Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण
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शरीर में अनेक साधारण और अनेक असाधारण अंग हैं। असाधारण अंग जिन्हें ‘मर्म स्थान’ कहते हैं, केवल इसलिए मर्म स्थान नहीं कहे जाते कि वे बहुत सुकोमल एवं उपयोगी होते हैं, वरन् इसलिए भी कहे जाते हैं कि इनके भीतर गुप्त आध्यात्मिक शक्तियों के महत्त्वपूर्ण केन्द्र होते हैं। इन केन्द्रों में वे बीज सुरक्षित रखे रहते हैं, जिनका उत्कर्ष, जागरण हो जाये तो मनुष्य कुछ से कुछ बन सकता है। उसमें आत्मिक शक्तियों के स्रोत उमड़ सकते हैं और उस उभार के फलस्वरूप वह ऐसी अलौकिक शक्तियों का भण्डार बन सकता है जो साधारण लोगों के लिए अलौकिक आश्चर्य से कम प्रतीत नहीं होती।
ऐसे मर्मस्थलों में मेरुदण्ड या रीढ़ का प्रमुख स्थान है। यह शरीर की आधारशिला है। यह मेरुदण्ड छोटे- छोटे तैंतीस अस्थि खण्डों से मिलकर बना है।
इस प्रत्येक खण्ड में तत्त्वदर्शियों को ऐसी विशेष शक्तियाँ परिलक्षित होती हैं, जिनका सम्बन्ध दैवी शक्तियों से है। देवताओं में जिन शक्तियों का केन्द्र होता है, वे शक्तियाँ भिन्न- भिन्न रूप में मेरुदण्ड के इन अस्थि खण्डों में पाई जाती हैं, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मेरुदण्ड तैंतीस देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इन्द्र और प्रजापति इन तैंतीसों की शक्तियाँ उसमें बीज रूप से उपस्थित रहती हैं।
इस पोले मेरुदण्ड में शरीर विज्ञान के अनुसार नाडिय़ाँ हैं और ये विविध कार्यों में नियोजित रहती हैं। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार उनमें तीन प्रमुख नाडिय़ाँ हैं- १. इड़ा, २. पिङ्गला, ३. सुषुम्ना। यह तीन नाडिय़ाँ मेरुदण्ड को चीरने पर प्रत्यक्ष रूप से आँखों द्वारा नहीं देखी जा सकतीं, इनका सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से है। यह एक प्रकार का विद्युत् प्रवाह है। जैसे बिजली से चलने वाले यन्त्रों में नेगेटिव और पोजेटिव, ऋण और धन धाराएँ दौड़ती हैं और उन दोनों का जहाँ मिलन होता है, वहीं शक्ति पैदा हो जाती है, इसी प्रकार इड़ा को नेगेटिव, पिङ्गला को पोजेटिव कह सकते हैं। इड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिङ्गला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। मोटे शब्दों में इन्हें ठण्डी- गरम धाराएँ कहा जा सकता है। दोनों के मिलने से जो तीसरी शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सुषुम्ना कहते हैं। प्रयाग में गंगा और यमुना मिलती हैं। इस मिलन से एक तीसरी सूक्ष्म सरिता और विनिर्मित होती है, जिसे सरस्वती कहते हैं। इस प्रकार तीन नदियों से त्रिवेणी बन जाती है। मेरुदण्ड के अन्तर्गत भी ऐसी आध्यात्मिक त्रिवेणी है। इड़ा, पिङ्गला की दो धाराएँ मिलकर सुषुम्ना की सृष्टि करती हैं और एक पूर्ण त्रिवर्ग बन जाता है।
यह त्रिवेणी ऊपर मस्तिष्क के मध्य केन्द्र से, ब्रह्मरन्ध्र से, सहस्रार कमल से सम्बन्धित और नीचे मेरुदण्ड का जहाँ नुकीला अन्त है, वहाँ लिङ्गं मूल और गुदा के बीच ‘सीवन’ स्थान की सीध में पहुँचकर रुक जाती है, यही इस त्रिवेणी का आदि- अन्त है।
सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक और त्रिवर्ग है। उसके अन्तर्गत भी तीन अत्यन्त सूक्ष्म धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिन्हें वज्रा, चित्रणी और ब्रह्मनाड़ी कहते हैं। जैसे केले के तने को काटने पर उसमें एक के भीतर एक परत दिखाई पड़ती है, वैसे ही सुषुम्ना के भीतर वज्रा है, वज्रा के भीतर चित्रणी और चित्रणी के भीतर ब्रह्मनाड़ी है। यह ब्रह्मनाड़ी सब नाडिय़ों का मर्मस्थल, केन्द्र एवं शक्तिसार है। इस मर्म की सुरक्षा के लिए ही उस पर इतने परत चढ़े हैं।
यह ब्रह्मनाड़ी मस्तिष्क के केन्द्र में- ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचकर हजारों भागों में चारों ओर फैल जाती है, इसी से उस स्थान को सहस्रदल कमल कहते हैं। विष्णुजी की शय्या, शेषजी के सहस्र फनों पर होने का अलंकार भी इस सहस्रदल कमल से लिया गया है। भगवान् बुद्ध आदि अवतारी पुरुषों के मस्तक पर एक विशेष प्रकार के गुंजलकदार बालों का अस्तित्व हम उनकी मूर्तियों अथवा चित्रों में देखते हैं। यह इस प्रकार के बाल नहीं हैं, वरन् सहस्रदल कमल का कलात्मक चित्र है। यह सहस्रदल सूक्ष्म लोकों में, विश्वव्यापी शक्तियों से सम्बन्धित है। रेडियो- ट्रान्समीटर से ध्वनि विस्तारक तन्तु फैलाये जाते हैं जिन्हें ‘एरियल’ कहते हैं। तन्तुओं के द्वारा सूक्ष्म आकाश में ध्वनि को फेंका जाता है और बढ़ती हुई तरंगों को पकड़ा जाता है। मस्तिष्क का ‘एरियल’ सहस्रार कमल है। उसके द्वारा परमात्मसत्ता की अनन्त शक्तियों को सूक्ष्म लोक में से पकड़ा जाता है। जैसे भूखा अजगर जब जाग्रत् होकर लम्बी साँसें खींचता है, तो आकाश में उड़ते पक्षियों को अपनी तीव्र शक्तियों से जकड़ लेता है और वे मन्त्रमुग्ध की तरह खिंचते हुए अजगर के मुँह में चले जाते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् हुआ सहस्रमुखी शेषनाग- सहस्रार कमल अनन्त प्रकार की सिद्धियों को लोक- लोकान्तरों से खींच लेता है। जैसे कोई अजगर जब क्रुद्ध होकर विषैली फुँफकार मारता है, तो एक सीमा तक वायुमण्डल को विषैला कर देता है, उसी प्रकार जाग्रत् हुए सहस्रार कमल द्वारा शक्तिशाली भावना तरंगें प्रवाहित करके साधारण जीव- जन्तुओं एवं मनुष्यों को ही नहीं, वरन् सूक्ष्म लोकों की आत्माओं को भी प्रभावित और आकर्षित किया जा सकता है। शक्तिशाली ट्रान्समीटर द्वारा किया हुआ अमेरिका का ब्राडकास्ट भारत में सुना जाता है। शक्तिशाली सहस्रार द्वारा निक्षेपित भावना प्रवाह भी लोक- लोकान्तरों के सूक्ष्म तत्त्वों को हिला देता है।
अब मेरुदण्ड के नीचे के भाग को, मूल को लीजिये। सुषुम्ना के भीतर रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे सूक्ष्म ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड के अन्तिम भाग के समीप एक काले वर्ण के षट्कोण वाले परमाणु से लिपटकर बँध जाती है। छप्पर को मजबूत बाँधने के लिए दीवार में खूँटे गाड़ते हैं और उन खूँटों में छप्पर से सम्बन्धित रस्सी को बाँध देते हैं। इसी प्रकार उस षट्कोण कृष्ण वर्ण परमाणु से ब्रह्मनाड़ी को बाँधकर इस शरीर से प्राणों के छप्पर को जकड़ देने की व्यवस्था की गयी है।
कूर्म से ब्रह्मनाड़ी के गुन्थन स्थल को आध्यात्मिक भाषा में ‘कुण्डलिनी’ कहते हैं। जैसे काले रंग का होने से आदमी का नाम कलुआ भी पड़ जाता है, वैसे ही कुण्डलाकार बनी हुई इस आकृति को ‘कुण्डलिनी’ कहा जाता है। यह साढ़े तीन लपेटे उस कू र्म में लगाये हुए है और मुँह नीचे को है। विवाह संस्कारों में इसी की नकल करके ‘‘भाँवर या फेरे’’ होते हैं। साढ़े तीन (सुविधा की दृष्टि से चार) परिक्रमा किये जाने और मुँह नीचा किये जाने का विधान इस कुण्डलिनी के आधार पर ही रखा गया है, क्योंकि भावी जीवन- निर्माण की व्यवस्थित आधारशिला, पति- पत्नी का कूर्म और ब्रह्मनाड़ी मिलन वैसा ही महत्त्वपूर्ण है जैसा कि शरीर और प्राण को जोडऩे में कुण्डलिनी का महत्त्व है।
