Books - कर्मकांड प्रदीप
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सर्वतोभद्र वेदिका पूजन
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सर्वतोभद्र मण्डल पर निम्न मन्त्रों के साथ ३३ देवताओं का श्रद्धा -भक्तिपूर्वक आवाहन करना चाहिए। प्रत्येक देवता के आवाहन के साथ निर्धारित वर्ग पर अक्षत, पुष्प, सुपारी चढ़ाते रहना चाहिए।
नोट- पुस्तक के प्रारम्भ में लघुसर्वतोभद्र का चित्र दिया गया है, उसी के अनुसार निर्धारित नम्बरों पर पूजन करें।
(१) गणेश (विवेक) पीला ॐ गणानां त्वा गणपति* हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति* हवामहे निधीनां त्वा निधिपति* हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्। ॐ गणपतये नमः। आवाहयामि,स्थापयामि ध्यायामि ।। -२३.१९
अर्थात्- जो अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए देवताओं- दैत्यों द्वारा पूजे गये हैं और सम्पूर्ण विघ्नों को समाप्त कर देने वाले हैं, उन गणाधिपति (प्रमथादि गणों के स्वामी) को नमस्कार है।
(२) गौरी (तपस्या) हरा ॐ आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः। पितरञ्च प्रयन्त्स्वः॥ ॐ गौर्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३.६ अर्थात्- सभी का सब प्रकार से मङ्गल करने वाली शिवा (कल्याण- कारिणि)! सभी कार्यों को पूर्ण करने वाली, शरणदात्री, त्रिनेत्रधारिणी, गौरी, नारायणी देवि! (महादेवि) आपको नमस्कार है।
(३) ब्रह्मा (निर्माण) लाल ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठाःसतश्च योनिमसतश्च वि वः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१३.३
अर्थात्- सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मरूप में परमात्म शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, वही शक्ति समस्त ब्रह्माण्ड में व्यवस्था रूप में व्याप्त हुई। यही कान्तिमान् ब्रह्म (सूर्यादि) विविध रूपों में स्थित अन्तरिक्षादि विभिन्न लोकों को तथा व्यक्त जगत् एवं अव्यक्त जगत् को प्रकाशित करते हैं।
(४) विष्णु (ऐश्वर्य) सफेद ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा* सुरे स्वाहा। ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -- ५.१५
अर्थात्- हे विष्णुदेव! आप अपना सर्वव्यापी प्रथम पद पृथ्वी में, द्वितीय पद अन्तरिक्ष में तथा तृतीय पद द्युलोक में स्थापित करते हैं। भू लोक आदि आपके पद- रज में अन्तर्निहित हैं। आप सर्वव्यापी विष्णुदेव को यह आहुति दी जाती है।
(५) रुद्र (दमन) लाल ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१६.१
अर्थात्- हे रुद्रदेव (दुष्टों को रुलाने वाले)! आपके मन्यु (अनीति- दमन के लिए क्रोध) के प्रति हमारा नमस्कार है। आपके बाणों के लिए हमारा नमस्कार है। आपकी दोनों भुजाओं के लिए हमारा नमस्कार है।
(६) गायत्री (ऋतम्भरा प्रज्ञा) पीला ॐ गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् पङ्क्त्या सह। बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥ ॐ गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २३.३३
अर्थात्- (हे यज्ञाग्ने)! गायत्री छन्द, त्रिष्टुप् छन्द, जगती छन्द, अनुष्टुप् छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, उष्णिक् छन्द एवं ककुप् छन्द आदि सूचियों के माध्यम से आपको शान्त करें।
(७) सरस्वती बुद्धि (शिक्षा) लाल ॐ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः। ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २०.८४
अर्थात्- सबको पवित्रता प्रदान करने वाली, अन्न के द्वारा यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों को सम्पादित करने वाली देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को धारण करें तथा हमें अभीष्ट वैभव प्रदान करें।
(८) लक्ष्मी (समृद्धि) सफेद ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुम्मऽ इषाण सर्वलोकं मऽ इषाण। ॐ लक्ष्म्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३१.२२
अर्थात्- हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! श्री (सम्पत्ति) और लक्ष्मी (शोभा) दोनों आपकी पत्नी स्वरूपा हैं, रात्रि और दिन दोनों भुजाएँ हैं एवं नक्षत्र आपके रूप हैं। द्युलोक एवं पृथ्वी आपके मुख सदृश हैं। अपनी इच्छा शक्ति से सबकी इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हे ईश्वर! हमारी उत्तम लोकों की प्राप्ति की इच्छा पूर्ति के लिए आप कृपा करें।
