Books - गायत्री महाविज्ञान
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सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
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पृष्ट संख्या:
1
2
सदैव शुभ गायत्री यज्ञ
गायत्री अनुष्ठान के अन्त में या किसी भी शुभ अवसर पर गायत्री यज्ञ करना चाहिए। जिस प्रकार वेदमाता की सरलता, सौम्यता, वत्सलता, सुशीलता प्रसिद्ध है, उसी प्रकार गायत्री हवन भी अत्यन्त सुगम है। इसके लिए बड़ी भारी मीन- मेख निकालने की या कर्मकाण्डी पण्डितों का ही आश्रय लेने की अनिवार्यता नहीं है। साधारण बुद्धि के साधक इसको भली प्रकार कर सकते हैं।
कुण्ड खोदकर या वेदी बनाकर दोनों ही प्रकार से हवन किया जा सकता है। निष्काम बुद्धि से आत्मकल्याण के लिए किए जाने वाले हवन, कुण्ड खोदकर करना ठीक है और किसी कामना से मनोरथ की पूर्ति के लिए किए जाने वाले यज्ञ वेदी पर किए जाने चाहिए। कुण्ड या वेदी की लम्बाई- चौड़ाई साधक की अँगुली से चौबीस- चौबीस अंगुल होनी चाहिए। कुण्ड खोदा जाए तो उसे चौबीस अंगुल ही गहरा भी खोदना चाहिए और इस प्रकार तिरछा खोदना चाहिए कि नीचे पहुँचते- पहुँचते छ: अंगुल चौड़ा और छ: अंगुल लम्बा रह जाए। वेदी बनानी हो तो पीली मिट्टी की चार अंगुल ऊँची वेदी चौबीस- चौबीस अंगुल लम्बी- चौड़ी बनानी चाहिए। वेदी या कुण्ड को हवन करने से दो घण्टे पूर्व पानी से इस प्रकार लीप देना चाहिए कि वह समतल हो जाए, ऊँचाई- नीचाई अधिक न रहे। कुण्ड या वेदी से चार अंगुल हटकर एक छोटी- सी नाली दो अंगुल गहरी खोदकर उसमें पानी भर देना चाहिए। वेदी या कुण्ड के आस- पास गेहूँ का आटा, हल्दी, रोली आदि मांगलिक द्रव्यों से चौक पूरकर अपनी कलाप्रियता का परिचय देना चाहिए।
यज्ञ स्थल को अपनी सुविधानुसार मण्डप, पुष्प, पल्लव आदि से जितना सुन्दर एवं आकर्षक बनाया जा सके उतना अच्छा है। वेदी या कुण्ड के ईशान कोण में कलश स्थापित करना चाहिए। मिट्टी या उत्तम धातु के बने हुए कलश में पवित्र जल भरकर उसके मुख में आम्रपल्लव रखें और ऊपर ढक्कन में चावल, गेहूँ का आटा, मिष्ठान्न अथवा कोई अन्य मांगलिक द्रव्य रख देना चाहिए। कलश के चारों ओर हल्दी से स्वस्तिक (सतिया) अंकित कर देना चाहिए। कलश के समीप एक छोटी चौकी या वेदी पर पुष्प और गायत्री की प्रतिमा, पूजन सामग्री रखनी चाहिए। वेदी या कुण्ड के तीन ओर आसन बिछाकर इष्ट- मित्रों, बन्धु- बान्धवों सहित बैठना चाहिए। पूर्व दिशा में जिधर कलश और गायत्री स्थापित है, उधर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण अथवा अपने वयोवृद्ध को आचार्य वरण करके बिठाना चाहिए, वह इस यज्ञ का ब्रह्मा है।
यजमान पहले ब्रह्म के दाहिने हाथ में सूत्र (कलावा) बाँधे, रोली या चन्दन से उनका तिलक करे, चरण स्पर्श करे। तदुपरान्त ब्रह्म उपस्थित सब लोगों को क्रमश: अपने आप बुलाकर उनके दाहिन हाथ में कलावा बाँधे, मस्तक पर रोली का तिलक करे और उनके ऊपर अक्षत छिडक़ कर आशीर्वाद के मङ्गल वचन बोले। यजमान को पश्चिम में बैठना चाहिए। उसका मुख पूर्व को रहे। हवन सामग्री और घृत अधिक हो, तो उसे कई पात्रों में विभाजित करके कई व्यक्ति हवन करने बैठ सकते हैं। सामग्री थोड़ी हो तो यजमान हवन सामग्री अपने पास रखे और उनकी पत्नी घृत पात्र सामने रखकर चम्मच (स्रुवा) सँभाले; पत्नी न हो तो भाई या मित्र घृत पात्र लेकर बैठ सकता है। समिधाएँ सात प्रकार की होती हैं। ये सब प्रकार की न मिल सकें तो जितने प्रकार की मिल सकें, उतने प्रकार की ले लेनी चाहिए। हवन सामग्री त्रिगुणात्मक साधना में आगे दी हुई हैं, वे तीनों गुण वाली लेनी चाहिए, पर आध्यात्मिक हवन हो तो सतोगुणी सामग्री आधी और चौथाई- चौथाई रजोगुणी और तमोगुणी लेनी चाहिए। यदि किसी भौतिक कामना के लिए हवन किया गया हो, तो रजोगुणी आधी और सतोगुणी और तमोगुणी चौथाई- चौथाई लेनी चाहिए। सामग्री भली प्रकार साफ कर धूप में सुखाकर जौकुट कर लेना चाहिए। सामग्रियों में किसी वस्तु के न मिलने पर या कम मिलने पर उसका भाग उसी गुण वाली दूसरी औषधि को मिलाकर पूरा किया जा सकता है।
