Books - कर्मकांड प्रदीप
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दशविध स्नान
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सूत्र सङ्केत- दस स्नान का प्रयोग देव प्रतिमाओं की स्थापना के समय श्रावणी उपाकर्म, वानप्रस्थ संस्कार तथा प्रायश्चित्त विधानों में किया जाता है, उनमें यह प्रकरण ले लेना चाहिए।
क्रम व्यवस्था- यज्ञ या संस्कार स्थल से कुछ हटकर दस स्नान की व्यवस्था करनी चाहिए। इन स्नानों में १. भस्म, २. मिट्टी, ३. गोबर, ४. गोमूत्र, ५. गो- दुग्ध, ६. गो- दधि, ७. गो- घृत, ८. सर्वौषधि (हल्दी), ९. कुश और १०. मधु।
ये दस वस्तुएँ होती हैं। क्रमशः एक- एक वस्तु से स्नान करते समय बायीं हथेली पर भस्म आदि पदार्थ रखें, उसमें थोड़ा पानी डालें। दोनों हथेलियों से उसे मिलाएँ। मिलाते समय निर्धारित मन्त्र बोलें, फिर बायें हाथ से कमर से नीचे के अङ्गों पर दायें हाथ से कमर से ऊपर के अङ्गों पर उसका लेपन करें। इसके बाद स्वच्छ जल से स्नान कर डालें। इसी प्रकार अन्य दस वस्तुओं से स्नान करें। इसके पश्चात् अन्तिम बार शुद्ध जल से स्नान कर शरीर को भली प्रकार पोंछ कर पीले वस्त्र धारण करें। ये दस स्नान अब तक के किये हुए पापों का प्रायश्चित्त करने तथा अभिनव जीवन में प्रवेश करने के लिए है। जैसे साँप केंचुली छोड़कर नई त्वचा प्राप्त करता है, वैसे ही इसमें पिछले ढर्रे को समाप्त करके उत्कृष्ट जीवन जीने का व्रत लेते हैं। भावना और प्रेरणा-
१. भस्म से स्नान करने की भावना यह है कि शरीर भस्मान्त है। कभी भी मृत्यु आ सकती है, इसलिए सम्भावित मृत्यु को स्मरण रखते हुए, भावी मरणोत्तर जीवन की सुख- शान्ति के लिए तैयारी आरम्भ की जा रही है। २. मिट्टी से स्नान का मतलब है कि जिस मातृभूमि का असीम ऋण अपने ऊपर है, उससे उऋण होने के लिए देशभक्ति का, मातृभूमि की सेवा का व्रत ग्रहण किया जा रहा है। ३.गोबर से तात्पर्य है- गोबर की तरह शरीर को खाद बनाकर संसार को फलने- फूलने के लिए उत्सर्ग करना। ४. गोमूत्र क्षार प्रधान रहने से मलिनता नाशक माना गया है। रोग कीटाणुओं को नष्ट करता है। इस स्नान में शारीरिक और मानसिक दोष- दुर्गुणों को हटाकर भीतरी और बाहरी स्वच्छता की नीति हृदयङ्गम करनी चाहिए। ५. दुग्ध स्नान में जीवन को दूध- सा धवल, स्वच्छ, निर्मल, सफेद, उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा है। ६. दधि स्नान का अर्थ है- नियन्त्रित होना, दूध पतला होने से इधर- उधर ढुलकता है, पर दही गाढ़ा होकर स्थिर बन जाता है। भाव करें- अब अपनी रीति- नीति दही के समान स्थिर रहे। ७. घृत स्नान की भावना है, चिकनाई। जीवन क्रम को चिकना- सरल बनाना, जीवन में प्यार की प्रचुरता भरे रहना। ८. सर्वौषधि (हल्दी) स्नान का अर्थ है- अवांछनीय तत्त्वों से संघर्ष। हल्दी रोग- कीटाणुओं का नाश करती है, शरीर मन में जो दोष- दुर्गुण हों, समाज में जो विकृतियाँ दीखें, उनसे संघर्ष करने को तत्पर होना। ९. कुशाओं के स्पर्श का अर्थ है- तीक्ष्णतायुक्त रहना। अनीति के प्रति नुकीले, तीखे बने रहना। १०. मधु स्नान का अर्थ है- समग्र मिठास। सज्जनता, मधुर भाषण आदि सबको प्रिय लगने वाले गुणों का अभ्यास। दस स्नानों का कृत्य सम्पन्न करने से दिव्य प्रभाव पड़ता है। उनके साथ समाविष्ट प्रेरणा से आन्तरिक उत्कर्ष में सहायता मिलती है।
