Books - अंधविश्वास को उखाड़ फेंकिये
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Language: HINDI
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अन्ध-विश्वास का अज्ञान
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हमारा देश अन्ध-विश्वास के लिये बदनाम है। यों तो संसार में अभी तक सैकड़ों जंगली जातियां पाई जाती हैं जो अन्ध-विश्वास के नाम पर देवता के आगे नर-बलि देती हैं, अपनी ही सन्तान का बलिदान कर देती हैं तथा अन्य भी अनेक प्रकार के रोमांचक कृत्य करती हैं। उनकी गिनती मनुष्यों में भी नहीं की जाती, उनको बर्बर या अर्द्ध-पशु की तरह माना जाता है। पर भारतवर्ष की बात निराली है। एक तरफ तो यह परमात्मा, ईश्वर और जीवात्मा के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को प्रकट करता है, आध्यात्मिकता के ऊंचे से ऊंचे सिद्धान्तों की विवेचना करता है, जिससे पश्चिमी देशों के महान विद्वान भी इसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं और दूसरी तरफ यहां भूत, प्रेत, बैताल ब्रह्मराक्षस, जिन्द, दई-देवता, कुआ वाला, जखैया आदि न जाने कितने ऐसे अन्ध-विश्वास फैले हुए हैं, जिनको जंगली लोगों के उपयुक्त ही कहा जा सकता है। इस अन्ध-विश्वास की इतिश्री इन प्रचलित काल्पनिक अदृश्य शक्तियों पर ही नहीं हो जाती, वरन् इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष चाहे जहां कोई देवी प्रकट हो जाती है, कहीं किसी कुए का जल सब रोगों की राम-बाण दवा बन जाता है, कहीं किसी सर्व रोग विनाशिनी जड़ी बूटी के नाम पर हजारों लोग इकट्ठे हो जाते हैं, कहीं भगवान का साक्षात् अवतार ही उत्पन्न हो जाता है और लोग उसी की पूजा करने लग जाते। ऐसी बातों में विश्वास रखने वाले और उनके पीछे दौड़ने वाले अशिक्षित, गंवार या जाहिल ही नहीं होते, अपने को शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत समझने वाले भी इन कार्यों में भाग लेते हैं और उनके प्रसार में सहायक बनते हैं।
यहां हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि शास्त्रों में जिस भूत-योनि का जिक्र किया गया है उसकी वास्तविकता क्या है। अर्थात् वह कोई वायवीय अथवा सूक्ष्म देह धारिणी चैतन्य सत्ता है अथवा ‘भूत’ (गुजरी हुई घटना) को ही लोगों ने एक काल्पनिक प्राणी का रूप दे दिया है। हमारे देश में अगर कोई चाहे तो घर-घर और गली-गली भूतों के किस्से सुन सकता है, जिनके ‘प्रत्यक्ष’ और ‘सर्वथा सत्य’ होने का लोग दावा करते हैं। पर जब कोई विचारशील व्यक्ति उनकी जांच करने लगता है तो परिणाम शून्य ही निकलता है। उन लोगों की तो बात ही मत पूछिये जिनको पिछड़े हुए या छोटी जाति वाला कहा जाता है। उनमें तो सब प्रकार की विपत्तियां, रोग, बीमारी, हानि, लाभ तक का कर्ता-धर्ता भूतों को माना जाता है। किसी स्त्री, पुरुष, बालक को किसी तरह की तकलीफ हो गई और साधारण उपाय करने से दो-चार दिन में वह ठीक नहीं हो पाई तो फौरन उसका दोष भूत के सिर मढ़ दिया जाता है और स्याने, ओझा झाड़ने