इस कुण्डलिनी की महिमा, शक्ति और उपयोगिता इतनी अधिक है कि उसको भली प्रकार समझने में मनुष्य की बुद्धि लडख़ड़ा जाती है। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों के लिये आज ‘परमाणु’ एक पहेली बना हुआ है। उसके तोडऩे की एक क्रिया मालूम हो जाने का चमत्कार दुनिया ने प्रलयंकर परमाणु बम के रूप में देख लिया। अभी उसके अनेकों विध्वंसक और रचनात्मक पहलू बाकी हैं। सर आर्थर का कथन है कि ‘‘यदि परमाणु शक्ति का पूरा ज्ञान और उपयोग मनुष्य को मालूम हो गया, तो उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं रहेगा। यह सूर्य के टुकड़े- टुकड़े करके उसेगर्द में मिला सकेगा और जो चाहेगा, वह वस्तु या प्राणी मनमाने ढंग से पैदा कर लिया करेगा। ऐसे- ऐसे यन्त्र उसके पास होंगे, जिनसे सारी पृथ्वी एक मुहल्ले में रहने वाली आबादी की तरह हो जायेगी। कोई व्यक्ति चाहे कहीं क्षण भर में आ जा सकेगा और चाहे जिससे जो वस्तु ले दे सकेगा तथा देश- देशान्तरों में स्थित लोगों से ऐसे ही घुल- मिलकर वार्तालाप कर सकेगा, जैसे दो मित्र आपस में बैठे- बैठे गप्पें लड़ाते रहते हैं।’’ जड़ जगत् के एक परमाणु की शक्ति का आकलन करने पर उसकी महत्ता को देखकर आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। फिर चैतन्य जगत् का एक स्फुल्लिंग जो जड़ परमाणु की अपेक्षा अनन्त गुना शक्तिशाली है, कितना अद्भुत होगा, इसकी तो कल्पना कर सकना भी कठिन है।
योगियों में अनेक प्रकार की अद्भुत शक्तियाँ होने के वर्णन और प्रमाण हमंक मिलते हैं। योग की ऋद्धि- सिद्धियों की अनेक गाथाएँ सुनी जाती हैं। उनसे आश्चर्य होता है और विश्वास नहीं होता कि यह कहाँ तक ठीक है! पर जो लोग विज्ञान से परिचित हैं और जड़ परमाणु तथा चैतन्य स्फुल्लिंग को जानते हैं, उनके लिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जिस प्रकार आज परमाणु की शोध में प्रत्येक देश के वैज्ञानिक व्यस्त हैं, उसी प्रकार पूर्वकाल में आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ताओं ने, तत्त्वदर्शी ऋषियों ने मानव शरीर के अन्तर्गत एक बीज परमाणु की अत्यधिक शोध की थी। दो परमाणुओं को तोडऩे, मिलाने या स्थानान्तरित करने का सर्वोच्च स्थान कुण्डलिनी केन्द्र में होता है, क्योंकि अन्य सब जगह के चैतन्य परमाणु गोल और चिकने होते हैं, पर कुण्डलिनी में यह मिथुन लिपटा हुआ है। जैसे यूरेनियम और प्लेटोनियम धातु में परमाणुओं का गुन्थन कुछ ऐसे टेढ़े- तिरछे ढंग से होता है कि उनका तोड़ा जाना अन्य पदार्थों के परमाणुओं की अपेक्षा अधिक सरल है, उसी प्रकार कुण्डलिनी स्थित स्फुल्लिंग परमाणुओं की गतिविधि को इच्छानुकूल संचालित करना अधिक सुगम है। इसलिए प्राचीन काल में कुण्डलिनी जागरण की उतनी ही तत्परता से शोध हुई थी, जितनी कि आजकल परमाणु विज्ञान के बारे में हो रही है। इन शोधों के परीक्षणों और प्रयोगों के फलस्वरूप उन्हें ऐसे कितने ही रहस्य भी करतलगत हुए थे, जिन्हें आज ‘योग के चमत्कार’ के नाम से पुकारते हैं।
मैडम ब्लेवेटस्की ने कुण्डलिनी शक्ति के बारे में काफी खोजबीन की है। वे लिखती हैं- ‘‘कुण्डलिनी विश्वव्यापी सूक्ष्म विद्युत् शक्ति है, जो स्थूल बिजली की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशालिनी है। इसकी चाल सर्प की चाल की तरह टेढ़ी है, इससे इसे सर्पाकार कहते हैं। प्रकाश एक लाख पचासी हजार मील प्रति सेकण्ड चलता है, पर कुण्डलिनी की गति एक सेकण्ड में ३४५००० मील है।’’ पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे ‘‘स्प्रिट- फायर’’ ‘‘सरपेण्टलपावर’’ कहते हैं। इस सम्बन्ध में सर जान बुडरफ ने भी बहुत विस्तृत विवेचन किया है।
कुण्डलिनी को गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है। बहुमूल्य रत्नों को रखने के लिये किसी अज्ञात स्थान में गुप्त परिस्थितियों में तिजोरी रखी जाती है और उसमें कई ताले लगा दिये जाते हैं, ताकि घर या बाहर के अनधिकारी लोग उस खजाने में रखी हुई सम्पत्ति को न ले सकें। परमात्मा ने हमें शक्तियों का अक्षय भण्डार देकर उसमें छ: ताले लगा दिये। ताले इसलिये लगा दिये हैं कि वे जब पात्रता आ जाये, धन के उत्तरदायित्व को ठीक प्रकार समझने लगें, तभी वह सब प्राप्त हो सके। उन छहों तालों की ताली मनुष्य को ही सौंप दी गयी है, ताकि वह आवश्यकता के समय तालों को खोलकर उचित लाभ उठा सके|
षट्चक्र
शून्य चक्र आज्ञा चक्र विशुद्धाख्य चक्र अनाहत चक्र
मणिपूरक चक्र स्वाधिष्ठान चक्र मूलाधार चक्र
नोट :—षटचक्रों में केवल आज्ञा चक्र सामने की ओर है, शेष सभी मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी में स्थित हैं।
यह छ: ताले जो कुण्डलिनी पर लगे हुए हैं, छ: चक्र कहलाते हैं। इन चक्रों को वेधन करके जीव कुण्डलिनी के समीप पहुँच सकता है और उसका यथोचित उपयोग करके जीवन- लाभ प्राप्त कर सकता है। सब लोगों की कुण्डलिनी साधारणत: अस्तव्यस्त अवस्था में पड़ी रहती है, पर जब उसे जगाया जाता है तो वह अपने स्थान पर से हट जाती है और उस लोक में प्रवेश कर जाने देती है जिसमें परमात्मशक्तियों की प्राप्ति हो जाती है। बड़े- बड़े गुप्त खजाने जो प्राचीन काल से भूमि में छिपे पड़े होते हैं, उन पर सर्प की चौकीदारी पायी जाती है। खजाने के मुख पर कुण्डलीदार सर्प बैठा रहता है और चौकीदारी किया करता है।
देवलोक भी ऐसा ही खजाना है, जिसके मुँह पर षटकोण कूर्म की शिला रक्खी हुई है और शिला से लिपटी हुइ भयंकर सर्पिणी कुण्डलिनी बैठी है। वह सर्पिणी अधिकारी पात्र की प्रतीक्षा में बैठी होती है। जैसे ही कोई अधिकारी उसके समीप पहुँचता है, वह उसे रोकने या हानि पहुँचाने की अपेक्षा अपने स्थान से हटकर उसको रास्ता दे देती है और उसका कार्य समाप्त हो जाता है।
कुण्डलिनी- जागरण के लाभों पर प्रकाश डालते हुए एक अनुभवी साधक ने लिखा है- ‘‘भगवती कुण्डलिनी की कृपा से साधक सर्वगुण सम्पन्न होता है। सब कलायें, सब सिद्धियाँ उसे अनायास प्राप्त हो जाती हैं। ऐसे साधक का शरीर सौ वर्ष तक बिलकुल स्वस्थ और सुदृढ़ रहता है। वह अपना जीवन परमात्मा की सेवा में लगा देता है और उसके आदेशानुसार लोकोपकार करते हुए अन्त में स्वेच्छा से अपना कलेवर छोड़ जाता है। कुण्डलिनी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति पूर्ण निर्भय और आनन्दमय रहता है। भगवती की उस पर पूर्ण कृपा रहती है और वह स्वयं सदैव अपने ऊपर उसकी छत्रछाया होने का अनुभव करता है। उसके कानों में माता के ये शब्द गूँजते रहते हैं कि- भय नहीं, मैं तुम्हारे पीछे खड़ी हूँ।’’ इसमें सन्देह नहीं कि कुण्डलिनी शक्ति के प्रभाव से मनुष्य का दृष्टिकोण दैवी हो जाता है और इस कारण उसका व्यक्तित्व सब प्रकार से शक्ति सम्पन्न और सुखी बन जाता है।
मस्तिष्क के ब्रह्मरन्ध्र में बिखरे हुए सहस्रदल भी साधारणत: उसी प्रकार प्रसुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं, जैसे कि कुण्डलिनी सोया करती है। उतने बहुमूल्य यन्त्रों और कोषों के होते हुए भी मनुष्य साधारणत: बड़ा दीन, दुर्बल, तुच्छ, क्षुद्र, विषय- विकारों का गुलाम बनकर कीट- पतंगों की तरह जीवन व्यतीत करता है और दु:ख- दारिद्र्य की दासता में बँधा हुआ फडफ़ड़ाया करता है; पर जब इन यन्त्रों और रत्नागारों से परिचित होकर उनके उपयोग को जान लेता है, उन पर अधिकार कर लेता है, तब वह परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी की समस्त योग्यताओं और शक्तियों से सम्पन्न हो जाता है। कुण्डलिनी जागरण से होने वाले लाभों के सम्बन्ध में योगशास्त्रों में बड़ा विस्तृत और आकर्षक वर्णन है। उन सबकी चर्चा न करके यहाँ इतना कह देना पर्याप्त होगा कि कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से इस विश्व में जो भी कुछ है, वह सब कुछ मिल सकता है। उसके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती।
षट्चक्रों का स्वरूप
कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में छ: फाटक हैं अथवा यों कहना चाहिए कि छ: ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति- केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं।
