Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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विवाह संस्कार
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संस्कार प्रयोजन- विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है। दो प्राणी अपने अलग- अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूर्णताएँ दे रखी हैं। विवाह सम्मिलन से एक- दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है। एक- दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति- पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है। वासना का दाम्पत्य- जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानतः दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके।
विशेष व्यवस्था- विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए। सामूहिक विवाह हो, तो प्रत्येक जोड़े के हिसाब से प्रत्येक वेदी पर आवश्यक सामग्री रहनी चाहिए, कर्मकाण्ड ठीक से होते चलें, इसके लिए प्रत्येक वेदी पर एक- एक जानकार व्यक्ति भी नियुक्त करना चाहिए। एक ही विवाह है, तो आचार्य स्वयं ही देख- रेख रख सकते हैं। सामान्य व्यवस्था के साथ जिन वस्तुओं की जरूरत विशेष कर्मकाण्ड में पड़ती है, उन पर प्रारम्भ में दृष्टि डाल लेनी चाहिए। उसके सूत्र इस प्रकार हैं।
* वर सत्कार के लिए सामग्री के साथ एक थाली रहे, ताकि हाथ, पैर धोने की क्रिया में जल फैले नहीं। मधुपर्क पान के बाद हाथ धुलाकर उसे हटा दिया जाए। * यज्ञोपवीत के लिए पीला रँगा हुआ यज्ञोपवीत एक जोड़ा रखा जाए। * विवाह घोषणा के लिए वर- वधू पक्ष की पूरी जानकारी पहले से ही नोट कर ली जाए। * वस्त्रोपहार तथा पुष्पोपहार के वस्त्र एवं मालाएँ तैयार रहें। * कन्यादान में हाथ पीले करने के लिए हल्दी, गुप्तदान के लिए गुँथा हुआ आटा (लगभग एक पाव) रखें। * ग्रन्थिबन्धन के लिए हल्दी, पुष्प, अक्षत, दूर्वा और द्रव्य हों। * शिलारोहण के लिए पत्थर की शिला या समतल पत्थर का एक टुकड़ा रखा जाए। * हवन सामग्री के अतिरिक्त लाजा (धान की खीलें) रखनी चाहिए। * वर- वधू के पाद प्रक्षालन के लिए परात या थाली रखी जाए। * पहले से वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि संस्कार के समय वर और कन्या पक्ष के अधिक से अधिक परिजन, स्नेही उपस्थित रहें। * सबके भाव संयोग से कर्मकाण्ड के उद्देश्य में रचनात्मक सहयोग मिलता है। इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही ढंग से आग्रह किए जा सकते हैं। * विवाह के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार हो चुकता है। अविवाहितों को एक तथा विवाहितों को जोड़ा यज्ञोपवीत पहनाने का नियम है। * यदि यज्ञोपवीत न हुआ हो, तो नया यज्ञोपवीत और हो गया हो, तो एक के स्थान पर जोड़ा पहनाने का संस्कार विधिवत् किया जाना चाहिए। अच्छा हो कि जिस शुभ दिन को विवाह- संस्कार होना है, उस दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण का क्रम व्यवस्थित ढंग से करा दिया जाए। विवाह- संस्कार के लिए सजे हुए वर के वस्त्र आदि उतरवाकर यज्ञोपवीत पहनाना अटपटा- सा लगता है। इसलिए उसको पहले ही पूरा कर लिया जाए। यदि वह सम्भव न हो, तो स्वागत के बाद यज्ञोपवीत धारण करा दिया जाता है। उसे वस्त्रों पर ही पहना देना चाहिए, जो संस्कार के बाद अन्दर कर लिया जाता है।
* जहाँ पारिवारिक स्तर के परम्परागत विवाह आयोजनों में मुख्य संस्कार से पूर्व द्वारचार (द्वार पूजा) की रस्म होती है, वहाँ यदि हो- हल्ला के वातावरण को संस्कार के उपयुक्त बनाना सम्भव लगे, तो स्वागत तथा वस्त्र एवं पुष्पोपहार वाले प्रकरण उस समय पूरे कराये जा सकते हैं। विशेष आसन पर बिठाकर वर का सत्कार किया जाए। फिर कन्या को बुलाकर परस्पर वस्त्र और पुष्पोपहार सम्पन्न कराये जाएँ। परम्परागत ढंग से दिये जाने वाले अभिनन्दन- पत्र आदि भी उसी अवसर पर दिये जा सकते हैं। इसके कर्मकाण्ड का सङ्केत आगे किया गया है। * पारिवारिक स्तर पर सम्पन्न किये जाने वाले विवाह संस्कारों के समय कई बार वर- कन्या पक्ष वाले किन्हीं लौकिक रीतियों के लिए आग्रह करते हैं। यदि ऐसा आग्रह है, तो पहले से नोट कर लेना- समझ लेना चाहिए। पारिवारिक स्तर पर विवाह- प्रकरणों में वरेच्छा, तिलक (शादी पक्की करना), हरिद्रा लेपन (हल्दी चढ़ाना) तथा द्वारपूजन आदि के आग्रह उभरते हैं। उन्हें संक्षेप में दिया जा रहा है, ताकि समयानुसार उनका निर्वाह किया जा सके। ॥ पूर्व विधान॥ ॥ वर- वरण (तिलक)॥ विवाह से पूर्व ‘तिलक’ का संक्षिप्त विधान इस प्रकार है- वर पूर्वाभिमुख तथा तिलक करने वाले (पिता, भाई आदि) पश्चिमाभिमुख बैठकर निम्नकृत्य सम्पन्न करें- सामान्य प्रकरण से मङ्गलाचरण, षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गायत्री- गौरी पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि सम्पन्न कर कन्यादाता वर का यथोचित स्वागत- सत्कार (पैर धुलाना, आचमन कराना तथा हल्दी से तिलक करके अक्षत लगाना) करें। तदुपरान्त ‘वर’ को प्रदान की जाने वाली समस्त सामग्री (थाल- थान, फल- फूल, द्रव्य- वस्त्रादि) कन्यादाता हाथ में लेकर सङ्कल्प मन्त्र बोलते हुए वर को प्रदान कर दें-
॥ सङ्कल्प॥ ...............(कन्यादाता) नामाऽहं ...............(कन्या- नाम) नाम्न्या कन्यायाः (भगिन्याः) करिष्यमाण उद्वाहकर्मणि एभिर्वरणद्रव्यैः ...............(वर का गोत्र) गोत्रोत्पन्नं ...............(वर का नाम) नामानं वरं कन्यादानार्थं वरपूजनपूर्वकं त्वामहं वृणे, तन्निमित्तकं यथाशक्ति भाण्डानि, वस्त्राणि, फलमिष्टान्नानि द्रव्याणि च...............(वर का नाम) वराय समर्पये। तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन तथा शान्ति पाठ करते हुए कार्यक्रम समाप्त करें।
॥ हरिद्रालेपन॥ विवाह से पूर्व वर- कन्या को प्रायः हल्दी चढ़ाने का प्रचलन है, उसका संक्षिप्त विधान इस प्रकार है- सर्वप्रथम सामान्य प्रकरण से षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी- गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। तत्पश्चात् निम्न मन्त्र बोलते हुए वर/कन्या की हथेली- अङ्ग- अवयवों में (लोकरीति के अनुसार) हरिद्रालेपन करें --
ॐ काण्डात् काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥ - १३.२० इसके बाद वर के दाहिने हाथ में तथा कन्या के बायें हाथ में रक्षा सूत्र कङ्कण (पीले वस्त्र में कौड़ी, लोहे की अँगूठी, पीली सरसों, पीला अक्षत आदि बाँधकर बनाया गया।) निम्नलिखित मन्त्र से पहनाएँ-
ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्य* शतानीकाय सुमनस्यमानाः। तन्मऽ आ बध्नामि शतशारदाय आयुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्॥ -३४.५२ तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन, शान्तिपाठ के साथ कार्यक्रम पूर्ण करें।
॥ द्वार पूजा॥ विवाह हेतु बरात जब द्वार पर आती है, तो सर्वप्रथम ‘वर’ का स्वागत- सत्कार किया जाता है, जिसका क्रम इस प्रकार है- ‘वर’ के द्वार पर आते ही आरती की प्रथा हो, तो कन्या की माता आरती कर लें। तत्पश्चात् ‘वर’ और कन्यादाता परस्पर अभिमुख बैठकर सामान्य प्रकरण से षट्कर्म, कलावा, तिलक, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी- गणेश पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। इसके बाद कन्यादाता वर सत्कार के सभी कृत्य- आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क आदि (विवाह संस्कार से) सम्पन्न कराएँ। तत्पश्चात् निम्नस्थ मन्त्रों से तिलक अक्षत लगाएँ।
तिलक- ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्॥ -श्री०सू०.९ अक्षत- ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रियाऽ अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी॥ -३.५१ माल्यार्पण एवं कुछ द्रव्य ‘वर’ को प्रदान करना हो, तो निम्नस्थ मन्त्रों से सम्पन्न करा दें- माल्यार्पण- मङ्गलं भगवान् विष्णुः, मङ्गलं गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो, मङ्गलायतनो हरिः॥ द्रव्यदान -- ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकआसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥- २३.१ तत्पश्चात् क्षमाप्रार्थना, नमस्कार, देवविसर्जन एवं शान्तिपाठ करें।
॥ विवाह संस्कार- विशेष कर्मकाण्ड॥
विवाह वेदी पर वर और कन्या दोनों को बुलाया जाए, प्रवेश के साथ मङ्गलाचरण ‘ॐ भद्रं कर्णेभिः.......’(पेज -२४ से) मन्त्र बोलते हुए उन पर पुष्पाक्षत डाले जाएँ। कन्या दायीं ओर तथा वर बायीं ओर बैठे। कन्यादान करने वाले प्रतिनिधि कन्या के पिता, भाई जो भी हों, उन्हें पत्नी सहित कन्या की ओर बिठाया जाए। पत्नी दाहिने और पति बायीं ओर बैठें। सभी के सामने आचमनी, पञ्चपात्र आदि उपकरण हों। पवित्रीकरण, आचमन, शिखावन्दन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी- पूजन आदि षट्कर्म सम्पन्न करा लिये जाएँ।
वर- सत्कार- (अलग से द्वार पूजा में वर सत्कार कृत्य हो चुका हो, तो दुबारा करने की आवश्यकता नहीं है।) अतिथि रूप में आये हुए वर का सत्कार किया जाए। (१)आसन (२) पाद्य (३) अर्घ्य (४) आचमन (५) नैवेद्य आदि निर्धारित मन्त्रों से समर्पित किए जाएँ।
क्रिया और भावना- स्वागतकर्त्ता हाथ में अक्षत लेकर भावना करें कि वर की श्रेष्ठतम प्रवृत्तियों का अर्चन कर रहे हैं। देव- शक्तियाँ उन्हें बढ़ाने- बनाये रखने में सहयोग करें।
ॐ साधु भवान् आस्ताम्, अर्चयिष्यामो भवन्तम्। -पार०गृ०. १.३.४ वर दाहिने हाथ में अक्षत स्वीकार करते हुए भावना करें कि स्वागतकर्त्ता की श्रद्धा पाते रहने के योग्य व्यक्तित्व बनाये रखने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं। बोलें- ‘ॐ अर्चय।’ आसन-स्वागतकर्त्ता आसन या उसका प्रतीक (कुश या पुष्प आदि) हाथ में लेकर निम्न मन्त्र बोलें। भावना करें कि वर को श्रेष्ठता का आधार- स्तर प्राप्त हो। हमारे स्नेह में उसका स्थान बने।
ॐ विष्टरो, विष्टरो, विष्टरः प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०. १.३.६ वर कन्या के पिता के हाथ से विष्टर (कुश या पुष्प आदि) लेकर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०. १.३.७ उसे बिछाकर बैठ जाएँ। ॐ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः। इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति॥- पार०गृ०सू०. १.३.८ पाद्य- स्वागतकर्त्ता पैर धोने के लिए छोटे पात्र में जल लें। भावना करें कि ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप सद्गृहस्थ बनने की दिशा में बढ़ने वाले पैर पूजनीय हैं।