वाले के पास पहुंच कर निवारण का उपाय पूछा जाता है। लोगों का तो व्यवसाय ही भूतों को भगाना ठहरा, जिस प्रकार डॉक्टर कोई न कोई रोग बतला देता है उसी प्रकार ये ओझा स्याने प्रत्येक आगन्तुक की विपत्ति का कारण भूतों से जोड़ देते हैं और उसके लिए भेट-पूजा लेकर कोई न कोई उपाय भी बतला देते हैं। ऐसे लोग प्रायः देवता के आने का सप्ताह या महीने में कोई खास दिन नियत कर लेते हैं और उसी दिन तरह-तरह के रोगियों की भीड़ आटा, चावल, अनाज, घी, तेल, रुपया, पैदा लेकर उसके पास पहुंचती है। उस दिन, उसके सिर पर देवता आता है, जो खूब झूम-झूम कर और विचित्र प्रकार की आकृति बनाकर लोगों के रोगों तथा अन्य आपत्तियों का निदान करता है और भूत-प्रेतों तथा गृह देवताओं की पूजा, दान या किसी को खिलाने पिलाने के द्वारा सब रोगों का इलाज बतलाता चला जाता है। इस प्रकार भूत ने एक अच्छे रोजगार का रूप ग्रहण कर लिया है जिससे बहुसंख्यक लोग आराम के साथ जीवन निर्वाह कर लेते हैं।
इस प्रकार के ओझा, स्याने आदि चरित्र की दृष्टि से भी प्रायः हीन कोटि के होते हैं और उनके पास अधिकांश अशिक्षित मूढ़ स्त्रियां ही जाती हैं। इसलिए वे उनको सहज ही बहका कर, भ्रम में डालकर पतन के रास्ते पर ले आते हैं। इस तरह हमारा अन्ध-विश्वास धन, धर्म और इज्जत तीनों को नष्ट करने वाला सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार की बहुसंख्यक घटनायें प्रकाश में आती रहती हैं और अनेकों बार झगड़ा पैदा हो जाने से मुकदमें भी चल जाते हैं। वहां इस भूत-विद्या की कलई भली प्रकार खुल जाती है। पर अन्ध-विश्वास की यही महिमा है कि फिर भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं और वे घूम फिर कर पुनः इन्हीं लोगों के पास जा पहुंचते हैं।
किसी प्रकार की बीमारी के लिये भूत को दोष देना और उसके निवारण के लिये स्यानों की शरण लेना ऐसी मूर्खता की बात है कि इसके सम्बन्ध में अधिक प्रमाण देना या बहस करना असंगत जान पड़ता है। बीमारी तो प्रायः असंयम या किसी प्रकार की गलती, आकस्मिक घटना-वश होती है। उसका निवारण उस गलती का सुधार करने से ही हो सकता है। इसीलिये अधिकांश समझदार लोग बीमार होने पर असंयम का त्याग कर संयम पालन करते हैं और किसी अच्छे चिकित्सक की दवा का सेवन करते हैं। इसी से समयानुसार उनका रोग दूर हो जाता है। इसमें ‘भूत’ कहां से आ गया और उसकी क्या आवश्यकता है, यह हमारी समझ में नहीं आता। बहुत सी बीमारियां कठिन और पेचीदा भी होती हैं और सहज ही वश में नहीं आतीं। ऐसी हालत में दया या उपाय को असर न करते देखकर यह ख्याल कर लेना कि इसका कारण कोई भूत-प्रेत होगा कहां की बुद्धिमत्ता है? योरोप, अमरीका के लोग इस प्रकार किसी रोग को भूत से उत्पन्न नहीं मानते और न किसी स्याने-दिवाने के पास जाते हैं, तो क्या उनके रोग अच्छे नहीं होते? हम तो देखते हैं कि वे हमसे कहीं अधिक शीघ्र रोग मुक्त हो जाते हैं और उनका स्वास्थ्य भी फिर से जल्दी ही सुधर जाता है। पर भूत से बीमारी मानने वालों का रोग अनेक बार आजन्म वैसे ही बना रहता है।
