Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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मूल शान्ति
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यह त्रिआयामी, त्रिगुणात्मक सृष्टि है। नक्षत्र २७ हैं। इन्हें तीन समान वर्गों में बाँटें, तो (१) १ से ९,(२) १० से १८ तथा (३) १९ से २७
यह वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की सन्धि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र माना गया है। वे हैं २७वाँ रेवती एवं प्रथम अश्विनी ९वाँ श्लेषा एवं १०वाँमघा तथा १८वाँ ज्येष्ठा एवं १९वाँ मूल। यह तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं, जहाँ दो संलग्न नक्षत्र अलग- अलग राशियों में हैं; किन्तु किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं जाता। इसलिए इन्हें नक्षत्र चक्र के 'मूल' अर्थात् प्रधान नक्षत्र माना गया है। ऐसे महत्त्वपूर्ण नक्षत्रों को अशुभ मानने की परम्परा न जाने कहाँ सं चल पड़ी? वस्तुतः तथ्य यह है कि नक्षत्रों का सम्बन्ध मानवी प्रवृत्तियों से है। नक्षत्र चक्र के तीन मूल बिन्दुओं पर स्थित नक्षत्रों में मानव की 'मूल' वृत्तियों को तीव्रता से उछालने की चिशेष क्षमता है। मूल वृत्तियों में शुभ- अशुभ दोनों ही प्रकार की वृत्तियों होती हैं। अस्तु, विचारकों ने सोचा कि हीनवृत्तियाँ विकास पाकर परेशानी का कारण भी बन सकती हैं। उन्हें निरस्त करने वाले, कुछ उपचार पहले ही किए जाएँ तो अच्छा है। इसलिए हीन, पाशविक संस्कारों को निरस्त करने वाले, श्रेष्ठ संस्कारों को उभारने में सहयोग कर सकने वाले कुछ जप- यज्ञादि उपचार किए जायें तो अच्छा है। जिन घरों में गायत्री उपासना, यज्ञ, बलिवैश्व आदि सुसंस्कार जनक क्रम सहज ही होते रहते हैं, वहाँ मूल शान्ति के निमित्त अलग से कुछ करना आवश्यक नहीं। जिन परिजनों में ऐसे कुछ नियमित क्रम नहीं हैं, उनमें मूल शान्ति के नाम पर कुछ उपचारों की लकीर पीटने मात्र से जातक की वृत्तियों पर कुछ उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता नहीं है। इसीलिए शास्त्र मत है कि जिन परिवारों में ऋषि प्रणीत चर्चाएँ नियमित रूप से होती हों, उनमें मूलशान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मानवोचित गुणों के विकास के लिए जिन परिवारों में योजनाबद्ध प्रयास होते हों, वहाँ मूल युक्त जातक विशेष सौभाग्य के कारण बनते हैं।
नोट - मूल की शान्ति के लिए सुविधानुसार जन्म के ११ वें या २७वें दिन रुद्रार्चन, शिवाभिषेक व महामृत्युञ्जय की विधि सहित जप व गायत्री महामन्त्र का जप, हवन कराने से अभुक्त मूल शान्ति होती है। गायत्री महामन्त्र के २७,००० मन्त्र जप व महामृत्युञ्जय मन्त्र के ११०० मन्त्र जप करना अनिवार्य है।
गण्ड मूल के नक्षत्र व उनका फल
मूलवास- मनुष्य की योनि पाठशाला के छात्र जैसा है। चराचर जगत् पाठ्यपुस्तक है। नाना योनियाँ इस पाठ्यपुस्तक के नाना अध्याय अथवा पाठ्यक्रम है, जिन्हें जीवरूपी छात्र यथा योनि पढ़ता, परीक्षा (इम्तहान )) के लिये मानव योनि में प्रवेश पाता है। मानव योनि पूरक परीक्षा के क्षण हैं। जिस प्रकार परीक्षा स्थल पर परीक्षक ही प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका छात्र को प्रदान करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी परीक्षक भी परिस्थितियों का प्रश्नपत्र तथा जीवन उत्तरपुस्तिका स्वंय जीवरूपी छात्र को प्रदान करता है। मनुष्य की योनि परीक्षा के क्षण हैं। परीक्षा का समय जन्म से मृत्युपर्यन्त है। जिस प्रकार परीक्षाफल तीन प्रकार का होता है, यथा उत्तीर्ण (पास) होना, अनुत्तीर्ण होना अथवा कुछ थोड़ी कमी के कारण उसे थोड़े समय उपरान्त पुनः परीक्षा में फिर से परीक्षा में आना। इस जीवन परीक्षा में भी जीवरूपी छात्र को इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ेगा। उत्तीर्ण होने पर अनन्त की राह है। उसे अगली कक्षा में प्रवेश मिलेगा, यदि उत्तीर्ण नहीं हो पाया और फेल हो गया तो उसे पुनः सारा पाठ्यक्रम दुहराने के लिये यथा योनियों से गुजरना होगा। इसके उपरान्त ही पुनः परीक्षा के लिये मानव योनि में प्रवेश मिलेगा। अल्प त्रुटियों की अवस्था में उसे लगभग कतिपय योनियों के उपरान्त ही पुनःपरीक्षा हेतु मनुष्य की योनि प्रदान की जायेगी।