१. भस्म- स्नानम्
ॐ प्रसद्य भस्मना योनिमपश्च पृथिवीमग्ने। स * सृज्य मातृभिष्ट्वं ज्योतिष्मान्पुनरासदः॥ -१२.३८
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप भस्मरूप से पृथ्वी और जल में स्थापित हैं। मातृरूप जल से अभिषिक्त होकर तेजास्विता से परिपूर्ण हुए यज्ञ में पुनः उपस्थित होते हैं। २. मृत्तिका- स्नानम्
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा *सुरे स्वाहा। -५.१५
अर्थात्- हे विष्णुदेव! आप अपने सर्वव्यापी प्रथम पद पृथ्वी में, द्वितीय पद अन्तरिक्ष में तथा तृतीय पद द्युलोक में स्थापित करते हैं। भूलोक आदि इनके (विष्णु के) पद- रज में अन्तर्निहित है। इन सर्वव्यापी विष्णुदेव को यह आहुति या सुन्दर कथन समर्पित है। ३. गोमय -स्नानम् ॐ मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे। -१६.१६ अर्थात्- हे रुद्रदेव! आप हमारे पुत्र- पौत्रों को नष्ट न करें। हमारी आयु में कमी न आए। हमारी गौओं और अश्वों (आदि पशुधन) का अहित न हो। हमारे (सहयोगी) पराक्रमी- वीरों का वध न करें। हम आहुति प्रदान करते हुए आपका (इस यज्ञ की सफलता के लिए) आवाहन करते हैं।
४. गोमूत्र -स्नानम्
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ -३६.३
अर्थात्- सम्पूर्ण जगत् के जन्मदाता सविता (सूर्य) देवता की उत्कृष्ट ज्योति का हम ध्यान करते हैं, जो (तेज सभी सत्कर्मों को सम्पादित करने के लिए) हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है।
५. दुग्ध- स्नानम्
ॐ आ प्यायस्व समेतु ते, विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे। -१२.११२
अर्थात्- हे सोम! चारों ओर की विस्तृत तेजस्विता आप में प्रवेश करे। आप अपने शक्ति- शौर्य से सभी प्रकार से वृद्धि को प्राप्त करें और यज्ञादि सत्कर्मों के लिए आवश्यक अन्न प्राप्ति के साधन रूप आप हमारे पास आएँ। (हमें उपलब्ध हों)।
६. दधि -स्नानम् ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वरस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्र णऽ आयू*षि तारिषत्। -२३.३२ उक्त मन्त्र का अर्थ पृष्ठ संख्या ८१ में देखें।
७. घृत -स्नानम्
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः।
पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा। दिशः प्रदिशऽ आदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा। -६.१९
अर्थात्- घृत एवं वसा का सेवन करने वाले पुरुषों, आप इनका उपयोग करें। हे वसा! आप अन्तरिक्ष के लिये हवि के रूप में हों (लोकहित में) हम आहुति देते हैं। सभी दिशाओं सभी उपदिशाओं, आगे- पीछे, ऊपर- नीचे एवं शत्रु की दिशा में अर्थात् सभी दिशाओं को हम आहुति प्रदान करते हैं। ८. सर्वौषधि -स्नानम् ॐ ओषधयः समवन्दत सोमेन सह राज्ञा। यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्त * राजन् पारयामसि। -१२.९६