कन्यादाता कहें- ॐ पाद्यं, पाद्यं, पाद्यं प्रतिगृह्यताम्। -- पार०गृ०सू०१.३.६ वर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि आदर्शों की दिशा में चरण बढ़ाने की उमङ्ग इष्टदेव बनाये रखें। मंत्रोच्चार के साथ कन्यादाता वर के पैर धोयें।
ॐ विराजो दोहोऽसि, विराजो दोहमशीय मयि, पाद्यायै विराजो दोहः। - पार०गृ०सू०.१.३.१२
अर्घ्य- स्वागतकर्त्ता चन्दनयुक्त सुगन्धित जल पात्र में लेकर भावना करें कि सत्पुरुषार्थ में लगने का संस्कार वर के हाथों में जाग्रत् करने हेतु अर्घ्य दे रहे हैं। कन्यादाता कहें-
ॐ अर्घो, अर्घो, अर्घः प्रतिगृह्यताम्। -- पार०गृ०सू०.१.३.६ जल पात्र स्वीकार करते हुए वर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि सुगन्धित जल सत्पुरुषार्थ के संस्कार दे रहा है। जल से हाथ धोएँ।
ॐ आपःस्थ युुष्माभिः सर्वान्कामानवाप्नवानि। ॐ समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत। अरिष्टाअस्माकं वीरा मा परासेचि मत्पयः॥- पार०गृ०सू०.१.३.१३
आचमन- स्वागतकर्त्ता आचमन के लिए जल पात्र प्रस्तुत करें। भावना करें कि वर- श्रेष्ठ अतिथि का मुख उज्ज्वल रहे, उनकी वाणी उनका व्यक्तित्व तदनुरूप बने। कन्यादाता कहें- ॐ आचमनीयम्, आचमनीयम्, आचमनीयम् प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०.१.३.६ वर कहें -ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि मन, बुद्धि और अन्तःकरण तक यह भाव बिठाने का प्रयास कर रहे हैं। मंत्रोच्चार के साथ तीन बार आचमन करें।
ॐ आमागन् यशसा स * सृज वर्चसा। तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्॥ - पार०गृ०सू० १.३.१५
नैवेद्य- एक पात्र में दूध, दही, शर्करा (मधु) और तुलसीदल डाल कर रखें। स्वागतकर्त्ता वह पात्र हाथ में लें। भावना करें कि वर की श्रेष्ठता बनाये रखने योग्य सात्विक, सुसंस्कारी और स्वास्थ्यवर्धक आहार उन्हें सतत प्राप्त होता रहे। कन्यादाता कहें-
ॐ मधुपर्को, मधुपर्को, मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०.१.३.६ वर पात्र स्वीकार करते हुए कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि- पार०गृ०सू०.१.३.७
वर मधुपर्क का पान करे। भावना करें कि अभक्ष्य के कुसंस्कारों से बचने, सत्पदार्थों से सुसंस्कार अर्जित करते रहने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं।
ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम * रूपमन्नाद्यम्। तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसान्॥- पार०गृ०सू० १.३.२०
तत्पश्चात् जल से वर हाथ- मुख धोए। स्वच्छ होकर अगले क्रम के लिए बैठें। इसके बाद चन्दन धारण कराएँ। यदि यज्ञोपवीत धारण पहले नहीं कराया गया है, तो यज्ञोपवीत प्रकरण के आधार पर संक्षेप में उसे सम्पन्न कराया जाए। इसके बाद क्रमशः सामान्य प्रकरण (पृष्ठ- ४१) से कलशपूजन, सर्वदेव नमस्कार, षोडशोपचार पूजन, स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान आदि सामान्य क्रम करा लिए जाएँ। पुनः संस्कार का विशेष प्रकरण चालू किया जाए। विवाह घोषणा- विवाह घोषणा के अन्तर्गत वर- कन्या के गोत्र, पिता- पितामह आदि के नामों का उल्लेख और घोषणा की जाती है कि ये दोनों अब विवाह सम्बन्ध में आबद्ध हो रहे हैं। इनका साहचर्य धर्मसङ्गत जन साधारण की जानकारी में घोषित किया हुआ माना जाए। बिना घोषणा के गुपचुप चलने वाले दाम्पत्य स्तर के प्रेम सम्बन्ध, नैतिक, धार्मिक एवं कानूनी दृष्टि से अवाञ्छनीय माने गये हैं। जिनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध हो, उसकी घोषणा सर्वसाधारण के समक्ष की जानी चाहिए। समाज की जानकारी से जो छिपाया जा रहा हो, वही व्यभिचार है। घोषणापूर्वक विवाह सम्बन्ध में आबद्ध होकर वर- कन्या धर्म परम्परा का पालन करते हैं।
ॐ स्वस्ति श्रीमन्नन्दनन्दन चरणकमल भक्ति सद् विद्या विनीत निजकुलकमल- कलिका सदाचार सच्चरित्र सत्कुल सत्प्रतिष्ठा गरिष्ठस्य .........गोत्रस्य ........ महोदयस्य प्रपौत्रः .......... महोदयस्य पौत्रः.......... महोदयस्य पुत्रः॥ ....... महोदयस्य प्रपौत्री .............. महोदयस्य पौत्री .................महोदयस्य पुत्री प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये। स्वस्ति संवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोः चिरञ्जीविनौ भूयास्ताम्।
॥ मङ्गलाष्टक॥
विवाह घोषणा के बाद, सस्वर मङ्गलाष्टक मन्त्र बोलें जाएँ। इन मन्त्रों में सभी श्रेष्ठ शक्तियों से मङ्गलमय वातावरण, मङ्गलमय भविष्य के निर्माण की प्रार्थना की जाती है। पाठ के समय सभी लोग भावनापूर्वक वर- वधू के लिए मङ्गल कामना करते रहें। एक स्वयंसेवक उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करता रहे।
ॐ श्री मत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ, वायुर्महेन्द्रोऽनलः, चन्द्रो भास्कर वित्तपाल वरुण, प्रेताधिपादिग्रहाः। प्रद्युम्नो नलकूबरौ सुरगजः, चिन्तामणिः कौस्तुभः, स्वामी शक्तिधरश्च लाङ्गलधरः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ १॥ गङ्गा गोमतिगोपतिर्गणपतिः, गोविन्दगोवर्धनौ, गीता गोमयगोरजौ गिरिसुता, गङ्गाधरो गौतमः। गायत्री गरुडो गदाधरगया, गम्भीरगोदावरी, गन्धर्वग्रहगोपगोकुलधराः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ २॥ नेत्राणां त्रितयं महत्पशुपतेः, अग्नेस्तु पादत्रयं, तत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवने, ख्यातं च रामत्रयम्। गङ्गावाहपथत्रयं सुविमलं, वेदत्रयं ब्राह्मणं, सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैरभिमतं, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ३॥ वाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिः, व्यासो वसिष्ठो भृगुः, जाबालिर्जमदग्निरत्रिजनकौ, गर्गोंऽ गिरा गौतमः। मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो, धन्यो दिलीपो नलः, पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ४॥ गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा, कद्रूसुपर्णाशिवाः, सावित्री च सरस्वती च सुरभिः, सत्यव्रतारुन्धती। स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी, दुःस्वप्नविध्वंसिनी, वेला चाम्बुनिधेः समीनमकरा, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ५॥ गङ्गा सिन्धु सरस्वती च यमुना, गोदावरी नर्मदा, कावेरी सरयू महेन्द्रतनया, चर्मण्वती वेदिका। शिप्रा वेत्रवती महासुरनदी, ख्याता च या गण्डकी, पूर्णाः पुण्यजलैः समुद्रसहिताः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ६॥ लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा, धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो, रम्भादिदेवाङ्गनाः। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः, शङ्खो विषं चाम्बुधे, रत्नानीति चतुर्दश- प्रतिदिनम्, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ७॥ ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः, सूर्यो ग्रहाणां पतिः, शक्रो देवपतिर्नलो नरपतिः, स्कन्दश्च सेनापतिः। विष्णुर्यज्ञपतिर्यमः पितृपतिः, तारापतिश्चन्द्रमा, इत्येते पतयस्सुपर्णसहिताः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ८॥
॥ परस्पर उपहार॥ वस्त्रोपहार- वर पक्ष की ओर से कन्या को और कन्या पक्ष की ओर से वर को वस्त्र- आभूषण भेंट किये जाने की परम्परा है। यह कार्य श्रद्धानुरूप पहले ही हो जाता है। वर- वधू उन्हें पहनकर ही संस्कार में बैठते हैं। यहाँ प्रतीक रूप से पीले दुपट्टे एक- दूसरे को भेंट किये जाएँ। यही ग्रन्थि बन्धन के भी काम आ जाते हैं। आभूषण पहिनाना हो, तो अँगूठी या मङ्गलसूत्र जैसे शुभ- चिह्नों तक ही सीमित रहना चाहिए। दोनों पक्ष भावना करें कि एक- दूसरे का सम्मान बढ़ाने, उन्हें अलंकृत करने का उत्तरदायित्व समझने और निभाने के लिए सङ्कल्पित हो रहे हैं। नीचे लिखे मन्त्र के साथ परस्पर उपहार दिये जाएँ।
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै, दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः, पुरूचीरायस्पोषमभि संव्ययिष्ये॥ -- पार०गृ०सू० २.६.२० पुष्पोहार (माल्यार्पण)- वर- वधू एक- दूसरे को अपने अनुरूप स्वीकार करते हुए, पुष्प मालाएँ अर्पित करते हैं। हृदय से वरण करते हैं। भावना करें कि देव शक्तियों और सत्पुरुषों के आशीर्वाद से वे परस्पर एक दूसरे के गले का हार बनकर रहेंगे। मन्त्रोच्चार के साथ पहले कन्या वर को फिर वर कन्या को माला पहिनाएँ।
ॐ यशसा माद्यावापृथिवी यशसेन्द्रा बृहस्पती। यशो भगश्च मा विदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्॥ -- पार०गृ०सू० २.६.२१, मा०गृ०सू० १.९.२७
॥ हस्तपीतकरण॥ क्रिया और भावना- कन्या दोनों हथेलियाँ सामने कर दे। कन्यादाता गीली हल्दी उसकी हथेलियों पर मन्त्र के साथ मलें। भावना करें कि देव सान्निध्य में इन हाथों को स्वार्थपरता के कुसंस्कारों से मुक्त कराते हुए त्याग परमार्थ के संस्कार जाग्रत् किये जा रहे हैं। ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा* सं परिपातु विश्वतः॥- २९.५१ ॥ कन्यादान -गुप्तदान॥ क्रिया और भावना- कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके माता- पिता अपने हाथ में कन्या के हाथ, गुप्तदान का धन और पुष्प रखकर सङ्कल्प बोलते हैं और उन हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं। वह इन हाथों को गम्भीरता और जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों को पकड़कर स्वीकार- शिरोधार्य करता है।
भावना करें कि कन्या वर को सौंपते हुए उसके अभिभावक अपने समग्र अधिकार को सौंपते हैं। कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा के अनुसार होंगे। कन्या को यह भावनात्मक पुरुषार्थ करने तथा पति को उसे स्वीकार करने या निभाने की शक्ति देवशक्तियाँ प्रदान कर रही हैं, इस भावना के साथ कन्यादान का सङ्कल्प बोला जाए। सङ्कल्प पूरा होने पर सङ्कल्पकर्त्ता कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप दें।
॥ कन्यादान- सङ्कल्प॥ अद्येति.........नामाऽहं.........नाम्नीम् इमां कन्यां/भगिनीं सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां गन्धादि -- अर्चितां वस्त्रयुगच्छन्नां प्रजापति दैवत्यां शतगुणीकृत ज्योतिष्टोम- अतिरात्र कामोऽहं ......... नाम्ने विष्णुरूपिणे वराय भरण- पोषण- आच्छादान-पालनादीनांस्वकीय उत्तरदायित्व- भारम् अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन तुभ्यं अहं सम्प्रददे। वर उन्हें स्वीकार करते हुए कहे- ॐ स्वस्ति।