उपस्थित लोगों में जो हवन की विधि में सम्मिलित हों, वे स्नान किए हुए हों। जो लोग दर्शक हों, वे थोड़ा हटकर बैठें। दोनों के बीच थोड़ा फासला रहना चाहिए। हवन आरम्भ करते हुए यजमान ब्रह्मसन्ध्या के आरम्भ में प्रयोग होने वाले षट्कर्मों—पवीत्रीकरण, आचमन, शिखाबन्धन (शिखावन्दन), प्राणायाम, न्यास एवं पृथ्वीपूजन की क्रियाएँ करें। तत्पश्चात् वेदी या कुण्ड पर समिधाएँ चिनकर कपूर की सहायता से गायत्री मन्त्र के उच्चारण सहित अग्रि प्रज्वलित करें। सब लोग साथ- साथ मन्त्र बोलें और अन्त में ‘स्वाहा’ के साथ घृत तथा सामग्री से हवन करें। आहुति के अन्त में चम्मच में से बचे हुए घृत की एक- एक बूँद पास में रखे हुए जलपात्र में टपकाते जाना चाहिए और ‘इदं गायत्र्यै इदं न मम’ का उच्चारण करना चाहिए।
हवन में साथ- साथ बोलते हुए मधुर स्वर से मन्त्रोच्चार करना उत्तम है। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के अनुसार होने न होने को इस सामूहिक सम्मेलन में शास्त्रकारों ने छूट दी हुई है। आहुतियाँ कम से कम १०८ होनी चाहिए। अधिक इससे दो- तीन या चाहे जितने गुने किये जा सकते हैं। हवन सामग्री कम से कम २५० ग्राम और घृत १०० ग्राम प्रति व्यक्ति होना चाहिए। सामर्थ्यानुसार इससे अधिक चाहे जितना बढ़ाया जा सकता है। ब्रह्म माला लेकर बैठे और आहुतियाँ गिनता रहे। जब पूरा हो जाय तो आहुतियाँ समाप्त करा दें। उस दिन बने हुए पकवान- मिष्ठान्न आदि में से अलौने और मधुर पदार्थ लेने चाहिए। नमक- मिर्च मिले हुए शाक, अचार, रायते आदि को अग्रि में होमने का निषेध है। इस मीठे भोजन में से थोड़ा- थोड़ा भाग लेकर वे सभी लोग चढ़ाएँ जिन्होंने स्नान किया है और हवन में भाग लिया है।
अन्त में एक नारियल की भीतरी गिरी को लेकर उसमें छेद करके सामग्री भरना चाहिए और खड़े होकर पूर्णाहुति के रूप में उसे अग्रि में समर्पित कर देना चाहिए। यदि कुछ सामग्री बची हो तो वह भी सब इसी समय चढ़ा देनी चाहिए। इसके पश्चात् सब लोग खड़े होकर यज्ञ की चार परिक्रमा करें और ‘इदं न मम’ का पानी पर तैरता हुआ घृत उँगली से लेकर दोनों हथेलियों में रगड़ते हुए पलकों व मुखमण्डल पर लगाएँ। हवन की बुझी हुई भस्म लेकर सब लोग मस्तक पर लगाएँ। कीर्तन या भजन गायन करें और प्रसाद वितरण करके सब लोग प्रसन्नता और अभिवादनपूर्वक विदा हों। यज्ञ की सामग्री को दूसरे दिन किसी पवित्र स्थान में विसर्जित करना चाहिए। यह गायत्री यज्ञ अनुष्ठान के अन्त में ही नहीं, अन्य समस्त शुभकर्मों में किया जा सकता है।
प्रयोजन के अनुरूप ही साधन भी जुटाने पड़ते हैं। लड़ाई के लिए युद्ध सामग्री जमा करनी पड़ती है और जिस प्रकार का व्यापार हो, उसके लिए उसी तरह का सामान इकट्ठा करना होता है। भोजन बनाने वाला रसोई सम्बन्धी वस्तुएँ लाकर अपने पास रखता है और कलाकार को अपनी आवश्यक चीज जमा करनी होती है। व्यायाम करने और दफ्तर जाने की पोशाक में अन्तर रहता है। जिस प्रकार की साधना करनी होती है, उसी के अनुरूप, उन्हीं तत्त्वों वाली, उन्हीं प्राणों वाली, उन्हीं गुणों वाली सामग्री उपयोग में लानी होती है। सबसे प्रथम यह देखना चाहिए कि हमारी साधना किस उद्देश्य के लिए है? सत्, रज, तम में से किस तत्त्व की वृद्धि के लिए है? जिस प्रकार की साधना हो, उसी प्रकार की साधना- सामग्री व्यवहृत करनी चाहिए। नीचे इस सम्बन्ध