सुषुम्ना के अन्तर्गत रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से वह छ: चक्र सम्बन्धित हैं। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल- पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है। पिछले पृष्ठ पर दिये गये चित्र में पाठक यह देख सकेंगे कि कौन- सा चक्र किस स्थान पर है। मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्धाख्य चक्र कण्ठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्रार है।
सुषुम्ना तथा उसके अन्तर्गत हरने वाली चित्रणी आदि नाडिय़ाँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे सम्बन्धित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म हैं। किसी शरीर को चीर- फाड़ करते समय इन चक्रों को नस- नाडिय़ों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्मचक्षुओं की वीक्षण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग- मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।
‘षट्चक्र’ एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र- ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है, तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ गोल नहीं होतीं, वरन् उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुडिय़ाँ होती हैं। इन कोष या पंखुडिय़ों को ‘पद्मदल’ कहते हैं। यह एक प्रकार के तन्तु- गुच्छक हैं।
इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्त्व प्रधान होता है। इस तत्त्व- प्रधानता का उस स्थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।
घुन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता चलता है तो उस काटे हुए स्थान की कुछ आकृतियाँ बन जाती हैं। उन चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है, उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा- मेढ़ा होता है। इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायु मार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं।
द्रुतगति से बहती हुई नदी में कुछ विशेष स्थानों में भँवर पड़ जाते हैं। यह पानी के भँवर कहीं उथले, कहीं गहरे, कहीं तिरछे, कहीं गोल- चौकोर हो जाते हैं। प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति चतुष्कोण, अर्धचन्द्राकार, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिङ्गकार तथा पूर्ण चन्द्राकार बनती है। अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण- सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यन्त्र कहते हैं।
शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।
ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से उनमें एक वैसी ध्वनि होती है, जैसी कि वंशी में वायु का प्रवेश होने पर छिद्रों के आधार से ध्वनि उत्पन्न होती है। हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, ग, म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- यँ, लँ, रँ, हँ, जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।
चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी कपोत, मण्डूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। तत्त्वों के मिश्रण टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिसरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है। यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्दगामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।
इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथवा यों कहिये कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं। प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।
पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है। चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं। यही चक्रों के गुण हैं।
यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है। सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।
देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को ‘मातृकायें’ कहते हैं। इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, सम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं। ड, र, ल, क, श, के आगे आदि मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।
उपर्युक्त परिभाषाओं को समझ लेने के उपरान्त प्रत्येक चक्र की निम्र जानकारी को ठीक प्रकार समझ लेना पाठकों के लिए सुगम होगा। अब छहों चक्रों का परिचय नीचे दिया जा रहा है—
मूलाधार चक्र-
स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामथ्र्य।
स्वाधिष्ठान चक्र-
स्थान- पेडू (शिश्र के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।
मणिपूर चक्र-
स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।
अनाहत चक्र-
स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।
विशुद्धाख्य चक्र-
स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- ‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता।
आज्ञा चक्र-
स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्त्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन।
षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है—
शून्य चक्र-
स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का करतलगत होना।
पाठक जानते हैं कि कुण्डलिनी शक्ति का स्रोत है। वह हमारे शरीर का सबसे अधिक समीप चैतन्य स्फुल्लिंग है। उसमें बीज रूप से इतनी रहस्यमय शक्तियाँ गर्भित हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं हो सकती। कुण्डलिनी शक्ति के इन छ: केन्द्रों में, षट्चक्रों में भी उसका काफी प्रकाश है। जैसे सौरमण्डल में नौ ग्रह हैं, सूर्य उनका केन्द्र है और चन्द्रमा, मङ्गल आदि उसमें सम्बद्ध होने के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं, वे सूर्य की ऊष्मा, आकर्षणी, विलयिनी आदि शक्तियों से प्रभावित और ओत- प्रोत रहते हैं, वैसे ही कुण्डलिनी की शक्तियाँ चक्रों में भी प्रसारित रहती हैं। एक बड़ी तिजोरी में जैसे कई छोटे- छोटे अनेक दराज होते हैं, जैसे मधुमक्खी के एक बड़े छत्ते में छोटे- छोटे अनेक छिद्र होते हैं और उनमें भी कुछ मधु भरा रहता है, वैसे ही कुण्डलिनी की कुछ शक्ति का प्रकाश चक्रों में भी होता है। चक्रों के जागरण के साथ- साथ उनमें सन्निहित कितनी ही रहस्यमय शक्तियाँ भी जाग पड़ती हैं। उनका सक्षिप्त- सा सकेंत ऊपर चक्रों के ध्यान फल में बताया गया है। इनको विस्तार करके कहा जाए तो यह शक्तियाँ भी आश्चर्यों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होंगी।
चक्रों का वेधन
षट् चक्रों का वेधन करते हुए कुण्डलिनी तक पहुँचना और उसे जाग्रत् करके आत्मोन्नति के मार्ग में लगा देना यह एक महाविज्ञान है। ऐसा ही महाविज्ञान, जैसा कि परमाणु बम का निर्माण एवं उसका विस्फोट करना एक अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है। इसे यों ही अपने आप केवल पुस्तक पढक़र आरम्भ नहीं कर देना चाहिए, वरन् किसी अनुभवी पथ- प्रदर्शक की संरक्षकता में यह सब किया जाना चाहिए।
चक्रों का वेधन ध्यान- शक्ति के द्वारा किया जाता है। यह सभी जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क एक प्रकार का बिजलीघर है और उस बिजलीघर की प्रमुख धारा का नाम ‘मन’ है। मन की गति चंचल और बहुमुखी होती है। यह हर घड़ी चंचलतामग्न और सदा उछलकूद में व्यस्त रहता है। इस उथल- पुथल के कारण उस विद्युत् पुञ्ज का एक स्थान पर केन्द्रीकरण नहीं होता, जिससे कोई महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादन हो। इसके अभाव में जीवन के क्षण यों ही अस्त- व्यस्त नष्ट होते रहते हैं। यदि उस शक्ति का एकीकरण हो जाता है, उसे एक स्थान पर संचित कर लिया जाता है, तो आतिशी शीशे द्वारा एकत्रित हुई सूर्य किरणों द्वारा आग की लपटें उठने लगने जैसे दृश्य उपस्थित हो जाते हैं। ध्यान का एक ऐसा सूक्ष्म विज्ञान है, जिसके द्वारा मन की बिखरी हुई बहुमुखी शक्तियाँ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक कार्य में लगती हैं। फलस्वरूप वहाँ असाधारण शक्ति का स्रोत प्रवाहित हो जाता है। ध्यान द्वारा मन:क्षेत्र की केन्द्रीयभूत इस बिजली से साधक षट्चक्रों का वेधन कर सकता है।
