Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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प्रारम्भिक यज्ञीय कर्मकाण्ड
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परिजन प्रायः पूछते हैं- दम्पति को कहाँ कैसे बैठायें? विभिन्न धर्मग्रन्थों में जो उल्लेख है, वह यहाँ दे रहे हैं-
व्रतबन्धे विवाहे च चतुर्थ्यां सहभोजने।
व्रते दाने मखे श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे।
सर्वेषु धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभा।
अभिषेके विप्रपादप्रक्षालने चैव वामतः।
अपि च- संस्कार्यः पुरुषो वाऽपि स्त्री वा दक्षिणतः सदा।
संस्कारकर्ता सर्वत्र तिष्ठेदुत्तरतः सदा।। -धर्मसिन्धु- ३/५१६
कर्मकाण्ड की व्यवस्था बनाकर, जाँचकर जब कर्मकाण्ड प्रारम्भ करना हो, तो सञ्चालक को सावधान होकर वातावरण को अनुकूल बनाना चाहिए। कुछ जयघोष बोलकर शान्त रहने की अपील करके कार्य प्रारम्भ किया जाए। सञ्चालक- आचार्य का काम करने वाले स्वयंसेवक को नीचे दिये गये अनुशासन के साथ कार्य प्रारम्भ करना चाहिए , वे हैं-
(१) व्यासपीठ नमन, (२) गुरुवन्दना
(३) सरस्वती वन्दना
(४) व्यास वन्दना।
ये चारों कृत्य कर्मकाण्ड के पूर्व के हैं। यजमान के लिए नहीं, सञ्चालक- आचार्य के लिए हैं। कर्मकाण्ड ऋषियों, मनीषियों द्वारा विकसित ज्ञान- विज्ञान से समन्वित अद्भुत कृत्य हैं, उस परम्परा का निर्वाह हमसे हो सके, इसलिए उस स्थान को तथा अपने आपको संस्कारित करने, उस दिव्य प्रवाह का माध्यम बनने की पात्रता पाने के लिए ये कृत्य किये जाते हैं।
व्यासपीठ नमन-
व्यासपीठ पर- सञ्चालक के आसन पर बैठने के पूर्व उसे श्रद्धापूर्वक नमन करें। यह हमारा आसन नहीं, व्यासपीठ है। इसके साथ एक पुनीत परिपाटी जुड़ी है। उस पर बैठकर उस परिपाटी के साथ न्याय कर सकें, इसके लिए उस पीठ की गरिमा- मर्यादा को प्रणाम करते हैं, तब उस पर बैठते हैं।
।। गुरु- ईश वन्दना।।
गुरु- गुरु व्यक्ति तक सीमित नहीं, एक दिव्य चेतन प्रवाह- ईश्वर का अंश है। चेतना का एक अंश जो अनुशासन व्यवस्था बनाता, उसकाउसका फल देता है- ईश्वर कहलाता है, दूसरा अंश जो अनुशासन की मर्यादा सिखाता है, उसमें प्रवृत्त करता है, वह गुरु है। आइये, गुरुसत्ता को नमन- वन्दन करें।
ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं, केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादि- लक्ष्यम्॥
एकं नित्यं विमलमचलं, सर्वधीसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं, सद्गुरुं तं नमामि॥१॥
अखण्डानन्दबोधाय, शिष्यसन्तापहारिणे।
सच्चिदानन्दरूपाय, तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥
अर्थात्- ब्रह्मानन्द स्वरूप, परम सुख देने वाले, केवल ज्ञान मूर्ति, द्वन्द्व (सुख- दुःख, लाभ- हानि आदि) से परे, आकाश के समान (व्यापक), तत्त्वमसि आदि महावाक्य के लक्ष्य भूत, एक, नित्य, विमल, अचल, सदा साक्षी स्वरूप, भाव (शुभ- अशुभ) से अतीत, तीनों गुणों (सत, रज, तम) से रहित (परे) उस सद्गुरु को नमस्कार करते हैं।
सरस्वती-
माँ सरस्वती विद्या एवं वाणी की देवी हैं। बोले गये शब्द में अन्तःकरण को प्रभावित करने योग्य प्राण पैदा हो, इस कामना- भावना के साथ माँ सरस्वती की वन्दना करें।
लक्ष्मीर्मेधा धरापुष्टिः,
गौरी तुष्टिः प्रभा धृतिः।
एताभिः पाहि तनुभिः,
अष्टाभिर्मां सरस्वति॥१॥
