Books - गायत्री महाविज्ञान
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कला साधना - आनन्दमय कोश की साधना
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कला का अर्थ है-किरण। प्रकाश यों तो अत्यन्त सूक्ष्म है, उस पर सूक्ष्मता का ऐसा समूह, जो हमें एक निश्चित प्रकार का अनुभव करावे ‘कला’ कहलाता है। सूर्य से निकलकर अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाश तरंगें भूतल पर आती हैं, उनका एक समूह ही इस योग्य बन पाता है कि नेत्रों से या यन्त्रों से उसका अनुभव किया जा सके। सूर्य किरणों के सात रंग प्रसिद्ध हैं। परमाणुओं के अन्तर्गत जो ‘परमाणु’ होते हैं, उनकी विद्युत् तरंगें जब हमारे नेत्रों से टकराती हैं, तभी किसी रंग रूप का ज्ञान हमें होता है। रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम कला द्वारा ही होता है।
कलाएँ दो प्रकार की होती हैं—
(१) आप्ति, (२) व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं, जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे हैं जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं, इन्हें ‘तेजस्’ भी कहते हैं। वस्तुएँ पञ्चतत्त्वों से बनी होती हैं, इसलिए परमाणु से निकलने वाली किरणें अपने प्रधान तत्त्व की विशेषता भी साथ लिए होती हैं, वह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती है। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इन पञ्चतत्त्वों में कौन सा तत्त्व किस मात्रा में विद्यमान है? स् व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के ‘तेजस्’ में परिलक्षित होती है। यह तेजस् मुख के आस-पास प्रकाश मण्डल की तरह विशेष रूप से फैला होता है। यों तो यह सारे शरीर के आस-पास प्रकाशित रहता है; इसे अंग्रेजी में ‘ऑरा और संस्कृत में ‘तेजोवलय’ कहते हैं। देवताओं के चित्र में उनके मुख के आस-पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है, यह उनकी कला का ही चिह्न है।
अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुराम जी में तीन, रामचन्द्र जी में बारह, कृष्ण जी में सोलह कलाएँ बताई गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनमें साधारण मात्रा में इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी। सूक्ष्मदर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आन्तरिक स्थिति का पता उनके तेजोवलय और रंग, रूप, चमक एवं चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं। ‘कला’ विद्या की जिसे जानकारी है, वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थों को, वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए गुण, प्रभाव एवं महत्त्वों को आसानी से जान लेता है। किस मनुष्य में कितनी कलाएँ हैं, उसमें क्या-क्या शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएँ हैं तथा किन-किन गुण, दोष, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है, यह सहज ही पता चल जाता है। इस जानकारी के होने से किसी व्यक्ति से समुचित सम्बन्ध रखना सरल हो जाता है। कला विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की तात्त्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर इसे आत्मबल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन, परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चित कर सकता है कि उन्नति हो रही है या नहीं, उसे सन्तोषजनक सफलता मिल रही है या नहीं। सब ओर से चित्त हटाकर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग-बिरंगी धज्जियाँ, चिन्दियाँ तथा तितलियाँ सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं।
इनके रंगों का आधार तत्त्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वीतत्त्व का रंग पीला, जल का श्वेत, अग्नि का लाल, वायु का हरा, आकाश का नीला होता है। जिस रंग की झिलमिल होती है, उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हममें किन तत्त्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है। प्रत्येक रंग में अपनी-अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में-क्षमा, गम्भीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में-शान्ति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, वृद्धि, प्रेम। लाल रंग में-गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अनिष्ट, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में-चञ्चलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, जकड़न, दर्द, अपहरण, धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, प्राण पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में-विचारशीलता, बुद्धि सूक्ष्मता, विस्तार, सात्त्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, सम्वर्द्धन, सिञ्चन, आकर्षण आदि गुण होते हैं। जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के प्रकट रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश-ज्योति से यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु या प्राणी का गुण, स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है? साधारणत: यह पाँच तत्त्वों की कला है, जिनके द्वारा यह कार्य हो सकता है—