इसीलिये जब भी घर में शिशु का जन्म होता है, घर में सूतक (छूत) का वास होता है। मन्दिर,पूजा आदि बन्द कर दिये जाते हैं, बरहा मनाया जाता है इसका पृष्ठ रहस्य यही है कि जन्मने वाला शिशु हमारा ही पूर्वज है अल्प त्रुटियों से रह गया था,फिर अपने घर लौट आया। बरहा पूजन में प्रायश्चित पूजन भी करते है उसी में मूल शान्ति विधि भी पूरी कर लेते हैं। यद्यपि मूल का वास- माघ,आषाढ़,आश्विन, और भाद्रपद माह- आकाश में, कार्तिक, चैत, श्रावण और पौष माह- पृथ्वी में, फाल्गुन, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष और वैशाख माह- पाताल में होता है। 'भूतले वर्तमाने तु ज्ञेयो दोषोऽन्यथा न हि।' अर्थात् जब पृथ्वी में मूल का वास हो तभी मूलपूजन का क्रम करना चाहिये अन्यथा सामान्य यज्ञादि से भी बारह (बरहा) पूजन का क्रम पूरा कर लेना चाहिये।
प्रारम्भिक कर्मकाण्ड मंगलाचरण से रक्षाविधान तक पूर्ण करें। तत्पश्चात् संकल्प करें।
॥ सङ्कल्प॥
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते..........क्षेत्रे..........मासानां मासोत्तमेमासे..........मासे..........पक्षे..........तिथौ..........वासरे..........गोत्रोत्पन्नः.......... नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय, दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याणाय, वातावरण -परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्यकामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये, अस्मै प्रयोजनाय च कलशादिआवाहितदेवता- पूजनपूर्वकम् गण्डान्त नक्षत्रजनित दोषोपसमानार्थं गण्डदोष मूलशान्ति कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
पञ्चकलशों में पञ्चद्रव्यों के सहित पूजन करें।
मध्य कलश- ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरिमभिः। -८.३२,१३.३२ पूर्व- ॐ त्वं नोऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा*सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। -२१.३ दक्षिण- ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्याऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण*रराणो वीहि मृडीक*सुहवो नऽ एधि। -२१.४ उत्तर- ॐ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय। त्वामवस्युरा चके।- २१.१ पश्चिम- ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। -७.११नमस्कार- दोनों हाथ जोड़ कर नमन- वन्दन करें। ॐ नमस्ते सुरनाथाय, नमस्तुभ्यं शचीपते। गृहाणं स्नानं मया दत्तं, गण्डदोषं प्रशान्तये॥
षोडशमातृका पूजन- गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥ धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः,आत्मनः कुलदेवता। गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥ ॐ षोडशमातृकाभ्यो नमः। आ०स्था०,पू० वास्तुपूजन- अनन्तं पुण्डरीकाक्षं, फणीशत विभूषितम्। विद्युद्बन्धूक साकारं, कूर्मारूढं प्रपूजयेत्॥ नागपृष्ठं समारूढं, शूलहस्तं महाबलम् । पातालनायकम् देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥ ॐ वास्तुपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
नागपूजनम्- ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। वासुक्यादि अष्टकुल नागेभ्यो नमः॥आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