॥ गोदान॥ दिशा प्रेरणा- गौ पवित्रता और परमार्थ परायणता की प्रतीक है। कन्या पक्ष वर को ऐसा दान दें, जो उन्हें पवित्रता और परमार्थ की प्रेरणा देने वाला हो। सम्भव हो, तो कन्यादान के अवसर पर गाय दान में दी जा सकती है। वह कन्या के व उसके परिवार के लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त भी है। आज की स्थिति में यदि गौ देना या लेना असुविधाजनक हो, तो उसके लिए कुछ धन देकर गोदान की परिपाटी को जीवित रखा जा सकता है।
क्रिया और भावना- कन्यादान करने वाले हाथ में सामग्री लें। भावना करें कि वर- कन्या के भावी जीवन को सुखी समुन्नत बनाने के लिए श्रद्धापूर्वक श्रेष्ठ दान कर रहे हैं। मन्त्रोच्चार के साथ सामग्री वर के हाथ में दें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ -ऋ०८.१०१.१५, पार०गृ०सू० १.३.२७ ॥ मर्यादाकरण॥ क्रिया और भावना- कन्यादान करने वाले अपने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत लें। भावना करें कि वर को मर्यादा सौंप रहे हैं। वर मर्यादा स्वीकार करें, उसके पालन के लिए देव शक्तियों के सहयोग की कामना करें।
ॐ गौरीं कन्यामिमां पूज्य!यथाशक्तिविभूषिताम्। गोत्राय शर्मणे तुभ्यं, दत्तां देवसमाश्रय॥ धर्मस्याचरणं सम्यक्, क्रियतामनया सह। धर्मे चार्थे च कामे च, यत्त्वं नातिचरेर्विभो॥ वर कहे- नातिचरामि।
॥ पाणिग्रहण॥
क्रिया और भावना- मन्त्रोच्चार के साथ कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाये, वर उसे अँगूठा सहित (समग्र रूप से) पकड़ ले। भावना करें कि दिव्य वातावरण में परस्पर मित्रता के भाव सहित एक- दूसरे के उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं। ॐ यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमानो वा। हिरण्यपर्णो वै कर्णः स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥ - पार०गृ०सू० १.४.१५ ॥ ग्रन्थिबन्धन॥ दिशा और प्रेरणा- वर- वधू द्वारा पाणिग्रहण एकीकरण के बाद समाज द्वारा दोनों को एक गाँठ में बाँध दिया जाता है। दुपट्टे के छोर बाँधने का अर्थ है- दोनों के शरीर और मन से एक संयुक्त इकाई के रूप में एक नई सत्ता का आविर्भाव होना। अब दोनों एक- दूसरे के साथ पूरी तरह बँधे हुए हैं। ग्रन्थिबन्धन में धन, पुष्प, दूर्वा, हरिद्रा और अक्षत यह पाँच चीजें भी बाँधते हैं।
क्रिया और भावना-ग्रन्थिबन्धन, आचार्य या प्रतिनिधि या कोई मान्य व्यक्ति करें। दुपट्टे के छोर एक साथ करके उसमें मङ्गल- द्रव्य रखकर गाँठ बाँध दी जाए। भावना की जाए कि मङ्गल द्रव्यों के मङ्गल संस्कार सहित देवशक्तियों के समर्थन तथा स्नेहियों की सद्भावना के संयुक्त प्रभाव से दोनों इस प्रकार जुड़ रहे हैं, जो सदा जुड़े रहकर एक- दूसरे की जीवन लक्ष्य यात्रा में पूरक बनकर चलेंगे-
ॐ समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥ -ऋ०१०.८५.४७, पार०गृ०सू० १.४.१४
॥ वर- वधू की प्रतिज्ञाएँ॥ क्रिया और भावना- वर- वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक- एक करके प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।
॥ वर की प्रतिज्ञाएँ॥
धर्मपत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनमावयोः। अद्यारभ्य यतो मे त्वम्, अर्द्धाङ्गिनीति घोषिता॥ १॥
आज से धर्मपत्नी को अर्द्धाङ्गिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अङ्गों की तरह धर्मपत्नी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकार्याणि त्वया सह॥ २॥ प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान् अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निर्धारण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप- स्वास्थ्य, गुणदोषादीन् सर्वतः। रोगाज्ञान- विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥ ३॥ रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण- दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूर्णस्नेहः प्रदास्यते। सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥ ४॥ पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा- पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्। तथैव पालयिष्यामि, पत्नीव्रतमहं ध्रुवम्॥ ५॥ पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पत्नीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही परनारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोड़ूँगा।
गृहस्यार्थव्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। सञ्चालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित- जीवनम्॥ ६॥ गृह व्यवस्था में धर्म- पत्नी को प्रधानता दूँगा। आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा।
समृद्धि- सुख- शान्तिनां, रक्षणाय तथा तव। व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभिः॥ ७॥ धर्मपत्नी की सुख- शान्ति तथा प्रगति- सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा। यत्नशीलो भविष्यामि, सन्मार्गंसेवितुं सदा। आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥ ८॥ अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा- पूरा प्रयत्न करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पत्नी को लाञ्छित- तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमर्थायां, विमुखायाञ्च कर्मणि। विश्वासं सहयोगञ्च, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥ ९॥ पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा। ॥ कन्या की प्रतिज्ञाएँ॥ स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। भूत्वा चार्द्धाङ्गिनी नित्यं, निवत्स्यामि गृहे सदा॥ १॥ अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।
शिष्टतापूर्वकं सर्वैः, परिवारजनैः सह। औदार्येण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥ २॥ पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अङ्ग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूर्वक सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।
त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकार्ये परिश्रमम्। भर्तुर्हर्षं हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥ ३॥ आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूर्वक गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।
श्रद्धया पालयिष्यामि, धर्मं पातिव्रतं परम्। सर्वदैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥ ४॥ पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा- भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनूकूल रहूँगी। कपट- दुराव न करूँगी, निर्देशों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।
सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर- प्रियभाषिणी। प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥ ५॥ सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।
मितव्ययेन गार्हस्थ्य- सञ्चालने हि नित्यदा। प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥ ६॥ फिजूलखर्ची से बचकर मितव्ययितापूर्वक गृहस्थी का संचालन नियमितरूप से करूँगी। उत्साहपूर्वक पति की अनुगामिनी बनने का प्रयास करूँगी।
देवस्वरूपो नारीणां, भर्त्ता भवति मानवः। मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥ ७॥ नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।
पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे। सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥ ८॥ जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी। विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववर्द्धिभिः।
परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥ ९॥ परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।
यज्ञीय प्रक्रिया- शपथ ग्रहण के बाद उनकी श्रेष्ठ भावनाओं के विकास और पोषण के लिए यज्ञीय वातावरण निर्मित किया जाता है। अग्नि स्थापना से गायत्री मन्त्र आहुति तक का क्रम सम्पन्न करें। गायत्री मन्त्र की ९, १२ या २४ आहुतियाँ दी जाएँ। इसके बाद प्रायश्चित होम कराया जाए।
प्रायश्चित्त होम- वर- वधू हवन सामग्री से आहुति दें। भावना करें कि प्रायश्चित्त आहुति के साथ पूर्व दुष्कृत्यों की धुलाई हो रही है। स्वाहा के साथ आहुति डालें, इदं न मम के साथ हाथ जोड़कर नमस्कार करें-
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदं अग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम। -२१.३
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या ऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणœ रराणो वीहि मृडीक * सुहवो नऽ एधि स्वाहा॥ इदं अग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम। -२१.४
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य नभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमयाऽ असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज * स्वाहा॥ इदं अग्नये अयसे इदं न मम। -का०श्रौ० सू० २५.१.११ ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुः विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च इदं न मम। -का०श्रौ० सू० २५.१.११ ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम * श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। -१२.१२ इदं वरुणायादित्यायादितये च इदं न मम।
॥ शिलारोहण॥ दिशा एवं प्रेरणा- शिलारोहण के द्वारा पत्थर पर पैर रखते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिस प्रकार अङ्गद ने अपना पैर जमा दिया था, उसी तरह हम पत्थर की लकीर की तरह अपना पैर उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए जमाते हैं। यह धर्मकृत्य खेल- खिलौने की तरह नहीं किया जा रहा, जिसे एक मखौल समझकर तोड़ा जाता रहे, वरन् यह प्रतिज्ञाएँ पत्थर की लकीर की तरह अमिट बनी रहेंगी, ये चट्टान की तरह अटूट एवं चिरस्थाई रखी जायेंगी। क्रिया और भावना- मन्त्र बोलने के साथ वर- वधू अपने दाहिने पैर को शिला पर रखें, भावना करें कि उत्तरदायित्वों के निर्वाह करने तथा बाधाओं को पार करने की शक्ति हमारे सङ्कल्प और देव अनुग्रह से मिल रही है।
