Books - अंधविश्वास को उखाड़ फेंकिये
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Language: HINDI
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अन्ध-विश्वास का अभिशाप
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हिन्दू समाज की बीमारियों में अन्ध-विश्वास की बीमारी बहुत भयानक है। अन्य बीमारियां तो मनुष्य के शरीर तक ही सीमित रहती हैं और सावधानी पूर्वक उपचार किए जाने पर पीछा छोड़ देती हैं। किन्तु अन्ध-विश्वास की बीमारी मनुष्य के मन, बुद्धि और आत्मा तक को ग्रास कर इतना जड़ बना देती है कि समझाना तो क्या उसके मिथ्यापन और हानियों को प्रत्यक्ष देखकर और अनुभव करके भी उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं होती। दुर्भाग्य तो यह है कि प्रत्यक्ष हानि उठाकर भी लोग अपने अन्धविश्वास को दोषी न मानकर अपनी ही किसी भूलचूक की कल्पना कर लेते हैं और उसे छोड़ने में किसी नये तथा बड़े अनिष्ट की आशंका करने लगते हैं। सोचने लगते हैं कि जब मानते हैं तब तो इतनी हानि हुई, न मानेंगे तो न जाने क्या हो जायेगा।
मनुष्य अपने विश्वासों का गुलाम होता है और उनकी प्रेरणा पर चलकर खाई-खन्दक तक में गिरने को तैयार हो जाता है। इसका कारण यह है कि किसी बात पर विश्वास करता हुआ मनुष्य जब एक ही दिशा में सोचता रहता है तब वह विश्वास उसका संस्कार बन जाता है, जिसके प्रतिकूल सोचने में पीड़ा और अनुकूल सोचने में सुख मिलता है।
ऐसा भी नहीं कि केवल अशिक्षित जनसाधारण ही इसके शिकार बनते हों और शिक्षित जन विशिष्ट इसके अपवाद हों। अति विश्वासी होने पर किसी का ऊंचा विश्वास भी अन्ध-विश्वास का रूप धारण कर लेता है। इसका एक बड़ा प्रमाण उस समय के इतिहास में मिलता है जब मोहम्मद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण किया था।
उस समय सोमनाथ के मन्दिर के मुख्य अधिष्ठाता और पुजारी ‘गंग सर्वज्ञ’ थे। गंग सर्वज्ञ कोई औपन्यासिक पात्र नहीं ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं और उस समय के प्रकाण्ड विद्वानों में से थे। सम्पूर्ण भारत का जनसाधारण ही नहीं अन्य विद्वानों समेत सारे राज महाराजा उन्हें साक्षात् शंकर के रूप में मानकर पूजते थे। उनके व्यक्तित्व की महान् महिमा था और उनके वाक्य वेदवाक्य माने जाते थे, जैसा कि उनकी सर्वज्ञ उपाधि से विदित है।
किन्तु वे गजनवी के हमले की सूचना से लेकर मन्दिर लुट जाने और भगवान् सोमनाथ की मूर्ति के खण्ड-खण्ड हो जाने तक यही कहते रहे और विश्वास दिलाते रहे कि युद्ध और रक्तपात की आवश्यकता ही न पड़ेगी। समय आने पर भगवान् शंकर स्वयं प्रकट होंगे और अपना तीसरा नेत्र खोल कर म्लेच्छों को भस्म कर देंगे। जिसके फलस्वरूप प्रतिरोध का प्रयत्न शिथिल पड़ गया और लोग उस चमत्कार को देखने के लिए प्रतीक्षा करने लगे। गजनवी आया और गाजी बनकर चला गया। किन्तु भगवान् शंकर न प्रकट हुए और न उन्होंने अपनी नेत्र-वह्नि से म्लेक्षों को भस्म किया।
यह बात सही है कि अपने इस कथन से गंग सर्वज्ञ का उद्देश्य देश के पथ-भ्रान्त करने का नहीं था। यह उनका अति विश्वास था, जो अन्धविश्वास बनकर बोला था और वह लोगों का अन्धविश्वास था जो वे उनके कथनानुसार चमत्कार देखने की प्रतीक्षा में शिथिल उद्योग हो बैठे।
ऐसे न जाने कितने अन्धविश्वास और उनसे उत्पन्न अपशकुन इतिहास में पाये जाते हैं जिनके कारण न जाने कितने धीर-वीर योद्धा और राजा शिथिल साहस होकर हारे हैं। तलवार खुल पड़ना, कटार निकल पड़ना, जीन खिसक जाना, धनुष उतर जाना, पगड़ी बिगड़ जाना, मुकुट मुड़ जाना जैसी नगण्य बातें पराजय की सूचक बनकर विकृत विश्वासी राजा और योद्धाओं के आत्म-विश्वास में दरार का कारण बनी हैं, जिससे इतिहास की धारायें ही मुड़ गई हैं। यह सब उनके अन्धविश्वास के सिवाय और क्या था?