अर्थात्- हे राजन् सोम! चिकित्सा विशेषज्ञ जिस रोगी के रोग को दूर करने के लिए हमारे मूल, फल, पत्रादि को ग्रहण करते हैं, उसको हम आरोग्य प्रदान करती हैं- ऐसा अपने स्वामी सोम से औषधियाँ कहती हैं।
९. कुशोदक -स्नानम्
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोः बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ॥ -९.३०
अर्थात्- सबको उत्पन्न करने वाले सविता देवता की सृष्टि से सरस्वती की, वाणी की प्रेरणा से अश्विन् देवों की भुजाओं तथा पूषा देवता के हाथों से आपको (यज्ञीय ऊर्जा को) धारण करते हैं और सुव्यवस्था बनाने वाले बृहस्पति देव के श्रेष्ठ नियन्त्रण में इस साम्राज्य के सञ्चालक के रूप में आपको स्थापित करते हैं।
१०. मधु -स्नानम्
ॐ मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। ॐ मधु नक्तमुुतोषसो मधुमत्पार्थिव * रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता। ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः। -१३.२७- २८
शुद्धोदक- स्नानम्
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥ -२४.३
अर्थात्- शुद्ध श्वेत बालों वाले, पूर्ण श्वेत बालों वाले और मणि की आभा के समान बालों वाले पशु (हवि) दोनों अश्विनीकुमारों के निमित्त हैं। श्वेत वर्ण, श्वेत नेत्र तथा लाल वर्ण वाले पशु (हवि) पशुपति रुद्र के निमित्त हैं। चन्द्रमा के समान धवल कर्ण वाले यम से सम्बन्धित हैं। रौद्र स्वभाव वाले पशु (हवि) रुद्र से सम्बन्धित हैं। आकाश जैसे नील वर्ण वाले पशु (हवि) पर्जन्य से सम्बन्धित हैं।
क्रम व्यवस्था- यज्ञ या संस्कार स्थल से कुछ हटकर दस स्नान की व्यवस्था करनी चाहिए। इन स्नानों में १. भस्म, २. मिट्टी, ३. गोबर, ४. गोमूत्र, ५. गो- दुग्ध, ६. गो- दधि, ७. गो- घृत, ८. सर्वौषधि (हल्दी), ९. कुश और १०. मधु।
ये दस वस्तुएँ होती हैं। क्रमशः एक- एक वस्तु से स्नान करते समय बायीं हथेली पर भस्म आदि पदार्थ रखें, उसमें थोड़ा पानी डालें। दोनों हथेलियों से उसे मिलाएँ। मिलाते समय निर्धारित मन्त्र बोलें, फिर बायें हाथ से कमर से नीचे के अङ्गों पर दायें हाथ से कमर से ऊपर के अङ्गों पर उसका लेपन करें। इसके बाद स्वच्छ जल से स्नान कर डालें। इसी प्रकार अन्य दस वस्तुओं से स्नान करें। इसके पश्चात् अन्तिम बार शुद्ध जल से स्नान कर शरीर को भली प्रकार पोंछ कर पीले वस्त्र धारण करें। ये दस स्नान अब तक के किये हुए पापों का प्रायश्चित्त करने तथा अभिनव जीवन में प्रवेश करने के लिए है। जैसे साँप केंचुली छोड़कर नई त्वचा प्राप्त करता है, वैसे ही इसमें पिछले ढर्रे को समाप्त करके उत्कृष्ट जीवन जीने का व्रत लेते हैं। भावना और प्रेरणा-