ॐ आरोहेममश्मानमश्मेव त्व * स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः॥ -पार०गृ०सू० १.७.१ ॥ लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर) ॥ क्रिया और भावना- लाजा होम और परिक्रमा का मिला- जुला क्रम चलता है। शिलारोहण के बाद वर- वधू खड़े- खड़े गायत्री मन्त्र से एक आहुति समर्पित करें। अब मन्त्र के साथ परिक्रमा करें। वधू आगे, वर पीछे चलें। एक परिक्रमा पूरी होने पर लाजाहोम की एक आहुति करें। आहुति करके दूसरी परिक्रमा पहले की तरह मन्त्र बोलते हुए करें। इसी प्रकार लाजाहोम की दूसरी आहुति करके तीसरी परिक्रमा तथा तीसरी आहुति करके चौथी परिक्रमा करें। इसके बाद गायत्री मन्त्र की आहुति देते हुए तीन परिक्रमाएँ वर को आगे करके परिक्रमा मन्त्र बोलते हुए कराई जाएँ। अगली सातवीं परिक्रमा की समाप्ति पर गायत्री मंत्र से आहुति दें। आहुति के साथ भावना करें कि बाहर यज्ञीय ऊर्जा तथा अन्तःकरण में यज्ञीय भावना तीव्रतर हो रही है। परिक्रमा के साथ भावना करें कि यज्ञीय अनुशासन को केन्द्र मानकर, यज्ञाग्नि को साक्षी करके आदर्श दाम्पत्य के निर्वाह का सङ्कल्प कर रहे हैं। ॥ लाजाहोम॥ ॐ अर्यमणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। स नोऽ अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः स्वाहा॥ इदं अर्यम्णे अग्नये इदं न मम। ॐ इयं नार्युपब्रूते लाजा नावपन्तिका। आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्ताम् ज्ञातयो मम स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम। ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ, समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतामिय * स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम।- पार०गृ०सू० १.६.२
॥ परिक्रमा मन्त्र॥ ॐ तुभ्यमग्रे पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह। पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥ -- ऋ०१०.८५.३८, पार०गृ०सू० १.७.३ ॥ सप्तपदी॥ क्रिया और भावना- वर- वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर- वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक- एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध- प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में सङ्कल्पित हो रहे हैं। सङ्कल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा। (१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुर्जगत्सर्वं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सामामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ १॥
(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी- आकाशमेव च। सूर्यचन्द्रद्वयोर्मध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ दूसरा चरण- ॐ ऊर्जे द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ २॥
(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी-
ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ तीसरा चरण-
ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ३॥
(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी-
ॐ चतुर्मुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसम्भवाः। चतुर्युगाः प्रवर्तन्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्॥ चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ४॥ (५) प्रजा पालन के लिए पाँचवीं साक्षी-
ॐ पञ्चमे पञ्चभूतानां, पञ्चप्राणैः परायणाः। तत्र दर्शनपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपञ्चधाः॥ पाँचवाँ चरण-
ॐ प्रजाभ्यां पञ्चपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ५॥ (६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी-
ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकार्तिकः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कार्तिकेयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ६॥ (७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी-
ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपर्वताः। येषां सप्तर्षिपत्नीनां, तेषामादर्शसाक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ७॥ -पार०गृ०सू० १.८.१- २, आ०गृ०सू० १.७.१९ ॥ आसन परिवर्तन॥ सप्तपदी के पश्चात् आसन परिवर्तन करते हैं। अब तक वधू दाहिनी ओर थी अर्थात् बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में थी। अब सप्तपदी होने के पश्चात् प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह घरवाली अपनी आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बैठाया जाता है। बायें से दायें लिखने का क्रम है। बायाँ प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सप्तपदी के बाद अब पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो गयी ।। लक्ष्मी- नारायण, उमा- महेश, सीता- राम, राधे- श्याम आदि नामों में पत्नी को प्रथम, पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना, अधिकार हस्तान्तरण है। बायीं ओर के बाद पत्नी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बनती है। ॐ इह गावो निषीदन्तु, इहाश्वा इह पूरुषाः। इहो सहस्रदक्षिणो यज्ञ, इह पूषा निषीदतु॥ -पा०गृ०सू० १.८.१० ॥ पाद प्रक्षालन॥ आसन परिवर्तन के बाद गृहस्थाश्रम के साधक के रूप में वर- वधू का सम्मान पाद प्रक्षालन करके किया जाता है। कन्या पक्ष की ओर से प्रतिनिधि स्वरूप कोई दम्पति या अकेले व्यक्ति पाद प्रक्षालन करे। पाद प्रक्षालन करने वालों का पवित्रीकरण- सिञ्चन किया जाए। हाथ में हल्दी, दूर्वा, थाली में जल लेकर प्रक्षालन करें। प्रथम मन्त्र के साथ तीन बार वर- वधू के पैर पखारें, फिर दूसरे मन्त्र के साथ यथा श्रद्धा भेंट दें।
ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी, गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता, तनूर्जारघ्नीं ततऽएनां करोमि, सा जीर्य त्वं मया सह। -पार०गृ०सू० १.११ ॐ ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम्। इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः॥ -अथर्व. ९.३.१९ ॥ ध्रुव- सूर्य ध्यान॥ ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सब तारागण गतिशील रहते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर रहता है। अन्य तारे उसकी परिक्रमा करते हैं। ध्रुव दर्शन का अर्थ है- दोनों अपने- अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर उसी तरह दृढ़ रहेंगे, जैसे कि ध्रुव तारा स्थिर है। कुछ कारण उत्पन्न होने पर भी इस आदर्श से विचलित न होने की प्रतिज्ञा को निभाया जाए, व्रत को पाला जाए और सङ्कल्प को पूरा किया जाए। ध्रुव स्थिर चित्त रहने की अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार सूर्य की अपनी प्रखरता, तेजस्विता, महत्ता सदा स्थिर रहती है। वह अपने निर्धारित पथ पर ही चलता है, यही हमें करना चाहिए। यही भावना पति- पत्नी करें। ॥ सूर्य ध्यान (दिन में)॥ ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत * शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥ -३६.२४
॥ ध्रुव ध्यान (रात में)॥ ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। मह्यं त्वादात् बृहस्पतिर्मयापत्या,प्रजावती सञ्जीव शरदः शतम्॥ -पार०गृ०सू० १.८.१९ ॥ शपथ आश्वासन॥ पति- पत्नी एक दूसरे के सिर या कन्धे पर दाहिना हाथ रखकर समाज के सामने शपथ लेते हैं, आश्वासन देकर अन्तिम प्रतिज्ञा करते हैं कि वे निस्सन्देह निश्चित रूप से एक- दूसरे को आजीवन ईमानदार, निष्ठावान् और वफादार रहने का विश्वास दिलाते हैं। पिछले दिनों पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के साथ छली- कपटी और विश्वासघातियों जैसा रहा है। रूप, यौवन के लोभ में कुछ दिन मीठी बातें करते हैं, पीछे क्रूरता एवं दुष्टता पर उतर आते हैं। पग- पग पर उन्हें सताते और तिरस्कृत करते हैं। प्रतिज्ञाओं को तोड़कर आर्थिक एवं चारित्रिक उच्छृङ्खलता बरतते हैं और पत्नी की इच्छा की परवाह नहीं करते। समाज में ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होतीं। ऐसी दशा में ये प्रतिज्ञाएँ औपचारिकता मात्र रह जाने की आशङ्का हो सकती है। सन्तान न होने पर या लड़कियाँ होने पर लोग दूसरा विवाह करने पर उतारू हो जाते हैं।
पति सिर या कन्धे पर दाहिना हाथ रखकर कसम खाता है कि दूसरे दुरात्माओं की श्रेणी में उसे न गिना जाए। इस प्रकार पत्नी भी अपनी निष्ठा के बारे में पति को इस शपथ- प्रतिज्ञा द्वारा विश्वास दिलाती है।
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्॥ -- पार०गृ०सू०१.८.८
॥ सुमङ्गली- सिन्दूरदान॥ मन्त्र के साथ वर अँगूठी सलाका या सिक्के से वधू की माँग में सिन्दूर तीन बार लगाए। भावना करे कि मैं वधू के सौभाग्य को बढ़ाने वाला सिद्ध होऊँ-
ॐ सुमंगलीरियं वधूरिमा* समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं विपरेतन। 'सुभगा स्त्री सावित्र्यास्तव सौभाग्यं भवतु॥ -पार०गृ०सू० १.८.९ ॥ मङ्गलतिलक॥ वधू वर को मङ्गल तिलक करे। भावना करे कि पति का सम्मान करते हुए उनके गौरव को बढ़ाने वाली सिद्ध होऊँ-
ॐ स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥ -ऋ० ५.५१.१२
इसके पश्चात् स्विष्टकृत् होम से क्षमा- प्रार्थना तक के कृत्य सम्पन्न करें। ॥ आशीर्वाद॥ वर- कन्या दोनों हाथ जोड़कर सभी समुपस्थित जनों को प्रणाम करें। पुष्प वर्षा के रूप में सभी उपस्थित महानुभाव अपनी शुभकामनाएँ- आशीर्वाद वर- वधू को प्रदान करें- गणपतिः गिरिजा वृषभध्वजः, षण्मुखो नन्दीमुखडिमडिमा। मनुज- माल, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ १॥रविशशी- कुज-इन्द्र-जगत्पति:, भृगुज- भानुज-सिन्धुज-केतव:। उडुगणा- तिथि च राशयः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ २॥ वरुण- इन्द्र कुबेर- हुताशनाः, यम- समीरण। सुरगणाः सुराश्च महीधराः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ३॥ सुरसरी- रविनन्दिनि- गोमति, सरयुतामपि सागर- घर्घरा। कनकयामयि- गण्डकि- नर्मदा, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ४॥ हरिपुरी- मथुरा च त्रिवेणिका, बदरि- विष्णु- बटेश्वर -कौशला। मय- गयामपि- दर्दर, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ५॥ भृगुमुनिश्च पुलस्ति च अङ्गिरा, कपिलवस्तु- अगस्त्य च नारदः। गुरुवसिष्ठ- सनातन- जैमिनी, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ६॥ ॐ ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः, सामवेदो ह्यथर्वणः। रक्षन्तु चतुरो वेदा, यावच्चन्द्र दिवाकरौ॥