मोहम्मद गोरी की सेना के सामने गायों की पंक्ति देखकर पृथ्वीराज का किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर वार-विरत हो जाना एक आदर्श अन्धविश्वास ही था जिसने भारत का भाग्य ही अन्धकारपूर्ण बना दिया।
लाट झुक जाने, मीनार मुड़ जाने, कंगूरा उखड़ जाने और गुम्बद दरक जाने को हुकूमत उखड़ जाने का संकेत मानना बादशाहों का अन्धविश्वास ही था जिसने उन्हें बड़ी-बड़ी राजनीतिक हानियां पहुंचाई हैं।
इस प्रकार अन्धविश्वास के विषय में जब ऐसी उच्च स्थिति के लोगों का यह हाल रहा है तब अशिक्षित जनसाधारण के विषय में क्या कहा जाये। हवा का रुख, बादलों का रंग, वर्षा की बूंदें, फूलों का खिलना, पौधों का मुरझाना, पक्षियों का बोलना, श्वांस की गति, अंगों का स्फुरण, जूतों का उलटना, वस्त्रों का पलटना, पानी का लुढ़कना, ग्रास का गिरना, आग का चिटखना, लकड़ी का फुरफुराना, वैदी का गिरना, चूड़ी का फूटना, जूड़े का खुलना, बालों का टूटना अन्धविश्वास पूर्ण शुभ शुभ का द्योतक बना हुआ जन-जीवन का एक-एक क्षण घेरे हुए हैं।
हिन्दू–समाज का छोटे से लेकर बड़े तक शायद ही कोई ऐसा काम अथवा क्रिया हो जिसमें शुभ अशुभ का विचार न जुड़ा हो और जिसके साथ किसी अन्ध-विश्वास का सम्बन्ध न हो। उठने से लेकर सोने तक का सारा क्रिया-कलाप अन्ध-विश्वासों एवं शुभा-शुभ की श्रृंखला बनी हुई है। कौन पैर पहले जमीन पर रखें, जगते ही हथेली देखना, रेखायें चूमना, और को देखने से पहले दर्पण देखना आदि सब किसी न किसी अन्धविश्वास पर आधारित हैं। घर-घाट, हाट-बाट, उठने-बैठने, चलने-फिरने और यात्रा आदि करने में अन्धविश्वास पूर्ण शुभा-शुभ विचार भरे पड़े हैं। आदमियों का मिलना, पशुओं का दीखना, उनका खांसना, छींकना और आवाज करना, सूंघना, मुंह उठाना, रास्ता काटना, दिशा बदलना, दांयें-बांयें अथवा आगे-पीछे चलना न जाने कितने प्रकार के अन्धविश्वासों के जननी जनक है।
घरों में बहू, बेटियों का एक-एक कदम अन्धविश्वासों का बन्दी हुआ है। कहां पर बैठें, किस ओर पैर करें, किस ओर सिर करें यह सब अन्धविश्वासों से भरे पड़े हैं।
दुकान का कौन-सा किवाड़ पहले खोला जाये, कौन-सा पैर पहले रखा जाये, किस ग्राहक के साथ कौन सी चीज पहले बेचकर ‘बोहनी’ की जाये, कितने पैसों की बेची जाय, कौन-सी तराजू के किस पलड़े में रखकर तोली जाये आदि नाचीज बातें और पलड़े का उलट जाना, जोत का चढ़ जाना, डोरी का टूट जाना, बांट का गिर जाना, डन्डी का टूट जाना आदि न जाने कितनी क्या कोई भी तो ऐसी बात नहीं है जिसके साथ कोई न कोई अन्धविश्वास न जुड़ा हो।
इस प्रकार यदि ध्यान से देखा और भारतीय जनता का गहराई से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि आवाल-वृद्ध स्त्री-पुरुषों की प्रत्येक साधारण से साधारण क्रिया तक में कोई न कोई अन्धविश्वास निहित है। इसके अतिरिक्त न जाने कितने टोने-टोटके, भूत-प्रेत, रोग-दोष अन्धविश्वास के आधार बने हुए हैं। इतना ही नहीं कि यह मूढ़ता पूर्ण बातें केवल कहने-सुनने तक ही सीमित हों बल्कि इनके आधार पर हानि-लाभ की बड़ी-बड़ी सम्भावनायें निश्चित करके उनके अनुसार जीवन चलाया जाता है।