(९) दुर्गा शक्ति (संगठन) लाल ॐ जातवेदसे सुनवाम सोमं अरातीयतो नि दहाति वेदः। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥ ॐ दुर्गायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -ऋग्वेद १.९९.१
अर्थात्- हम सर्वज्ञ अग्निदेव के लिए सोम- सवन करें। वे अग्निदेव हमारे शत्रुओं के सभी धनों को भस्मीभूत करें। नाव द्वारा नदी से पार कराने के समान वे अग्निदेव हमें सम्पूर्ण दुःखों से पार लगाएँ और पापों से रक्षित करें।
(१०) पृथ्वी (क्षमा) सफेद ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः। ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -- ८.३२
अर्थात्- महान् द्युलोक और पृथिविलोक, स्वर्ण- रत्नादि, धन- धान्यों से परिपूर्ण वैभव द्वारा हमारे इस श्रेष्ठ कर्मरूपी यज्ञ को सम्पन्न करें तथा उसे संरक्षित करें।
(११) अग्नि (तेजस्विता) पीला ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२१.३
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप सर्वज्ञ, कान्तिमान्, पूजनीय और भली प्रकार आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले हैं। आप हमारे लिए वरुण देवता को प्रसन्न करें और हमारे सब प्रकार के अनिष्टों को दूर करें।
(१२) वायु (गतिशीलता) सफेद ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर * सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्।वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः। ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२७.२८
अर्थात्- हे वायो! आप सैकड़ों- हजारों अश्वों द्वारा खींचे जाते हुए वाहनों पर आरूढ़ होकर अर्थात् तीव्र गति से हमारे इस यज्ञ में पधारें और इसके सेवन से स्वयं तृप्त हों तथा हम सबको भी हर्षित करें। आप अपने कल्याणकारी साधनों द्वारा हमारी सदा रक्षा करें।
(१३) इन्द्र (व्यवस्था) लाल ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र * हवे हवे सुहव*शूरमिन्द्रम्। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्र* स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः॥ ॐ इन्द्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२०.५०
अर्थात्- हम रक्षा करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। पालन करने वाले इन्द्रदेव का यज्ञ में बार- बार आवाहन करते हैं। पराक्रमी इन्द्रदेव का उत्तम रीति से आवाहन करते हैं। अत्यन्त समर्थ, अनेकों द्वारा स्तुति किये जाते हुए इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। वे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव हमारा कल्याण करें।
(१४) यम (न्याय )) सफेद ॐ सुगन्नुपन्थां प्रदिशन्नऽएहि ज्योतिष्मध्येह्यजरन्नऽआयुः।
अपैतु मृत्युममृतं मऽआगात्वैवस्वतोनो ऽ अभयं कृणोतु।
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
अर्थात्- सुगम मार्ग में प्रवेश करते हुए हमारे समीप आइये। हमारी आयु क्षीण न हो। विवस्वान् के पुत्र वे यमाचार्य हमसे मृत्यु को दूर करें, अमृतत्व से हमें संयुक्त करते हुए निर्भय करने की कृपा करें।
(१५) कुबेर (मितव्ययिता) काला
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे। स मे कामान् कामकामाय मह्यम्। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः। ॐ कुबेराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- तै.आ.१.३१
अर्थात्- विश्रवा-महर्षि के आत्मज, राजाधिराज कुबेर महाराज को हम नमस्कार करते हैं, जो बलपूर्वक जिसे चाहें, उसे अपने कोष की वर्षा से तृप्त करा सकते हैं। समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले वे हमारी श्रेष्ठ कामनाओं को पूर्ण करने की कृपा करें।
(१६) अश्विनीकुमार (आरोग्य) पीला
ॐ अश्विना तेजसा चक्षुः प्राणेन सरस्वती वीर्यम्। वाचेन्द्रो बलेनेन्द्राय दधुरिन्द्रियम्। ॐ अश्विनीकुमाराभ्यां नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२०.८०
अर्थात्- याजकों का कल्याण करने के लिए दोनों अश्विनीकुमारों ने स्वतेज से नेत्र ज्योति, देवी सरस्वती ने प्राण के साथ पराक्रम और इन्द्रदेव ने वाणी की सामर्थ्य के साथ इन्द्रिय- बल प्रदान किया।
(१७) सूर्य (प्रेरणा) काला
ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३३.४३, ३४.३१
अर्थात्- उषाकाल की रश्मियों रूपी स्वर्णिम रथ पर आरूढ़ सविता देव गहन तमिस्रा युक्त अन्तरिक्ष- पथ में भ्रमण करते हुए देवों और मनुष्यों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित करते हैं। वे समस्त लोकों का निरीक्षण करते हुए निकलते हैं अर्थात् उन्हें प्रकाशित करते हैं।