(१) व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना, (२) अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असन्तुलित किसी गुण-दोष को सन्तुलित करना, (३) दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना, (४) तत्त्वों के मूल आधार पर पहुँचकर तत्त्वों की गतिविधि तथा क्रिया पद्धति को जानना, (५) तत्त्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना। यह उपरोक्त पाँच लाभ ऐसे हैं जिनकी व्याख्या की जाए तो वे ऋद्धि-सिद्धियों के समान आश्चर्यजनक प्रतीत होंगे। ये पाँच भौतिक कलाएँ हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मन्त्रयोगी तथा तान्त्रिक अपने-अपने ढंग से करते हैं और इस तात्त्विक शक्ति का अपने-अपने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग करके भले-बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा सांसारिक भोग वैभव भी मिल सकता है, आत्मकल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं दु:ख-शोक-सन्तप्त भी बनाया जा सकता है। पञ्चतत्त्वों की कलाएँ ऐसी ही प्रभावपूर्ण होती हैं। आत्मिक कलाएँ तीन होती हैं—सत्, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का मध्य केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्यकशिपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोगुणी कलाएँ ब्रह्मा से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, वृहस्पति, धु्रव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी। सतोगुणी सिद्धियाँ विष्णु से आविर्भूत होती हैं। व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गाँधी आदि ने सात्त्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।
आत्मिक कलाओं की साधना गायत्रीयोग के अन्तर्गत ग्रन्थिभेदन द्वारा होती है। रुद्रग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रन्थि के खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीर में आकाश तत्त्व अधिक था, इसलिए उन्हें उन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती थी; पर आज के युग में जनसमुदाय के शरीर में पृथ्वीतत्त्व प्रधान है, इसलिए अणिमा, महिमा आदि तो नहीं, पर सत्, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से अब भी आश्चर्यजनक हितसाधन हो सकता है। पाँच कलाओं द्वारा तात्त्विक साधना (१) पृथ्वी तत्त्व—इस तत्त्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अण्डकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आकार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वीतत्त्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है। पृथ्वी तत्त्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलबाई आदि रोग इसी तत्त्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्त्व के विकार, मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।
साधन विधि—सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उलटे करके घुटनों पर इस प्रकार रखें जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘लं’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी का ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है।
ध्यान करते समय ऊपर कहे पृथ्वीतत्त्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘लं’ इस बीजमन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्वनि रूप से) जप करते जाना चाहिए। (२) जल तत्त्व—पेडू के नीचे, जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जलतत्त्व का स्थान है। यह चक्र ‘भुव:’ लोक का प्रतिनिधि है। रंग श्वेत, आकृति अर्द्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्त्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं। साधन विधि—पृथ्वीतत्त्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठकर ‘बं’ बीज वाले अर्द्धचन्द्राकार, चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जलतत्त्व का स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान करना चाहिए। इनसे भूख-प्यास मिटती है और सहन शक्ति उत्पन्न होती है। (३) अग्नि तत्त्व—नाभि स्थान में स्थित मणिपूरक चक्र में अग्नितत्त्व का निवास है। यह ‘स्व:’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्त्व की आकृति त्रिकोण, रंग लाल, गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्त्व की गड़बड़ी से होते हैं। इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत् होने में सहायता मिलती है।
साधन विधि—नियत समय पर बैठकर ‘रं’ बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नितत्त्व का मणिपूरक चक्र में ध्यान करें। इस तत्त्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है। (४) वायु तत्त्व—यह तत्त्व हृदय देश में स्थित अनाहत चक्र में है एवं ‘महर्लोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा, आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है। गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं। साधन विधि—नियत विधि से स्थित होकर ‘यं’ बीज वाले गोलाकार, हरी आभा वाले वायुतत्त्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें। इससे शरीर और मन में हलकापन आता है। (५) आकाश तत्त्व—शरीर में इसका निवास विशुद्धचक्र में है।
यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है। साधन विधि—पूर्वोक्त आसन पर ‘हं’ बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र-विचित्र रंग वाले आकाश तत्त्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। नित्य प्रति पाँच तत्त्वों का छ: मास तक अभ्यास करते रहने से तत्त्व सिद्ध हो जाते हैं; फिर तत्त्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्त्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।
(१) आप्ति, (२) व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं, जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे हैं जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं, इन्हें ‘तेजस्’ भी कहते हैं। वस्तुएँ पञ्चतत्त्वों से बनी होती हैं, इसलिए परमाणु से निकलने वाली किरणें अपने प्रधान तत्त्व की विशेषता भी साथ लिए होती हैं, वह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती है। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इन पञ्चतत्त्वों में कौन सा तत्त्व किस मात्रा में विद्यमान है? स् व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के ‘तेजस्’ में परिलक्षित होती है। यह तेजस् मुख के आस-पास प्रकाश मण्डल की तरह विशेष रूप से फैला होता है। यों तो यह सारे शरीर के आस-पास प्रकाशित रहता है; इसे अंग्रेजी में ‘ऑरा और संस्कृत में ‘तेजोवलय’ कहते हैं। देवताओं के चित्र में उनके मुख के आस-पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है, यह उनकी कला का ही चिह्न है।
अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुराम जी में तीन, रामचन्द्र जी में बारह, कृष्ण जी में सोलह कलाएँ बताई गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनमें साधारण मात्रा में इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी। सूक्ष्मदर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आन्तरिक स्थिति का पता उनके तेजोवलय और रंग, रूप, चमक एवं चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं। ‘कला’ विद्या की जिसे जानकारी है, वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थों को, वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए गुण, प्रभाव एवं महत्त्वों को आसानी से जान लेता है। किस मनुष्य में कितनी कलाएँ हैं, उसमें क्या-क्या शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएँ हैं तथा किन-किन गुण, दोष, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है, यह सहज ही पता चल जाता है। इस जानकारी के होने से किसी व्यक्ति से समुचित सम्बन्ध रखना सरल हो जाता है। कला विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की तात्त्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर इसे आत्मबल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन, परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चित कर सकता है कि उन्नति हो रही है या नहीं, उसे सन्तोषजनक सफलता मिल रही है या नहीं। सब ओर से चित्त हटाकर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग-बिरंगी धज्जियाँ, चिन्दियाँ तथा तितलियाँ सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं।
इनके रंगों का आधार तत्त्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वीतत्त्व का रंग पीला, जल का श्वेत, अग्नि का लाल, वायु का हरा, आकाश का नीला होता है। जिस रंग की झिलमिल होती है, उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हममें किन तत्त्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है। प्रत्येक रंग में अपनी-अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में-क्षमा, गम्भीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में-शान्ति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, वृद्धि, प्रेम। लाल रंग में-गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अनिष्ट, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में-चञ्चलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, जकड़न, दर्द, अपहरण, धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, प्राण पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में-विचारशीलता, बुद्धि सूक्ष्मता, विस्तार, सात्त्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, सम्वर्द्धन, सिञ्चन, आकर्षण आदि गुण होते हैं। जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के प्रकट रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश-ज्योति से यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु या प्राणी का गुण, स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है? साधारणत: यह पाँच तत्त्वों की कला है, जिनके द्वारा यह कार्य हो सकता है—