में एक विवरण दिया जाता है — सतोगुण- माला- तुलसी। आसन- कुश। पुष्प- श्वेत। पात्र- ताँबा। वस्त्र- सूती (खादी)। मुख- पूर्व को। दीपक में घृत- गौ घृत। तिलक- चन्दन। हवन में समिधा- पीपल, बड़, गूलर। हवन सामग्री- श्वेत चन्दन, अगर, छोटी इलायची, लौंग, शंखपुष्पी, ब्राह्मणी, शतावरी, खस, शीतलचीनी, आँवला, इन्द्रजौ, वंशलोचन, जावित्री, गिलोय, वच, नेत्रवाला, मुलहठी, कमल, केशर, बड़ की जटाएँ, नारियल, बादाम, दाख, जौ, मिश्री। रजोगुण- माला- चन्दन। आसन- सूत। पुष्प- पीले। पात्र- काँसा। वस्त्र- रेशम। मुख- उत्तर को। दीपक में घृत- भैंस का घृत। तिलक- रोली। समिधा- आम, ढाक, शीशम। हवन सामग्री- देवदारु, बड़ी इलायची, केसर, छार- छबीला, पुनर्नवा, जीवन्ती, कचूर, तालीस पत्र, रास्ना, नागरमोथा, उन्नाव, तालमखाना, मोचरस, सौंफ, चित्रक, दालचीनी, पद्माख, छुआरा, किशमिश, चावल, खाँड़। तमोगुण- माला- रुद्राक्ष। आसन- ऊन। पुष्प- हरे या गहरे लाल। पात्र- लोहा। वस्त्र- ऊन। मुख- पश्चिम को, दीपक में घृत- बकरी का घृत। तिलक- भस्म का।
समिधा- बेल, छौंकर, करील। सामग्री- रक्त चन्दन, तगर, असगन्ध, जायफल, कमलगट्टा, नागकेशर, पीपल बड़ी, कुटकी, चिरायता, अपामार्ग, काकड़ासिंगी, पोहकरमूल, कुलञ्जन, मूसली स्याह, मेथी के बीज, काकजंघा, भारंगी, अकरकरा, पिस्ता, अखरोट, चिरौंजी, तिल, उड़द, गुड़। गुणों के अनुसार साधन- सामग्री उपयोग करने से साधक में उन्हीं गुणों की अभिवृद्धि होती है, तदनुसार सफलता का मार्ग अधिक सुगम हो जाता है। नवदुर्गाओं में गायत्री साधना यों तो वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म- ये छ: ऋतुएँ होती हैं और मोटे तौर से सर्दी, गर्मी, वर्षा ये तीन ऋतु मानी जाती हैं, पर वस्तुत: दो ही ऋतु हैं- (१) सर्दी (२) गर्मी। वर्षा तो दोनों ऋतुओं में होती है। गर्मियों मे मेघ सावन- भादों मे बरसते हैं, सर्दियों में पौष- माघ में वर्षा होती है। गर्मियों की वर्षा में अधिक पानी पड़ता है, सर्दियों में कम। इतना अन्तर होते हुए भी दोनों ही बार पानी पडऩे की आशा की जाती है। इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलने की सन्धि वेला को नवदुर्गा कहते हैं।
दिन और रात के मिलन काल को सन्ध्याकाल कहते हैं और उस महत्त्वपूर्ण सन्ध्याकाल को बड़ी सावधानी से बिताते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भोजन करना, सोते रहना, मैथुन करना, यात्रा आरम्भ करना आदि कितने ही कार्य वर्जित हैं। उस समय को ईश्वराराधन, सन्ध्यावन्दन, आत्मसाधना आदि कार्यों में लगाते हैं, क्योंकि वह समय जिन कार्यों के लिये सूक्ष्म दृष्टि से अधिक उपयोगी है, वही कार्य करने में थोड़े ही श्रम से अधिक और आश्चर्यजनक सहायता मिलती है। इसी प्रकार जो कार्य वर्जित हैं, वे उस समय में अन्य समयों की अपेक्षा हानिकारक होते हैं। सर्दी और गर्मी की ऋतुओं का मिलन दिन और रात्रि के मिलन के समान सन्ध्याकाल है, पुण्य पर्व है। पुराणों में कहा है कि ऋतुएँ नौ दिन के लिए ऋतुमयी, रजस्वला होती हैं। जैसे रजस्वला को विशेष आहार- विहार और आचार- विचार आदि का ध्यान रखना आवश्यक होता है, वैसे ही उस सन्ध्याकाल की सन्धि वेला में- रजस्वला अवधि में विशेष स्थिति में रहने की आवश्यकता होती है। आरोग्य शास्त्र के पण्डित जानते हैं कि आश्विन और चैत्र में जो सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव शरीर पर कितनी अधिक मात्रा में होता है।