अर्थात्- लक्ष्मी, मेधा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति- इन आठ रूपों वाली देवी सरस्वती हमारी रक्षा करें।
सरस्वत्यै नमो नित्यं, भद्रकाल्यै नमो नमः।
वेदवेदान्तवेदाङ्ग, विद्यास्थानेभ्य एव च॥२॥
अर्थात्- वेद- वेदान्त तथा वेदाङ्ग- विद्या के स्वरूप वाली माता सरस्वती एवं भद्रकाली को बारम्बार नमस्कार है।
मातस्त्वदीय- पदपङ्कज -- भक्तियुक्ता,
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण,
भू- वह्नि- वायु-गगनाम्बु,
विनिमिर्तेन।।३।।
अर्थात्- हे माँ सरस्वति! जो लोग अन्य जनों का आश्रय त्याग कर, भक्ति- भाव हृदय से आपके चरण कमलों का भजन (सेवन) करते हैं, वे पञ्चतत्त्व- (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश- )) निर्मित शरीर से मुक्ति पा जाते हैं।
व्यास-
व्यासपीठ पर बैठकर कर्मकाण्ड सञ्चालन का जो उत्तरदायित्व उठाया है, उसके अनुरूप अपने मन, वाणी, अन्तःकरण, बुद्धि आदि को बनाने की याचना इस वन्दना के साथ करें।
व्यासाय विष्णुरूपाय, व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये, वासिष्ठाय नमो नमः॥१॥
अर्थात्- ब्रह्मनिधि (ब्रह्मज्ञान से परिपूर्ण) वसिष्ठ वंशज (वसिष्ठ के प्रपौत्र) विष्णु रूपी व्यास और व्यास रूपी विष्णु को नमस्कार है। विष्णु रूपी व्यास और व्यास रूपी विष्णु को नमस्कार है।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे, फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः।
-- ब्र०पु० २४५.७.११
अर्थात्- अत्यधिक बुद्धिशाली, विकसित कमल की तरह नेत्रों वाले, हे महर्षि व्यास! आपको नमस्कार है। आपने महाभारत रूपी तेल से परिपूर्ण ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित किया है।
॥ साधनादिपवित्रीकरणम्॥
सत्कार्यों, श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिये यथाशक्ति साधन, माध्यम भी पवित्र रखने पड़ते हैं। कर्मकाण्ड में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों, साधनों में सन्निहित अशुभ संस्कार हटाये जाते हैं, उन्हें मन्त्र शक्ति से नष्ट किया जाता है एवं देवत्व का संस्कार जगाया जाता है। एक प्रतिनिधि जल लेकर मंत्र पाठ के साथ पल्लवों/ कुशाओं या पुष्पों से सभी उपकरणों, साधकों, पूजन सामग्रियों पर जल सिंचन करें। भावना करें मन्त्र शक्ति के प्रभाव से उनमें कुसंस्कारों के पलायन और सुसंस्कारों के उभार स्थापन का क्रम चल रहा है।
ॐ पुनाति ते परिस्रुत* सोम* सूर्यस्य दुहिता। वारेण शश्वता तना। -१९.४
अर्थात्- हे यजमान! जिस प्रकार सूर्यपुत्री उषा सोम को शाश्वत छन्ना (प्रकृतिगत शोधन प्रक्रिया) से पवित्र करती है, उसी प्रकार श्रद्धा तुम्हें पवित्र करती है। (देवशक्तियों के लिए उपयोगी बनाती है।)
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा। -१९.३९
अर्थात्- देवगण हमें पवित्र बनाएँ। सुविचारों से सुवासित मन एवं बुद्धि हमें पवित्र बनाएँ। सम्पूर्ण प्राणी हमें पवित्र बनाएँ। हे जातवेदः(अग्निदेव)! आप भी हमें पवित्र बनाएँ।
ॐ यत्ते पवित्रमर्चिषि अग्ने विततमन्तरा।
ब्रह्म तेन पुनातु मा॥ -१९.४१
अर्थात्- हे अग्ने! आपकी तेजस्वी ज्वालाओं के मध्य में जो परम पवित्र, सत्य, ज्ञान एवं अनन्त रूप विविध लक्षणों से युक्त ब्रह्म विस्तृत हुआ है, उससे हमारे जीवन को पवित्र करें।
ॐ पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः।
यः पोता स पुनातु मा।- १९.४२