(१) व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना, (२) अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असन्तुलित किसी गुण-दोष को सन्तुलित करना, (३) दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना, (४) तत्त्वों के मूल आधार पर पहुँचकर तत्त्वों की गतिविधि तथा क्रिया पद्धति को जानना, (५) तत्त्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना। यह उपरोक्त पाँच लाभ ऐसे हैं जिनकी व्याख्या की जाए तो वे ऋद्धि-सिद्धियों के समान आश्चर्यजनक प्रतीत होंगे। ये पाँच भौतिक कलाएँ हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मन्त्रयोगी तथा तान्त्रिक अपने-अपने ढंग से करते हैं और इस तात्त्विक शक्ति का अपने-अपने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग करके भले-बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा सांसारिक भोग वैभव भी मिल सकता है, आत्मकल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं दु:ख-शोक-सन्तप्त भी बनाया जा सकता है। पञ्चतत्त्वों की कलाएँ ऐसी ही प्रभावपूर्ण होती हैं। आत्मिक कलाएँ तीन होती हैं—सत्, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का मध्य केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्यकशिपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोगुणी कलाएँ ब्रह्मा से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, वृहस्पति, धु्रव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी। सतोगुणी सिद्धियाँ विष्णु से आविर्भूत होती हैं। व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गाँधी आदि ने सात्त्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।
आत्मिक कलाओं की साधना गायत्रीयोग के अन्तर्गत ग्रन्थिभेदन द्वारा होती है। रुद्रग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रन्थि के खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीर में आकाश तत्त्व अधिक था, इसलिए उन्हें उन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती थी; पर आज के युग में जनसमुदाय के शरीर में पृथ्वीतत्त्व प्रधान है, इसलिए अणिमा, महिमा आदि तो नहीं, पर सत्, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से अब भी आश्चर्यजनक हितसाधन हो सकता है। पाँच कलाओं द्वारा तात्त्विक साधना (१) पृथ्वी तत्त्व—इस तत्त्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अण्डकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आकार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वीतत्त्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है। पृथ्वी तत्त्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलबाई आदि रोग इसी तत्त्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्त्व के विकार, मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।
साधन विधि—सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उलटे करके घुटनों पर इस प्रकार रखें जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘लं’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी का ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है।
ध्यान करते समय ऊपर कहे पृथ्वीतत्त्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘लं’ इस बीजमन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्वनि रूप से) जप करते जाना चाहिए। (२) जल तत्त्व—पेडू के नीचे, जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जलतत्त्व का स्थान है। यह चक्र ‘भुव:’ लोक का प्रतिनिधि है। रंग श्वेत, आकृति अर्द्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्त्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं। साधन विधि—पृथ्वीतत्त्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठकर ‘बं’ बीज वाले अर्द्धचन्द्राकार, चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जलतत्त्व का स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान करना चाहिए। इनसे भूख-प्यास मिटती है और सहन शक्ति उत्पन्न होती है। (३) अग्नि तत्त्व—नाभि स्थान में स्थित मणिपूरक चक्र में अग्नितत्त्व का निवास है। यह ‘स्व:’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्त्व की आकृति त्रिकोण, रंग लाल, गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्त्व की गड़बड़ी से होते हैं। इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत् होने में सहायता मिलती है।
साधन विधि—नियत समय पर बैठकर ‘रं’ बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नितत्त्व का मणिपूरक चक्र में ध्यान करें। इस तत्त्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है। (४) वायु तत्त्व—यह तत्त्व हृदय देश में स्थित अनाहत चक्र में है एवं ‘महर्लोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा, आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है। गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं। साधन विधि—नियत विधि से स्थित होकर ‘यं’ बीज वाले गोलाकार, हरी आभा वाले वायुतत्त्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें। इससे शरीर और मन में हलकापन आता है। (५) आकाश तत्त्व—शरीर में इसका निवास विशुद्धचक्र में है।
यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है। साधन विधि—पूर्वोक्त आसन पर ‘हं’ बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र-विचित्र रंग वाले आकाश तत्त्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। नित्य प्रति पाँच तत्त्वों का छ: मास तक अभ्यास करते रहने से तत्त्व सिद्ध हो जाते हैं; फिर तत्त्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्त्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।