(१८) चन्द्रमा (शान्ति) लाल ॐ इमं देवाऽ असपत्न * सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महतेजानराज्याय इन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विशऽ एष वोमी राजा सोमोस्माकं ब्राह्मणाना * राजा। ॐ चन्द्रमसे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -९.४०
अर्थात्- हे देवगण! महान् क्षात्रबल के सम्पादन के लिए, महान् राज्य पद के लिए, श्रेष्ठ जनराज्य के लिए, इन्द्रदेव के समान हर प्रकार से विभूतिवान् बनने के लिए, शत्रुओं से रहित अमुक पिता के पुत्र, अमुक माता के पुत्र को प्रजा- पालन के लिए अभिषिक्त करें। हे प्रजाजनो! आप सभी के लिए तथा हम ज्ञानी जनों के लिए भी यह राजा चन्द्र के समान आह्लादक है।
(१९) मङ्गल (कल्याण) सफेद
ॐ अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्याऽ अयम्। अपा * रेता * सि जिन्वति। ॐ भौमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३.१२
अर्थात्- यह अग्निदेव! (आदित्य रूप में) द्युलोक के शीर्ष रूप सर्वोच्च भाग में विद्यमान होकर, जीवन का सञ्चार करके, धरती का पालन करते हुए, जल में जीवनी शक्ति का सञ्चार करते हैं।
(२०) बुध (सन्तुलन) हरा
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स * सृजेथामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
ॐ बुधाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१५.५४
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप जाग्रत् हों और प्रतिदिन यजमान को भी जागरूक करें। आप ‘इष्टापूर्त (यज्ञ- यागदिक पुण्य कार्य तथा कुआँ खोदना तालाब आदि बनाना) कार्यों के साथ यजमान से संयुक्त हों। आपकी कृपा से यजमान भी ‘इष्टापूर्त’ के कार्यों से युक्त हो। इस यज्ञ में यजमान के साथ सुसंगत हों। हे विश्वेदेवा! आपके सम्बन्ध से इष्टापूर्त्त कार्यों से निष्पाप हुआ यजमान देवताओं के योग्य सर्वश्रेष्ठ स्थान देवलोक में चिरकाल तक निवास करे।
(२१) बृहस्पति (अनुशासन) पीला ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवसऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। उपयामगृहीतोसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा। ॐ बृहस्पतये नमः। आवायमि,स्थाप्यालमि,ध्यायामि॥ -ऋ०२.२३.१५, २६.३
अर्थात्- हे बृहस्पते! जिस आत्मशक्ति से आप सबके स्वामी, पूज्य और सभी लोगों में आदित्य के समान तेजस्वी एवं सक्रिय होकर सर्वत्र सुशोभित होते हैं, जिस शक्ति से आप सबकी रक्षा करते हैं, उसी आत्मशक्ति से आप हम सब मनुष्यों को श्रेष्ठ धन प्रदान करें। आप राष्ट्र के निर्धारित नियमों द्वारा स्वीकार किये गये हैं। यह पद आपके योग्य है। अतः हम सब बृहस्पति पद के लिए आप को चुनते हैं। (२२) शुक्र (संयम) हरा ॐ अन्नात्परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत् क्षत्रं पयः सोमं प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान* शुक्रमन्धसइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतंमधु॥ ॐ शुक्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१९.७५
अर्थात्- वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों के साथ प्रजापति, परिस्रुुत हुए (निचोड़े हुए) अन्नों के रस में से सोमरसरूपी दुग्ध को पृथक् करके पान करते हैं और क्षात्रबल को धारण करते हैं। उक्त (ऋत) सत्य से ही (अगला) सत्य प्रकट होता है। यह अन्न रसरूप सोम, बल, अन्न, तेज (वीर्य), सामर्थ्य दुग्धादि पेय, अमृतोपम आनन्द और मधुर पदार्थ को उपलब्ध कराता है। (२३) शनिश्चर (तितिक्षा) लाल ॐ शन्नो देवीरभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शं योरभिस्रवन्तु नः। ॐ शनिश्चराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३६.१२
अर्थात्- दिव्य जल हम सबके लिए अभीष्ट फलदायक तथा तृप्तिदायक बने। वह हमारे रोगों के शमन तथा अनिष्ट हटाने के लिए बरसता रहे। इस प्रकार हमारा सब प्रकार से कल्याण करे। (२४) राहु (संघर्ष) पीला
ॐ कया नश्चित्रऽआ भुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता। ॐ राहवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२७.३९
अर्थात्- सर्वदा वृद्धि करने वाले, अद्भुत शक्ति सम्पन्न हे इन्द्रदेव! किस रक्षण तथा व्यवहार क्रिया से प्रसन्न होकर आप सदैव हमारे मित्र रूप में प्रस्तुत होते हैं। (२५) केतु (साहस) लाल ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्याऽ अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः। ॐ केतवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२९.३७ अर्थात्- अज्ञानी पुरुषों को सद्ज्ञान और रूपहीनों को सुन्दर स्वरूप प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! आप उषा के साथ समान रूप से उत्पन्न होते हैं। (२६) गङ्गा (पवित्रता) सफेद
ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः। सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥ ॐ गङ्गायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि॥ -३४.११
अर्थात्- समान स्रोत वाली (श्रेष्ठ प्रवाहशील) पाँच सरिताएँ (नदियाँ) जिस प्रकार महानदी सरस्वती में समाहित हो जाती हैं, उसी प्रकार वही सरस्वती देश में पाँच (नदियों के) रूप में (प्रसिद्ध) हुई (अर्थात् विद्या पाँच प्रकार की प्रतिभाओं- श्रमपरक, विचारपरक, अर्थपरक, कलापरक और भावपरक को संयुक्त करके उन्हें प्रगतिशील बनाती है)। (२७) पितृ (दान) पीला
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोमीमदन्तपितरोतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥ ॐ पितृभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१९.३६
अर्थात्- स्वधा (अन्न) को धारण करने वाले पितरों को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। स्वधा को धारण करने वाले पितामह को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। स्वधा को धारण करने वाले प्रपितामह को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। पितरों ने हविष्यान्न के रूप में समर्पित आहार को ग्रहण करके तृप्ति को प्राप्त किया। पितर तृप्त होकर हमें भी तृप्त करते हैं। हे पितृगण ! आप लोग शुद्ध होकर हमें भी पवित्र जीवन की प्रेरणा प्रदान करें।
(२८) इन्द्राणी (श्रमशीलता) सफेद
ॐ अदित्यै रास्नासीन्द्राण्याऽ उष्णीषः। पूषासि घर्माय दीष्व।। ॐ इन्द्राण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३८.३
अर्थात्- हे यज्ञीय ऊर्जे! आप अदिति की मेखला रूप हैं, इन्द्राणी (संगठक शक्ति) की पगड़ी (प्रतिष्ठा का चिह्न) हैं। आप पोषण देने में समर्थ हैं, घर्म (हितकारी कार्यों- यज्ञों) के लिए अपनी शक्ति को नियोजित करें। (२९) रुद्राणी (वीरता) काला ॐ या ते रुद्र शिवा तनूः अघोराऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि। ॐ रुद्राण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- १६.२
अर्थात्- हे रुद्रदेव! आप (अति उच्च) पर्वत की सुरक्षित गुहा में रहते हैं। आपका कल्याणकारी शान्तरूप पापों के विनाशक होने के कारण सौम्य और बलशाली भी है। अपने उसी मंगलमय रूप से हमारे ऊपर कृपा दृष्टि डालें।
(३०) ब्रह्माणी (नियमितता) पीला ॐ इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः। ॐ ब्रह्माण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- २०.८८
अर्थात्- हे इन्द्रदेव! अपनी अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर इस यज्ञ स्थल में आएँ। आपकी स्तुति करने वाले ऋत्विग्गण, सोम का शोधन संस्कार करने वाले हैं, सो आप समीप आकर इन हवियों को ग्रहण करें। (३१) सर्प (धैर्य) काला
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि, तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। ॐ सर्पेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥, - १३.६
अर्थात्- जो भी सर्प (गमनशील स्वभाव वाले नक्षत्रलोक अथवा जीव) पृथिवी के प्रभाव क्षेत्र में हैं, अन्तरिक्ष द्युलोक में हैं, उन सभी सर्पों को हमारा नमन है। (३२) वास्तु (कला) हरा
ॐ वास्तोष्पते प्रति जानीहि अस्मान् स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ ॐवास्तुपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -ऋ० ७.५४.१
अर्थात्- हे वास्तोष्पते (गृह पालक देव)! आप हमें जगाएँ। हमारे घर में पुत्र- पौत्र आदि द्विपदों, गौ, अश्व आदि चतुष्पदों को नीरोग एवं सुखी करें। जो धन हम आपसे माँगें, वह हमें प्रदान करें।
(३३) आकाश (विशालता) नीला ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्।
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -७.११
अर्थात्- हे अश्विनीकुमारो! सत्य एवं मधुरता से युक्त अपनी उत्तम वाणी से हमारे इस यज्ञ को अभिषिञ्चित करें। हे उपांशु (पात्र)! मधुरता के लिए विख्यात अश्विनीकुमारों के निमित्त आपको नियमानुसार ग्रहण किया गया है। आप यज्ञशाला में अपने सुनिश्चित आसन पर बैठें- स्थापित हों।
नोट- पुस्तक के प्रारम्भ में लघुसर्वतोभद्र का चित्र दिया गया है, उसी के अनुसार निर्धारित नम्बरों पर पूजन करें।