चौंसठयोगिनीपूजनम्- दिव्यकुण्डलसंकाशा, दिव्यज्वाला त्रिलोचना। मूर्तिमती ह्यमूर्ता चे, उग्रा चैवोग्ररूपिणी॥ अनेकभावासंयुक्ता, संसारार्णवतारिणी। यज्ञे कुर्वन्तु निर्विघ्नं, श्रेयो यच्छन्तु मातरः॥ दिव्ययोगी महायोगी, सिद्धयोगी गणेश्वरी। प्रेताशी डाकिनी काली, कालरात्री निशाचरी॥ हुङ्कारी सिद्धवेताली, खर्परी भूतगामिनी। ऊर्ध्वकेशी विरूपाक्षी, शुष्काङ्गी धान्यभोजनी॥ फूत्कारी वीरभद्राक्षी, धूम्राक्षी कलहप्रिया। रक्ता च घोररक्ताक्षी, विरूपाक्षी भयङ्करी॥ चौरिका मारिका चण्डी, वाराही मुण्डधारिणी। भैरव चक्रिणी क्रोधा, दुर्मुखी प्रेतवासिनी॥ कालाक्षी मोहिनी चक्री, कङ्काली भुवनेश्वरी। कुण्डला तालकौमारी, यमूदूती करालिनी॥ कौशिकी यक्षिणी यक्षी, कौमारी यन्त्रवाहिनी। दुर्घटे विकटे घोरे, कपाले विषलङ्घने॥ चतुष्षष्टि समाख्याता, योगिन्यो हि वरप्रदाः। त्रैलोक्ये पूजिता नित्यं, देवामानुष्योगिभिः॥ १०॥ ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः॥ आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
ब्रह्मापूजनम्- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः। सबुध्न्याऽउपमाअस्य विष्ठाःसतश्च योनिमसतश्च वि वः॥- १३.३ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। विष्णुपूजनम्- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा * सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५ शिव पूजनम्- ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः। ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- १६.१ नवग्रहपूजनम्- सूर्य- ॐ जपाकुसुमसंकाशं, काश्यपेयं महाद्युतिम । तमोऽरिं सर्वपापघ्नं, प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥ ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्। ॐ सूर्याय नमः। चन्द्र- ॐ दधिशङ्खतुषाराभं, क्षीरोदार्णवसम्भवम्। नमामि शशिनं सोमं, शम्भोर्मुकुटभूषणम्॥ ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे, सागरोद्भवाय धीमहि। तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्। ॐ चन्द्राय नमः। मङ्गल- ॐ धरणीगर्भसम्भूतं, विद्युत्कान्तिसमप्रभम्॥ कुमारं शक्तिहस्तं च, मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे, लोहिताङ्गाय धीमहि। तन्नो भौमः प्रचोदयात्। ॐ भौमाय नमः। बुध- ॐ प्रियङ्गु कलिकाश्यामं, रूपेणाप्रतिमं बुधम्। सौम्यं सौम्यगुणोपेतं, तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे, रोहिणीप्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। ॐ बुधाय नमः। गुरु- ॐ देवानां च ऋषीणां, च गुरुं काञ्चनसन्निभम्। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं, तं नमामि बृहस्पतिम्॥ ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे, वाचस्पतये धीमहि। तन्नो गुरुः प्रचोदयात्। ॐ बृहस्पतये नमः। शुक्र- ॐ हिमकुन्द मृणालाभं, दैत्यानां परमं गुरुम्। सर्वशास्त्रप्रवक्तारं, भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे, श्वेतवाहनाय धीमहि। तन्नः कविः प्रचोदयात्। ॐ शुक्राय नमः। शनि- ॐ नीलाञ्जन समाभासं, रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्त्तण्डसम्भूतं, तं नमामि शनैश्चरम्॥ ॐ कृष्णाङ्गाय विद्महे, रविपुत्राय धीमहि। तन्नः शौरिः प्रचोदयात्। ॐ शनये नमः। राहु- ॐ अर्धकायं महावीर्यं, चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं, तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ नीलवर्णाय विद्महे, सैंहिकेयाय धीमहि। तन्नो राहुः प्रचोदयात्। ॐ राहवे नमः। केतु- ॐ पलाशपुष्पसङ्काशं, तारकाग्रहमस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं, तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ अन्तर्वाताय विद्महे, कपोतवाहनाय धीमहि। तन्नः केतुः प्रचोदयात्। ॐ केतवे नमः।
।। पञ्चगव्यपूजन एवं सवत्सगोपूजनम्।। गोदुग्धं गोमयक्षीरं, दधि सर्पिः कुशोदकम्। निर्दिष्टं पञ्चगव्यं, पवित्रं मुनिः पुङ्गवैः॥