यह सब कुछ और कुछ नहीं केवल अशिक्षा एवं अविद्यापूर्ण मूर्खता है। यद्यपि इन कल्पित अन्धविश्वासों के आधार पर मनुष्य को हानि-लाभ, सुख-दुःख, सफलता असफलता मिलती नहीं, वह मिलती है यथार्थ परिस्थितियों और परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न के आधार पर, तभी भी यह देखते, सुनते और अनुभव करते हुए भारतवासी और हिन्दू समाज अपने अन्धविश्वासों के वशीभूत हुए बिना रहता ही नहीं। उसकी यह समझ में न जाने क्यों नहीं आता कि इन बातों के घटने से ही यदि हानि-लाभ अथवा सफलता असफलता मिलती तो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ, कर्म और कर्तव्य का कोई मूल्य महत्व ही नहीं रह जाता।
समाज से इस मूढ़ता को दूर करने का केवल एक ही उपाय है शिक्षा और इन अन्धविश्वासों के विरुद्ध प्रचार। जो भी समझदार शिक्षित जिस अन्धविश्वास को जहां देखे उसके विरुद्ध अपने आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करे। आज हम सब क्या वैयक्तिक और क्या सामूहिक रूप में दोनों तरह से अन्धविश्वासों का भण्डा-फोड़ करने और यह अन्धकार फैलाने वालों के विरुद्ध अभियान करने में जरा भी न हिचकिचायें।
अन्धविश्वासों का धर्म से दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हें हर प्रकार से उखाड़ फेंकने में ही समाज और राष्ट्र का हित है।
मनुष्य अपने विश्वासों का गुलाम होता है और उनकी प्रेरणा पर चलकर खाई-खन्दक तक में गिरने को तैयार हो जाता है। इसका कारण यह है कि किसी बात पर विश्वास करता हुआ मनुष्य जब एक ही दिशा में सोचता रहता है तब वह विश्वास उसका संस्कार बन जाता है, जिसके प्रतिकूल सोचने में पीड़ा और अनुकूल सोचने में सुख मिलता है।
ऐसा भी नहीं कि केवल अशिक्षित जनसाधारण ही इसके शिकार बनते हों और शिक्षित जन विशिष्ट इसके अपवाद हों। अति विश्वासी होने पर किसी का ऊंचा विश्वास भी अन्ध-विश्वास का रूप धारण कर लेता है। इसका एक बड़ा प्रमाण उस समय के इतिहास में मिलता है जब मोहम्मद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण किया था।
उस समय सोमनाथ के मन्दिर के मुख्य अधिष्ठाता और पुजारी ‘गंग सर्वज्ञ’ थे। गंग सर्वज्ञ कोई औपन्यासिक पात्र नहीं ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं और उस समय के प्रकाण्ड विद्वानों में से थे। सम्पूर्ण भारत का जनसाधारण ही नहीं अन्य विद्वानों समेत सारे राज महाराजा उन्हें साक्षात् शंकर के रूप में मानकर पूजते थे। उनके व्यक्तित्व की महान् महिमा था और उनके वाक्य वेदवाक्य माने जाते थे, जैसा कि उनकी सर्वज्ञ उपाधि से विदित है।