भूतों के सम्बन्ध में शंका पैदा होने का दूसरा कारण कभी-कभी किसी घर में गुप्त–रूप से उपद्रव होना होता है, जैसे ईंट पत्थर फेंके जाना, कपड़ों का जल जाना, भोजन में गन्दगी पैदा हो जाना आदि। यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाणों के अभाव में हम प्रत्येक घटना को तो झूंठी नहीं कह सकते, पर इतना हम जानते हैं कि ऐसे सुने जाने वाले भौतिक-काण्डों में से अनेक काल्पनिक होते हैं, बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहे जाते हैं और बहुतों की तह में किसी प्रकार का षड़यंत्र, दुरभिसंधि होती है। पर चूंकि जिन लोगों के दिमाग में पहले से ही भूत की धारणा, उसका भय बद्धमूल रहता है, वे किसी प्रकार की जांच पड़ताल तो कर नहीं सकते बस तुरन्त भयाक्रान्त होकर किसी भूत विद्या विशारद की शरण लेते हैं। उनका काम तो इस तरह के दस किस्से और सुनाकर उनके विश्वास पर मुहर लगा देना होता ही है। बस इस प्रकार या अन्धविश्वास अपने नये-नये शिकार ढूंढ़ता रहता है और उसकी जड़ जमती जाती है।
बहुत से लोग तो जानबूझकर ऐसे जाल और ढोंग रचते रहते हैं और सर्व-साधारण को उसमें फंसा लेते हैं। उदाहरणार्थ अनेक व्यक्ति घोषणा कर देते हैं कि हमको अमुक देवता ने स्वप्न दिया है कि—‘‘मैं फला स्थान पर गढ़ा हूं, तुम मुझे बाहर निकालकर मेरी पूजा करो। अगर इस कार्य की उपेक्षा की जायगी तो बड़ी आपत्ति आयेगी, गांव भर का नाश हो जायगा।’’ ऐसी बातें सुनकर लोग खोदते हैं तो वहां पहले से ही रखी हुई मूर्ति निकल आती है। यह देखकर लोगों की श्रद्धा-भक्ति उमड़ पड़ती है, खूब भेंट-पूजा आती है और देवता का मन्दिर बन जाता है। बस, स्वप्न देखने वाले को एक रोजगार मिल जाता है, जिससे आजन्म भरण-पोषण हो सकता है।
अनेक साधू-महात्मा और फकीर अपने कुछ एजेन्ट इधर-उधर के गांवों में भेजकर प्रचार कराते हैं कि अमुक साधू बाबा बड़े पहुंचे हुए और सब प्रकार के रोगों को एक चुटकी भभूत या किसी जड़ी-बूटी से अच्छा कर देते हैं। ये एजेन्ट दूर-दूर के लोगों के अच्छे होने के किस्से भी गढ़ कर सुनाते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि रोग दूर कराने वालों या पुत्र, धन आदि की अभिलाषा रखने वालों की भीड़ साधू बाबा के पास इकट्ठा होने लगती है और वे काफी धन इकट्ठा कर लेते हैं। यह सच है कि ऐसी जालसाजी ज्यादा दिन नहीं चलती। दो-चार महीने में उसका भण्डाफोड़ हो जाता है। पर तब तक वे दो-चार हजार रुपया इकट्ठा करके किसी दूरवर्ती स्थान में जा बैठते हैं और फिर कोई नया जाल फैलाने लग जाते हैं।
इस तरह की वहम, मूर्खता, ठगी की बातों से धन तो लूटा ही जाता है, पर इससे भी एक बड़ी बुराई यह होती है कि इससे देश-समाज का नैतिक पतन भी होता है और विदेशों में हमारे देश की बदनामी होती है। जब बाहर के लोग यहां के बहुसंख्यक लोगों को ऐसी मूढ़ता की बातों में फंसे हुये और बिना जड़-मूल की बातों पर विश्वास करते हुये देखते हैं तो उनको यहां की संस्कृति के प्रति जो सम्मान और श्रद्धा होती है उसमें कमी आ जाती है। वे समझने लगते हैं कि इनकी आध्यात्मिक बातें कहने सुनने तक की हैं, पर उन्होंने इनके भीतर प्रवेश नहीं किया है, वास्तव में ये अर्ध-सभ्य जातियों की तरह ही कुसंस्काराछन्न हैं।
