्बन्ध है, कभी भेद नहीं है। जो वह है, सो मैं हूँ और जो मैं हूँ, सो वह है। यदि भेद है, तो केवल बुद्धि का भ्रम है।
जगन्माता च प्रकृति: पुरुषश्च जगत्पिता।
गरीयसी त्रिजगतां माता शतगुणै: पितु:॥ — ब्र० वै० पु० कृ० ज० अ० ५२/३४
संसार की जन्मदात्री प्रकृति है और जगत् का पालनकर्ता या रक्षा करने वाला पुरुष है। जगत् में पिता से माता सौ गुनी अधिक श्रेष्ठ है।
इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म ही गायत्री है और उसकी उपासना ब्रह्म प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।
गायत्री उपासना वस्तुत: ईश्वर उपासना का एक अत्युत्तम सरल और शीघ्र सफल होने वाला मार्ग है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति एक सुरम्य उद्यान से होते हुए जीवन के चरम लक्ष्य ‘ईश्वर प्राप्ति’ तक पहुँचते हैं। ब्रह्म और गायत्री में केवल शब्दों का अन्तर है, वैसे दोनों ही एक हैं। इस एकता के कुछ प्रमाण नीचे देखिए—
गायत्री छन्दसामहम्। —श्रीमद् भगवद् गीता अ० १०.३५
छन्दों में मैं गायत्री हूँ।
भूर्भुव: स्वरिति चैव चतुर्विंशाक्षरा तथा।
गायत्री चतुरोवेदा ओंकार: सर्वमेव तु॥ —बृ० यो० याज्ञ० २/६६
भूर्भुव: स्व: यह तीन महाव्याहृतियाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चारों वेद निस्सन्देह ओंकार (ब्रह्म) स्वरूप हैं।
देवस्य सवितुर्यस्य धियो यो न: प्रचोदयात्।
भर्गो वरेण्यं तद्ब्रह्म धीमहीत्यथ उच्यते॥ —विश्वामित्र
उस दिव्य तेजस्वी ब्रह्म का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करता है।
अथो वदामि गायत्रीं तत्त्वरूपां त्रयीमयीम्।
यया प्रकाश्यते ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम्॥ —गायत्री तत्त्व० श्लोक १
त्रिवेदमयी (वेदत्रयी) तत्त्व स्वरूपिणी गायत्री को मैं कहता हूँ, जिससे सच्चिदानन्द लक्षण वाला ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात् ज्ञात होता है।
गायत्री वा इदं सर्वम्। —नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/३
यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है।
गायत्री परमात्मा। —गायत्रीतत्त्व०
गायत्री (ही) परमात्मा है।
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है।
सप्रभं सत्यमानन्दं हृदये मण्डलेऽपि च।
ध्यायञ्जपेत्तदित्येतन्निष्कामो मुच्यतेऽचिरात्॥ —विश्वामित्र
प्रकाश सहित सत्यानन्द स्वरूप ब्रह्म को हृदय में और सूर्य मण्डल में ध्यान करता हुआ, कामना रहित हो गायत्री मन्त्र को यदि जपे, तो अविलम्ब संसार के आवागमन से छूट जाता है।
ओंकारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री स्यात्तदक्षरम्। —कूर्म पुराण उ० विभा० अ० १४/५७
ओंकार परब्रह्म स्वरूप है और गायत्री भी अविनाशी ब्रह्म है।
गायत्री तु परं तत्त्वं गायत्री परमागति:। —बृहत्पाराशर गायत्री मन्त्र पुरश्चरण वर्णनम् ४/४
गायत्री परम तत्त्व है, गायत्री परम गति है।
सर्वात्मा हि सा देवी सर्वभूतेषु संस्थिता।
गायत्री मोक्षहेतुश्च मोक्षस्थानमसंशयम्॥ —ऋषि शृंग
यह गायत्री देवी समस्त प्राणियों में आत्मा रूप में विद्यमान है, गायत्री मोक्ष का मूल कारण तथा सन्देह रहित मुक्ति का स्थान है।
गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:।
गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
गायत्री ही दूसरे विष्णु हैं और शंकर जी दूसरे गायत्री ही हैं। ब्रह्माजी भी गायत्री में परायण हैं, क्योंकि गायत्री तीनों देवों का स्वरूप है।
गायत्री परदेवतेति गदिता ब्रह्मवै चिद्रूपिणी॥ ३॥ —गायत्री पुरश्चरण प०
गायत्री परम श्रेष्ठ देवता और चित्त रूपी ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है।
गायत्री वा इदं सर्वं भूतं यदिदं किंच। —छान्दोग्योपनिषद् ३/१२/१
यह विश्व जो कुछ भी है, वह समस्त गायत्रीमय है।
नभिन्नां प्रतिपद्येत गायत्रीं ब्रह्मणा सह।
सोऽहमस्मीत्युपासीत विधिना येन केनचित् —व्यास