षट्चक्रों के वेधन की साधना करने के लिए अनेक ग्रन्थों में अनेक मार्ग बताये गये हैं। इसी प्रकार गुरु परम्परा से चली आने वाली साधनाएँ भी विविध प्रकार की हैं। इन सभी मार्गों से उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है, सफलता मिल सकती है, पर शर्त यह है कि उसे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा तथा उचित पथ- प्रदर्शन में किया जाए।
अन्य साधनाओं की चर्चा और तुलना करके उनकी आलोचना- प्रत्यालोचना करना यहाँ हमें अभीष्ट नहीं है। इन पंक्तियों में तो हम एक ऐसी सुगम साधना पाठकों के सामने उपस्थित करना चाहते हैं, जिसके द्वारा गायत्री शक्ति से चक्रों का जागरण बड़ी सुविधापूर्वक हो सकता है और अन्य साधनाओं में आने वाली असाधारण कठिनाइयों एवं खतरों से स्वतन्त्र रहा जा सकता है।
प्रात:काल शुद्ध शरीर और स्वस्थ चित्त से सावधान होकर पद्मासन में बैठिए। पूर्व वर्णित ब्रह्मसन्ध्या की क्रियाएँ कीजिए। इसके बाद गायत्री के एक सौ आठ मन्त्रों की माला जपिए।
ब्रह्मसन्ध्या करने के पश्चात् मस्तिष्क के मध्य भाग त्रिकुटी में (एक रेखा एक कान से दूसरे कान तक खींची जाए और दूसरी रेखा दोनों भौंहों के मध्य में से मस्तिष्क के मध्य तक खींची जाए, तो दोनों का मिलन जहाँ होता है, उस स्थान को त्रिकुटी कहते हैं।) वेदमाता गायत्री का ज्योतिस्वरूप ध्यान करना चाहिए। मन को उसके मध्य से ज्योतिर्लिंग के मध्य में इस प्रकार अवस्थित करना चाहिए जैसे लुहार अपने लोहे को गरम करने के लिए भठी में डाल देता है और जब वह लाल हो जाता है, तो उसे बाहर निकालकर ठोकता- पीटता और अभीष्ट वस्तु बनाता है। त्रिकुटी स्थित गायत्री ज्योति में मन को अवस्थित रखने से मन स्वयं भी तेज स्वरूप हो जाता है। तब उसे आज्ञाचक्र के स्थान में लाना चाहिए। ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड से आगे बढक़र त्रिकुटी में होती हुई सहस्रार को गयी है। इस ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में दीप्तिमान मन को प्रवेश कराके आज्ञाचक्र में ले जाया जाता है। वहाँ स्थिरता करने पर वे सब अनुभव होते हैं, जो चक्र के लक्षणों में वर्णित हैं। मन को चक्र के दलों का, अक्षरों का, तत्त्व का, बीज का, देवशक्ति का, यन्त्र का, वाहन का, गुण- रंग का अनुभव होता है। आरम्भ में अनुभव बहुत अधूरे होते हैं। धीरे- धीरे वे अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। कभी- कभी किन्हीं व्यक्तियों के चक्रों में कुछ लक्षण भेद भी होता है। उसे अपने अन्दर के चक्र की आकृति का अनुभव होगा।
स्वस्थ चित्त से, सावधान होकर, एक मास तक एक चक्र की साधना करने से वह प्रस्फुटित हो जाता है। ध्यान में उसके लक्षण अधिक स्पष्ट होने लगते हैं और चक्र के स्थान पर उससे सम्बन्धित मातृकाओं, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में अचानक कम्पन, रोमांच, प्रस्फुरण, उत्तेजना, दाद, खाज, खुजली जैसे अनुभव होते हैं। यह इस बात के चिह्न हैं कि चक्रों का जागरण हो रहा है। एक मास या न्यूनाधिक काल में इस प्रकार के चिह्न प्रकट होने लगें, ध्यान में चक्र का रूप स्पष्ट होने लगे, तो उससे आगे बढक़र इससे नीचे की ओर दूसरे चक्र में प्रवेश करना चाहिए। विधि यही है- मार्ग वही। गायत्री ज्योति में मन को तपाकर ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करना और उसमें होकर पहले चक्र में जाना, फिर उसे पार करके दूसरे में जाना। इस प्रकार एक चक्र में लगभग एक मास लगता है। जब साधना पक जाती है, तो एक चक्र से दूसरे चक्र में जाने का मार्ग खुल जाता है। जब तक साधना कच्ची रहती है, तब तक द्वार रुका रहता है। साधक का मन आगे बढऩा चाहे, तो भी द्वार नहीं मिलता और यह उसी चक्र के तन्तुजाल की भूलभुलैयों में उलझा रह जाता है।
जब साधना देर तक नहीं पकती और साधक को आगे का मार्ग नहीं मिलता, तो उसे अनुभवी गुरु की सहायता की आवश्यकता होती है। वह जैसा उपाय बताएँ वैसा उसे करना होता है। इसी प्रकार धीरे- धीरे क्रमश: छहों चक्रों को पार करता हुआ साधक मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक पहुँचता है और वहाँ उस ज्वालामुखी कराल कालस्वरूप महाशक्ति सर्पिणी के विकराल रूप का दर्शन करता है। महाकाली का प्रचण्ड स्वरूप यहीं दिखाई पड़ता है। कई साधक इस सोते सिंह को जगाने का साहस करते हुए काँप जाते हैं।
कुण्डलिनी को जगाने में उसे पीडि़त करना पड़ता है, छेदना पड़ता है। जैसे परमाणु का विस्फोट करने के लिए उसे बीच में से छेदना पड़ता है, उसी प्रकार सुप्त कुण्डलिनी को गतिशील बनाने के लिए उसी पर आघात करना होता है। इसे आध्यात्मिक भाषा में ‘कुण्डलिनी पीडऩ’ कहते हैं। इससे पीडि़त होकर क्षुब्ध कुण्डलिनी फुसकारती हुई जाग पड़ती है और उसका सबसे प्रथम आक्रमण, मन में लगे हुए जन्म- जन्मान्तरों के संस्कारों पर होता है। वह संस्कारों को चबा जाती है, मन की छाती पर अपने अस्त्रों सहित चढ़ बैठती है और उसकी स्थूलता, मायापरायणता को नष्ट कर ब्रह्मभाव में परिणत कर देती है।
इस कुण्डलिनी को जगाने और उसके जागने पर आक्रमण होने की क्रिया का पुराणों ने बड़े ही आलंकारिक और हृदयग्राही रूप से वर्णन किया है। महिषासुर और दुर्गा का युद्ध इसी आध्यात्मिक रहस्य का प्रतीक है। अपनी मुक्ति की कामना करते हुए, देवी के हाथों मरने की कामना से उत्साहित होकर महिषासुर (महि: यानी पृथ्वी आदि पञ्चभूतों से बना हुआ मन) चण्डी (कुण्डलिनी) से लडऩे लगता है, उस चुपचाप बैठी हुई पर आक्रमण करता है। देवी क्रुद्ध होकर उससे युद्ध करती हैं, उस पर प्रत्याघात करती हैं। उसके वाहन महिष को, संस्कारों के समूह को चबा डालती हैं। मन के भौतिक आचरण को, महिषासुर के शरीर को, दसों भुजाओं को, दसों दिशाओं से, सब ओर से विदीर्ण कर डालती हैं और अन्त में महिषासुर (साधारण बीज) चण्डी की ज्योति में मिल जाता है, महाशक्ति का अंश होकर जीवन लाभ को प्राप्त कर लेता है। भक्तिमयी साधना का वह रौद्ररूप बड़ा ही विचित्र है। इसे ‘साधना- समर’ कहते हैं।
जहाँ कितने ही भक्त, पे्रम और भक्ति द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं, वहाँ ऐसे भी कितने ही भक्त हैं, जो साधना- समर में ब्रह्म से लडक़र उसे प्राप्त करते हैं। भगवान् तो निष्ठा के भूखे हैं, वे सच्चे प्रेमी को भी मिल सकते हैं, सच्चे शत्रु को भी। भक्त योगी भी उन्हें पा सकते हैं और साधना- समर में अपने दो- दो हाथ दिखाने वाले हठयोगी, तन्त्रमार्गी भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण ऐसा ही हठ- तंत्र है, जिसके आधार पर आत्मा तुच्छ से महान् और अणु से विभु बनकर ईश्वरीय सर्व शक्तियों से सम्पन्न हो जाती है।
षट्चक्रों की साधना करते समय प्रतिदिन ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करके चक्रों का ध्यान करते हैं। यह ध्यान पाँच मिनट से आरम्भ करके तीस मिनट तक पहुँचाया जा सकता है। एक बार में इससे अधिक ध्यान करना हानिकारक है, क्योंकि अधिक ध्यान से बढ़ी ऊष्मा को सहन करना कठिन हो जाता है। ध्यान समाप्त करते समय उसी मार्ग पर वापस लौटकर मन को त्रिकुटी में लगाया जाता है और फिर ध्यान को समाप्त कर दिया जाता है।