दूसरी बड़ी हानि यह भी है कि ऐसे ठगों के कारण सच्चे लोगों पर से भी विश्वास हट जाता है और उनकी उपेक्षा होने लगती है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साधू सच्चे त्यागी, सदाशय भी होते हैं और परोपकार की इच्छा भी रखते हैं। पर ठगों की करतूतें और धूर्तता देख कर लोग उनको भी ठग और जालसाज समझकर पास से हटा देते हैं। इस प्रकार ढोंगी और ठग भिखारियों के कारण हम अनेक बार उन लोगों की सहायता से भी विमुख हो जाते हैं, जो वास्तव में संकट में पड़े होते हैं और जिनकी सहायता करना एक मनुष्य का कर्तव्य है। इस प्रकार अन्ध–विश्वास और ठगी की प्रवृत्ति समाज के लिये कई प्रकार से घातक सिद्ध होती है, जिसका निराकरण प्रत्येक समाज-हितैषी का कर्त्तव्य है।
यहां हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि शास्त्रों में जिस भूत-योनि का जिक्र किया गया है उसकी वास्तविकता क्या है। अर्थात् वह कोई वायवीय अथवा सूक्ष्म देह धारिणी चैतन्य सत्ता है अथवा ‘भूत’ (गुजरी हुई घटना) को ही लोगों ने एक काल्पनिक प्राणी का रूप दे दिया है। हमारे देश में अगर कोई चाहे तो घर-घर और गली-गली भूतों के किस्से सुन सकता है, जिनके ‘प्रत्यक्ष’ और ‘सर्वथा सत्य’ होने का लोग दावा करते हैं। पर जब कोई विचारशील व्यक्ति उनकी जांच करने लगता है तो परिणाम शून्य ही निकलता है। उन लोगों की तो बात ही मत पूछिये जिनको पिछड़े हुए या छोटी जाति वाला कहा जाता है। उनमें तो सब प्रकार की विपत्तियां, रोग, बीमारी, हानि, लाभ तक का कर्ता-धर्ता भूतों को माना जाता है। किसी स्त्री, पुरुष, बालक को किसी तरह की तकलीफ हो गई और साधारण उपाय करने से दो-चार दिन में वह ठीक नहीं हो पाई तो फौरन उसका दोष भूत के सिर मढ़ दिया जाता है और स्याने, ओझा झाड़ने वाले के पास पहुंच कर निवारण का उपाय पूछा जाता है। लोगों का तो व्यवसाय ही भूतों को भगाना ठहरा, जिस प्रकार डॉक्टर कोई न कोई रोग बतला देता है उसी प्रकार ये ओझा स्याने प्रत्येक आगन्तुक की विपत्ति का कारण भूतों से जोड़ देते हैं और उसके लिए भेट-पूजा लेकर कोई न कोई उपाय भी बतला देते हैं। ऐसे लोग प्रायः देवता के आने का सप्ताह या महीने में कोई खास दिन नियत कर लेते हैं और उसी दिन तरह-तरह के रोगियों की भीड़ आटा, चावल, अनाज, घी, तेल, रुपया, पैदा लेकर उसके पास पहुंचती है। उस दिन, उसके सिर पर देवता आता है, जो खूब झूम-झूम कर और विचित्र प्रकार की आकृति बनाकर लोगों के रोगों तथा अन्य आपत्तियों का निदान करता है और भूत-प्रेतों तथा गृह देवताओं की पूजा, दान या किसी को खिलाने पिलाने के द्वारा सब रोगों का इलाज बतलाता चला जाता है। इस प्रकार भूत ने एक अच्छे रोजगार का रूप ग्रहण कर लिया है जिससे बहुसंख्यक लोग आराम के साथ जीवन निर्वाह कर लेते हैं।