अर्थात्- जो पवित्रता प्रदान करने वाले विलक्षण द्रष्टा वायुदेव सर्वज्ञाता और स्वयं पवित्र हैं, वे आज अपनी पवित्रता से हमारे जीवन को पवित्र करें।
ॐ उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सवेन च।
मां पुनीहि विश्वतः॥ -१९.४३
अर्थात्- हे सर्वप्रेरक सविता देव! आप अपने दोनों प्रकार के स्वरूपों से अर्थात् अपनी (यज्ञ के लिए) आज्ञा से और प्रत्यक्ष पवित्र स्वरूप से, सब ओर से हमारे जीवन को पवित्र बनाएँ।
॥ मङ्गलाचरणम्॥
प्रत्येक शुभ कार्य को सम्पन्न करने से पहले वाले याजकों, साधकों के कल्याण,उत्साह अभिवर्धन, सुरक्षा और प्रशंसा की दृष्टि से पीले अक्षत और पुष्प की वर्षा कर स्वागत किया जाता है। मन्त्र के साथ भावना की जाय, देव अनुग्रह की वर्षा हो रही है, देवत्व के धारण तथा निर्वाह की क्षमता का विकास हो रहा है।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रंपश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा * सस्तनूभिः व्यशेमहि देव हितं यदायुः॥ -२५.२१
अर्थात्- याजकों के पोषक हे देवताओ! हम सदैव कल्याणकारी वचनों को ही अपने कानों से सुनें, नेत्रों से सदैव कल्याणकारी दृश्य ही देखें। हे देव! परिपुष्ट अंगों से युक्त सुदृढ़ शरीर वाले हम आपकी वन्दना करते हुए- लोक हितकारी कार्यों को करते हुए पूर्ण आयु तक जीवित रहें।
॥ पवित्रीकरणम्॥
देवत्व से जुड़ने की पहली शर्त पवित्रता है। उन्हें शरीर और मन से, आचरण और व्यवहार से शुद्ध व्यक्ति ही प्रिय होते हैं। इसीलिये यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कार्य में भाग लेने के लिये शरीर और मन को पवित्र बनाना होता है। बायें हाथ की हथेली में एक चम्मच जल लें, दायें हाथ से ढकें, मन्त्र से अभिपूरित जल शरीर पर छिड़कें, भाव करें हम अन्दर और बाहर से पवित्र हो रहे हैं।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु।
-वा०पु० ३३.६
अर्थात्- पवित्र अथवा अपवित्र किसी भी अवस्था में कोई क्यों न हो, जो पुण्डरीकाक्ष (कमलवत् निर्लिप्त नेत्रों वाले भगवान्- विष्णु) का स्मरण करता है, वह अन्तर्बाह्य (शरीर- मन) से पवित्र हो जाता है। हे परमात्मन्! हमें पवित्र करो, हे पुण्डरीकाक्ष ! हमें पवित्र करो, हे पुण्डरीकाक्ष! हमें पवित्र करो।
॥ आचमनम्॥ आचमन का अर्थ है क्रियाशक्ति, विचारशक्ति और भावशक्ति का परिमार्जन इन तीनों ही केन्द्रों में शान्ति, शीतलता, सात्विकता और पवित्रता का समावेश हो। इन्हीं भावनाओं के साथ तीन आचमनी जल स्वाहा के साथ मुख में डालें।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥१॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा॥२॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा॥३॥
-आश्व०गृ०सू० १.२४ मा०गृ०सू० १.९
अर्थात्- हे अमृत स्वरूप जल (देवता) तुम मेरे बिस्तर (आधार) हो। हे अमृत स्वरूप जल (देवता) तुम मेरे आच्छादन (उपकारक) हो। हे देव! मुझे सत्य, यश और श्री- समृद्धि से सम्पन्न बनाओ।
॥ शिखावन्दनम्॥
शिखावन्दन- शिखा का दूसरा नाम चोटी भी है। चोटी शिखर स्तर की होती है। हम भी शिखर स्तर के उच्च विचारों, भावनाओं और आदर्शों से युक्त हों। इन्हीं भावनाओं के साथ बायें हाथ की हथेली में जल लेकर दायें हाथ की उँगलियों को गीलाकर शिखा स्थान का स्पर्श करें।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ -सं.प्र.