नोट- पुस्तक के प्रारम्भ में लघुसर्वतोभद्र का चित्र दिया गया है, उसी के अनुसार निर्धारित नम्बरों पर पूजन करें।
(१) गणेश (विवेक) पीला ॐ गणानां त्वा गणपति* हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति* हवामहे निधीनां त्वा निधिपति* हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्। ॐ गणपतये नमः। आवाहयामि,स्थापयामि ध्यायामि ।। -२३.१९
अर्थात्- जो अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए देवताओं- दैत्यों द्वारा पूजे गये हैं और सम्पूर्ण विघ्नों को समाप्त कर देने वाले हैं, उन गणाधिपति (प्रमथादि गणों के स्वामी) को नमस्कार है।
(२) गौरी (तपस्या) हरा ॐ आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः। पितरञ्च प्रयन्त्स्वः॥ ॐ गौर्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३.६ अर्थात्- सभी का सब प्रकार से मङ्गल करने वाली शिवा (कल्याण- कारिणि)! सभी कार्यों को पूर्ण करने वाली, शरणदात्री, त्रिनेत्रधारिणी, गौरी, नारायणी देवि! (महादेवि) आपको नमस्कार है।
(३) ब्रह्मा (निर्माण) लाल ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेनऽआवः। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठाःसतश्च योनिमसतश्च वि वः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१३.३
अर्थात्- सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मरूप में परमात्म शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, वही शक्ति समस्त ब्रह्माण्ड में व्यवस्था रूप में व्याप्त हुई। यही कान्तिमान् ब्रह्म (सूर्यादि) विविध रूपों में स्थित अन्तरिक्षादि विभिन्न लोकों को तथा व्यक्त जगत् एवं अव्यक्त जगत् को प्रकाशित करते हैं।
(४) विष्णु (ऐश्वर्य) सफेद ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा* सुरे स्वाहा। ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -- ५.१५
अर्थात्- हे विष्णुदेव! आप अपना सर्वव्यापी प्रथम पद पृथ्वी में, द्वितीय पद अन्तरिक्ष में तथा तृतीय पद द्युलोक में स्थापित करते हैं। भू लोक आदि आपके पद- रज में अन्तर्निहित हैं। आप सर्वव्यापी विष्णुदेव को यह आहुति दी जाती है।
(५) रुद्र (दमन) लाल ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१६.१
अर्थात्- हे रुद्रदेव (दुष्टों को रुलाने वाले)! आपके मन्यु (अनीति- दमन के लिए क्रोध) के प्रति हमारा नमस्कार है। आपके बाणों के लिए हमारा नमस्कार है। आपकी दोनों भुजाओं के लिए हमारा नमस्कार है।
(६) गायत्री (ऋतम्भरा प्रज्ञा) पीला ॐ गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् पङ्क्त्या सह। बृहत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥ ॐ गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २३.३३
अर्थात्- (हे यज्ञाग्ने)! गायत्री छन्द, त्रिष्टुप् छन्द, जगती छन्द, अनुष्टुप् छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, उष्णिक् छन्द एवं ककुप् छन्द आदि सूचियों के माध्यम से आपको शान्त करें।
(७) सरस्वती बुद्धि (शिक्षा) लाल ॐ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसुः। ॐ सरस्वत्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ - २०.८४
अर्थात्- सबको पवित्रता प्रदान करने वाली, अन्न के द्वारा यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों को सम्पादित करने वाली देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को धारण करें तथा हमें अभीष्ट वैभव प्रदान करें।
(८) लक्ष्मी (समृद्धि) सफेद ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुम्मऽ इषाण सर्वलोकं मऽ इषाण। ॐ लक्ष्म्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३१.२२
अर्थात्- हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! श्री (सम्पत्ति) और लक्ष्मी (शोभा) दोनों आपकी पत्नी स्वरूपा हैं, रात्रि और दिन दोनों भुजाएँ हैं एवं नक्षत्र आपके रूप हैं। द्युलोक एवं पृथ्वी आपके मुख सदृश हैं। अपनी इच्छा शक्ति से सबकी इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थ हे ईश्वर! हमारी उत्तम लोकों की प्राप्ति की इच्छा पूर्ति के लिए आप कृपा करें।
(९) दुर्गा शक्ति (संगठन) लाल ॐ जातवेदसे सुनवाम सोमं अरातीयतो नि दहाति वेदः। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥ ॐ दुर्गायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -ऋग्वेद १.९९.१
अर्थात्- हम सर्वज्ञ अग्निदेव के लिए सोम- सवन करें। वे अग्निदेव हमारे शत्रुओं के सभी धनों को भस्मीभूत करें। नाव द्वारा नदी से पार कराने के समान वे अग्निदेव हमें सम्पूर्ण दुःखों से पार लगाएँ और पापों से रक्षित करें।