किन्तु वे गजनवी के हमले की सूचना से लेकर मन्दिर लुट जाने और भगवान् सोमनाथ की मूर्ति के खण्ड-खण्ड हो जाने तक यही कहते रहे और विश्वास दिलाते रहे कि युद्ध और रक्तपात की आवश्यकता ही न पड़ेगी। समय आने पर भगवान् शंकर स्वयं प्रकट होंगे और अपना तीसरा नेत्र खोल कर म्लेच्छों को भस्म कर देंगे। जिसके फलस्वरूप प्रतिरोध का प्रयत्न शिथिल पड़ गया और लोग उस चमत्कार को देखने के लिए प्रतीक्षा करने लगे। गजनवी आया और गाजी बनकर चला गया। किन्तु भगवान् शंकर न प्रकट हुए और न उन्होंने अपनी नेत्र-वह्नि से म्लेक्षों को भस्म किया।
यह बात सही है कि अपने इस कथन से गंग सर्वज्ञ का उद्देश्य देश के पथ-भ्रान्त करने का नहीं था। यह उनका अति विश्वास था, जो अन्धविश्वास बनकर बोला था और वह लोगों का अन्धविश्वास था जो वे उनके कथनानुसार चमत्कार देखने की प्रतीक्षा में शिथिल उद्योग हो बैठे।
ऐसे न जाने कितने अन्धविश्वास और उनसे उत्पन्न अपशकुन इतिहास में पाये जाते हैं जिनके कारण न जाने कितने धीर-वीर योद्धा और राजा शिथिल साहस होकर हारे हैं। तलवार खुल पड़ना, कटार निकल पड़ना, जीन खिसक जाना, धनुष उतर जाना, पगड़ी बिगड़ जाना, मुकुट मुड़ जाना जैसी नगण्य बातें पराजय की सूचक बनकर विकृत विश्वासी राजा और योद्धाओं के आत्म-विश्वास में दरार का कारण बनी हैं, जिससे इतिहास की धारायें ही मुड़ गई हैं। यह सब उनके अन्धविश्वास के सिवाय और क्या था?
मोहम्मद गोरी की सेना के सामने गायों की पंक्ति देखकर पृथ्वीराज का किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर वार-विरत हो जाना एक आदर्श अन्धविश्वास ही था जिसने भारत का भाग्य ही अन्धकारपूर्ण बना दिया।
लाट झुक जाने, मीनार मुड़ जाने, कंगूरा उखड़ जाने और गुम्बद दरक जाने को हुकूमत उखड़ जाने का संकेत मानना बादशाहों का अन्धविश्वास ही था जिसने उन्हें बड़ी-बड़ी राजनीतिक हानियां पहुंचाई हैं।
इस प्रकार अन्धविश्वास के विषय में जब ऐसी उच्च स्थिति के लोगों का यह हाल रहा है तब अशिक्षित जनसाधारण के विषय में क्या कहा जाये। हवा का रुख, बादलों का रंग, वर्षा की बूंदें, फूलों का खिलना, पौधों का मुरझाना, पक्षियों का बोलना, श्वांस की गति, अंगों का स्फुरण, जूतों का उलटना, वस्त्रों का पलटना, पानी का लुढ़कना, ग्रास का गिरना, आग का चिटखना, लकड़ी का फुरफुराना, वैदी का गिरना, चूड़ी का फूटना, जूड़े का खुलना, बालों का टूटना अन्धविश्वास पूर्ण शुभ शुभ का द्योतक बना हुआ जन-जीवन का एक-एक क्षण घेरे हुए हैं।
हिन्दू–समाज का छोटे से लेकर बड़े तक शायद ही कोई ऐसा काम अथवा क्रिया हो जिसमें शुभ अशुभ का विचार न जुड़ा हो और जिसके साथ किसी अन्ध-विश्वास का सम्बन्ध न हो। उठने से लेकर सोने तक का सारा क्रिया-कलाप अन्ध-विश्वासों एवं शुभा-शुभ की श्रृंखला बनी हुई है। कौन पैर पहले जमीन पर रखें, जगते ही हथेली देखना, रेखायें चूमना, और को देखने से पहले दर्पण देखना आदि सब किसी न किसी अन्धविश्वास पर आधारित हैं। घर-घाट, हाट-बाट, उठने-बैठने, चलने-फिरने और यात्रा आदि करने में अन्धविश्वास पूर्ण शुभा-शुभ विचार भरे पड़े हैं। आदमियों का मिलना, पशुओं का दीखना, उनका खांसना, छींकना और आवाज करना, सूंघना, मुंह उठाना, रास्ता काटना, दिशा बदलना, दांयें-बांयें अथवा आगे-पीछे चलना न जाने कितने प्रकार के अन्धविश्वासों के जननी जनक है।