इसके बाद देव विसर्जन करके कृत्य समाप्त किया जाए।
विशेष व्यवस्था- विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए। सामूहिक विवाह हो, तो प्रत्येक जोड़े के हिसाब से प्रत्येक वेदी पर आवश्यक सामग्री रहनी चाहिए, कर्मकाण्ड ठीक से होते चलें, इसके लिए प्रत्येक वेदी पर एक- एक जानकार व्यक्ति भी नियुक्त करना चाहिए। एक ही विवाह है, तो आचार्य स्वयं ही देख- रेख रख सकते हैं। सामान्य व्यवस्था के साथ जिन वस्तुओं की जरूरत विशेष कर्मकाण्ड में पड़ती है, उन पर प्रारम्भ में दृष्टि डाल लेनी चाहिए। उसके सूत्र इस प्रकार हैं।
* वर सत्कार के लिए सामग्री के साथ एक थाली रहे, ताकि हाथ, पैर धोने की क्रिया में जल फैले नहीं। मधुपर्क पान के बाद हाथ धुलाकर उसे हटा दिया जाए। * यज्ञोपवीत के लिए पीला रँगा हुआ यज्ञोपवीत एक जोड़ा रखा जाए। * विवाह घोषणा के लिए वर- वधू पक्ष की पूरी जानकारी पहले से ही नोट कर ली जाए। * वस्त्रोपहार तथा पुष्पोपहार के वस्त्र एवं मालाएँ तैयार रहें। * कन्यादान में हाथ पीले करने के लिए हल्दी, गुप्तदान के लिए गुँथा हुआ आटा (लगभग एक पाव) रखें। * ग्रन्थिबन्धन के लिए हल्दी, पुष्प, अक्षत, दूर्वा और द्रव्य हों। * शिलारोहण के लिए पत्थर की शिला या समतल पत्थर का एक टुकड़ा रखा जाए। * हवन सामग्री के अतिरिक्त लाजा (धान की खीलें) रखनी चाहिए। * वर- वधू के पाद प्रक्षालन के लिए परात या थाली रखी जाए। * पहले से वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि संस्कार के समय वर और कन्या पक्ष के अधिक से अधिक परिजन, स्नेही उपस्थित रहें। * सबके भाव संयोग से कर्मकाण्ड के उद्देश्य में रचनात्मक सहयोग मिलता है। इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही ढंग से आग्रह किए जा सकते हैं। * विवाह के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार हो चुकता है। अविवाहितों को एक तथा विवाहितों को जोड़ा यज्ञोपवीत पहनाने का नियम है। * यदि यज्ञोपवीत न हुआ हो, तो नया यज्ञोपवीत और हो गया हो, तो एक के स्थान पर जोड़ा पहनाने का संस्कार विधिवत् किया जाना चाहिए। अच्छा हो कि जिस शुभ दिन को विवाह- संस्कार होना है, उस दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण का क्रम व्यवस्थित ढंग से करा दिया जाए। विवाह- संस्कार के लिए सजे हुए वर के वस्त्र आदि उतरवाकर यज्ञोपवीत पहनाना अटपटा- सा लगता है। इसलिए उसको पहले ही पूरा कर लिया जाए। यदि वह सम्भव न हो, तो स्वागत के बाद यज्ञोपवीत धारण करा दिया जाता है। उसे वस्त्रों पर ही पहना देना चाहिए, जो संस्कार के बाद अन्दर कर लिया जाता है।
* जहाँ पारिवारिक स्तर के परम्परागत विवाह आयोजनों में मुख्य संस्कार से पूर्व द्वारचार (द्वार पूजा) की रस्म होती है, वहाँ यदि हो- हल्ला के वातावरण को संस्कार के उपयुक्त बनाना सम्भव लगे, तो स्वागत तथा वस्त्र एवं पुष्पोपहार वाले प्रकरण उस समय पूरे कराये जा सकते हैं। विशेष आसन पर बिठाकर वर का सत्कार किया जाए। फिर कन्या को बुलाकर परस्पर वस्त्र और पुष्पोपहार सम्पन्न कराये जाएँ। परम्परागत ढंग से दिये जाने वाले अभिनन्दन- पत्र आदि भी उसी अवसर पर दिये जा सकते हैं। इसके कर्मकाण्ड का सङ्केत आगे किया गया है। * पारिवारिक स्तर पर सम्पन्न किये जाने वाले विवाह संस्कारों के समय कई बार वर- कन्या पक्ष वाले किन्हीं लौकिक रीतियों के लिए आग्रह करते हैं। यदि ऐसा आग्रह है, तो पहले से नोट कर लेना- समझ लेना चाहिए। पारिवारिक स्तर पर विवाह- प्रकरणों में वरेच्छा, तिलक (शादी पक्की करना), हरिद्रा लेपन (हल्दी चढ़ाना) तथा द्वारपूजन आदि के आग्रह उभरते हैं। उन्हें संक्षेप में दिया जा रहा है, ताकि समयानुसार उनका निर्वाह किया जा सके। ॥ पूर्व विधान॥ ॥ वर- वरण (तिलक)॥ विवाह से पूर्व ‘तिलक’ का संक्षिप्त विधान इस प्रकार है- वर पूर्वाभिमुख तथा तिलक करने वाले (पिता, भाई आदि) पश्चिमाभिमुख बैठकर निम्नकृत्य सम्पन्न करें- सामान्य प्रकरण से मङ्गलाचरण, षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गायत्री- गौरी पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि सम्पन्न कर कन्यादाता वर का यथोचित स्वागत- सत्कार (पैर धुलाना, आचमन कराना तथा हल्दी से तिलक करके अक्षत लगाना) करें। तदुपरान्त ‘वर’ को प्रदान की जाने वाली समस्त सामग्री (थाल- थान, फल- फूल, द्रव्य- वस्त्रादि) कन्यादाता हाथ में लेकर सङ्कल्प मन्त्र बोलते हुए वर को प्रदान कर दें-
॥ सङ्कल्प॥ ...............(कन्यादाता) नामाऽहं ...............(कन्या- नाम) नाम्न्या कन्यायाः (भगिन्याः) करिष्यमाण उद्वाहकर्मणि एभिर्वरणद्रव्यैः ...............(वर का गोत्र) गोत्रोत्पन्नं ...............(वर का नाम) नामानं वरं कन्यादानार्थं वरपूजनपूर्वकं त्वामहं वृणे, तन्निमित्तकं यथाशक्ति भाण्डानि, वस्त्राणि, फलमिष्टान्नानि द्रव्याणि च...............(वर का नाम) वराय समर्पये। तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन तथा शान्ति पाठ करते हुए कार्यक्रम समाप्त करें।
॥ हरिद्रालेपन॥ विवाह से पूर्व वर- कन्या को प्रायः हल्दी चढ़ाने का प्रचलन है, उसका संक्षिप्त विधान इस प्रकार है- सर्वप्रथम सामान्य प्रकरण से षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी- गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। तत्पश्चात् निम्न मन्त्र बोलते हुए वर/कन्या की हथेली- अङ्ग- अवयवों में (लोकरीति के अनुसार) हरिद्रालेपन करें --
ॐ काण्डात् काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥ - १३.२० इसके बाद वर के दाहिने हाथ में तथा कन्या के बायें हाथ में रक्षा सूत्र कङ्कण (पीले वस्त्र में कौड़ी, लोहे की अँगूठी, पीली सरसों, पीला अक्षत आदि बाँधकर बनाया गया।) निम्नलिखित मन्त्र से पहनाएँ-
ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्य* शतानीकाय सुमनस्यमानाः। तन्मऽ आ बध्नामि शतशारदाय आयुष्माञ्जरदष्टिर्यथासम्॥ -३४.५२ तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन, शान्तिपाठ के साथ कार्यक्रम पूर्ण करें।
॥ द्वार पूजा॥ विवाह हेतु बरात जब द्वार पर आती है, तो सर्वप्रथम ‘वर’ का स्वागत- सत्कार किया जाता है, जिसका क्रम इस प्रकार है- ‘वर’ के द्वार पर आते ही आरती की प्रथा हो, तो कन्या की माता आरती कर लें। तत्पश्चात् ‘वर’ और कन्यादाता परस्पर अभिमुख बैठकर सामान्य प्रकरण से षट्कर्म, कलावा, तिलक, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी- गणेश पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। इसके बाद कन्यादाता वर सत्कार के सभी कृत्य- आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क आदि (विवाह संस्कार से) सम्पन्न कराएँ। तत्पश्चात् निम्नस्थ मन्त्रों से तिलक अक्षत लगाएँ।
तिलक- ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्॥ -श्री०सू०.९ अक्षत- ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रियाऽ अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी॥ -३.५१ माल्यार्पण एवं कुछ द्रव्य ‘वर’ को प्रदान करना हो, तो निम्नस्थ मन्त्रों से सम्पन्न करा दें- माल्यार्पण- मङ्गलं भगवान् विष्णुः, मङ्गलं गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो, मङ्गलायतनो हरिः॥ द्रव्यदान -- ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकआसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥- २३.१ तत्पश्चात् क्षमाप्रार्थना, नमस्कार, देवविसर्जन एवं शान्तिपाठ करें।
॥ विवाह संस्कार- विशेष कर्मकाण्ड॥
विवाह वेदी पर वर और कन्या दोनों को बुलाया जाए, प्रवेश के साथ मङ्गलाचरण ‘ॐ भद्रं कर्णेभिः.......’(पेज -२४ से) मन्त्र बोलते हुए उन पर पुष्पाक्षत डाले जाएँ। कन्या दायीं ओर तथा वर बायीं ओर बैठे। कन्यादान करने वाले प्रतिनिधि कन्या के पिता, भाई जो भी हों, उन्हें पत्नी सहित कन्या की ओर बिठाया जाए। पत्नी दाहिने और पति बायीं ओर बैठें। सभी के सामने आचमनी, पञ्चपात्र आदि उपकरण हों। पवित्रीकरण, आचमन, शिखावन्दन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी- पूजन आदि षट्कर्म सम्पन्न करा लिये जाएँ।
वर- सत्कार- (अलग से द्वार पूजा में वर सत्कार कृत्य हो चुका हो, तो दुबारा करने की आवश्यकता नहीं है।) अतिथि रूप में आये हुए वर का सत्कार किया जाए। (१)आसन (२) पाद्य (३) अर्घ्य (४) आचमन (५) नैवेद्य आदि निर्धारित मन्त्रों से समर्पित किए जाएँ।
क्रिया और भावना- स्वागतकर्त्ता हाथ में अक्षत लेकर भावना करें कि वर की श्रेष्ठतम प्रवृत्तियों का अर्चन कर रहे हैं। देव- शक्तियाँ उन्हें बढ़ाने- बनाये रखने में सहयोग करें।
ॐ साधु भवान् आस्ताम्, अर्चयिष्यामो भवन्तम्। -पार०गृ०. १.३.४ वर दाहिने हाथ में अक्षत स्वीकार करते हुए भावना करें कि स्वागतकर्त्ता की श्रद्धा पाते रहने के योग्य व्यक्तित्व बनाये रखने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं। बोलें- ‘ॐ अर्चय।’ आसन-स्वागतकर्त्ता आसन या उसका प्रतीक (कुश या पुष्प आदि) हाथ में लेकर निम्न मन्त्र बोलें। भावना करें कि वर को श्रेष्ठता का आधार- स्तर प्राप्त हो। हमारे स्नेह में उसका स्थान बने।
ॐ विष्टरो, विष्टरो, विष्टरः प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०. १.३.६ वर कन्या के पिता के हाथ से विष्टर (कुश या पुष्प आदि) लेकर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०. १.३.७ उसे बिछाकर बैठ जाएँ। ॐ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः। इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति॥- पार०गृ०सू०. १.३.८ पाद्य- स्वागतकर्त्ता पैर धोने के लिए छोटे पात्र में जल लें। भावना करें कि ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप सद्गृहस्थ बनने की दिशा में बढ़ने वाले पैर पूजनीय हैं।
कन्यादाता कहें- ॐ पाद्यं, पाद्यं, पाद्यं प्रतिगृह्यताम्। -- पार०गृ०सू०१.३.६ वर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि आदर्शों की दिशा में चरण बढ़ाने की उमङ्ग इष्टदेव बनाये रखें। मंत्रोच्चार के साथ कन्यादाता वर के पैर धोयें।
ॐ विराजो दोहोऽसि, विराजो दोहमशीय मयि, पाद्यायै विराजो दोहः। - पार०गृ०सू०.१.३.१२