१. भस्म से स्नान करने की भावना यह है कि शरीर भस्मान्त है। कभी भी मृत्यु आ सकती है, इसलिए सम्भावित मृत्यु को स्मरण रखते हुए, भावी मरणोत्तर जीवन की सुख- शान्ति के लिए तैयारी आरम्भ की जा रही है। २. मिट्टी से स्नान का मतलब है कि जिस मातृभूमि का असीम ऋण अपने ऊपर है, उससे उऋण होने के लिए देशभक्ति का, मातृभूमि की सेवा का व्रत ग्रहण किया जा रहा है। ३.गोबर से तात्पर्य है- गोबर की तरह शरीर को खाद बनाकर संसार को फलने- फूलने के लिए उत्सर्ग करना। ४. गोमूत्र क्षार प्रधान रहने से मलिनता नाशक माना गया है। रोग कीटाणुओं को नष्ट करता है। इस स्नान में शारीरिक और मानसिक दोष- दुर्गुणों को हटाकर भीतरी और बाहरी स्वच्छता की नीति हृदयङ्गम करनी चाहिए। ५. दुग्ध स्नान में जीवन को दूध- सा धवल, स्वच्छ, निर्मल, सफेद, उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा है। ६. दधि स्नान का अर्थ है- नियन्त्रित होना, दूध पतला होने से इधर- उधर ढुलकता है, पर दही गाढ़ा होकर स्थिर बन जाता है। भाव करें- अब अपनी रीति- नीति दही के समान स्थिर रहे। ७. घृत स्नान की भावना है, चिकनाई। जीवन क्रम को चिकना- सरल बनाना, जीवन में प्यार की प्रचुरता भरे रहना। ८. सर्वौषधि (हल्दी) स्नान का अर्थ है- अवांछनीय तत्त्वों से संघर्ष। हल्दी रोग- कीटाणुओं का नाश करती है, शरीर मन में जो दोष- दुर्गुण हों, समाज में जो विकृतियाँ दीखें, उनसे संघर्ष करने को तत्पर होना। ९. कुशाओं के स्पर्श का अर्थ है- तीक्ष्णतायुक्त रहना। अनीति के प्रति नुकीले, तीखे बने रहना। १०. मधु स्नान का अर्थ है- समग्र मिठास। सज्जनता, मधुर भाषण आदि सबको प्रिय लगने वाले गुणों का अभ्यास। दस स्नानों का कृत्य सम्पन्न करने से दिव्य प्रभाव पड़ता है। उनके साथ समाविष्ट प्रेरणा से आन्तरिक उत्कर्ष में सहायता मिलती है।
१. भस्म- स्नानम्
ॐ प्रसद्य भस्मना योनिमपश्च पृथिवीमग्ने। स * सृज्य मातृभिष्ट्वं ज्योतिष्मान्पुनरासदः॥ -१२.३८
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप भस्मरूप से पृथ्वी और जल में स्थापित हैं। मातृरूप जल से अभिषिक्त होकर तेजास्विता से परिपूर्ण हुए यज्ञ में पुनः उपस्थित होते हैं। २. मृत्तिका- स्नानम्
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा *सुरे स्वाहा। -५.१५
अर्थात्- हे विष्णुदेव! आप अपने सर्वव्यापी प्रथम पद पृथ्वी में, द्वितीय पद अन्तरिक्ष में तथा तृतीय पद द्युलोक में स्थापित करते हैं। भूलोक आदि इनके (विष्णु के) पद- रज में अन्तर्निहित है। इन सर्वव्यापी विष्णुदेव को यह आहुति या सुन्दर कथन समर्पित है। ३. गोमय -स्नानम् ॐ मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे। -१६.१६ अर्थात्- हे रुद्रदेव! आप हमारे पुत्र- पौत्रों को नष्ट न करें। हमारी आयु में कमी न आए। हमारी गौओं और अश्वों (आदि पशुधन) का अहित न हो। हमारे (सहयोगी) पराक्रमी- वीरों का वध न करें। हम आहुति प्रदान करते हुए आपका (इस यज्ञ की सफलता के लिए) आवाहन करते हैं।
४. गोमूत्र -स्नानम्
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥ -३६.३
अर्थात्- सम्पूर्ण जगत् के जन्मदाता सविता (सूर्य) देवता की उत्कृष्ट ज्योति का हम ध्यान करते हैं, जो (तेज सभी सत्कर्मों को सम्पादित करने के लिए) हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है।
५. दुग्ध- स्नानम्
ॐ आ प्यायस्व समेतु ते, विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे। -१२.११२