अर्थात्- हे चैतन्य- स्वरूपे महामाये! (ब्रह्म की पराशक्ति) दिव्य तेज से सम्पन्न देवि! मेरे शिखा स्थान पर विराजमान होकर मुझे दिव्य तेज प्रदान कीजिए।
॥ प्राणायामः॥
श्रेष्ठता के संवर्धन और निक्रिष्टता के निष्कासन के लिये विशिष्ट प्राण शक्ति की जरूरत होती है। प्राणायाम की क्रिया द्वारा उसी शक्ति को अन्दर धारण किया जाता है। कमर सीधी करके बैठें, धीरे- धीरे गहरी श्वास अन्दर खींचें, यथाशक्ति अन्दर रोकें, धीरे- धीरे बाहर निकालें, थोड़ी देर बिना श्वास के रहें। भावना करें शरीरबल, मनोबल और आत्मबल में वृद्धि हो रही है।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।
ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ। -तै०आ० १०.२७
अर्थात्- ॐ अर्थात् परमात्मा भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम् -इन सात लोकों में संव्याप्त है। उस वरण करने योग्य भर्ग स्वरूप (पापनाशक) दिव्य सविता देवता का ध्यान करता हूँ, जो (वह) हमारी बुद्धि को (सत्कर्म में) प्रेरित करे। ब्रह्म (परमात्मा) आपः (जल) रूप, ज्योति (तेज) रूप, रस (आनन्द) रूप तथा अमृतरूप है, भूः भुवः आदि समस्त लोकों में विद्यमान है।
॥ न्यासः॥
न्यास का अर्थ होता है धारण करना, हम भी ऋषि- देवताओं की तरह देवत्व धारण कर सकें, इसके लिये न्यास किया जाता है। बायें हाथ की हथेली में जल लें, दायें हाथ की उँगलियों को गीला कर, मन्त्र के साथ निर्दिष्ट अंगों को बायें से दायें स्पर्श करते चलें। भावना करें हमारी इन्द्रियों में देवत्व की स्थापना हो रही है।
ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)
ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु।
(समस्त शरीर पर)
-पा. गृ. सू. १.३.२५
अर्थात्- हे परमात्मन्! मेरे मुख में वाणी (वाक् शक्ति) हो। मेरी नासिका में प्राण तत्त्व हो। मेरी आँखों में चक्षु (दर्शन शक्ति) हो। मेरे कानों में श्रवण (की शक्ति) हो। मेरी भुजाओं में बल (बलिष्ठता) हो। मेरे समस्त अङ्ग दोषरहित होकर मेरे साथ सहयोग करें।
॥ पृथ्वीपूजनम्॥
वेदों में कहा गया है 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः' अर्थात् धरती हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। धरती माता के ऋण से उऋण होने और उनके जैसी उदारता, सहनशीलता, विशालता के गुणों को धारण करने के भाव से एक आचमनी जल धरती पर छोड़ें तथा प्रणाम करें।
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका, देवि! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम्॥ -सं०प्र०
अर्थात्- हे पृथ्विी ! तुम भगवान् विष्णु के द्वारा धारण की गयी हो और तुमने सभी लोकों को धारण किया है। हे देवि! तुम मुझे भी धारण करो और मेरे आसन को पवित्र करो।
॥ सङ्कल्पः॥
सङ्कल्प करने से मनोबल बढ़ता है। मन के ढीलेपन के कुसंस्कार पर अंकुश लगता है। स्थूल घोषणा से सत्पुरुषों का तथा मन्त्रों द्वारा की गई घोषणा से देवशक्तियों का मार्गदर्शन और सहयोग मिलता है। दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लेकर श्रद्धा- निष्ठापूर्वक अभीष्ट कार्य सम्पादन हेतु सङ्कल्प लें।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो
महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया
प्रवर्त्तर्मानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये
परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे
वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे
भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते..........क्षेत्रे..........
स्थले मासानां मासोत्तमेमासे..........
मासे..........पक्षे..........तिथौ..........