(१०) पृथ्वी (क्षमा) सफेद ॐ मही द्यौः पृथिवी च नऽ इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः। ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -- ८.३२
अर्थात्- महान् द्युलोक और पृथिविलोक, स्वर्ण- रत्नादि, धन- धान्यों से परिपूर्ण वैभव द्वारा हमारे इस श्रेष्ठ कर्मरूपी यज्ञ को सम्पन्न करें तथा उसे संरक्षित करें।
(११) अग्नि (तेजस्विता) पीला ॐ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेडो अव यासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा * सि प्र मुमुग्ध्यस्मत्। ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२१.३
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप सर्वज्ञ, कान्तिमान्, पूजनीय और भली प्रकार आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले हैं। आप हमारे लिए वरुण देवता को प्रसन्न करें और हमारे सब प्रकार के अनिष्टों को दूर करें।
(१२) वायु (गतिशीलता) सफेद ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर * सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम्।वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः। ॐ वायवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२७.२८
अर्थात्- हे वायो! आप सैकड़ों- हजारों अश्वों द्वारा खींचे जाते हुए वाहनों पर आरूढ़ होकर अर्थात् तीव्र गति से हमारे इस यज्ञ में पधारें और इसके सेवन से स्वयं तृप्त हों तथा हम सबको भी हर्षित करें। आप अपने कल्याणकारी साधनों द्वारा हमारी सदा रक्षा करें।
(१३) इन्द्र (व्यवस्था) लाल ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र * हवे हवे सुहव*शूरमिन्द्रम्। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्र* स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः॥ ॐ इन्द्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२०.५०
अर्थात्- हम रक्षा करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। पालन करने वाले इन्द्रदेव का यज्ञ में बार- बार आवाहन करते हैं। पराक्रमी इन्द्रदेव का उत्तम रीति से आवाहन करते हैं। अत्यन्त समर्थ, अनेकों द्वारा स्तुति किये जाते हुए इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। वे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव हमारा कल्याण करें।
(१४) यम (न्याय )) सफेद ॐ सुगन्नुपन्थां प्रदिशन्नऽएहि ज्योतिष्मध्येह्यजरन्नऽआयुः।
अपैतु मृत्युममृतं मऽआगात्वैवस्वतोनो ऽ अभयं कृणोतु।
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
अर्थात्- सुगम मार्ग में प्रवेश करते हुए हमारे समीप आइये। हमारी आयु क्षीण न हो। विवस्वान् के पुत्र वे यमाचार्य हमसे मृत्यु को दूर करें, अमृतत्व से हमें संयुक्त करते हुए निर्भय करने की कृपा करें।
(१५) कुबेर (मितव्ययिता) काला
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे। स मे कामान् कामकामाय मह्यम्। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः। ॐ कुबेराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- तै.आ.१.३१
अर्थात्- विश्रवा-महर्षि के आत्मज, राजाधिराज कुबेर महाराज को हम नमस्कार करते हैं, जो बलपूर्वक जिसे चाहें, उसे अपने कोष की वर्षा से तृप्त करा सकते हैं। समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले वे हमारी श्रेष्ठ कामनाओं को पूर्ण करने की कृपा करें।
(१६) अश्विनीकुमार (आरोग्य) पीला
ॐ अश्विना तेजसा चक्षुः प्राणेन सरस्वती वीर्यम्। वाचेन्द्रो बलेनेन्द्राय दधुरिन्द्रियम्। ॐ अश्विनीकुमाराभ्यां नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२०.८०
अर्थात्- याजकों का कल्याण करने के लिए दोनों अश्विनीकुमारों ने स्वतेज से नेत्र ज्योति, देवी सरस्वती ने प्राण के साथ पराक्रम और इन्द्रदेव ने वाणी की सामर्थ्य के साथ इन्द्रिय- बल प्रदान किया।
(१७) सूर्य (प्रेरणा) काला
ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३३.४३, ३४.३१
अर्थात्- उषाकाल की रश्मियों रूपी स्वर्णिम रथ पर आरूढ़ सविता देव गहन तमिस्रा युक्त अन्तरिक्ष- पथ में भ्रमण करते हुए देवों और मनुष्यों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में नियोजित करते हैं। वे समस्त लोकों का निरीक्षण करते हुए निकलते हैं अर्थात् उन्हें प्रकाशित करते हैं।