॥ नक्षत्र पूजन॥ जातक जिस नक्षत्र में जन्मा हो, उसी नक्षत्र के मन्त्र के साथ नक्षत्र पूजन करें। 1 अश्विनी- ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षितम्॥ ॐ अश्विनीभ्यां नमः॥- २०.८० 2 आश्लेषा- ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनुयेऽन्तरिक्षे ये दिवितेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। ॐ सर्पेभ्यो नमः॥- १३.६ 3 मघा- ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽ मीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः सुन्धध्वम्। ॐ पितृभ्यो नमः॥- १९.३६
4 ज्येष्ठा- ॐ सजोषाऽ इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूँ२ऽ रप मृधोनुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः। ॐ इन्द्राय नमः- ७.३७ 5 मूल- ॐ मातेव पुुत्रं पृथिवी पुरुषमग्नि* स्वे योनावभारुखा। तां विश्वै- र्देवैऋतुभिः संविदानःप्रजापतिर्विश्वकर्मा वि मुञ्चतु। ॐ नैऋतये नमः॥- १२.६१
6 रेवती- ॐ पूषन् तव व्रतेवयंन रिष्येम कदा चन। स्तोतारस्तऽ इह स्मसि। ॐ पूष्णे नमः॥- ३४.४१ सप्तधान्य पूजन- ॐ अन्नपतेन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। -११.८३ तत्पश्चात् सभी आवाहित देवताओं का षोडशोपचार विधि से पूजन पुरुषसूक्त (पृ० १८६-१९८) से करें। ।। पञ्चकलशों से सिञ्चन।। पञ्चकलशों को पाँच सम्भ्रान्त व्यक्ति (महिला- पुरुष) ले लें तथा निम्न मंत्र के साथ जातक और उनके माता- पिता का सिञ्चन अभिषेक करें। ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः तानऽ ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्माऽ अरंगमाम वो यस्यक्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।
तत्पश्चात् यज्ञ का क्रम पूर्ण करें। गायत्री मन्त्र की २४ आहुतियाँ एवंं महामृत्युञ्जय मन्त्र से ५ आहुति दें, फिर विशेष आहुतियाँ समर्पित करें।
विशेष आहुति नक्षत्र मन्त्राहुति- ॐ नमस्ते सुरनाथाय नमस्तुभ्यं शचीपते। गृहाणामाहुति मया दत्तं गण्डदोषप्रशान्तये, स्वाहा॥ इदं इन्द्राय इदं न मम। (तीन बार) नवग्रह मन्त्राहुति
१ सूर्य गायत्री- ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं सूर्याय, इदं न मम।
२ चन्द गायत्री- ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे सागरोद्भवाय धीमहि। तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं चन्द्राय, इदं न मम।
३ मङ्गल गायत्री-
ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि। तन्नो भौमः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं भौमाय, इदं न मम।
४ बुध गायत्री-
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणीप्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बुधाय, इदं न मम।
५ गुरु गायत्री-
ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे वाचस्पतये धीमहि। तन्नो गुरुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बृहस्पतये, इदं न मम।
६ शुक्र गायत्री-
ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे श्वेतवाहनाय धीमहि। तन्नः कविः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शुक्राय, इदं न मम।
७ शनि गायत्री- ॐ कृष्णांगाय विद्महे रविपुत्राय धीमहि। तन्नः शौरिः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शनये, इदं न मम।
८ राहु गायत्री- ॐ नीलवर्णाय विद्महे सैंहिकेयाय धीमहि। तन्नो राहुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं राहवे, इदं न मम।
९ केतु गायत्री- ॐ अन्तर्वाताय विद्महेकपोतवाहनाय धीमहि। तन्नः केतुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं केतवे, इदं न मम।
तत्पश्चात् यज्ञ का शेष क्रम स्विष्टकृत्, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न करें। उपस्थित सभी परिजन अभिषेक मन्त्र के साथ जातक और उनके माता- पिता को आशीर्वाद दें। कार्यक्रम समाप्त।