यह कहने की आवश्यकता ही नहीं कि साधनाकाल में ब्रह्मचर्य से रहना, एक बार भोजन करना, सात्त्विक खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, एकान्त सेवन करना, स्वस्थ वातावरण में रहना, दिनचर्या को ठीक रखना अनिवार्य है, क्योंकि यह साधनाओं की प्रारम्भिक शर्तें मानी गई हैं।
षट्चक्रों के वेधन और कुण्डलिनी के जागरण से ब्रह्मरन्ध्र में ईश्वरीय दिव्यशक्ति के दर्शन होते हैं और गुप्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
ऐसे मर्मस्थलों में मेरुदण्ड या रीढ़ का प्रमुख स्थान है। यह शरीर की आधारशिला है। यह मेरुदण्ड छोटे- छोटे तैंतीस अस्थि खण्डों से मिलकर बना है।
इस प्रत्येक खण्ड में तत्त्वदर्शियों को ऐसी विशेष शक्तियाँ परिलक्षित होती हैं, जिनका सम्बन्ध दैवी शक्तियों से है। देवताओं में जिन शक्तियों का केन्द्र होता है, वे शक्तियाँ भिन्न- भिन्न रूप में मेरुदण्ड के इन अस्थि खण्डों में पाई जाती हैं, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मेरुदण्ड तैंतीस देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इन्द्र और प्रजापति इन तैंतीसों की शक्तियाँ उसमें बीज रूप से उपस्थित रहती हैं।
इस पोले मेरुदण्ड में शरीर विज्ञान के अनुसार नाडिय़ाँ हैं और ये विविध कार्यों में नियोजित रहती हैं। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार उनमें तीन प्रमुख नाडिय़ाँ हैं- १. इड़ा, २. पिङ्गला, ३. सुषुम्ना। यह तीन नाडिय़ाँ मेरुदण्ड को चीरने पर प्रत्यक्ष रूप से आँखों द्वारा नहीं देखी जा सकतीं, इनका सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से है। यह एक प्रकार का विद्युत् प्रवाह है। जैसे बिजली से चलने वाले यन्त्रों में नेगेटिव और पोजेटिव, ऋण और धन धाराएँ दौड़ती हैं और उन दोनों का जहाँ मिलन होता है, वहीं शक्ति पैदा हो जाती है, इसी प्रकार इड़ा को नेगेटिव, पिङ्गला को पोजेटिव कह सकते हैं। इड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिङ्गला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। मोटे शब्दों में इन्हें ठण्डी- गरम धाराएँ कहा जा सकता है। दोनों के मिलने से जो तीसरी शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सुषुम्ना कहते हैं। प्रयाग में गंगा और यमुना मिलती हैं। इस मिलन से एक तीसरी सूक्ष्म सरिता और विनिर्मित होती है, जिसे सरस्वती कहते हैं। इस प्रकार तीन नदियों से त्रिवेणी बन जाती है। मेरुदण्ड के अन्तर्गत भी ऐसी आध्यात्मिक त्रिवेणी है। इड़ा, पिङ्गला की दो धाराएँ मिलकर सुषुम्ना की सृष्टि करती हैं और एक पूर्ण त्रिवर्ग बन जाता है।
यह त्रिवेणी ऊपर मस्तिष्क के मध्य केन्द्र से, ब्रह्मरन्ध्र से, सहस्रार कमल से सम्बन्धित और नीचे मेरुदण्ड का जहाँ नुकीला अन्त है, वहाँ लिङ्गं मूल और गुदा के बीच ‘सीवन’ स्थान की सीध में पहुँचकर रुक जाती है, यही इस त्रिवेणी का आदि- अन्त है।
सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक और त्रिवर्ग है। उसके अन्तर्गत भी तीन अत्यन्त सूक्ष्म धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिन्हें वज्रा, चित्रणी और ब्रह्मनाड़ी कहते हैं। जैसे केले के तने को काटने पर उसमें एक के भीतर एक परत दिखाई पड़ती है, वैसे ही सुषुम्ना के भीतर वज्रा है, वज्रा के भीतर चित्रणी और चित्रणी के भीतर ब्रह्मनाड़ी है। यह ब्रह्मनाड़ी सब नाडिय़ों का मर्मस्थल, केन्द्र एवं शक्तिसार है। इस मर्म की सुरक्षा के लिए ही उस पर इतने परत चढ़े हैं।
यह ब्रह्मनाड़ी मस्तिष्क के केन्द्र में- ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचकर हजारों भागों में चारों ओर फैल जाती है, इसी से उस स्थान को सहस्रदल कमल कहते हैं। विष्णुजी की शय्या, शेषजी के सहस्र फनों पर होने का अलंकार भी इस सहस्रदल कमल से लिया गया है। भगवान् बुद्ध आदि अवतारी पुरुषों के मस्तक पर एक विशेष प्रकार के गुंजलकदार बालों का अस्तित्व हम उनकी मूर्तियों अथवा चित्रों में देखते हैं। यह इस प्रकार के बाल नहीं हैं, वरन् सहस्रदल कमल का कलात्मक चित्र है। यह सहस्रदल सूक्ष्म लोकों में, विश्वव्यापी शक्तियों से सम्बन्धित है। रेडियो- ट्रान्समीटर से ध्वनि विस्तारक तन्तु फैलाये जाते हैं जिन्हें ‘एरियल’ कहते हैं। तन्तुओं के द्वारा सूक्ष्म आकाश में ध्वनि को फेंका जाता है और बढ़ती हुई तरंगों को पकड़ा जाता है। मस्तिष्क का ‘एरियल’ सहस्रार कमल है। उसके द्वारा परमात्मसत्ता की अनन्त शक्तियों को सूक्ष्म लोक में से पकड़ा जाता है। जैसे भूखा अजगर जब जाग्रत् होकर लम्बी साँसें खींचता है, तो आकाश में उड़ते पक्षियों को अपनी तीव्र शक्तियों से जकड़ लेता है और वे मन्त्रमुग्ध की तरह खिंचते हुए अजगर के मुँह में चले जाते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् हुआ सहस्रमुखी शेषनाग- सहस्रार कमल अनन्त प्रकार की सिद्धियों को लोक- लोकान्तरों से खींच लेता है। जैसे कोई अजगर जब क्रुद्ध होकर विषैली फुँफकार मारता है, तो एक सीमा तक वायुमण्डल को विषैला कर देता है, उसी प्रकार जाग्रत् हुए सहस्रार कमल द्वारा शक्तिशाली भावना तरंगें प्रवाहित करके साधारण जीव- जन्तुओं एवं मनुष्यों को ही नहीं, वरन् सूक्ष्म लोकों की आत्माओं को भी प्रभावित और आकर्षित किया जा सकता है। शक्तिशाली ट्रान्समीटर द्वारा किया हुआ अमेरिका का ब्राडकास्ट भारत में सुना जाता है। शक्तिशाली सहस्रार द्वारा निक्षेपित भावना प्रवाह भी लोक- लोकान्तरों के सूक्ष्म तत्त्वों को हिला देता है।
अब मेरुदण्ड के नीचे के भाग को, मूल को लीजिये। सुषुम्ना के भीतर रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे सूक्ष्म ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड के अन्तिम भाग के समीप एक काले वर्ण के षट्कोण वाले परमाणु से लिपटकर बँध जाती है। छप्पर को मजबूत बाँधने के लिए दीवार में खूँटे गाड़ते हैं और उन खूँटों में छप्पर से सम्बन्धित रस्सी को बाँध देते हैं। इसी प्रकार उस षट्कोण कृष्ण वर्ण परमाणु से ब्रह्मनाड़ी को बाँधकर इस शरीर से प्राणों के छप्पर को जकड़ देने की व्यवस्था की गयी है।
कूर्म से ब्रह्मनाड़ी के गुन्थन स्थल को आध्यात्मिक भाषा में ‘कुण्डलिनी’ कहते हैं। जैसे काले रंग का होने से आदमी का नाम कलुआ भी पड़ जाता है, वैसे ही कुण्डलाकार बनी हुई इस आकृति को ‘कुण्डलिनी’ कहा जाता है। यह साढ़े तीन लपेटे उस कू र्म में लगाये हुए है और मुँह नीचे को है। विवाह संस्कारों में इसी की नकल करके ‘‘भाँवर या फेरे’’ होते हैं। साढ़े तीन (सुविधा की दृष्टि से चार) परिक्रमा किये जाने और मुँह नीचा किये जाने का विधान इस कुण्डलिनी के आधार पर ही रखा गया है, क्योंकि भावी जीवन- निर्माण की व्यवस्थित आधारशिला, पति- पत्नी का कूर्म और ब्रह्मनाड़ी मिलन वैसा ही महत्त्वपूर्ण है जैसा कि शरीर और प्राण को जोडऩे में कुण्डलिनी का महत्त्व है।
इस कुण्डलिनी की महिमा, शक्ति और उपयोगिता इतनी अधिक है कि उसको भली प्रकार समझने में मनुष्य की बुद्धि लडख़ड़ा जाती है। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों के लिये आज ‘परमाणु’ एक पहेली बना हुआ है। उसके तोडऩे की एक क्रिया मालूम हो जाने का चमत्कार दुनिया ने प्रलयंकर परमाणु बम के रूप में देख लिया। अभी उसके अनेकों विध्वंसक और रचनात्मक पहलू बाकी हैं। सर आर्थर का कथन है कि ‘‘यदि परमाणु शक्ति का पूरा ज्ञान और उपयोग मनुष्य को मालूम हो गया, तो उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं रहेगा। यह सूर्य के टुकड़े- टुकड़े करके उसेगर्द में मिला सकेगा और जो चाहेगा, वह वस्तु या प्राणी मनमाने ढंग से पैदा कर लिया करेगा। ऐसे- ऐसे यन्त्र उसके पास होंगे, जिनसे सारी पृथ्वी एक मुहल्ले में रहने वाली आबादी की तरह हो जायेगी। कोई व्यक्ति चाहे कहीं क्षण भर में आ जा सकेगा और चाहे जिससे जो वस्तु ले दे सकेगा तथा देश- देशान्तरों में स्थित लोगों से ऐसे ही घुल- मिलकर वार्तालाप कर सकेगा, जैसे दो मित्र आपस में बैठे- बैठे गप्पें लड़ाते रहते हैं।’’ जड़ जगत् के एक परमाणु की शक्ति का आकलन करने पर उसकी महत्ता को देखकर आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। फिर चैतन्य जगत् का एक स्फुल्लिंग जो जड़ परमाणु की अपेक्षा अनन्त गुना शक्तिशाली है, कितना अद्भुत होगा, इसकी तो कल्पना कर सकना भी कठिन है।