उस प्रभाव से स्वास्थ्य की दीवारें हिल जाती हैं और अनेक व्यक्ति ज्वर, जूड़ी, हैजा, दस्त, चेचक, अवसाद आदि अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। वैद्य- डॉक्टरों के दवाखानों में उन दिनों बीमारों का मेला लगा रहता है। वैद्य लोग जानते हैं कि वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, वस्ति, रक्तमोक्षण आदि शरीर- शोधन कार्यों के लिये आश्विन और चैत्र का महीना ही सबसे उपयुक्त है। इस समय में दशहरा और रामनवमी जैसे दो प्रमुख त्योहार नवदुर्गाओं के अन्त में होते हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहारों के लिये यही समय सबसे उपयुक्त है। नवदुर्गाओं के अन्त में भगवती दुर्गा प्रकट हुईं। चैत्र की नवदुर्गाओं के अन्त में भगवान् राम का अवतार हुआ। यह अमावस्या- पूर्णमासी की सन्ध्या उषा जैसी ही है, जिनके अन्त में सूर्य या चन्द्रमा का उदय होता है। ऋतु परिवर्तन का अवसर वैसे सामान्य दृष्टि से तो कष्टकारक, हानिप्रद जान पड़ता है। उस समय अधिकांश लोगों को कुछ न कुछ शारीरिक कष्ट, कोई छोटा- बड़ा रोग हो जाता है; पर वास्तव में बात उलटी होती है। उस समय शारीरिक जीवन शक्ति में ज्वर की सी अवस्था उत्पन्न होती है और उसके प्रभाव से पिछले छ: मास में आहार- विहार में जो अनियमिततायें हुई हैं, हमने कुअभ्यास या स्वादवश जो अनुचित और अतिरिक्त सामग्री ग्रहण करके दूषित तत्त्वों को बढ़ाया, वह शक्ति उनके निराकरण का उद्योग करने में लगती है।
यही दोष निष्कासन की प्रतिक्रिया सामान्य जूड़ी- बुखार, जुकाम- खाँसी आदि के रूप में प्रकट होती है। यदि उपवास या स्वल्प आहार द्वारा शरीर को अपनी सफाई आप कर लेने का मौका दें और जप- उपासना द्वारा मानसिक क्षेत्र के मल- विक्षेपों को दूर करने का प्रयत्न करें, तो आगामी कई महीनों के लिये रोगों से बचकर स्वस्थ जीवन बिताने के योग्य बन सकते हैं। गायत्री का यह लघु अनुष्ठान इस दृष्टि से परमोपयोगी है। क्वार और चैत्र मास के शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गायें रहती हैं। यह समय गायत्री साधना के लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा- सा अनुष्ठान कर लेना चाहिये। यह छोटी साधना भी बड़ी के समान उपयोगी सिद्ध होती है। एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल- दूध का आहार, केवल दूध का आहार, इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यनुकूल हो, उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिये।
प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बैठना चाहिये। नौ दिन में २४ हजार जप करना है। प्रतिदिन २६६७ मन्त्र जपने हैं। एक माला में १०८ होते हैं। प्रतिदिन २७ मालायें जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। तीन- चार घण्टे में अपनी गति के अनुसार इतनी मालायें आसानी से जपी जा सकती हैं। यदि एक बार में इतने समय लगातार जप करना कठिन हो, तो अधिकांश भाग प्रात:काल पूरा करके न्यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिये। अन्तिम दिन हवन के लिये है। उस दिन पूर्व वर्णित हवन के अनुसार कम से कम १०८ आहुतियों का हवन कर लेना चाहिये। ब्राह्मण भोजन और यज्ञ पूर्ति की दान- दक्षिणा की भी यथाविधि व्यवस्था करनी चाहिये। यदि छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में प्रति वर्ष करते रहा जाए तो सबसे उत्तम है। स्वयं न कर सकें तो किसी अधिकारी सुपात्र ब्राह्मण से वह करा लेना चाहिये। ये नौ दिन साधना के लिये बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामनापूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है। पाठक आगामी नवदुर्गाओं के समय एक छोटा अनुष्ठान करके उसका लाभ देखें।