गायत्री और ब्रह्म में भिन्नता नहीं है। अत: चाहे जिस किसी भी प्रकार से ब्रह्म स्वरूपी गायत्री की उपासना करे।
गायत्री प्रत्यग्ब्रह्मौक्यबोधिका। —शकंर भाष्य
गायत्री प्रत्यक्ष अद्वैत ब्रह्म की बोधिका है।
परब्रह्मस्वरूपा च निर्वाणपददायिनी।
ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठतृ देवता —— देवी भागवत स्कन्ध ९ अ.१/४२
गायत्री मोक्ष देने वाली, परमात्मस्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मन्त्रों की अधिष्ठात्री है।
गायत्र्याख्यं ब्रह्म गायत्र्यनुगतं गायत्री मुखेनोक्तम्॥ —छान्दोग्य० शकंर भाष्य ३/१२/१५
गायत्री स्वरूप एवं गायत्री से प्रकाशित होने वाला ब्रह्म गायत्री नाम से वर्णित है।
प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च।
उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठित —— तारानाथ कृ० गाय० व्या० पृ० २५
प्रणव, व्याहृति और गायत्री इन तीनों से परम ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए, उस ब्रह्म में आत्मा स्थित है।
ते वा एते पचं ब्रह्मपुरुषा: स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपा: स य एतानेवं पचं ब्रह्मपुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपान् वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्गलोकम्। —— छा० ३/१३/६
हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं। इन्हीं को वश में करे, जिससे हृदयस्थित गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो। उपासना करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है।
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टवक्षराण्यष्टक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत्स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद। —बृह० ५/१४/१
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ- ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं। अत: जो गायत्री के प्रथम पद को भी जान लेता है, वह त्रिलोक विजयी होता है।
स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, सद्वितीयमैच्छत्। सहैतावानास। यथा स्त्रीपुमान्सौ संपरिष्वक्तौ स। इममेवात्मानं द्वेधा पातयत्तत: पतिश्च पत्नी चाभवताम्। —बृह० १/४/३
वह ब्रह्म रमण न कर सका, क्योंकि अकेला था। अकेला कोई भी रमण नहीं कर सकता। उसका स्वरूप संयुक्त स्त्री- पुरुष की भाँति था। उसने दूसरे की इच्छा की तथा अपने संयुक्त रूप को द्विधा विभक्त किया, तब दोनों रूप पत्नी और पति भाव को प्राप्त हुए।
निर्गुण: परमात्मा तु त्वदाश्रयतया स्थित:।
तस्य भट्टरिकासि त्वं भुवनेश्वरि! भोगदा॥ —शक्ति दर्शन
परमात्मा निर्गुण है और तेरे ही आश्रित ठहरा हुआ है। तू ही उसकी साम्राज्ञी और भोगदा है।
शक्तिश्च शक्तिमद्रूपाद् व्यतिरेकं न वाञ्छति।
तादात्म्यमनयोर्नित्यं वह्निदाहिकयोरिव॥ — शक्ति दर्शन
शक्ति, शक्तिमान से कभी पृथक् नहीं रहती। इन दोनों का नित्य सम्बन्ध है। जैसे अग्रि और दाहक शक्ति का नित्य परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार शक्तिमान् का भी है।
सदैकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदैव ममास्य च।
योऽसौ साहमहं योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात्॥ —देवी भागवत पु० ३/६/२
शक्ति का और उस शक्तिमान् पुरुष का सदा सम्बन्ध है, कभी भेद नहीं है। जो वह है, सो मैं हूँ और जो मैं हूँ, सो वह है। यदि भेद है, तो केवल बुद्धि का भ्रम है।
जगन्माता च प्रकृति: पुरुषश्च जगत्पिता।
गरीयसी त्रिजगतां माता शतगुणै: पितु:॥ — ब्र० वै० पु० कृ० ज० अ० ५२/३४
संसार की जन्मदात्री प्रकृति है और जगत् का पालनकर्ता या रक्षा करने वाला पुरुष है। जगत् में पिता से माता सौ गुनी अधिक श्रेष्ठ है।
इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म ही गायत्री है और उसकी उपासना ब्रह्म प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है।