योगियों में अनेक प्रकार की अद्भुत शक्तियाँ होने के वर्णन और प्रमाण हमंक मिलते हैं। योग की ऋद्धि- सिद्धियों की अनेक गाथाएँ सुनी जाती हैं। उनसे आश्चर्य होता है और विश्वास नहीं होता कि यह कहाँ तक ठीक है! पर जो लोग विज्ञान से परिचित हैं और जड़ परमाणु तथा चैतन्य स्फुल्लिंग को जानते हैं, उनके लिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जिस प्रकार आज परमाणु की शोध में प्रत्येक देश के वैज्ञानिक व्यस्त हैं, उसी प्रकार पूर्वकाल में आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ताओं ने, तत्त्वदर्शी ऋषियों ने मानव शरीर के अन्तर्गत एक बीज परमाणु की अत्यधिक शोध की थी। दो परमाणुओं को तोडऩे, मिलाने या स्थानान्तरित करने का सर्वोच्च स्थान कुण्डलिनी केन्द्र में होता है, क्योंकि अन्य सब जगह के चैतन्य परमाणु गोल और चिकने होते हैं, पर कुण्डलिनी में यह मिथुन लिपटा हुआ है। जैसे यूरेनियम और प्लेटोनियम धातु में परमाणुओं का गुन्थन कुछ ऐसे टेढ़े- तिरछे ढंग से होता है कि उनका तोड़ा जाना अन्य पदार्थों के परमाणुओं की अपेक्षा अधिक सरल है, उसी प्रकार कुण्डलिनी स्थित स्फुल्लिंग परमाणुओं की गतिविधि को इच्छानुकूल संचालित करना अधिक सुगम है। इसलिए प्राचीन काल में कुण्डलिनी जागरण की उतनी ही तत्परता से शोध हुई थी, जितनी कि आजकल परमाणु विज्ञान के बारे में हो रही है। इन शोधों के परीक्षणों और प्रयोगों के फलस्वरूप उन्हें ऐसे कितने ही रहस्य भी करतलगत हुए थे, जिन्हें आज ‘योग के चमत्कार’ के नाम से पुकारते हैं।
मैडम ब्लेवेटस्की ने कुण्डलिनी शक्ति के बारे में काफी खोजबीन की है। वे लिखती हैं- ‘‘कुण्डलिनी विश्वव्यापी सूक्ष्म विद्युत् शक्ति है, जो स्थूल बिजली की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशालिनी है। इसकी चाल सर्प की चाल की तरह टेढ़ी है, इससे इसे सर्पाकार कहते हैं। प्रकाश एक लाख पचासी हजार मील प्रति सेकण्ड चलता है, पर कुण्डलिनी की गति एक सेकण्ड में ३४५००० मील है।’’ पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे ‘‘स्प्रिट- फायर’’ ‘‘सरपेण्टलपावर’’ कहते हैं। इस सम्बन्ध में सर जान बुडरफ ने भी बहुत विस्तृत विवेचन किया है।
कुण्डलिनी को गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है। बहुमूल्य रत्नों को रखने के लिये किसी अज्ञात स्थान में गुप्त परिस्थितियों में तिजोरी रखी जाती है और उसमें कई ताले लगा दिये जाते हैं, ताकि घर या बाहर के अनधिकारी लोग उस खजाने में रखी हुई सम्पत्ति को न ले सकें। परमात्मा ने हमें शक्तियों का अक्षय भण्डार देकर उसमें छ: ताले लगा दिये। ताले इसलिये लगा दिये हैं कि वे जब पात्रता आ जाये, धन के उत्तरदायित्व को ठीक प्रकार समझने लगें, तभी वह सब प्राप्त हो सके। उन छहों तालों की ताली मनुष्य को ही सौंप दी गयी है, ताकि वह आवश्यकता के समय तालों को खोलकर उचित लाभ उठा सके|
षट्चक्र
शून्य चक्र आज्ञा चक्र विशुद्धाख्य चक्र अनाहत चक्र
मणिपूरक चक्र स्वाधिष्ठान चक्र मूलाधार चक्र
नोट :—षटचक्रों में केवल आज्ञा चक्र सामने की ओर है, शेष सभी मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी में स्थित हैं।
यह छ: ताले जो कुण्डलिनी पर लगे हुए हैं, छ: चक्र कहलाते हैं। इन चक्रों को वेधन करके जीव कुण्डलिनी के समीप पहुँच सकता है और उसका यथोचित उपयोग करके जीवन- लाभ प्राप्त कर सकता है। सब लोगों की कुण्डलिनी साधारणत: अस्तव्यस्त अवस्था में पड़ी रहती है, पर जब उसे जगाया जाता है तो वह अपने स्थान पर से हट जाती है और उस लोक में प्रवेश कर जाने देती है जिसमें परमात्मशक्तियों की प्राप्ति हो जाती है। बड़े- बड़े गुप्त खजाने जो प्राचीन काल से भूमि में छिपे पड़े होते हैं, उन पर सर्प की चौकीदारी पायी जाती है। खजाने के मुख पर कुण्डलीदार सर्प बैठा रहता है और चौकीदारी किया करता है।
देवलोक भी ऐसा ही खजाना है, जिसके मुँह पर षटकोण कूर्म की शिला रक्खी हुई है और शिला से लिपटी हुइ भयंकर सर्पिणी कुण्डलिनी बैठी है। वह सर्पिणी अधिकारी पात्र की प्रतीक्षा में बैठी होती है। जैसे ही कोई अधिकारी उसके समीप पहुँचता है, वह उसे रोकने या हानि पहुँचाने की अपेक्षा अपने स्थान से हटकर उसको रास्ता दे देती है और उसका कार्य समाप्त हो जाता है।
कुण्डलिनी- जागरण के लाभों पर प्रकाश डालते हुए एक अनुभवी साधक ने लिखा है- ‘‘भगवती कुण्डलिनी की कृपा से साधक सर्वगुण सम्पन्न होता है। सब कलायें, सब सिद्धियाँ उसे अनायास प्राप्त हो जाती हैं। ऐसे साधक का शरीर सौ वर्ष तक बिलकुल स्वस्थ और सुदृढ़ रहता है। वह अपना जीवन परमात्मा की सेवा में लगा देता है और उसके आदेशानुसार लोकोपकार करते हुए अन्त में स्वेच्छा से अपना कलेवर छोड़ जाता है। कुण्डलिनी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति पूर्ण निर्भय और आनन्दमय रहता है। भगवती की उस पर पूर्ण कृपा रहती है और वह स्वयं सदैव अपने ऊपर उसकी छत्रछाया होने का अनुभव करता है। उसके कानों में माता के ये शब्द गूँजते रहते हैं कि- भय नहीं, मैं तुम्हारे पीछे खड़ी हूँ।’’ इसमें सन्देह नहीं कि कुण्डलिनी शक्ति के प्रभाव से मनुष्य का दृष्टिकोण दैवी हो जाता है और इस कारण उसका व्यक्तित्व सब प्रकार से शक्ति सम्पन्न और सुखी बन जाता है।
मस्तिष्क के ब्रह्मरन्ध्र में बिखरे हुए सहस्रदल भी साधारणत: उसी प्रकार प्रसुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं, जैसे कि कुण्डलिनी सोया करती है। उतने बहुमूल्य यन्त्रों और कोषों के होते हुए भी मनुष्य साधारणत: बड़ा दीन, दुर्बल, तुच्छ, क्षुद्र, विषय- विकारों का गुलाम बनकर कीट- पतंगों की तरह जीवन व्यतीत करता है और दु:ख- दारिद्र्य की दासता में बँधा हुआ फडफ़ड़ाया करता है; पर जब इन यन्त्रों और रत्नागारों से परिचित होकर उनके उपयोग को जान लेता है, उन पर अधिकार कर लेता है, तब वह परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी की समस्त योग्यताओं और शक्तियों से सम्पन्न हो जाता है। कुण्डलिनी जागरण से होने वाले लाभों के सम्बन्ध में योगशास्त्रों में बड़ा विस्तृत और आकर्षक वर्णन है। उन सबकी चर्चा न करके यहाँ इतना कह देना पर्याप्त होगा कि कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से इस विश्व में जो भी कुछ है, वह सब कुछ मिल सकता है। उसके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती।
षट्चक्रों का स्वरूप
कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में छ: फाटक हैं अथवा यों कहना चाहिए कि छ: ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति- केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं।
सुषुम्ना के अन्तर्गत रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से वह छ: चक्र सम्बन्धित हैं। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल- पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है। पिछले पृष्ठ पर दिये गये चित्र में पाठक यह देख सकेंगे कि कौन- सा चक्र किस स्थान पर है। मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्धाख्य चक्र कण्ठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्रार है।