अर्थात्- हे सोम! चारों ओर की विस्तृत तेजस्विता आप में प्रवेश करे। आप अपने शक्ति- शौर्य से सभी प्रकार से वृद्धि को प्राप्त करें और यज्ञादि सत्कर्मों के लिए आवश्यक अन्न प्राप्ति के साधन रूप आप हमारे पास आएँ। (हमें उपलब्ध हों)।
६. दधि -स्नानम् ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वरस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्र णऽ आयू*षि तारिषत्। -२३.३२ उक्त मन्त्र का अर्थ पृष्ठ संख्या ८१ में देखें।
७. घृत -स्नानम्
ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः।
पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा। दिशः प्रदिशऽ आदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा। -६.१९
अर्थात्- घृत एवं वसा का सेवन करने वाले पुरुषों, आप इनका उपयोग करें। हे वसा! आप अन्तरिक्ष के लिये हवि के रूप में हों (लोकहित में) हम आहुति देते हैं। सभी दिशाओं सभी उपदिशाओं, आगे- पीछे, ऊपर- नीचे एवं शत्रु की दिशा में अर्थात् सभी दिशाओं को हम आहुति प्रदान करते हैं। ८. सर्वौषधि -स्नानम् ॐ ओषधयः समवन्दत सोमेन सह राज्ञा। यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्त * राजन् पारयामसि। -१२.९६
अर्थात्- हे राजन् सोम! चिकित्सा विशेषज्ञ जिस रोगी के रोग को दूर करने के लिए हमारे मूल, फल, पत्रादि को ग्रहण करते हैं, उसको हम आरोग्य प्रदान करती हैं- ऐसा अपने स्वामी सोम से औषधियाँ कहती हैं।
९. कुशोदक -स्नानम्
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोः बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ॥ -९.३०
अर्थात्- सबको उत्पन्न करने वाले सविता देवता की सृष्टि से सरस्वती की, वाणी की प्रेरणा से अश्विन् देवों की भुजाओं तथा पूषा देवता के हाथों से आपको (यज्ञीय ऊर्जा को) धारण करते हैं और सुव्यवस्था बनाने वाले बृहस्पति देव के श्रेष्ठ नियन्त्रण में इस साम्राज्य के सञ्चालक के रूप में आपको स्थापित करते हैं।
१०. मधु -स्नानम्
ॐ मधु वाता ऽ ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। ॐ मधु नक्तमुुतोषसो मधुमत्पार्थिव * रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता। ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमाँ२अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः। -१३.२७- २८
शुद्धोदक- स्नानम्
ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः श्येताक्षोरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामाऽ अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपाःपार्जन्याः॥ -२४.३
अर्थात्- शुद्ध श्वेत बालों वाले, पूर्ण श्वेत बालों वाले और मणि की आभा के समान बालों वाले पशु (हवि) दोनों अश्विनीकुमारों के निमित्त हैं। श्वेत वर्ण, श्वेत नेत्र तथा लाल वर्ण वाले पशु (हवि) पशुपति रुद्र के निमित्त हैं। चन्द्रमा के समान धवल कर्ण वाले यम से सम्बन्धित हैं। रौद्र स्वभाव वाले पशु (हवि) रुद्र से सम्बन्धित हैं। आकाश जैसे नील वर्ण वाले पशु (हवि) पर्जन्य से सम्बन्धित हैं।