(१८) चन्द्रमा (शान्ति) लाल ॐ इमं देवाऽ असपत्न * सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महतेजानराज्याय इन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विशऽ एष वोमी राजा सोमोस्माकं ब्राह्मणाना * राजा। ॐ चन्द्रमसे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -९.४०
अर्थात्- हे देवगण! महान् क्षात्रबल के सम्पादन के लिए, महान् राज्य पद के लिए, श्रेष्ठ जनराज्य के लिए, इन्द्रदेव के समान हर प्रकार से विभूतिवान् बनने के लिए, शत्रुओं से रहित अमुक पिता के पुत्र, अमुक माता के पुत्र को प्रजा- पालन के लिए अभिषिक्त करें। हे प्रजाजनो! आप सभी के लिए तथा हम ज्ञानी जनों के लिए भी यह राजा चन्द्र के समान आह्लादक है।
(१९) मङ्गल (कल्याण) सफेद
ॐ अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्याऽ अयम्। अपा * रेता * सि जिन्वति। ॐ भौमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३.१२
अर्थात्- यह अग्निदेव! (आदित्य रूप में) द्युलोक के शीर्ष रूप सर्वोच्च भाग में विद्यमान होकर, जीवन का सञ्चार करके, धरती का पालन करते हुए, जल में जीवनी शक्ति का सञ्चार करते हैं।
(२०) बुध (सन्तुलन) हरा
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स * सृजेथामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥
ॐ बुधाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१५.५४
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप जाग्रत् हों और प्रतिदिन यजमान को भी जागरूक करें। आप ‘इष्टापूर्त (यज्ञ- यागदिक पुण्य कार्य तथा कुआँ खोदना तालाब आदि बनाना) कार्यों के साथ यजमान से संयुक्त हों। आपकी कृपा से यजमान भी ‘इष्टापूर्त’ के कार्यों से युक्त हो। इस यज्ञ में यजमान के साथ सुसंगत हों। हे विश्वेदेवा! आपके सम्बन्ध से इष्टापूर्त्त कार्यों से निष्पाप हुआ यजमान देवताओं के योग्य सर्वश्रेष्ठ स्थान देवलोक में चिरकाल तक निवास करे।
(२१) बृहस्पति (अनुशासन) पीला ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवसऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। उपयामगृहीतोसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा। ॐ बृहस्पतये नमः। आवायमि,स्थाप्यालमि,ध्यायामि॥ -ऋ०२.२३.१५, २६.३
अर्थात्- हे बृहस्पते! जिस आत्मशक्ति से आप सबके स्वामी, पूज्य और सभी लोगों में आदित्य के समान तेजस्वी एवं सक्रिय होकर सर्वत्र सुशोभित होते हैं, जिस शक्ति से आप सबकी रक्षा करते हैं, उसी आत्मशक्ति से आप हम सब मनुष्यों को श्रेष्ठ धन प्रदान करें। आप राष्ट्र के निर्धारित नियमों द्वारा स्वीकार किये गये हैं। यह पद आपके योग्य है। अतः हम सब बृहस्पति पद के लिए आप को चुनते हैं। (२२) शुक्र (संयम) हरा ॐ अन्नात्परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत् क्षत्रं पयः सोमं प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान* शुक्रमन्धसइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतंमधु॥ ॐ शुक्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१९.७५
अर्थात्- वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों के साथ प्रजापति, परिस्रुुत हुए (निचोड़े हुए) अन्नों के रस में से सोमरसरूपी दुग्ध को पृथक् करके पान करते हैं और क्षात्रबल को धारण करते हैं। उक्त (ऋत) सत्य से ही (अगला) सत्य प्रकट होता है। यह अन्न रसरूप सोम, बल, अन्न, तेज (वीर्य), सामर्थ्य दुग्धादि पेय, अमृतोपम आनन्द और मधुर पदार्थ को उपलब्ध कराता है। (२३) शनिश्चर (तितिक्षा) लाल ॐ शन्नो देवीरभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शं योरभिस्रवन्तु नः। ॐ शनिश्चराय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३६.१२
अर्थात्- दिव्य जल हम सबके लिए अभीष्ट फलदायक तथा तृप्तिदायक बने। वह हमारे रोगों के शमन तथा अनिष्ट हटाने के लिए बरसता रहे। इस प्रकार हमारा सब प्रकार से कल्याण करे। (२४) राहु (संघर्ष) पीला
ॐ कया नश्चित्रऽआ भुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता। ॐ राहवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२७.३९
अर्थात्- सर्वदा वृद्धि करने वाले, अद्भुत शक्ति सम्पन्न हे इन्द्रदेव! किस रक्षण तथा व्यवहार क्रिया से प्रसन्न होकर आप सदैव हमारे मित्र रूप में प्रस्तुत होते हैं। (२५) केतु (साहस) लाल ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्याऽ अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः। ॐ केतवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -२९.३७ अर्थात्- अज्ञानी पुरुषों को सद्ज्ञान और रूपहीनों को सुन्दर स्वरूप प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! आप उषा के साथ समान रूप से उत्पन्न होते हैं। (२६) गङ्गा (पवित्रता) सफेद
ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः। सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित्॥ ॐ गङ्गायै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि ध्यायामि॥ -३४.११
अर्थात्- समान स्रोत वाली (श्रेष्ठ प्रवाहशील) पाँच सरिताएँ (नदियाँ) जिस प्रकार महानदी सरस्वती में समाहित हो जाती हैं, उसी प्रकार वही सरस्वती देश में पाँच (नदियों के) रूप में (प्रसिद्ध) हुई (अर्थात् विद्या पाँच प्रकार की प्रतिभाओं- श्रमपरक, विचारपरक, अर्थपरक, कलापरक और भावपरक को संयुक्त करके उन्हें प्रगतिशील बनाती है)। (२७) पितृ (दान) पीला
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोमीमदन्तपितरोतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥ ॐ पितृभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -१९.३६
अर्थात्- स्वधा (अन्न) को धारण करने वाले पितरों को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। स्वधा को धारण करने वाले पितामह को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। स्वधा को धारण करने वाले प्रपितामह को स्वधा संज्ञक अन्न प्राप्त हो। पितरों ने हविष्यान्न के रूप में समर्पित आहार को ग्रहण करके तृप्ति को प्राप्त किया। पितर तृप्त होकर हमें भी तृप्त करते हैं। हे पितृगण ! आप लोग शुद्ध होकर हमें भी पवित्र जीवन की प्रेरणा प्रदान करें।
(२८) इन्द्राणी (श्रमशीलता) सफेद
ॐ अदित्यै रास्नासीन्द्राण्याऽ उष्णीषः। पूषासि घर्माय दीष्व।। ॐ इन्द्राण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३८.३
अर्थात्- हे यज्ञीय ऊर्जे! आप अदिति की मेखला रूप हैं, इन्द्राणी (संगठक शक्ति) की पगड़ी (प्रतिष्ठा का चिह्न) हैं। आप पोषण देने में समर्थ हैं, घर्म (हितकारी कार्यों- यज्ञों) के लिए अपनी शक्ति को नियोजित करें। (२९) रुद्राणी (वीरता) काला ॐ या ते रुद्र शिवा तनूः अघोराऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि। ॐ रुद्राण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- १६.२
अर्थात्- हे रुद्रदेव! आप (अति उच्च) पर्वत की सुरक्षित गुहा में रहते हैं। आपका कल्याणकारी शान्तरूप पापों के विनाशक होने के कारण सौम्य और बलशाली भी है। अपने उसी मंगलमय रूप से हमारे ऊपर कृपा दृष्टि डालें।
(३०) ब्रह्माणी (नियमितता) पीला ॐ इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः। ॐ ब्रह्माण्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥- २०.८८
अर्थात्- हे इन्द्रदेव! अपनी अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर इस यज्ञ स्थल में आएँ। आपकी स्तुति करने वाले ऋत्विग्गण, सोम का शोधन संस्कार करने वाले हैं, सो आप समीप आकर इन हवियों को ग्रहण करें। (३१) सर्प (धैर्य) काला
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि, तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः। ॐ सर्पेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥, - १३.६
अर्थात्- जो भी सर्प (गमनशील स्वभाव वाले नक्षत्रलोक अथवा जीव) पृथिवी के प्रभाव क्षेत्र में हैं, अन्तरिक्ष द्युलोक में हैं, उन सभी सर्पों को हमारा नमन है। (३२) वास्तु (कला) हरा
ॐ वास्तोष्पते प्रति जानीहि अस्मान् स्वावेशो अनमीवो भवा नः। यत्त्वेमहे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ ॐवास्तुपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -ऋ० ७.५४.१
अर्थात्- हे वास्तोष्पते (गृह पालक देव)! आप हमें जगाएँ। हमारे घर में पुत्र- पौत्र आदि द्विपदों, गौ, अश्व आदि चतुष्पदों को नीरोग एवं सुखी करें। जो धन हम आपसे माँगें, वह हमें प्रदान करें।
(३३) आकाश (विशालता) नीला ॐ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्।
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। ॐ आकाशाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -७.११
अर्थात्- हे अश्विनीकुमारो! सत्य एवं मधुरता से युक्त अपनी उत्तम वाणी से हमारे इस यज्ञ को अभिषिञ्चित करें। हे उपांशु (पात्र)! मधुरता के लिए विख्यात अश्विनीकुमारों के निमित्त आपको नियमानुसार ग्रहण किया गया है। आप यज्ञशाला में अपने सुनिश्चित आसन पर बैठें- स्थापित हों।
नोट- पुस्तक के प्रारम्भ में लघुसर्वतोभद्र का चित्र दिया गया है, उसी के अनुसार निर्धारित नम्बरों पर पूजन करें।