सुषुम्ना तथा उसके अन्तर्गत हरने वाली चित्रणी आदि नाडिय़ाँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे सम्बन्धित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म हैं। किसी शरीर को चीर- फाड़ करते समय इन चक्रों को नस- नाडिय़ों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्मचक्षुओं की वीक्षण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग- मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।
‘षट्चक्र’ एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र- ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है, तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ गोल नहीं होतीं, वरन् उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुडिय़ाँ होती हैं। इन कोष या पंखुडिय़ों को ‘पद्मदल’ कहते हैं। यह एक प्रकार के तन्तु- गुच्छक हैं।
इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्त्व प्रधान होता है। इस तत्त्व- प्रधानता का उस स्थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।
घुन नामक कीड़ा लकड़ी को काटता चलता है तो उस काटे हुए स्थान की कुछ आकृतियाँ बन जाती हैं। उन चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है, उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा- मेढ़ा होता है। इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायु मार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं।
द्रुतगति से बहती हुई नदी में कुछ विशेष स्थानों में भँवर पड़ जाते हैं। यह पानी के भँवर कहीं उथले, कहीं गहरे, कहीं तिरछे, कहीं गोल- चौकोर हो जाते हैं। प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति चतुष्कोण, अर्धचन्द्राकार, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिङ्गकार तथा पूर्ण चन्द्राकार बनती है। अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण- सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यन्त्र कहते हैं।
शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।
ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से उनमें एक वैसी ध्वनि होती है, जैसी कि वंशी में वायु का प्रवेश होने पर छिद्रों के आधार से ध्वनि उत्पन्न होती है। हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, ग, म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- यँ, लँ, रँ, हँ, जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।
चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी कपोत, मण्डूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। तत्त्वों के मिश्रण टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिसरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है। यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्दगामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।
इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथवा यों कहिये कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं। प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।
पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है। चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं। यही चक्रों के गुण हैं।
यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है। सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।
देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को ‘मातृकायें’ कहते हैं। इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, सम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं। ड, र, ल, क, श, के आगे आदि मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।
उपर्युक्त परिभाषाओं को समझ लेने के उपरान्त प्रत्येक चक्र की निम्र जानकारी को ठीक प्रकार समझ लेना पाठकों के लिए सुगम होगा। अब छहों चक्रों का परिचय नीचे दिया जा रहा है—
मूलाधार चक्र-
स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामथ्र्य।
स्वाधिष्ठान चक्र-
स्थान- पेडू (शिश्र के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।
मणिपूर चक्र-
स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।
अनाहत चक्र-
स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।
विशुद्धाख्य चक्र-
स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- ‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता।
आज्ञा चक्र-
स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्त्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन।
षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है—
शून्य चक्र-
स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का करतलगत होना।
पाठक जानते हैं कि कुण्डलिनी शक्ति का स्रोत है। वह हमारे शरीर का सबसे अधिक समीप चैतन्य स्फुल्लिंग है। उसमें बीज रूप से इतनी रहस्यमय शक्तियाँ गर्भित हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं हो सकती। कुण्डलिनी शक्ति के इन छ: केन्द्रों में, षट्चक्रों में भी उसका काफी प्रकाश है। जैसे सौरमण्डल में नौ ग्रह हैं, सूर्य उनका केन्द्र है और चन्द्रमा, मङ्गल आदि उसमें सम्बद्ध होने के कारण सूर्य की परिक्रमा करते हैं, वे सूर्य की ऊष्मा, आकर्षणी, विलयिनी आदि शक्तियों से प्रभावित और ओत- प्रोत रहते हैं, वैसे ही कुण्डलिनी की शक्तियाँ चक्रों में भी प्रसारित रहती हैं। एक बड़ी तिजोरी में जैसे कई छोटे- छोटे अनेक दराज होते हैं, जैसे मधुमक्खी के एक बड़े छत्ते में छोटे- छोटे अनेक छिद्र होते हैं और उनमें भी कुछ मधु भरा रहता है, वैसे ही कुण्डलिनी की कुछ शक्ति का प्रकाश चक्रों में भी होता है। चक्रों के जागरण के साथ- साथ उनमें सन्निहित कितनी ही रहस्यमय शक्तियाँ भी जाग पड़ती हैं। उनका सक्षिप्त- सा सकेंत ऊपर चक्रों के ध्यान फल में बताया गया है। इनको विस्तार करके कहा जाए तो यह शक्तियाँ भी आश्चर्यों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होंगी।
चक्रों का वेधन
षट् चक्रों का वेधन करते हुए कुण्डलिनी तक पहुँचना और उसे जाग्रत् करके आत्मोन्नति के मार्ग में लगा देना यह एक महाविज्ञान है। ऐसा ही महाविज्ञान, जैसा कि परमाणु बम का निर्माण एवं उसका विस्फोट करना एक अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य है। इसे यों ही अपने आप केवल पुस्तक पढक़र आरम्भ नहीं कर देना चाहिए, वरन् किसी अनुभवी पथ- प्रदर्शक की संरक्षकता में यह सब किया जाना चाहिए।
चक्रों का वेधन ध्यान- शक्ति के द्वारा किया जाता है। यह सभी जानते हैं कि हमारा मस्तिष्क एक प्रकार का बिजलीघर है और उस बिजलीघर की प्रमुख धारा का नाम ‘मन’ है। मन की गति चंचल और बहुमुखी होती है। यह हर घड़ी चंचलतामग्न और सदा उछलकूद में व्यस्त रहता है। इस उथल- पुथल के कारण उस विद्युत् पुञ्ज का एक स्थान पर केन्द्रीकरण नहीं होता, जिससे कोई महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादन हो। इसके अभाव में जीवन के क्षण यों ही अस्त- व्यस्त नष्ट होते रहते हैं। यदि उस शक्ति का एकीकरण हो जाता है, उसे एक स्थान पर संचित कर लिया जाता है, तो आतिशी शीशे द्वारा एकत्रित हुई सूर्य किरणों द्वारा आग की लपटें उठने लगने जैसे दृश्य उपस्थित हो जाते हैं। ध्यान का एक ऐसा सूक्ष्म विज्ञान है, जिसके द्वारा मन की बिखरी हुई बहुमुखी शक्तियाँ एक स्थान पर एकत्रित होकर एक कार्य में लगती हैं। फलस्वरूप वहाँ असाधारण शक्ति का स्रोत प्रवाहित हो जाता है। ध्यान द्वारा मन:क्षेत्र की केन्द्रीयभूत इस बिजली से साधक षट्चक्रों का वेधन कर सकता है।