नवदुर्गाओं के अतिरिक्त भी छोटा अनुष्ठान उसी प्रकार कभी भी किया जा सकता है। सवा लक्ष का जप चालीस दिन में होने वाला पूर्ण अनुष्ठान है। नौ दिन का एक पाद (पञ्चमांश) अनुष्ठान कहलाता है। सुविधा और आवश्यकतानुसार उसे भी करते रहना चाहिये। यह तपोधन जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सके, उतना ही उत्तम है। छोटा गायत्री मन्त्र—जैसे सवा लक्ष जप का पूर्ण अनुष्ठान न कर सकने वालों के लिये नौ दिन का चौबीस हजार जप का लघु अनुष्ठान हो सकता है, उसी प्रकार अल्पशिक्षित, अशिक्षित बालक या स्त्रियों के लिये लघु गायत्री मन्त्र भी है। जो २४ अक्षरों का पूर्ण मन्त्र याद नहीं कर पाते, वे प्रणव और व्याहृतियाँ ( ऊँ भूर्भुव: स्व:) इतना पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप करके काम चला सकते हैं। जैसे चारों वेदों का बीज चौबीस अक्षर वाली गायत्री है, वैसे ही गायत्री का मूल पञ्चाक्षरी मन्त्र प्रणव और व्याहृतियाँ हैं। ऊँ भूर्भुव: स्व: यह मन्त्र स्वल्प ज्ञान वालों की सुविधा के लिये बड़ा उपयोगी है।
यज्ञ स्थल को अपनी सुविधानुसार मण्डप, पुष्प, पल्लव आदि से जितना सुन्दर एवं आकर्षक बनाया जा सके उतना अच्छा है। वेदी या कुण्ड के ईशान कोण में कलश स्थापित करना चाहिए। मिट्टी या उत्तम धातु के बने हुए कलश में पवित्र जल भरकर उसके मुख में आम्रपल्लव रखें और ऊपर ढक्कन में चावल, गेहूँ का आटा, मिष्ठान्न अथवा कोई अन्य मांगलिक द्रव्य रख देना चाहिए। कलश के चारों ओर हल्दी से स्वस्तिक (सतिया) अंकित कर देना चाहिए। कलश के समीप एक छोटी चौकी या वेदी पर पुष्प और गायत्री की प्रतिमा, पूजन सामग्री रखनी चाहिए। वेदी या कुण्ड के तीन ओर आसन बिछाकर इष्ट- मित्रों, बन्धु- बान्धवों सहित बैठना चाहिए। पूर्व दिशा में जिधर कलश और गायत्री स्थापित है, उधर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण अथवा अपने वयोवृद्ध को आचार्य वरण करके बिठाना चाहिए, वह इस यज्ञ का ब्रह्मा है।
यजमान पहले ब्रह्म के दाहिने हाथ में सूत्र (कलावा) बाँधे, रोली या चन्दन से उनका तिलक करे, चरण स्पर्श करे। तदुपरान्त ब्रह्म उपस्थित सब लोगों को क्रमश: अपने आप बुलाकर उनके दाहिन हाथ में कलावा बाँधे, मस्तक पर रोली का तिलक करे और उनके ऊपर अक्षत छिडक़ कर आशीर्वाद के मङ्गल वचन बोले। यजमान को पश्चिम में बैठना चाहिए। उसका मुख पूर्व को रहे। हवन सामग्री और घृत अधिक हो, तो उसे कई पात्रों में विभाजित करके कई व्यक्ति हवन करने बैठ सकते हैं। सामग्री थोड़ी हो तो यजमान हवन सामग्री अपने पास रखे और उनकी पत्नी घृत पात्र सामने रखकर चम्मच (स्रुवा) सँभाले; पत्नी न हो तो भाई या मित्र घृत पात्र लेकर बैठ सकता है। समिधाएँ सात प्रकार की होती हैं। ये सब प्रकार की न मिल सकें तो जितने प्रकार की मिल सकें, उतने प्रकार की ले लेनी चाहिए। हवन सामग्री त्रिगुणात्मक साधना में आगे दी हुई हैं, वे तीनों गुण वाली लेनी चाहिए, पर आध्यात्मिक हवन हो तो सतोगुणी सामग्री आधी और चौथाई- चौथाई रजोगुणी और तमोगुणी लेनी चाहिए। यदि किसी भौतिक कामना के लिए हवन किया गया हो, तो रजोगुणी आधी और सतोगुणी और तमोगुणी चौथाई- चौथाई लेनी चाहिए। सामग्री भली प्रकार साफ कर धूप में सुखाकर जौकुट कर लेना चाहिए। सामग्रियों में किसी वस्तु के न मिलने पर या कम मिलने पर उसका भाग उसी गुण वाली दूसरी औषधि को मिलाकर पूरा किया जा सकता है।
उपस्थित लोगों में जो हवन की विधि में सम्मिलित हों, वे स्नान किए हुए हों। जो लोग दर्शक हों, वे थोड़ा हटकर बैठें। दोनों के बीच थोड़ा फासला रहना चाहिए। हवन आरम्भ करते हुए यजमान ब्रह्मसन्ध्या के आरम्भ में प्रयोग होने वाले षट्कर्मों—पवीत्रीकरण, आचमन, शिखाबन्धन (शिखावन्दन), प्राणायाम, न्यास एवं पृथ्वीपूजन की क्रियाएँ करें। तत्पश्चात् वेदी या कुण्ड पर समिधाएँ चिनकर कपूर की सहायता से गायत्री मन्त्र के उच्चारण सहित अग्रि प्रज्वलित करें। सब लोग साथ- साथ मन्त्र बोलें और अन्त में ‘स्वाहा’ के साथ घृत तथा सामग्री से हवन करें। आहुति के अन्त में चम्मच में से बचे हुए घृत की एक- एक बूँद पास में रखे हुए जलपात्र में टपकाते जाना चाहिए और ‘इदं गायत्र्यै इदं न मम’ का उच्चारण करना चाहिए।