अर्घ्य- स्वागतकर्त्ता चन्दनयुक्त सुगन्धित जल पात्र में लेकर भावना करें कि सत्पुरुषार्थ में लगने का संस्कार वर के हाथों में जाग्रत् करने हेतु अर्घ्य दे रहे हैं। कन्यादाता कहें-
ॐ अर्घो, अर्घो, अर्घः प्रतिगृह्यताम्। -- पार०गृ०सू०.१.३.६ जल पात्र स्वीकार करते हुए वर कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि सुगन्धित जल सत्पुरुषार्थ के संस्कार दे रहा है। जल से हाथ धोएँ।
ॐ आपःस्थ युुष्माभिः सर्वान्कामानवाप्नवानि। ॐ समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत। अरिष्टाअस्माकं वीरा मा परासेचि मत्पयः॥- पार०गृ०सू०.१.३.१३
आचमन- स्वागतकर्त्ता आचमन के लिए जल पात्र प्रस्तुत करें। भावना करें कि वर- श्रेष्ठ अतिथि का मुख उज्ज्वल रहे, उनकी वाणी उनका व्यक्तित्व तदनुरूप बने। कन्यादाता कहें- ॐ आचमनीयम्, आचमनीयम्, आचमनीयम् प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०.१.३.६ वर कहें -ॐ प्रतिगृह्णामि। -- पार०गृ०सू०.१.३.७
भावना करें कि मन, बुद्धि और अन्तःकरण तक यह भाव बिठाने का प्रयास कर रहे हैं। मंत्रोच्चार के साथ तीन बार आचमन करें।
ॐ आमागन् यशसा स * सृज वर्चसा। तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्॥ - पार०गृ०सू० १.३.१५
नैवेद्य- एक पात्र में दूध, दही, शर्करा (मधु) और तुलसीदल डाल कर रखें। स्वागतकर्त्ता वह पात्र हाथ में लें। भावना करें कि वर की श्रेष्ठता बनाये रखने योग्य सात्विक, सुसंस्कारी और स्वास्थ्यवर्धक आहार उन्हें सतत प्राप्त होता रहे। कन्यादाता कहें-
ॐ मधुपर्को, मधुपर्को, मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्। -पार०गृ०सू०.१.३.६ वर पात्र स्वीकार करते हुए कहें- ॐ प्रतिगृह्णामि- पार०गृ०सू०.१.३.७
वर मधुपर्क का पान करे। भावना करें कि अभक्ष्य के कुसंस्कारों से बचने, सत्पदार्थों से सुसंस्कार अर्जित करते रहने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं।
ॐ यन्मधुनो मधव्यं परम * रूपमन्नाद्यम्। तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नाद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसान्॥- पार०गृ०सू० १.३.२०
तत्पश्चात् जल से वर हाथ- मुख धोए। स्वच्छ होकर अगले क्रम के लिए बैठें। इसके बाद चन्दन धारण कराएँ। यदि यज्ञोपवीत धारण पहले नहीं कराया गया है, तो यज्ञोपवीत प्रकरण के आधार पर संक्षेप में उसे सम्पन्न कराया जाए। इसके बाद क्रमशः सामान्य प्रकरण (पृष्ठ- ४१) से कलशपूजन, सर्वदेव नमस्कार, षोडशोपचार पूजन, स्वस्तिवाचन, रक्षाविधान आदि सामान्य क्रम करा लिए जाएँ। पुनः संस्कार का विशेष प्रकरण चालू किया जाए। विवाह घोषणा- विवाह घोषणा के अन्तर्गत वर- कन्या के गोत्र, पिता- पितामह आदि के नामों का उल्लेख और घोषणा की जाती है कि ये दोनों अब विवाह सम्बन्ध में आबद्ध हो रहे हैं। इनका साहचर्य धर्मसङ्गत जन साधारण की जानकारी में घोषित किया हुआ माना जाए। बिना घोषणा के गुपचुप चलने वाले दाम्पत्य स्तर के प्रेम सम्बन्ध, नैतिक, धार्मिक एवं कानूनी दृष्टि से अवाञ्छनीय माने गये हैं। जिनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध हो, उसकी घोषणा सर्वसाधारण के समक्ष की जानी चाहिए। समाज की जानकारी से जो छिपाया जा रहा हो, वही व्यभिचार है। घोषणापूर्वक विवाह सम्बन्ध में आबद्ध होकर वर- कन्या धर्म परम्परा का पालन करते हैं।
ॐ स्वस्ति श्रीमन्नन्दनन्दन चरणकमल भक्ति सद् विद्या विनीत निजकुलकमल- कलिका सदाचार सच्चरित्र सत्कुल सत्प्रतिष्ठा गरिष्ठस्य .........गोत्रस्य ........ महोदयस्य प्रपौत्रः .......... महोदयस्य पौत्रः.......... महोदयस्य पुत्रः॥ ....... महोदयस्य प्रपौत्री .............. महोदयस्य पौत्री .................महोदयस्य पुत्री प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये। स्वस्ति संवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोः चिरञ्जीविनौ भूयास्ताम्।
॥ मङ्गलाष्टक॥
विवाह घोषणा के बाद, सस्वर मङ्गलाष्टक मन्त्र बोलें जाएँ। इन मन्त्रों में सभी श्रेष्ठ शक्तियों से मङ्गलमय वातावरण, मङ्गलमय भविष्य के निर्माण की प्रार्थना की जाती है। पाठ के समय सभी लोग भावनापूर्वक वर- वधू के लिए मङ्गल कामना करते रहें। एक स्वयंसेवक उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करता रहे।
ॐ श्री मत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ, वायुर्महेन्द्रोऽनलः, चन्द्रो भास्कर वित्तपाल वरुण, प्रेताधिपादिग्रहाः। प्रद्युम्नो नलकूबरौ सुरगजः, चिन्तामणिः कौस्तुभः, स्वामी शक्तिधरश्च लाङ्गलधरः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ १॥ गङ्गा गोमतिगोपतिर्गणपतिः, गोविन्दगोवर्धनौ, गीता गोमयगोरजौ गिरिसुता, गङ्गाधरो गौतमः। गायत्री गरुडो गदाधरगया, गम्भीरगोदावरी, गन्धर्वग्रहगोपगोकुलधराः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ २॥ नेत्राणां त्रितयं महत्पशुपतेः, अग्नेस्तु पादत्रयं, तत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवने, ख्यातं च रामत्रयम्। गङ्गावाहपथत्रयं सुविमलं, वेदत्रयं ब्राह्मणं, सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैरभिमतं, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ३॥ वाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिः, व्यासो वसिष्ठो भृगुः, जाबालिर्जमदग्निरत्रिजनकौ, गर्गोंऽ गिरा गौतमः। मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो, धन्यो दिलीपो नलः, पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ४॥ गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा, कद्रूसुपर्णाशिवाः, सावित्री च सरस्वती च सुरभिः, सत्यव्रतारुन्धती। स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी, दुःस्वप्नविध्वंसिनी, वेला चाम्बुनिधेः समीनमकरा, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ५॥ गङ्गा सिन्धु सरस्वती च यमुना, गोदावरी नर्मदा, कावेरी सरयू महेन्द्रतनया, चर्मण्वती वेदिका। शिप्रा वेत्रवती महासुरनदी, ख्याता च या गण्डकी, पूर्णाः पुण्यजलैः समुद्रसहिताः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ६॥ लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा, धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो, रम्भादिदेवाङ्गनाः। अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः, शङ्खो विषं चाम्बुधे, रत्नानीति चतुर्दश- प्रतिदिनम्, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ७॥ ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः, सूर्यो ग्रहाणां पतिः, शक्रो देवपतिर्नलो नरपतिः, स्कन्दश्च सेनापतिः। विष्णुर्यज्ञपतिर्यमः पितृपतिः, तारापतिश्चन्द्रमा, इत्येते पतयस्सुपर्णसहिताः, कुर्वन्तु वो मङ्गलम्॥ ८॥
॥ परस्पर उपहार॥ वस्त्रोपहार- वर पक्ष की ओर से कन्या को और कन्या पक्ष की ओर से वर को वस्त्र- आभूषण भेंट किये जाने की परम्परा है। यह कार्य श्रद्धानुरूप पहले ही हो जाता है। वर- वधू उन्हें पहनकर ही संस्कार में बैठते हैं। यहाँ प्रतीक रूप से पीले दुपट्टे एक- दूसरे को भेंट किये जाएँ। यही ग्रन्थि बन्धन के भी काम आ जाते हैं। आभूषण पहिनाना हो, तो अँगूठी या मङ्गलसूत्र जैसे शुभ- चिह्नों तक ही सीमित रहना चाहिए। दोनों पक्ष भावना करें कि एक- दूसरे का सम्मान बढ़ाने, उन्हें अलंकृत करने का उत्तरदायित्व समझने और निभाने के लिए सङ्कल्पित हो रहे हैं। नीचे लिखे मन्त्र के साथ परस्पर उपहार दिये जाएँ।
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै, दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः, पुरूचीरायस्पोषमभि संव्ययिष्ये॥ -- पार०गृ०सू० २.६.२० पुष्पोहार (माल्यार्पण)- वर- वधू एक- दूसरे को अपने अनुरूप स्वीकार करते हुए, पुष्प मालाएँ अर्पित करते हैं। हृदय से वरण करते हैं। भावना करें कि देव शक्तियों और सत्पुरुषों के आशीर्वाद से वे परस्पर एक दूसरे के गले का हार बनकर रहेंगे। मन्त्रोच्चार के साथ पहले कन्या वर को फिर वर कन्या को माला पहिनाएँ।
ॐ यशसा माद्यावापृथिवी यशसेन्द्रा बृहस्पती। यशो भगश्च मा विदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्॥ -- पार०गृ०सू० २.६.२१, मा०गृ०सू० १.९.२७
॥ हस्तपीतकरण॥ क्रिया और भावना- कन्या दोनों हथेलियाँ सामने कर दे। कन्यादाता गीली हल्दी उसकी हथेलियों पर मन्त्र के साथ मलें। भावना करें कि देव सान्निध्य में इन हाथों को स्वार्थपरता के कुसंस्कारों से मुक्त कराते हुए त्याग परमार्थ के संस्कार जाग्रत् किये जा रहे हैं। ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा* सं परिपातु विश्वतः॥- २९.५१ ॥ कन्यादान -गुप्तदान॥ क्रिया और भावना- कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके माता- पिता अपने हाथ में कन्या के हाथ, गुप्तदान का धन और पुष्प रखकर सङ्कल्प बोलते हैं और उन हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं। वह इन हाथों को गम्भीरता और जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों को पकड़कर स्वीकार- शिरोधार्य करता है।
भावना करें कि कन्या वर को सौंपते हुए उसके अभिभावक अपने समग्र अधिकार को सौंपते हैं। कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा के अनुसार होंगे। कन्या को यह भावनात्मक पुरुषार्थ करने तथा पति को उसे स्वीकार करने या निभाने की शक्ति देवशक्तियाँ प्रदान कर रही हैं, इस भावना के साथ कन्यादान का सङ्कल्प बोला जाए। सङ्कल्प पूरा होने पर सङ्कल्पकर्त्ता कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप दें।
॥ कन्यादान- सङ्कल्प॥ अद्येति.........नामाऽहं.........नाम्नीम् इमां कन्यां/भगिनीं सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां गन्धादि -- अर्चितां वस्त्रयुगच्छन्नां प्रजापति दैवत्यां शतगुणीकृत ज्योतिष्टोम- अतिरात्र कामोऽहं ......... नाम्ने विष्णुरूपिणे वराय भरण- पोषण- आच्छादान-पालनादीनांस्वकीय उत्तरदायित्व- भारम् अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन तुभ्यं अहं सम्प्रददे। वर उन्हें स्वीकार करते हुए कहे- ॐ स्वस्ति।
॥ गोदान॥ दिशा प्रेरणा- गौ पवित्रता और परमार्थ परायणता की प्रतीक है। कन्या पक्ष वर को ऐसा दान दें, जो उन्हें पवित्रता और परमार्थ की प्रेरणा देने वाला हो। सम्भव हो, तो कन्यादान के अवसर पर गाय दान में दी जा सकती है। वह कन्या के व उसके परिवार के लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त भी है। आज की स्थिति में यदि गौ देना या लेना असुविधाजनक हो, तो उसके लिए कुछ धन देकर गोदान की परिपाटी को जीवित रखा जा सकता है।