यह वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की सन्धि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र माना गया है। वे हैं २७वाँ रेवती एवं प्रथम अश्विनी ९वाँ श्लेषा एवं १०वाँमघा तथा १८वाँ ज्येष्ठा एवं १९वाँ मूल। यह तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं, जहाँ दो संलग्न नक्षत्र अलग- अलग राशियों में हैं; किन्तु किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं जाता। इसलिए इन्हें नक्षत्र चक्र के 'मूल' अर्थात् प्रधान नक्षत्र माना गया है। ऐसे महत्त्वपूर्ण नक्षत्रों को अशुभ मानने की परम्परा न जाने कहाँ सं चल पड़ी? वस्तुतः तथ्य यह है कि नक्षत्रों का सम्बन्ध मानवी प्रवृत्तियों से है। नक्षत्र चक्र के तीन मूल बिन्दुओं पर स्थित नक्षत्रों में मानव की 'मूल' वृत्तियों को तीव्रता से उछालने की चिशेष क्षमता है। मूल वृत्तियों में शुभ- अशुभ दोनों ही प्रकार की वृत्तियों होती हैं। अस्तु, विचारकों ने सोचा कि हीनवृत्तियाँ विकास पाकर परेशानी का कारण भी बन सकती हैं। उन्हें निरस्त करने वाले, कुछ उपचार पहले ही किए जाएँ तो अच्छा है। इसलिए हीन, पाशविक संस्कारों को निरस्त करने वाले, श्रेष्ठ संस्कारों को उभारने में सहयोग कर सकने वाले कुछ जप- यज्ञादि उपचार किए जायें तो अच्छा है। जिन घरों में गायत्री उपासना, यज्ञ, बलिवैश्व आदि सुसंस्कार जनक क्रम सहज ही होते रहते हैं, वहाँ मूल शान्ति के निमित्त अलग से कुछ करना आवश्यक नहीं। जिन परिजनों में ऐसे कुछ नियमित क्रम नहीं हैं, उनमें मूल शान्ति के नाम पर कुछ उपचारों की लकीर पीटने मात्र से जातक की वृत्तियों पर कुछ उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता नहीं है। इसीलिए शास्त्र मत है कि जिन परिवारों में ऋषि प्रणीत चर्चाएँ नियमित रूप से होती हों, उनमें मूलशान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मानवोचित गुणों के विकास के लिए जिन परिवारों में योजनाबद्ध प्रयास होते हों, वहाँ मूल युक्त जातक विशेष सौभाग्य के कारण बनते हैं।
नोट - मूल की शान्ति के लिए सुविधानुसार जन्म के ११ वें या २७वें दिन रुद्रार्चन, शिवाभिषेक व महामृत्युञ्जय की विधि सहित जप व गायत्री महामन्त्र का जप, हवन कराने से अभुक्त मूल शान्ति होती है। गायत्री महामन्त्र के २७,००० मन्त्र जप व महामृत्युञ्जय मन्त्र के ११०० मन्त्र जप करना अनिवार्य है।
गण्ड मूल के नक्षत्र व उनका फल
मूलवास- मनुष्य की योनि पाठशाला के छात्र जैसा है। चराचर जगत् पाठ्यपुस्तक है। नाना योनियाँ इस पाठ्यपुस्तक के नाना अध्याय अथवा पाठ्यक्रम है, जिन्हें जीवरूपी छात्र यथा योनि पढ़ता, परीक्षा (इम्तहान )) के लिये मानव योनि में प्रवेश पाता है। मानव योनि पूरक परीक्षा के क्षण हैं। जिस प्रकार परीक्षा स्थल पर परीक्षक ही प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका छात्र को प्रदान करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी परीक्षक भी परिस्थितियों का प्रश्नपत्र तथा जीवन उत्तरपुस्तिका स्वंय जीवरूपी छात्र को प्रदान करता है। मनुष्य की योनि परीक्षा के क्षण हैं। परीक्षा का समय जन्म से मृत्युपर्यन्त है। जिस प्रकार परीक्षाफल तीन प्रकार का होता है, यथा उत्तीर्ण (पास) होना, अनुत्तीर्ण होना अथवा कुछ थोड़ी कमी के कारण उसे थोड़े समय उपरान्त पुनः परीक्षा में फिर से परीक्षा में आना। इस जीवन परीक्षा में भी जीवरूपी छात्र को इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ेगा। उत्तीर्ण होने पर अनन्त की राह है। उसे अगली कक्षा में प्रवेश मिलेगा, यदि उत्तीर्ण नहीं हो पाया और फेल हो गया तो उसे पुनः सारा पाठ्यक्रम दुहराने के लिये यथा योनियों से गुजरना होगा। इसके उपरान्त ही पुनः परीक्षा के लिये मानव योनि में प्रवेश मिलेगा। अल्प त्रुटियों की अवस्था में उसे लगभग कतिपय योनियों के उपरान्त ही पुनःपरीक्षा हेतु मनुष्य की योनि प्रदान की जायेगी।