घरों में बहू, बेटियों का एक-एक कदम अन्धविश्वासों का बन्दी हुआ है। कहां पर बैठें, किस ओर पैर करें, किस ओर सिर करें यह सब अन्धविश्वासों से भरे पड़े हैं।
दुकान का कौन-सा किवाड़ पहले खोला जाये, कौन-सा पैर पहले रखा जाये, किस ग्राहक के साथ कौन सी चीज पहले बेचकर ‘बोहनी’ की जाये, कितने पैसों की बेची जाय, कौन-सी तराजू के किस पलड़े में रखकर तोली जाये आदि नाचीज बातें और पलड़े का उलट जाना, जोत का चढ़ जाना, डोरी का टूट जाना, बांट का गिर जाना, डन्डी का टूट जाना आदि न जाने कितनी क्या कोई भी तो ऐसी बात नहीं है जिसके साथ कोई न कोई अन्धविश्वास न जुड़ा हो।
इस प्रकार यदि ध्यान से देखा और भारतीय जनता का गहराई से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि आवाल-वृद्ध स्त्री-पुरुषों की प्रत्येक साधारण से साधारण क्रिया तक में कोई न कोई अन्धविश्वास निहित है। इसके अतिरिक्त न जाने कितने टोने-टोटके, भूत-प्रेत, रोग-दोष अन्धविश्वास के आधार बने हुए हैं। इतना ही नहीं कि यह मूढ़ता पूर्ण बातें केवल कहने-सुनने तक ही सीमित हों बल्कि इनके आधार पर हानि-लाभ की बड़ी-बड़ी सम्भावनायें निश्चित करके उनके अनुसार जीवन चलाया जाता है।
यह सब कुछ और कुछ नहीं केवल अशिक्षा एवं अविद्यापूर्ण मूर्खता है। यद्यपि इन कल्पित अन्धविश्वासों के आधार पर मनुष्य को हानि-लाभ, सुख-दुःख, सफलता असफलता मिलती नहीं, वह मिलती है यथार्थ परिस्थितियों और परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न के आधार पर, तभी भी यह देखते, सुनते और अनुभव करते हुए भारतवासी और हिन्दू समाज अपने अन्धविश्वासों के वशीभूत हुए बिना रहता ही नहीं। उसकी यह समझ में न जाने क्यों नहीं आता कि इन बातों के घटने से ही यदि हानि-लाभ अथवा सफलता असफलता मिलती तो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ, कर्म और कर्तव्य का कोई मूल्य महत्व ही नहीं रह जाता।
समाज से इस मूढ़ता को दूर करने का केवल एक ही उपाय है शिक्षा और इन अन्धविश्वासों के विरुद्ध प्रचार। जो भी समझदार शिक्षित जिस अन्धविश्वास को जहां देखे उसके विरुद्ध अपने आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करे। आज हम सब क्या वैयक्तिक और क्या सामूहिक रूप में दोनों तरह से अन्धविश्वासों का भण्डा-फोड़ करने और यह अन्धकार फैलाने वालों के विरुद्ध अभियान करने में जरा भी न हिचकिचायें।
अन्धविश्वासों का धर्म से दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हें हर प्रकार से उखाड़ फेंकने में ही समाज और राष्ट्र का हित है।