क्रिया और भावना- कन्यादान करने वाले हाथ में सामग्री लें। भावना करें कि वर- कन्या के भावी जीवन को सुखी समुन्नत बनाने के लिए श्रद्धापूर्वक श्रेष्ठ दान कर रहे हैं। मन्त्रोच्चार के साथ सामग्री वर के हाथ में दें।
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ -ऋ०८.१०१.१५, पार०गृ०सू० १.३.२७ ॥ मर्यादाकरण॥ क्रिया और भावना- कन्यादान करने वाले अपने हाथ में जल, पुष्प, अक्षत लें। भावना करें कि वर को मर्यादा सौंप रहे हैं। वर मर्यादा स्वीकार करें, उसके पालन के लिए देव शक्तियों के सहयोग की कामना करें।
ॐ गौरीं कन्यामिमां पूज्य!यथाशक्तिविभूषिताम्। गोत्राय शर्मणे तुभ्यं, दत्तां देवसमाश्रय॥ धर्मस्याचरणं सम्यक्, क्रियतामनया सह। धर्मे चार्थे च कामे च, यत्त्वं नातिचरेर्विभो॥ वर कहे- नातिचरामि।
॥ पाणिग्रहण॥
क्रिया और भावना- मन्त्रोच्चार के साथ कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाये, वर उसे अँगूठा सहित (समग्र रूप से) पकड़ ले। भावना करें कि दिव्य वातावरण में परस्पर मित्रता के भाव सहित एक- दूसरे के उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं। ॐ यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमानो वा। हिरण्यपर्णो वै कर्णः स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥ - पार०गृ०सू० १.४.१५ ॥ ग्रन्थिबन्धन॥ दिशा और प्रेरणा- वर- वधू द्वारा पाणिग्रहण एकीकरण के बाद समाज द्वारा दोनों को एक गाँठ में बाँध दिया जाता है। दुपट्टे के छोर बाँधने का अर्थ है- दोनों के शरीर और मन से एक संयुक्त इकाई के रूप में एक नई सत्ता का आविर्भाव होना। अब दोनों एक- दूसरे के साथ पूरी तरह बँधे हुए हैं। ग्रन्थिबन्धन में धन, पुष्प, दूर्वा, हरिद्रा और अक्षत यह पाँच चीजें भी बाँधते हैं।
क्रिया और भावना-ग्रन्थिबन्धन, आचार्य या प्रतिनिधि या कोई मान्य व्यक्ति करें। दुपट्टे के छोर एक साथ करके उसमें मङ्गल- द्रव्य रखकर गाँठ बाँध दी जाए। भावना की जाए कि मङ्गल द्रव्यों के मङ्गल संस्कार सहित देवशक्तियों के समर्थन तथा स्नेहियों की सद्भावना के संयुक्त प्रभाव से दोनों इस प्रकार जुड़ रहे हैं, जो सदा जुड़े रहकर एक- दूसरे की जीवन लक्ष्य यात्रा में पूरक बनकर चलेंगे-
ॐ समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥ -ऋ०१०.८५.४७, पार०गृ०सू० १.४.१४
॥ वर- वधू की प्रतिज्ञाएँ॥ क्रिया और भावना- वर- वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक- एक करके प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।
॥ वर की प्रतिज्ञाएँ॥
धर्मपत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनमावयोः। अद्यारभ्य यतो मे त्वम्, अर्द्धाङ्गिनीति घोषिता॥ १॥
आज से धर्मपत्नी को अर्द्धाङ्गिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि करता हूँ। अपने शरीर के अङ्गों की तरह धर्मपत्नी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः। मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकार्याणि त्वया सह॥ २॥ प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान् अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निर्धारण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप- स्वास्थ्य, गुणदोषादीन् सर्वतः। रोगाज्ञान- विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥ ३॥ रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण- दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूर्णस्नेहः प्रदास्यते। सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥ ४॥ पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा- पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्। तथैव पालयिष्यामि, पत्नीव्रतमहं ध्रुवम्॥ ५॥ पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पत्नीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन और आचरण दोनों से ही परनारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोड़ूँगा।
गृहस्यार्थव्यवस्थायां, मन्त्रयित्वा त्वया सह। सञ्चालनं करिष्यामि, गृहस्थोचित- जीवनम्॥ ६॥ गृह व्यवस्था में धर्म- पत्नी को प्रधानता दूँगा। आमदनी और खर्च का क्रम उसकी सहमति से करने की गृहस्थोचित जीवनचर्या अपनाऊँगा।
समृद्धि- सुख- शान्तिनां, रक्षणाय तथा तव। व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभिः॥ ७॥ धर्मपत्नी की सुख- शान्ति तथा प्रगति- सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से लगाता रहूँगा। यत्नशीलो भविष्यामि, सन्मार्गंसेवितुं सदा। आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥ ८॥ अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा- पूरा प्रयत्न करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पत्नी को लाञ्छित- तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमर्थायां, विमुखायाञ्च कर्मणि। विश्वासं सहयोगञ्च, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥ ९॥ पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी कमी न रखूँगा। ॥ कन्या की प्रतिज्ञाएँ॥ स्वजीवनं मेलयित्वा, भवतः खलु जीवने। भूत्वा चार्द्धाङ्गिनी नित्यं, निवत्स्यामि गृहे सदा॥ १॥ अपने जीवन को पति के साथ संयुक्त करके नये जीवन की सृष्टि करूँगी। इस प्रकार घर में हमेशा सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी बनकर रहूँगी।
शिष्टतापूर्वकं सर्वैः, परिवारजनैः सह। औदार्येण विधास्यामि, व्यवहारं च कोमलम्॥ २॥ पति के परिवार के परिजनों को एक ही शरीर के अङ्ग मानकर सभी के साथ शिष्टता बरतूँगी, उदारतापूर्वक सेवा करूँगी, मधुर व्यवहार करूँगी।
त्यक्त्वालस्यं करिष्यामि, गृहकार्ये परिश्रमम्। भर्तुर्हर्षं हि ज्ञास्यामि, स्वीयामेव प्रसन्नताम्॥ ३॥ आलस्य को छोड़कर परिश्रमपूर्वक गृह कार्य करूँगी। इस प्रकार पति की प्रगति और जीवन विकास में समुचित योगदान करूँगी।
श्रद्धया पालयिष्यामि, धर्मं पातिव्रतं परम्। सर्वदैवानुकूल्येन, पत्युरादेशपालिका॥ ४॥ पतिव्रत धर्म का पालन करूँगी, पति के प्रति श्रद्धा- भाव बनाये रखकर सदैव उनके अनूकूल रहूँगी। कपट- दुराव न करूँगी, निर्देशों के अविलम्ब पालन का अभ्यास करूँगी।
सुश्रूषणपरा स्वच्छा, मधुर- प्रियभाषिणी। प्रतिजाने भविष्यामि, सततं सुखदायिनी॥ ५॥ सेवा, स्वच्छता तथा प्रियभाषण का अभ्यास बनाये रखूँगी। ईर्ष्या, कुढ़न आदि दोषों से बचूँगी और सदा प्रसन्नता देने वाली बनकर रहूँगी।
मितव्ययेन गार्हस्थ्य- सञ्चालने हि नित्यदा। प्रयतिष्ये च सोत्साहं, तवाहमनुगामिनी॥ ६॥ फिजूलखर्ची से बचकर मितव्ययितापूर्वक गृहस्थी का संचालन नियमितरूप से करूँगी। उत्साहपूर्वक पति की अनुगामिनी बनने का प्रयास करूँगी।
देवस्वरूपो नारीणां, भर्त्ता भवति मानवः। मत्वेति त्वां भजिष्यामि, नियता जीवनावधिम्॥ ७॥ नारी के लिए पति, देव स्वरूप होता है- यह मानकर मतभेद भुलाकर, सेवा करते हुए जीवन भर सक्रिय रहूँगी, कभी भी पति का अपमान न करूँगी।
पूज्यास्तव पितरो ये, श्रद्धया परमा हि मे। सेवया तोषयिष्यामि, तान्सदा विनयेन च॥ ८॥ जो पति के पूज्य और श्रद्धा पात्र हैं, उन्हें सेवा द्वारा और विनय द्वारा सदैव सन्तुष्ट रखूँगी। विकासाय सुसंस्कारैः, सूत्रैः सद्भाववर्द्धिभिः।
परिवारसदस्यानां, कौशलं विकसाम्यहम्॥ ९॥ परिवार के सदस्यों में सुसंस्कारों के विकास तथा उन्हें सद्भावना के सूत्रों में बाँधे रहने का कौशल अपने अन्दर विकसित करूँगी।
यज्ञीय प्रक्रिया- शपथ ग्रहण के बाद उनकी श्रेष्ठ भावनाओं के विकास और पोषण के लिए यज्ञीय वातावरण निर्मित किया जाता है। अग्नि स्थापना से गायत्री मन्त्र आहुति तक का क्रम सम्पन्न करें। गायत्री मन्त्र की ९, १२ या २४ आहुतियाँ दी जाएँ। इसके बाद प्रायश्चित होम कराया जाए।
प्रायश्चित्त होम- वर- वधू हवन सामग्री से आहुति दें। भावना करें कि प्रायश्चित्त आहुति के साथ पूर्व दुष्कृत्यों की धुलाई हो रही है। स्वाहा के साथ आहुति डालें, इदं न मम के साथ हाथ जोड़कर नमस्कार करें-
ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा॥ इदं अग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम। -२१.३
ॐ स त्वं नो अग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या ऽ उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणœ रराणो वीहि मृडीक * सुहवो नऽ एधि स्वाहा॥ इदं अग्नीवरुणाभ्यां इदं न मम। -२१.४
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य नभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमयाऽ असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज * स्वाहा॥ इदं अग्नये अयसे इदं न मम। -का०श्रौ० सू० २५.१.११ ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुः विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा॥ इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च इदं न मम। -का०श्रौ० सू० २५.१.११ ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यम * श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। -१२.१२ इदं वरुणायादित्यायादितये च इदं न मम।
॥ शिलारोहण॥ दिशा एवं प्रेरणा- शिलारोहण के द्वारा पत्थर पर पैर रखते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिस प्रकार अङ्गद ने अपना पैर जमा दिया था, उसी तरह हम पत्थर की लकीर की तरह अपना पैर उत्तरदायित्वों को निबाहने के लिए जमाते हैं। यह धर्मकृत्य खेल- खिलौने की तरह नहीं किया जा रहा, जिसे एक मखौल समझकर तोड़ा जाता रहे, वरन् यह प्रतिज्ञाएँ पत्थर की लकीर की तरह अमिट बनी रहेंगी, ये चट्टान की तरह अटूट एवं चिरस्थाई रखी जायेंगी। क्रिया और भावना- मन्त्र बोलने के साथ वर- वधू अपने दाहिने पैर को शिला पर रखें, भावना करें कि उत्तरदायित्वों के निर्वाह करने तथा बाधाओं को पार करने की शक्ति हमारे सङ्कल्प और देव अनुग्रह से मिल रही है।