हवन में साथ- साथ बोलते हुए मधुर स्वर से मन्त्रोच्चार करना उत्तम है। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के अनुसार होने न होने को इस सामूहिक सम्मेलन में शास्त्रकारों ने छूट दी हुई है। आहुतियाँ कम से कम १०८ होनी चाहिए। अधिक इससे दो- तीन या चाहे जितने गुने किये जा सकते हैं। हवन सामग्री कम से कम २५० ग्राम और घृत १०० ग्राम प्रति व्यक्ति होना चाहिए। सामर्थ्यानुसार इससे अधिक चाहे जितना बढ़ाया जा सकता है। ब्रह्म माला लेकर बैठे और आहुतियाँ गिनता रहे। जब पूरा हो जाय तो आहुतियाँ समाप्त करा दें। उस दिन बने हुए पकवान- मिष्ठान्न आदि में से अलौने और मधुर पदार्थ लेने चाहिए। नमक- मिर्च मिले हुए शाक, अचार, रायते आदि को अग्रि में होमने का निषेध है। इस मीठे भोजन में से थोड़ा- थोड़ा भाग लेकर वे सभी लोग चढ़ाएँ जिन्होंने स्नान किया है और हवन में भाग लिया है।
अन्त में एक नारियल की भीतरी गिरी को लेकर उसमें छेद करके सामग्री भरना चाहिए और खड़े होकर पूर्णाहुति के रूप में उसे अग्रि में समर्पित कर देना चाहिए। यदि कुछ सामग्री बची हो तो वह भी सब इसी समय चढ़ा देनी चाहिए। इसके पश्चात् सब लोग खड़े होकर यज्ञ की चार परिक्रमा करें और ‘इदं न मम’ का पानी पर तैरता हुआ घृत उँगली से लेकर दोनों हथेलियों में रगड़ते हुए पलकों व मुखमण्डल पर लगाएँ। हवन की बुझी हुई भस्म लेकर सब लोग मस्तक पर लगाएँ। कीर्तन या भजन गायन करें और प्रसाद वितरण करके सब लोग प्रसन्नता और अभिवादनपूर्वक विदा हों। यज्ञ की सामग्री को दूसरे दिन किसी पवित्र स्थान में विसर्जित करना चाहिए। यह गायत्री यज्ञ अनुष्ठान के अन्त में ही नहीं, अन्य समस्त शुभकर्मों में किया जा सकता है।
प्रयोजन के अनुरूप ही साधन भी जुटाने पड़ते हैं। लड़ाई के लिए युद्ध सामग्री जमा करनी पड़ती है और जिस प्रकार का व्यापार हो, उसके लिए उसी तरह का सामान इकट्ठा करना होता है। भोजन बनाने वाला रसोई सम्बन्धी वस्तुएँ लाकर अपने पास रखता है और कलाकार को अपनी आवश्यक चीज जमा करनी होती है। व्यायाम करने और दफ्तर जाने की पोशाक में अन्तर रहता है। जिस प्रकार की साधना करनी होती है, उसी के अनुरूप, उन्हीं तत्त्वों वाली, उन्हीं प्राणों वाली, उन्हीं गुणों वाली सामग्री उपयोग में लानी होती है। सबसे प्रथम यह देखना चाहिए कि हमारी साधना किस उद्देश्य के लिए है? सत्, रज, तम में से किस तत्त्व की वृद्धि के लिए है? जिस प्रकार की साधना हो, उसी प्रकार की साधना- सामग्री व्यवहृत करनी चाहिए। नीचे इस सम्बन्ध में एक विवरण दिया जाता है — सतोगुण- माला- तुलसी। आसन- कुश। पुष्प- श्वेत। पात्र- ताँबा। वस्त्र- सूती (खादी)। मुख- पूर्व को। दीपक में घृत- गौ घृत। तिलक- चन्दन। हवन में समिधा- पीपल, बड़, गूलर। हवन सामग्री- श्वेत चन्दन, अगर, छोटी इलायची, लौंग, शंखपुष्पी, ब्राह्मणी, शतावरी, खस, शीतलचीनी, आँवला, इन्द्रजौ, वंशलोचन, जावित्री, गिलोय, वच, नेत्रवाला, मुलहठी, कमल, केशर, बड़ की जटाएँ, नारियल, बादाम, दाख, जौ, मिश्री। रजोगुण- माला- चन्दन। आसन- सूत। पुष्प- पीले। पात्र- काँसा। वस्त्र- रेशम। मुख- उत्तर को। दीपक में घृत- भैंस का घृत। तिलक- रोली। समिधा- आम, ढाक, शीशम। हवन सामग्री- देवदारु, बड़ी इलायची, केसर, छार- छबीला, पुनर्नवा, जीवन्ती, कचूर, तालीस पत्र, रास्ना, नागरमोथा, उन्नाव, तालमखाना, मोचरस, सौंफ, चित्रक, दालचीनी, पद्माख, छुआरा, किशमिश, चावल, खाँड़। तमोगुण- माला- रुद्राक्ष। आसन- ऊन। पुष्प- हरे या गहरे लाल। पात्र- लोहा। वस्त्र- ऊन। मुख- पश्चिम को, दीपक में घृत- बकरी का घृत। तिलक- भस्म का।