इस प्रकार के ओझा, स्याने आदि चरित्र की दृष्टि से भी प्रायः हीन कोटि के होते हैं और उनके पास अधिकांश अशिक्षित मूढ़ स्त्रियां ही जाती हैं। इसलिए वे उनको सहज ही बहका कर, भ्रम में डालकर पतन के रास्ते पर ले आते हैं। इस तरह हमारा अन्ध-विश्वास धन, धर्म और इज्जत तीनों को नष्ट करने वाला सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार की बहुसंख्यक घटनायें प्रकाश में आती रहती हैं और अनेकों बार झगड़ा पैदा हो जाने से मुकदमें भी चल जाते हैं। वहां इस भूत-विद्या की कलई भली प्रकार खुल जाती है। पर अन्ध-विश्वास की यही महिमा है कि फिर भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं और वे घूम फिर कर पुनः इन्हीं लोगों के पास जा पहुंचते हैं।
किसी प्रकार की बीमारी के लिये भूत को दोष देना और उसके निवारण के लिये स्यानों की शरण लेना ऐसी मूर्खता की बात है कि इसके सम्बन्ध में अधिक प्रमाण देना या बहस करना असंगत जान पड़ता है। बीमारी तो प्रायः असंयम या किसी प्रकार की गलती, आकस्मिक घटना-वश होती है। उसका निवारण उस गलती का सुधार करने से ही हो सकता है। इसीलिये अधिकांश समझदार लोग बीमार होने पर असंयम का त्याग कर संयम पालन करते हैं और किसी अच्छे चिकित्सक की दवा का सेवन करते हैं। इसी से समयानुसार उनका रोग दूर हो जाता है। इसमें ‘भूत’ कहां से आ गया और उसकी क्या आवश्यकता है, यह हमारी समझ में नहीं आता। बहुत सी बीमारियां कठिन और पेचीदा भी होती हैं और सहज ही वश में नहीं आतीं। ऐसी हालत में दया या उपाय को असर न करते देखकर यह ख्याल कर लेना कि इसका कारण कोई भूत-प्रेत होगा कहां की बुद्धिमत्ता है? योरोप, अमरीका के लोग इस प्रकार किसी रोग को भूत से उत्पन्न नहीं मानते और न किसी स्याने-दिवाने के पास जाते हैं, तो क्या उनके रोग अच्छे नहीं होते? हम तो देखते हैं कि वे हमसे कहीं अधिक शीघ्र रोग मुक्त हो जाते हैं और उनका स्वास्थ्य भी फिर से जल्दी ही सुधर जाता है। पर भूत से बीमारी मानने वालों का रोग अनेक बार आजन्म वैसे ही बना रहता है।
भूतों के सम्बन्ध में शंका पैदा होने का दूसरा कारण कभी-कभी किसी घर में गुप्त–रूप से उपद्रव होना होता है, जैसे ईंट पत्थर फेंके जाना, कपड़ों का जल जाना, भोजन में गन्दगी पैदा हो जाना आदि। यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाणों के अभाव में हम प्रत्येक घटना को तो झूंठी नहीं कह सकते, पर इतना हम जानते हैं कि ऐसे सुने जाने वाले भौतिक-काण्डों में से अनेक काल्पनिक होते हैं, बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहे जाते हैं और बहुतों की तह में किसी प्रकार का षड़यंत्र, दुरभिसंधि होती है। पर चूंकि जिन लोगों के दिमाग में पहले से ही भूत की धारणा, उसका भय बद्धमूल रहता है, वे किसी प्रकार की जांच पड़ताल तो कर नहीं सकते बस तुरन्त भयाक्रान्त होकर किसी भूत विद्या विशारद की शरण लेते हैं। उनका काम तो इस तरह के दस किस्से और सुनाकर उनके विश्वास पर मुहर लगा देना होता ही है। बस इस प्रकार या अन्धविश्वास अपने नये-नये शिकार ढूंढ़ता रहता है और उसकी जड़ जमती जाती है।
