Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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कुशकण्डिका
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सूत्र सङ्केत- कुश पवित्रता और प्रखरता के प्रतीक माने जाते हैं। कुशकण्डिका के अन्तर्गत निर्धारित क्षेत्र के चारों दिशाओं में कुश बिछाये जाते हैं। बड़े यज्ञों और विशिष्ट कर्मकाण्डों में यज्ञशाला, यज्ञकुण्ड अथवा पूजा क्षेत्र के चारों ओर मन्त्रों के साथ कुश स्थापित किये जाते हैं।
क्रम व्यवस्था- कुश कण्डिका में प्रत्येक दिशा के लिए चार- चार कुश लिये जाते हैं। पूरे क्षेत्र को इकाई मानकर उसके चारों ओर एक ही व्यक्ति से कुश स्थापित कराने हैं, तो कुल १६ कुशाएँ चाहिए। यदि प्रत्येक कुण्ड या वेदी पर कराना है, तो प्रत्येक के लिए १६- १६ कुशाएँ चाहिए।
क्रिया और भावना- कुश स्थापना करने वाले व्यक्ति एक बार में चार कुश हाथ में लें। मन्त्रोच्चार के साथ कुशाओं सहित उस दिशा में हाथ जोड़कर मस्तक झुकाएँ और एक- एक करके चारों कुशाएँ उसी दिशा में स्थापित कर दें। कुश स्थापित करते समय कुश का ऊपरी नुकीला भाग पूर्व या उत्तर की ओर रहे तथा मूल (जड़) भाग पश्चिम या दक्षिण की ओर रहे। प्रत्येक मन्त्र के साथ दिशा विशेष के लिए यही क्रम अपनाया जाए।
भावना की जाए कि इस दिशा में व्याप्त देवशक्तियों को नमस्कार करते हुए उनके सहयोग से दिव्य प्रयोजन के लिए कुशाओं जैसी पवित्रता और प्रखरता का जागरण और स्थापन किया जा रहा है।
१. पूर्व दिशा में-
ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्योनमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। अथर्व०३.२७.१
अर्थात्- पूर्व दिशा हमारे ऊपर अनुग्रह करने वाली है। पूर्व दिशा के अधिपति अग्निदेव हैं, रक्षक, असित (बन्धनरहित) हैं, बाण प्रहारक आदित्य हैं। इन (दिशाओं के) अधिपतियों, रक्षकों तथा बाणों को हमारा नमन है। ऐसे सभी (हितैषियों) को हमारा नमन है, जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके जबड़े (या दण्ड व्यवस्था) में डालते हैं।
२. दक्षिण दिशा में-
ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽ धिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। -अथर्व० ३.२७.२
अर्थात्- दक्षिण दिशा के अधिपति इन्द्रदेव, उसके रक्षक ‘तिरश्चिराजी’ (मर्यादा में रहने वाले) तथा बाण पितृदेव हैं। उन अधिपतियों, रक्षकों तथा बाणों को हमारा नमन है। ऐसे सभी हितैषियों को हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं, तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके नियंत्रण में डालते हैं।
३. पश्चिम दिशा में-
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जभ्ये दध्मः। -अथर्व. ३.२७.३
अर्थात्- पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण देव हैं, उनके रक्षक ‘पृदाकु’ सर्पादि हैं तथा अन्न उसके बाण हैं। इन सबको हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं, तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके जबड़े में डालते हैं।
४. उत्तर दिशा में-
ॐ उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। -अथर्व. ३.२७.४
अर्थात्- उत्तर दिशा के अधिपति सोम हैं और उनके रक्षक ‘स्वज’ (स्वयं जन्मने वाली शक्तियाँ) हैं तथा अशनि ही बाण हैं। उन सबको हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके नियंत्रण में डालते हैं।
क्रम व्यवस्था- कुश कण्डिका में प्रत्येक दिशा के लिए चार- चार कुश लिये जाते हैं। पूरे क्षेत्र को इकाई मानकर उसके चारों ओर एक ही व्यक्ति से कुश स्थापित कराने हैं, तो कुल १६ कुशाएँ चाहिए। यदि प्रत्येक कुण्ड या वेदी पर कराना है, तो प्रत्येक के लिए १६- १६ कुशाएँ चाहिए।
क्रिया और भावना- कुश स्थापना करने वाले व्यक्ति एक बार में चार कुश हाथ में लें। मन्त्रोच्चार के साथ कुशाओं सहित उस दिशा में हाथ जोड़कर मस्तक झुकाएँ और एक- एक करके चारों कुशाएँ उसी दिशा में स्थापित कर दें। कुश स्थापित करते समय कुश का ऊपरी नुकीला भाग पूर्व या उत्तर की ओर रहे तथा मूल (जड़) भाग पश्चिम या दक्षिण की ओर रहे। प्रत्येक मन्त्र के साथ दिशा विशेष के लिए यही क्रम अपनाया जाए।
भावना की जाए कि इस दिशा में व्याप्त देवशक्तियों को नमस्कार करते हुए उनके सहयोग से दिव्य प्रयोजन के लिए कुशाओं जैसी पवित्रता और प्रखरता का जागरण और स्थापन किया जा रहा है।
१. पूर्व दिशा में-
ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्योनमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। अथर्व०३.२७.१
अर्थात्- पूर्व दिशा हमारे ऊपर अनुग्रह करने वाली है। पूर्व दिशा के अधिपति अग्निदेव हैं, रक्षक, असित (बन्धनरहित) हैं, बाण प्रहारक आदित्य हैं। इन (दिशाओं के) अधिपतियों, रक्षकों तथा बाणों को हमारा नमन है। ऐसे सभी (हितैषियों) को हमारा नमन है, जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके जबड़े (या दण्ड व्यवस्था) में डालते हैं।
२. दक्षिण दिशा में-
ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽ धिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। -अथर्व० ३.२७.२
अर्थात्- दक्षिण दिशा के अधिपति इन्द्रदेव, उसके रक्षक ‘तिरश्चिराजी’ (मर्यादा में रहने वाले) तथा बाण पितृदेव हैं। उन अधिपतियों, रक्षकों तथा बाणों को हमारा नमन है। ऐसे सभी हितैषियों को हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं, तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके नियंत्रण में डालते हैं।
३. पश्चिम दिशा में-
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नमएभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जभ्ये दध्मः। -अथर्व. ३.२७.३
अर्थात्- पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण देव हैं, उनके रक्षक ‘पृदाकु’ सर्पादि हैं तथा अन्न उसके बाण हैं। इन सबको हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं, तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके जबड़े में डालते हैं।
४. उत्तर दिशा में-
ॐ उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोऽधि- पतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमइषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः। -अथर्व. ३.२७.४
अर्थात्- उत्तर दिशा के अधिपति सोम हैं और उनके रक्षक ‘स्वज’ (स्वयं जन्मने वाली शक्तियाँ) हैं तथा अशनि ही बाण हैं। उन सबको हमारा नमन है। जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं, उन शत्रुओं को हम आपके नियंत्रण में डालते हैं।