इसीलिये जब भी घर में शिशु का जन्म होता है, घर में सूतक (छूत) का वास होता है। मन्दिर,पूजा आदि बन्द कर दिये जाते हैं, बरहा मनाया जाता है इसका पृष्ठ रहस्य यही है कि जन्मने वाला शिशु हमारा ही पूर्वज है अल्प त्रुटियों से रह गया था,फिर अपने घर लौट आया। बरहा पूजन में प्रायश्चित पूजन भी करते है उसी में मूल शान्ति विधि भी पूरी कर लेते हैं। यद्यपि मूल का वास- माघ,आषाढ़,आश्विन, और भाद्रपद माह- आकाश में, कार्तिक, चैत, श्रावण और पौष माह- पृथ्वी में, फाल्गुन, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष और वैशाख माह- पाताल में होता है। 'भूतले वर्तमाने तु ज्ञेयो दोषोऽन्यथा न हि।' अर्थात् जब पृथ्वी में मूल का वास हो तभी मूलपूजन का क्रम करना चाहिये अन्यथा सामान्य यज्ञादि से भी बारह (बरहा) पूजन का क्रम पूरा कर लेना चाहिये।
प्रारम्भिक कर्मकाण्ड मंगलाचरण से रक्षाविधान तक पूर्ण करें। तत्पश्चात् संकल्प करें।
॥ सङ्कल्प॥
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते..........क्षेत्रे..........मासानां मासोत्तमेमासे..........मासे..........पक्षे..........तिथौ..........वासरे..........गोत्रोत्पन्नः.......... नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय, दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याणाय, वातावरण -परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्यकामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये, अस्मै प्रयोजनाय च कलशादिआवाहितदेवता- पूजनपूर्वकम् गण्डान्त नक्षत्रजनित दोषोपसमानार्थं गण्डदोष मूलशान्ति कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
पञ्चकलशों में पञ्चद्रव्यों के सहित पूजन करें।
मध्य कलश- ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरिमभिः। -८.३२,१३.३२ पूर्व- ॐ त्वं नोऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा*सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। -२१.३ दक्षिण- ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्याऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुण*रराणो वीहि मृडीक*सुहवो नऽ एधि। -२१.४ उत्तर- ॐ इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय। त्वामवस्युरा चके।- २१.१ पश्चिम- ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। -७.११नमस्कार- दोनों हाथ जोड़ कर नमन- वन्दन करें। ॐ नमस्ते सुरनाथाय, नमस्तुभ्यं शचीपते। गृहाणं स्नानं मया दत्तं, गण्डदोषं प्रशान्तये॥
षोडशमातृका पूजन- गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥ धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः,आत्मनः कुलदेवता। गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥ ॐ षोडशमातृकाभ्यो नमः। आ०स्था०,पू० वास्तुपूजन- अनन्तं पुण्डरीकाक्षं, फणीशत विभूषितम्। विद्युद्बन्धूक साकारं, कूर्मारूढं प्रपूजयेत्॥ नागपृष्ठं समारूढं, शूलहस्तं महाबलम् । पातालनायकम् देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥ ॐ वास्तुपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
नागपूजनम्- ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। वासुक्यादि अष्टकुल नागेभ्यो नमः॥आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