बहुत से लोग तो जानबूझकर ऐसे जाल और ढोंग रचते रहते हैं और सर्व-साधारण को उसमें फंसा लेते हैं। उदाहरणार्थ अनेक व्यक्ति घोषणा कर देते हैं कि हमको अमुक देवता ने स्वप्न दिया है कि—‘‘मैं फला स्थान पर गढ़ा हूं, तुम मुझे बाहर निकालकर मेरी पूजा करो। अगर इस कार्य की उपेक्षा की जायगी तो बड़ी आपत्ति आयेगी, गांव भर का नाश हो जायगा।’’ ऐसी बातें सुनकर लोग खोदते हैं तो वहां पहले से ही रखी हुई मूर्ति निकल आती है। यह देखकर लोगों की श्रद्धा-भक्ति उमड़ पड़ती है, खूब भेंट-पूजा आती है और देवता का मन्दिर बन जाता है। बस, स्वप्न देखने वाले को एक रोजगार मिल जाता है, जिससे आजन्म भरण-पोषण हो सकता है।
अनेक साधू-महात्मा और फकीर अपने कुछ एजेन्ट इधर-उधर के गांवों में भेजकर प्रचार कराते हैं कि अमुक साधू बाबा बड़े पहुंचे हुए और सब प्रकार के रोगों को एक चुटकी भभूत या किसी जड़ी-बूटी से अच्छा कर देते हैं। ये एजेन्ट दूर-दूर के लोगों के अच्छे होने के किस्से भी गढ़ कर सुनाते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि रोग दूर कराने वालों या पुत्र, धन आदि की अभिलाषा रखने वालों की भीड़ साधू बाबा के पास इकट्ठा होने लगती है और वे काफी धन इकट्ठा कर लेते हैं। यह सच है कि ऐसी जालसाजी ज्यादा दिन नहीं चलती। दो-चार महीने में उसका भण्डाफोड़ हो जाता है। पर तब तक वे दो-चार हजार रुपया इकट्ठा करके किसी दूरवर्ती स्थान में जा बैठते हैं और फिर कोई नया जाल फैलाने लग जाते हैं।
इस तरह की वहम, मूर्खता, ठगी की बातों से धन तो लूटा ही जाता है, पर इससे भी एक बड़ी बुराई यह होती है कि इससे देश-समाज का नैतिक पतन भी होता है और विदेशों में हमारे देश की बदनामी होती है। जब बाहर के लोग यहां के बहुसंख्यक लोगों को ऐसी मूढ़ता की बातों में फंसे हुये और बिना जड़-मूल की बातों पर विश्वास करते हुये देखते हैं तो उनको यहां की संस्कृति के प्रति जो सम्मान और श्रद्धा होती है उसमें कमी आ जाती है। वे समझने लगते हैं कि इनकी आध्यात्मिक बातें कहने सुनने तक की हैं, पर उन्होंने इनके भीतर प्रवेश नहीं किया है, वास्तव में ये अर्ध-सभ्य जातियों की तरह ही कुसंस्काराछन्न हैं।
दूसरी बड़ी हानि यह भी है कि ऐसे ठगों के कारण सच्चे लोगों पर से भी विश्वास हट जाता है और उनकी उपेक्षा होने लगती है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साधू सच्चे त्यागी, सदाशय भी होते हैं और परोपकार की इच्छा भी रखते हैं। पर ठगों की करतूतें और धूर्तता देख कर लोग उनको भी ठग और जालसाज समझकर पास से हटा देते हैं। इस प्रकार ढोंगी और ठग भिखारियों के कारण हम अनेक बार उन लोगों की सहायता से भी विमुख हो जाते हैं, जो वास्तव में संकट में पड़े होते हैं और जिनकी सहायता करना एक मनुष्य का कर्तव्य है। इस प्रकार अन्ध–विश्वास और ठगी की प्रवृत्ति समाज के लिये कई प्रकार से घातक सिद्ध होती है, जिसका निराकरण प्रत्येक समाज-हितैषी का कर्त्तव्य है।