समिधा- बेल, छौंकर, करील। सामग्री- रक्त चन्दन, तगर, असगन्ध, जायफल, कमलगट्टा, नागकेशर, पीपल बड़ी, कुटकी, चिरायता, अपामार्ग, काकड़ासिंगी, पोहकरमूल, कुलञ्जन, मूसली स्याह, मेथी के बीज, काकजंघा, भारंगी, अकरकरा, पिस्ता, अखरोट, चिरौंजी, तिल, उड़द, गुड़। गुणों के अनुसार साधन- सामग्री उपयोग करने से साधक में उन्हीं गुणों की अभिवृद्धि होती है, तदनुसार सफलता का मार्ग अधिक सुगम हो जाता है। नवदुर्गाओं में गायत्री साधना यों तो वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त, वसन्त, ग्रीष्म- ये छ: ऋतुएँ होती हैं और मोटे तौर से सर्दी, गर्मी, वर्षा ये तीन ऋतु मानी जाती हैं, पर वस्तुत: दो ही ऋतु हैं- (१) सर्दी (२) गर्मी। वर्षा तो दोनों ऋतुओं में होती है। गर्मियों मे मेघ सावन- भादों मे बरसते हैं, सर्दियों में पौष- माघ में वर्षा होती है। गर्मियों की वर्षा में अधिक पानी पड़ता है, सर्दियों में कम। इतना अन्तर होते हुए भी दोनों ही बार पानी पडऩे की आशा की जाती है। इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलने की सन्धि वेला को नवदुर्गा कहते हैं।
दिन और रात के मिलन काल को सन्ध्याकाल कहते हैं और उस महत्त्वपूर्ण सन्ध्याकाल को बड़ी सावधानी से बिताते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भोजन करना, सोते रहना, मैथुन करना, यात्रा आरम्भ करना आदि कितने ही कार्य वर्जित हैं। उस समय को ईश्वराराधन, सन्ध्यावन्दन, आत्मसाधना आदि कार्यों में लगाते हैं, क्योंकि वह समय जिन कार्यों के लिये सूक्ष्म दृष्टि से अधिक उपयोगी है, वही कार्य करने में थोड़े ही श्रम से अधिक और आश्चर्यजनक सहायता मिलती है। इसी प्रकार जो कार्य वर्जित हैं, वे उस समय में अन्य समयों की अपेक्षा हानिकारक होते हैं। सर्दी और गर्मी की ऋतुओं का मिलन दिन और रात्रि के मिलन के समान सन्ध्याकाल है, पुण्य पर्व है। पुराणों में कहा है कि ऋतुएँ नौ दिन के लिए ऋतुमयी, रजस्वला होती हैं। जैसे रजस्वला को विशेष आहार- विहार और आचार- विचार आदि का ध्यान रखना आवश्यक होता है, वैसे ही उस सन्ध्याकाल की सन्धि वेला में- रजस्वला अवधि में विशेष स्थिति में रहने की आवश्यकता होती है। आरोग्य शास्त्र के पण्डित जानते हैं कि आश्विन और चैत्र में जो सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन होता है, उसका प्रभाव शरीर पर कितनी अधिक मात्रा में होता है।
उस प्रभाव से स्वास्थ्य की दीवारें हिल जाती हैं और अनेक व्यक्ति ज्वर, जूड़ी, हैजा, दस्त, चेचक, अवसाद आदि अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। वैद्य- डॉक्टरों के दवाखानों में उन दिनों बीमारों का मेला लगा रहता है। वैद्य लोग जानते हैं कि वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, वस्ति, रक्तमोक्षण आदि शरीर- शोधन कार्यों के लिये आश्विन और चैत्र का महीना ही सबसे उपयुक्त है। इस समय में दशहरा और रामनवमी जैसे दो प्रमुख त्योहार नवदुर्गाओं के अन्त में होते हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहारों के लिये यही समय सबसे उपयुक्त है। नवदुर्गाओं के अन्त में भगवती दुर्गा प्रकट हुईं। चैत्र की नवदुर्गाओं के अन्त में भगवान् राम का अवतार हुआ। यह अमावस्या- पूर्णमासी की सन्ध्या उषा जैसी ही है, जिनके अन्त में सूर्य या चन्द्रमा का उदय होता है। ऋतु परिवर्तन का अवसर वैसे सामान्य दृष्टि से तो कष्टकारक, हानिप्रद जान पड़ता है। उस समय अधिकांश लोगों को कुछ न कुछ शारीरिक कष्ट, कोई छोटा- बड़ा रोग हो जाता है; पर वास्तव में बात उलटी होती है। उस समय शारीरिक जीवन शक्ति में ज्वर की सी अवस्था उत्पन्न होती है और उसके प्रभाव से पिछले छ: मास में आहार- विहार में जो अनियमिततायें हुई हैं, हमने कुअभ्यास या स्वादवश जो अनुचित और अतिरिक्त सामग्री ग्रहण करके दूषित तत्त्वों को बढ़ाया, वह शक्ति उनके निराकरण का उद्योग करने में लगती है।