चौंसठयोगिनीपूजनम्- दिव्यकुण्डलसंकाशा, दिव्यज्वाला त्रिलोचना। मूर्तिमती ह्यमूर्ता चे, उग्रा चैवोग्ररूपिणी॥ अनेकभावासंयुक्ता, संसारार्णवतारिणी। यज्ञे कुर्वन्तु निर्विघ्नं, श्रेयो यच्छन्तु मातरः॥ दिव्ययोगी महायोगी, सिद्धयोगी गणेश्वरी। प्रेताशी डाकिनी काली, कालरात्री निशाचरी॥ हुङ्कारी सिद्धवेताली, खर्परी भूतगामिनी। ऊर्ध्वकेशी विरूपाक्षी, शुष्काङ्गी धान्यभोजनी॥ फूत्कारी वीरभद्राक्षी, धूम्राक्षी कलहप्रिया। रक्ता च घोररक्ताक्षी, विरूपाक्षी भयङ्करी॥ चौरिका मारिका चण्डी, वाराही मुण्डधारिणी। भैरव चक्रिणी क्रोधा, दुर्मुखी प्रेतवासिनी॥ कालाक्षी मोहिनी चक्री, कङ्काली भुवनेश्वरी। कुण्डला तालकौमारी, यमूदूती करालिनी॥ कौशिकी यक्षिणी यक्षी, कौमारी यन्त्रवाहिनी। दुर्घटे विकटे घोरे, कपाले विषलङ्घने॥ चतुष्षष्टि समाख्याता, योगिन्यो हि वरप्रदाः। त्रैलोक्ये पूजिता नित्यं, देवामानुष्योगिभिः॥ १०॥ ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः॥ आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
ब्रह्मापूजनम्- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः। सबुध्न्याऽउपमाअस्य विष्ठाःसतश्च योनिमसतश्च वि वः॥- १३.३ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। विष्णुपूजनम्- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा * सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५ शिव पूजनम्- ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो त ऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः। ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- १६.१ नवग्रहपूजनम्- सूर्य- ॐ जपाकुसुमसंकाशं, काश्यपेयं महाद्युतिम । तमोऽरिं सर्वपापघ्नं, प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्॥ ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्। ॐ सूर्याय नमः। चन्द्र- ॐ दधिशङ्खतुषाराभं, क्षीरोदार्णवसम्भवम्। नमामि शशिनं सोमं, शम्भोर्मुकुटभूषणम्॥ ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे, सागरोद्भवाय धीमहि। तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्। ॐ चन्द्राय नमः। मङ्गल- ॐ धरणीगर्भसम्भूतं, विद्युत्कान्तिसमप्रभम्॥ कुमारं शक्तिहस्तं च, मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे, लोहिताङ्गाय धीमहि। तन्नो भौमः प्रचोदयात्। ॐ भौमाय नमः। बुध- ॐ प्रियङ्गु कलिकाश्यामं, रूपेणाप्रतिमं बुधम्। सौम्यं सौम्यगुणोपेतं, तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे, रोहिणीप्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। ॐ बुधाय नमः। गुरु- ॐ देवानां च ऋषीणां, च गुरुं काञ्चनसन्निभम्। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं, तं नमामि बृहस्पतिम्॥ ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे, वाचस्पतये धीमहि। तन्नो गुरुः प्रचोदयात्। ॐ बृहस्पतये नमः। शुक्र- ॐ हिमकुन्द मृणालाभं, दैत्यानां परमं गुरुम्। सर्वशास्त्रप्रवक्तारं, भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे, श्वेतवाहनाय धीमहि। तन्नः कविः प्रचोदयात्। ॐ शुक्राय नमः। शनि- ॐ नीलाञ्जन समाभासं, रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्त्तण्डसम्भूतं, तं नमामि शनैश्चरम्॥ ॐ कृष्णाङ्गाय विद्महे, रविपुत्राय धीमहि। तन्नः शौरिः प्रचोदयात्। ॐ शनये नमः। राहु- ॐ अर्धकायं महावीर्यं, चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं, तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ नीलवर्णाय विद्महे, सैंहिकेयाय धीमहि। तन्नो राहुः प्रचोदयात्। ॐ राहवे नमः। केतु- ॐ पलाशपुष्पसङ्काशं, तारकाग्रहमस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं, तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥ ॐ अन्तर्वाताय विद्महे, कपोतवाहनाय धीमहि। तन्नः केतुः प्रचोदयात्। ॐ केतवे नमः।
।। पञ्चगव्यपूजन एवं सवत्सगोपूजनम्।। गोदुग्धं गोमयक्षीरं, दधि सर्पिः कुशोदकम्। निर्दिष्टं पञ्चगव्यं, पवित्रं मुनिः पुङ्गवैः॥