ॐ आरोहेममश्मानमश्मेव त्व * स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः॥ -पार०गृ०सू० १.७.१ ॥ लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर) ॥ क्रिया और भावना- लाजा होम और परिक्रमा का मिला- जुला क्रम चलता है। शिलारोहण के बाद वर- वधू खड़े- खड़े गायत्री मन्त्र से एक आहुति समर्पित करें। अब मन्त्र के साथ परिक्रमा करें। वधू आगे, वर पीछे चलें। एक परिक्रमा पूरी होने पर लाजाहोम की एक आहुति करें। आहुति करके दूसरी परिक्रमा पहले की तरह मन्त्र बोलते हुए करें। इसी प्रकार लाजाहोम की दूसरी आहुति करके तीसरी परिक्रमा तथा तीसरी आहुति करके चौथी परिक्रमा करें। इसके बाद गायत्री मन्त्र की आहुति देते हुए तीन परिक्रमाएँ वर को आगे करके परिक्रमा मन्त्र बोलते हुए कराई जाएँ। अगली सातवीं परिक्रमा की समाप्ति पर गायत्री मंत्र से आहुति दें। आहुति के साथ भावना करें कि बाहर यज्ञीय ऊर्जा तथा अन्तःकरण में यज्ञीय भावना तीव्रतर हो रही है। परिक्रमा के साथ भावना करें कि यज्ञीय अनुशासन को केन्द्र मानकर, यज्ञाग्नि को साक्षी करके आदर्श दाम्पत्य के निर्वाह का सङ्कल्प कर रहे हैं। ॥ लाजाहोम॥ ॐ अर्यमणं देवं कन्या अग्निमयक्षत। स नोऽ अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः स्वाहा॥ इदं अर्यम्णे अग्नये इदं न मम। ॐ इयं नार्युपब्रूते लाजा नावपन्तिका। आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्ताम् ज्ञातयो मम स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम। ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ, समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतामिय * स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम।- पार०गृ०सू० १.६.२
॥ परिक्रमा मन्त्र॥ ॐ तुभ्यमग्रे पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह। पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥ -- ऋ०१०.८५.३८, पार०गृ०सू० १.७.३ ॥ सप्तपदी॥ क्रिया और भावना- वर- वधू खड़े हों। प्रत्येक कदम बढ़ाने से पहले देव शक्तियों की साक्षी का मन्त्र बोला जाता है, उस समय वर- वधू हाथ जोड़कर ध्यान करें। उसके बाद चरण बढ़ाने का मन्त्र बोलने पर पहले दायाँ कदम बढ़ाएँ। इसी प्रकार एक- एक करके सात कदम बढ़ाये जाएँ। भावना की जाए कि योजनाबद्ध- प्रगतिशील जीवन के लिए देव साक्षी में सङ्कल्पित हो रहे हैं। सङ्कल्प और देव अनुग्रह का संयुक्त लाभ जीवन भर मिलता रहेगा। (१) अन्न वृद्धि के लिए पहली साक्षी- ॐ एको विष्णुर्जगत्सर्वं, व्याप्तं येन चराचरम्। हृदये यस्ततो यस्य, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ पहला चरण- ॐ इष एकपदी भव सामामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ १॥
(२) बल वृद्धि के लिए दूसरी साक्षी- ॐ जीवात्मा परमात्मा च, पृथ्वी- आकाशमेव च। सूर्यचन्द्रद्वयोर्मध्ये, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ दूसरा चरण- ॐ ऊर्जे द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ २॥
(३) धन वृद्धि के लिए तीसरी साक्षी-
ॐ त्रिगुणाश्च त्रिदेवाश्च, त्रिशक्तिः सत्परायणाः। लोकत्रये त्रिसन्ध्यायाः, तस्य साक्षी प्रदीयताम्॥ तीसरा चरण-
ॐ रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ३॥
(४) सुख वृद्धि के लिए चौथी साक्षी-
ॐ चतुर्मुखस्ततो ब्रह्मा, चत्वारो वेदसम्भवाः। चतुर्युगाः प्रवर्तन्ते, तेषां साक्षी प्रदीयताम्॥ चौथा चरण- ॐ मायो भवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ४॥ (५) प्रजा पालन के लिए पाँचवीं साक्षी-
ॐ पञ्चमे पञ्चभूतानां, पञ्चप्राणैः परायणाः। तत्र दर्शनपुण्यानां, साक्षिणः प्राणपञ्चधाः॥ पाँचवाँ चरण-
ॐ प्रजाभ्यां पञ्चपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ५॥ (६) ऋतु व्यवहार के लिए छठवीं साक्षी-
ॐ षष्ठे तु षड्ऋतूणां च, षण्मुखः स्वामिकार्तिकः। षड्रसा यत्र जायन्ते, कार्तिकेयाश्च साक्षिणः॥ छठवाँ चरण- ॐ ऋतुभ्यः षट्पदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ६॥ (७) मित्रता वृद्धि के लिए सातवीं साक्षी-
ॐ सप्तमे सागराश्चैव, सप्तद्वीपाः सपर्वताः। येषां सप्तर्षिपत्नीनां, तेषामादर्शसाक्षिणः॥ सातवाँ चरण- ॐ सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव। विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै, बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः॥ ७॥ -पार०गृ०सू० १.८.१- २, आ०गृ०सू० १.७.१९ ॥ आसन परिवर्तन॥ सप्तपदी के पश्चात् आसन परिवर्तन करते हैं। अब तक वधू दाहिनी ओर थी अर्थात् बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में थी। अब सप्तपदी होने के पश्चात् प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह घरवाली अपनी आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बैठाया जाता है। बायें से दायें लिखने का क्रम है। बायाँ प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सप्तपदी के बाद अब पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो गयी ।। लक्ष्मी- नारायण, उमा- महेश, सीता- राम, राधे- श्याम आदि नामों में पत्नी को प्रथम, पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना, अधिकार हस्तान्तरण है। बायीं ओर के बाद पत्नी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बनती है। ॐ इह गावो निषीदन्तु, इहाश्वा इह पूरुषाः। इहो सहस्रदक्षिणो यज्ञ, इह पूषा निषीदतु॥ -पा०गृ०सू० १.८.१० ॥ पाद प्रक्षालन॥ आसन परिवर्तन के बाद गृहस्थाश्रम के साधक के रूप में वर- वधू का सम्मान पाद प्रक्षालन करके किया जाता है। कन्या पक्ष की ओर से प्रतिनिधि स्वरूप कोई दम्पति या अकेले व्यक्ति पाद प्रक्षालन करे। पाद प्रक्षालन करने वालों का पवित्रीकरण- सिञ्चन किया जाए। हाथ में हल्दी, दूर्वा, थाली में जल लेकर प्रक्षालन करें। प्रथम मन्त्र के साथ तीन बार वर- वधू के पैर पखारें, फिर दूसरे मन्त्र के साथ यथा श्रद्धा भेंट दें।
ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी, गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता, तनूर्जारघ्नीं ततऽएनां करोमि, सा जीर्य त्वं मया सह। -पार०गृ०सू० १.११ ॐ ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम्। इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः॥ -अथर्व. ९.३.१९ ॥ ध्रुव- सूर्य ध्यान॥ ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सब तारागण गतिशील रहते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर रहता है। अन्य तारे उसकी परिक्रमा करते हैं। ध्रुव दर्शन का अर्थ है- दोनों अपने- अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर उसी तरह दृढ़ रहेंगे, जैसे कि ध्रुव तारा स्थिर है। कुछ कारण उत्पन्न होने पर भी इस आदर्श से विचलित न होने की प्रतिज्ञा को निभाया जाए, व्रत को पाला जाए और सङ्कल्प को पूरा किया जाए। ध्रुव स्थिर चित्त रहने की अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार सूर्य की अपनी प्रखरता, तेजस्विता, महत्ता सदा स्थिर रहती है। वह अपने निर्धारित पथ पर ही चलता है, यही हमें करना चाहिए। यही भावना पति- पत्नी करें। ॥ सूर्य ध्यान (दिन में)॥ ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत * शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥ -३६.२४
॥ ध्रुव ध्यान (रात में)॥ ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। मह्यं त्वादात् बृहस्पतिर्मयापत्या,प्रजावती सञ्जीव शरदः शतम्॥ -पार०गृ०सू० १.८.१९ ॥ शपथ आश्वासन॥ पति- पत्नी एक दूसरे के सिर या कन्धे पर दाहिना हाथ रखकर समाज के सामने शपथ लेते हैं, आश्वासन देकर अन्तिम प्रतिज्ञा करते हैं कि वे निस्सन्देह निश्चित रूप से एक- दूसरे को आजीवन ईमानदार, निष्ठावान् और वफादार रहने का विश्वास दिलाते हैं। पिछले दिनों पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के साथ छली- कपटी और विश्वासघातियों जैसा रहा है। रूप, यौवन के लोभ में कुछ दिन मीठी बातें करते हैं, पीछे क्रूरता एवं दुष्टता पर उतर आते हैं। पग- पग पर उन्हें सताते और तिरस्कृत करते हैं। प्रतिज्ञाओं को तोड़कर आर्थिक एवं चारित्रिक उच्छृङ्खलता बरतते हैं और पत्नी की इच्छा की परवाह नहीं करते। समाज में ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होतीं। ऐसी दशा में ये प्रतिज्ञाएँ औपचारिकता मात्र रह जाने की आशङ्का हो सकती है। सन्तान न होने पर या लड़कियाँ होने पर लोग दूसरा विवाह करने पर उतारू हो जाते हैं।
पति सिर या कन्धे पर दाहिना हाथ रखकर कसम खाता है कि दूसरे दुरात्माओं की श्रेणी में उसे न गिना जाए। इस प्रकार पत्नी भी अपनी निष्ठा के बारे में पति को इस शपथ- प्रतिज्ञा द्वारा विश्वास दिलाती है।
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व, प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्॥ -- पार०गृ०सू०१.८.८
॥ सुमङ्गली- सिन्दूरदान॥ मन्त्र के साथ वर अँगूठी सलाका या सिक्के से वधू की माँग में सिन्दूर तीन बार लगाए। भावना करे कि मैं वधू के सौभाग्य को बढ़ाने वाला सिद्ध होऊँ-
ॐ सुमंगलीरियं वधूरिमा* समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं विपरेतन। 'सुभगा स्त्री सावित्र्यास्तव सौभाग्यं भवतु॥ -पार०गृ०सू० १.८.९ ॥ मङ्गलतिलक॥ वधू वर को मङ्गल तिलक करे। भावना करे कि पति का सम्मान करते हुए उनके गौरव को बढ़ाने वाली सिद्ध होऊँ-
ॐ स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः॥ -ऋ० ५.५१.१२
इसके पश्चात् स्विष्टकृत् होम से क्षमा- प्रार्थना तक के कृत्य सम्पन्न करें। ॥ आशीर्वाद॥ वर- कन्या दोनों हाथ जोड़कर सभी समुपस्थित जनों को प्रणाम करें। पुष्प वर्षा के रूप में सभी उपस्थित महानुभाव अपनी शुभकामनाएँ- आशीर्वाद वर- वधू को प्रदान करें- गणपतिः गिरिजा वृषभध्वजः, षण्मुखो नन्दीमुखडिमडिमा। मनुज- माल, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ १॥रविशशी- कुज-इन्द्र-जगत्पति:, भृगुज- भानुज-सिन्धुज-केतव:। उडुगणा- तिथि च राशयः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ २॥ वरुण- इन्द्र कुबेर- हुताशनाः, यम- समीरण। सुरगणाः सुराश्च महीधराः, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ३॥ सुरसरी- रविनन्दिनि- गोमति, सरयुतामपि सागर- घर्घरा। कनकयामयि- गण्डकि- नर्मदा, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ४॥ हरिपुरी- मथुरा च त्रिवेणिका, बदरि- विष्णु- बटेश्वर -कौशला। मय- गयामपि- दर्दर, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ५॥ भृगुमुनिश्च पुलस्ति च अङ्गिरा, कपिलवस्तु- अगस्त्य च नारदः। गुरुवसिष्ठ- सनातन- जैमिनी, प्रतिदिनं कुशलं वरकन्ययोः॥ ६॥ ॐ ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः, सामवेदो ह्यथर्वणः। रक्षन्तु चतुरो वेदा, यावच्चन्द्र दिवाकरौ॥
इसके बाद देव विसर्जन करके कृत्य समाप्त किया जाए।