यही दोष निष्कासन की प्रतिक्रिया सामान्य जूड़ी- बुखार, जुकाम- खाँसी आदि के रूप में प्रकट होती है। यदि उपवास या स्वल्प आहार द्वारा शरीर को अपनी सफाई आप कर लेने का मौका दें और जप- उपासना द्वारा मानसिक क्षेत्र के मल- विक्षेपों को दूर करने का प्रयत्न करें, तो आगामी कई महीनों के लिये रोगों से बचकर स्वस्थ जीवन बिताने के योग्य बन सकते हैं। गायत्री का यह लघु अनुष्ठान इस दृष्टि से परमोपयोगी है। क्वार और चैत्र मास के शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गायें रहती हैं। यह समय गायत्री साधना के लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा- सा अनुष्ठान कर लेना चाहिये। यह छोटी साधना भी बड़ी के समान उपयोगी सिद्ध होती है। एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल- दूध का आहार, केवल दूध का आहार, इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यनुकूल हो, उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिये।
प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बैठना चाहिये। नौ दिन में २४ हजार जप करना है। प्रतिदिन २६६७ मन्त्र जपने हैं। एक माला में १०८ होते हैं। प्रतिदिन २७ मालायें जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। तीन- चार घण्टे में अपनी गति के अनुसार इतनी मालायें आसानी से जपी जा सकती हैं। यदि एक बार में इतने समय लगातार जप करना कठिन हो, तो अधिकांश भाग प्रात:काल पूरा करके न्यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिये। अन्तिम दिन हवन के लिये है। उस दिन पूर्व वर्णित हवन के अनुसार कम से कम १०८ आहुतियों का हवन कर लेना चाहिये। ब्राह्मण भोजन और यज्ञ पूर्ति की दान- दक्षिणा की भी यथाविधि व्यवस्था करनी चाहिये। यदि छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में प्रति वर्ष करते रहा जाए तो सबसे उत्तम है। स्वयं न कर सकें तो किसी अधिकारी सुपात्र ब्राह्मण से वह करा लेना चाहिये। ये नौ दिन साधना के लिये बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामनापूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है। पाठक आगामी नवदुर्गाओं के समय एक छोटा अनुष्ठान करके उसका लाभ देखें।
नवदुर्गाओं के अतिरिक्त भी छोटा अनुष्ठान उसी प्रकार कभी भी किया जा सकता है। सवा लक्ष का जप चालीस दिन में होने वाला पूर्ण अनुष्ठान है। नौ दिन का एक पाद (पञ्चमांश) अनुष्ठान कहलाता है। सुविधा और आवश्यकतानुसार उसे भी करते रहना चाहिये। यह तपोधन जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सके, उतना ही उत्तम है। छोटा गायत्री मन्त्र—जैसे सवा लक्ष जप का पूर्ण अनुष्ठान न कर सकने वालों के लिये नौ दिन का चौबीस हजार जप का लघु अनुष्ठान हो सकता है, उसी प्रकार अल्पशिक्षित, अशिक्षित बालक या स्त्रियों के लिये लघु गायत्री मन्त्र भी है। जो २४ अक्षरों का पूर्ण मन्त्र याद नहीं कर पाते, वे प्रणव और व्याहृतियाँ ( ऊँ भूर्भुव: स्व:) इतना पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप करके काम चला सकते हैं। जैसे चारों वेदों का बीज चौबीस अक्षर वाली गायत्री है, वैसे ही गायत्री का मूल पञ्चाक्षरी मन्त्र प्रणव और व्याहृतियाँ हैं। ऊँ भूर्भुव: स्व: यह मन्त्र स्वल्प ज्ञान वालों की सुविधा के लिये बड़ा उपयोगी है।