॥ नक्षत्र पूजन॥ जातक जिस नक्षत्र में जन्मा हो, उसी नक्षत्र के मन्त्र के साथ नक्षत्र पूजन करें। 1 अश्विनी- ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षितम्॥ ॐ अश्विनीभ्यां नमः॥- २०.८० 2 आश्लेषा- ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनुयेऽन्तरिक्षे ये दिवितेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। ॐ सर्पेभ्यो नमः॥- १३.६ 3 मघा- ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽ मीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः सुन्धध्वम्। ॐ पितृभ्यो नमः॥- १९.३६
4 ज्येष्ठा- ॐ सजोषाऽ इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूँ२ऽ रप मृधोनुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः। ॐ इन्द्राय नमः- ७.३७ 5 मूल- ॐ मातेव पुुत्रं पृथिवी पुरुषमग्नि* स्वे योनावभारुखा। तां विश्वै- र्देवैऋतुभिः संविदानःप्रजापतिर्विश्वकर्मा वि मुञ्चतु। ॐ नैऋतये नमः॥- १२.६१
6 रेवती- ॐ पूषन् तव व्रतेवयंन रिष्येम कदा चन। स्तोतारस्तऽ इह स्मसि। ॐ पूष्णे नमः॥- ३४.४१ सप्तधान्य पूजन- ॐ अन्नपतेन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्रप्र दातारं तारिषऽ ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे। -११.८३ तत्पश्चात् सभी आवाहित देवताओं का षोडशोपचार विधि से पूजन पुरुषसूक्त (पृ० १८६-१९८) से करें। ।। पञ्चकलशों से सिञ्चन।। पञ्चकलशों को पाँच सम्भ्रान्त व्यक्ति (महिला- पुरुष) ले लें तथा निम्न मंत्र के साथ जातक और उनके माता- पिता का सिञ्चन अभिषेक करें। ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः तानऽ ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्माऽ अरंगमाम वो यस्यक्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।
तत्पश्चात् यज्ञ का क्रम पूर्ण करें। गायत्री मन्त्र की २४ आहुतियाँ एवंं महामृत्युञ्जय मन्त्र से ५ आहुति दें, फिर विशेष आहुतियाँ समर्पित करें।
विशेष आहुति नक्षत्र मन्त्राहुति- ॐ नमस्ते सुरनाथाय नमस्तुभ्यं शचीपते। गृहाणामाहुति मया दत्तं गण्डदोषप्रशान्तये, स्वाहा॥ इदं इन्द्राय इदं न मम। (तीन बार) नवग्रह मन्त्राहुति
१ सूर्य गायत्री- ॐ आदित्याय विद्महे, दिवाकराय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं सूर्याय, इदं न मम।
२ चन्द गायत्री- ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे सागरोद्भवाय धीमहि। तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं चन्द्राय, इदं न मम।
३ मङ्गल गायत्री-
ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि। तन्नो भौमः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं भौमाय, इदं न मम।
४ बुध गायत्री-
ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणीप्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बुधाय, इदं न मम।
५ गुरु गायत्री-
ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे वाचस्पतये धीमहि। तन्नो गुरुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं बृहस्पतये, इदं न मम।
६ शुक्र गायत्री-
ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे श्वेतवाहनाय धीमहि। तन्नः कविः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शुक्राय, इदं न मम।
७ शनि गायत्री- ॐ कृष्णांगाय विद्महे रविपुत्राय धीमहि। तन्नः शौरिः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं शनये, इदं न मम।
८ राहु गायत्री- ॐ नीलवर्णाय विद्महे सैंहिकेयाय धीमहि। तन्नो राहुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं राहवे, इदं न मम।
९ केतु गायत्री- ॐ अन्तर्वाताय विद्महेकपोतवाहनाय धीमहि। तन्नः केतुः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं केतवे, इदं न मम।
तत्पश्चात् यज्ञ का शेष क्रम स्विष्टकृत्, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न करें। उपस्थित सभी परिजन अभिषेक मन्त्र के साथ जातक और उनके माता- पिता को आशीर्वाद दें। कार्यक्रम समाप्त।