षट्चक्रों के वेधन की साधना करने के लिए अनेक ग्रन्थों में अनेक मार्ग बताये गये हैं। इसी प्रकार गुरु परम्परा से चली आने वाली साधनाएँ भी विविध प्रकार की हैं। इन सभी मार्गों से उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है, सफलता मिल सकती है, पर शर्त यह है कि उसे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा तथा उचित पथ- प्रदर्शन में किया जाए।
अन्य साधनाओं की चर्चा और तुलना करके उनकी आलोचना- प्रत्यालोचना करना यहाँ हमें अभीष्ट नहीं है। इन पंक्तियों में तो हम एक ऐसी सुगम साधना पाठकों के सामने उपस्थित करना चाहते हैं, जिसके द्वारा गायत्री शक्ति से चक्रों का जागरण बड़ी सुविधापूर्वक हो सकता है और अन्य साधनाओं में आने वाली असाधारण कठिनाइयों एवं खतरों से स्वतन्त्र रहा जा सकता है।
प्रात:काल शुद्ध शरीर और स्वस्थ चित्त से सावधान होकर पद्मासन में बैठिए। पूर्व वर्णित ब्रह्मसन्ध्या की क्रियाएँ कीजिए। इसके बाद गायत्री के एक सौ आठ मन्त्रों की माला जपिए।
ब्रह्मसन्ध्या करने के पश्चात् मस्तिष्क के मध्य भाग त्रिकुटी में (एक रेखा एक कान से दूसरे कान तक खींची जाए और दूसरी रेखा दोनों भौंहों के मध्य में से मस्तिष्क के मध्य तक खींची जाए, तो दोनों का मिलन जहाँ होता है, उस स्थान को त्रिकुटी कहते हैं।) वेदमाता गायत्री का ज्योतिस्वरूप ध्यान करना चाहिए। मन को उसके मध्य से ज्योतिर्लिंग के मध्य में इस प्रकार अवस्थित करना चाहिए जैसे लुहार अपने लोहे को गरम करने के लिए भठी में डाल देता है और जब वह लाल हो जाता है, तो उसे बाहर निकालकर ठोकता- पीटता और अभीष्ट वस्तु बनाता है। त्रिकुटी स्थित गायत्री ज्योति में मन को अवस्थित रखने से मन स्वयं भी तेज स्वरूप हो जाता है। तब उसे आज्ञाचक्र के स्थान में लाना चाहिए। ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड से आगे बढक़र त्रिकुटी में होती हुई सहस्रार को गयी है। इस ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में दीप्तिमान मन को प्रवेश कराके आज्ञाचक्र में ले जाया जाता है। वहाँ स्थिरता करने पर वे सब अनुभव होते हैं, जो चक्र के लक्षणों में वर्णित हैं। मन को चक्र के दलों का, अक्षरों का, तत्त्व का, बीज का, देवशक्ति का, यन्त्र का, वाहन का, गुण- रंग का अनुभव होता है। आरम्भ में अनुभव बहुत अधूरे होते हैं। धीरे- धीरे वे अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। कभी- कभी किन्हीं व्यक्तियों के चक्रों में कुछ लक्षण भेद भी होता है। उसे अपने अन्दर के चक्र की आकृति का अनुभव होगा।
स्वस्थ चित्त से, सावधान होकर, एक मास तक एक चक्र की साधना करने से वह प्रस्फुटित हो जाता है। ध्यान में उसके लक्षण अधिक स्पष्ट होने लगते हैं और चक्र के स्थान पर उससे सम्बन्धित मातृकाओं, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में अचानक कम्पन, रोमांच, प्रस्फुरण, उत्तेजना, दाद, खाज, खुजली जैसे अनुभव होते हैं। यह इस बात के चिह्न हैं कि चक्रों का जागरण हो रहा है। एक मास या न्यूनाधिक काल में इस प्रकार के चिह्न प्रकट होने लगें, ध्यान में चक्र का रूप स्पष्ट होने लगे, तो उससे आगे बढक़र इससे नीचे की ओर दूसरे चक्र में प्रवेश करना चाहिए। विधि यही है- मार्ग वही। गायत्री ज्योति में मन को तपाकर ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करना और उसमें होकर पहले चक्र में जाना, फिर उसे पार करके दूसरे में जाना। इस प्रकार एक चक्र में लगभग एक मास लगता है। जब साधना पक जाती है, तो एक चक्र से दूसरे चक्र में जाने का मार्ग खुल जाता है। जब तक साधना कच्ची रहती है, तब तक द्वार रुका रहता है। साधक का मन आगे बढऩा चाहे, तो भी द्वार नहीं मिलता और यह उसी चक्र के तन्तुजाल की भूलभुलैयों में उलझा रह जाता है।
जब साधना देर तक नहीं पकती और साधक को आगे का मार्ग नहीं मिलता, तो उसे अनुभवी गुरु की सहायता की आवश्यकता होती है। वह जैसा उपाय बताएँ वैसा उसे करना होता है। इसी प्रकार धीरे- धीरे क्रमश: छहों चक्रों को पार करता हुआ साधक मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक पहुँचता है और वहाँ उस ज्वालामुखी कराल कालस्वरूप महाशक्ति सर्पिणी के विकराल रूप का दर्शन करता है। महाकाली का प्रचण्ड स्वरूप यहीं दिखाई पड़ता है। कई साधक इस सोते सिंह को जगाने का साहस करते हुए काँप जाते हैं।
कुण्डलिनी को जगाने में उसे पीडि़त करना पड़ता है, छेदना पड़ता है। जैसे परमाणु का विस्फोट करने के लिए उसे बीच में से छेदना पड़ता है, उसी प्रकार सुप्त कुण्डलिनी को गतिशील बनाने के लिए उसी पर आघात करना होता है। इसे आध्यात्मिक भाषा में ‘कुण्डलिनी पीडऩ’ कहते हैं। इससे पीडि़त होकर क्षुब्ध कुण्डलिनी फुसकारती हुई जाग पड़ती है और उसका सबसे प्रथम आक्रमण, मन में लगे हुए जन्म- जन्मान्तरों के संस्कारों पर होता है। वह संस्कारों को चबा जाती है, मन की छाती पर अपने अस्त्रों सहित चढ़ बैठती है और उसकी स्थूलता, मायापरायणता को नष्ट कर ब्रह्मभाव में परिणत कर देती है।
इस कुण्डलिनी को जगाने और उसके जागने पर आक्रमण होने की क्रिया का पुराणों ने बड़े ही आलंकारिक और हृदयग्राही रूप से वर्णन किया है। महिषासुर और दुर्गा का युद्ध इसी आध्यात्मिक रहस्य का प्रतीक है। अपनी मुक्ति की कामना करते हुए, देवी के हाथों मरने की कामना से उत्साहित होकर महिषासुर (महि: यानी पृथ्वी आदि पञ्चभूतों से बना हुआ मन) चण्डी (कुण्डलिनी) से लडऩे लगता है, उस चुपचाप बैठी हुई पर आक्रमण करता है। देवी क्रुद्ध होकर उससे युद्ध करती हैं, उस पर प्रत्याघात करती हैं। उसके वाहन महिष को, संस्कारों के समूह को चबा डालती हैं। मन के भौतिक आचरण को, महिषासुर के शरीर को, दसों भुजाओं को, दसों दिशाओं से, सब ओर से विदीर्ण कर डालती हैं और अन्त में महिषासुर (साधारण बीज) चण्डी की ज्योति में मिल जाता है, महाशक्ति का अंश होकर जीवन लाभ को प्राप्त कर लेता है। भक्तिमयी साधना का वह रौद्ररूप बड़ा ही विचित्र है। इसे ‘साधना- समर’ कहते हैं।
जहाँ कितने ही भक्त, पे्रम और भक्ति द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं, वहाँ ऐसे भी कितने ही भक्त हैं, जो साधना- समर में ब्रह्म से लडक़र उसे प्राप्त करते हैं। भगवान् तो निष्ठा के भूखे हैं, वे सच्चे प्रेमी को भी मिल सकते हैं, सच्चे शत्रु को भी। भक्त योगी भी उन्हें पा सकते हैं और साधना- समर में अपने दो- दो हाथ दिखाने वाले हठयोगी, तन्त्रमार्गी भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण ऐसा ही हठ- तंत्र है, जिसके आधार पर आत्मा तुच्छ से महान् और अणु से विभु बनकर ईश्वरीय सर्व शक्तियों से सम्पन्न हो जाती है।
षट्चक्रों की साधना करते समय प्रतिदिन ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करके चक्रों का ध्यान करते हैं। यह ध्यान पाँच मिनट से आरम्भ करके तीस मिनट तक पहुँचाया जा सकता है। एक बार में इससे अधिक ध्यान करना हानिकारक है, क्योंकि अधिक ध्यान से बढ़ी ऊष्मा को सहन करना कठिन हो जाता है। ध्यान समाप्त करते समय उसी मार्ग पर वापस लौटकर मन को त्रिकुटी में लगाया जाता है और फिर ध्यान को समाप्त कर दिया जाता है।
यह कहने की आवश्यकता ही नहीं कि साधनाकाल में ब्रह्मचर्य से रहना, एक बार भोजन करना, सात्त्विक खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, एकान्त सेवन करना, स्वस्थ वातावरण में रहना, दिनचर्या को ठीक रखना अनिवार्य है, क्योंकि यह साधनाओं की प्रारम्भिक शर्तें मानी गई हैं।
षट्चक्रों के वेधन और कुण्डलिनी के जागरण से ब्रह्मरन्ध्र में ईश्वरीय दिव्यशक्ति के दर्शन होते हैं और गुप्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।