वासरे.......... गोत्रोत्पन्नः
..........नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय,
दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय,
आत्मकल्याणाय, वातावरण-
परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्य- कामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये,
अस्मै प्रयोजनाय च कलशादि-
आवाहितदेवता ...............कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
अर्थात्- विष्णु स्वरूप परमात्मा की आज्ञा से प्रवर्तित (प्रारम्भ) होने वाले श्री ब्रह्माजी के आज दूसरे परार्द्ध (दिन के अपराह्न काल) में, श्री श्वेत वाराहकल्प में, वैवस्वत मन्वन्तर में, भूलोक में, भरतखण्ड के आर्यावर्त्त (भारत) देश के अन्तर्गत क्षेत्र
में.............स्थान
में.............मासोत्तम मास
में..............पक्ष
में............तिथि
में..............दिन
में.............गोत्र
में उत्पन्न हुआ .............नामवाला मैं, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, दुृष्प्रवृत्ति का उन्मूलन करने के लिए लोककल्याण और आत्मकल्याण के लिए, वातावरण को परिष्कृत करने के लिए उज्ज्वल भविष्य की कामना- पूर्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ करूँगा और इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए कलश आदि आवाहित देवता के पूजन पूर्वक ....................कर्म सम्पन्न करने के लिए सङ्कल्प करता हूँ।
॥ यज्ञोपवीतधारणम्॥
यज्ञीय दर्शन को सदा- सर्वदा स्मरण रखने, धारण करने के लिये तथा व्रतशील जीवन जीने की प्रेरणा लेते हुये मन्त्र के साथ यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं,
प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं,
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।
-पार०गृ०सू० २.२.११
अर्थात्- परम पवित्र यज्ञोपवीत को प्रजापति ने सहजतया (सबके लिए) सर्वप्रथम विनिर्मित किया है। यह (यज्ञोपवीत )) आयुष्य, अग्र्य(श्रेष्ठता), यश, बल और तेजस्विता देने वाला है।
॥ जीर्णोपवीत- विसर्जनम्॥
नया यज्ञोपवीत धारण करने के बाद मन्त्र के साथ पुराना यज्ञोपवीत निकाल दें। पुराने यज्ञोपवीत को किसी देववृक्ष पर लटका दें या जमीन में गाड़ दें।
ॐ एतावद्दिनपर्यन्तं,
ब्रह्मत्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथा सुखम्॥
अर्थात्- हे ब्रह्मसूत्र- यज्ञोपवीत! इतने दिनों तक मैंने तुम्हें धारण किया, अब जीर्ण हो जाने से तुम्हारा परित्याग कर रहा हूँ। तुम सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान को चले जाओ।
॥ चन्दनधारणम्॥
शरीर की सारी क्रियाओं का सञ्चालन विचारों से, मस्तिष्क से होता है। हमारा मस्तक सदा शान्त और विवेकयुक्त बना रहे। विचारों में देवत्व का, श्रेष्ठता का सञ्चार होता रहे; ताकि हमारे क्रियाकलाप श्रेष्ठ हों। इसी भाव से दायें हाथ की अनामिका उँगली के सहारे मस्तक पर तिलक लगायें।
ॐ चन्दनस्य महत्पुण्यं,
पवित्रं पापनाशनम्।
आपदां हरते नित्यं,
लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा॥
अर्थात्- चन्दन धारण करना महान् पुण्यदायक, पवित्रतावर्धक, पाप नाशक, आपत्ति निवारक और नित्य प्रति समृद्धिवर्धक है।
॥ रक्षासूत्रम्॥
यह वरण सूत्र है। आचार्य की ओर से प्रतिनिधियों द्वारा बाँधा जाना चाहिए। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दायें हाथ में तथा महिलाओं के बायें हाथ में कलावा बाँधा जाता है। जिस हाथ में रक्षा सूत्र बँधवायें, उसकी मुट्ठी बाँधकर रखें, दूसरा हाथ सिर पर रखें। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाय।
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति
दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति
श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ -१९.३०
अर्थात्- व्रतपूर्वक यज्ञानुष्ठान सम्पन्न करने पर मनुष्य (दीक्षा) दक्षता को प्राप्त करता है, दक्षता से प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, प्रतिष्ठा से श्रद्धा की प्राप्ति होती है और श्रद्धा से सत्य (रूप परमेश्वर) को प्राप्त करता है।
॥ कलशपूजनम्॥
भारतीय संस्कृति में कलश का बड़ा महत्व है। वैदिक काल से ही शुभ अवसरों पर कलश स्थापना एवं पूजन का प्रचलन रहा है। कलश विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक है, इसमें सभी देव शक्तियाँ निवास करती हैं। सभी में जल जैसी शीतलता एवं कलश जैसी पात्रता का विकास हो इस भाव से एक प्रतिनिधि जल, गन्ध- अक्षत, पुष्प, धूप- दीप, नैवेद्य से पूजन करें।
ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः तदा
शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश * समानऽ आयुः प्रमोषीः। -- १८.४९
अर्थात्- वेद मन्त्रों द्वारा अभिनन्दित हे वरुणदेव! हवियों का दान देकर यजमान लौकिक सुखों की आकांक्षा करता है। हम वेद- वाणियों के ज्ञाता (ब्राह्मण) यजमान की तुष्टि एवं प्रसन्नता के निमित्त स्तुतियों द्वारा आपकी प्रार्थना करते हैं। सबके द्वारा स्तुत्य देव! इस स्थान में आप क्रोध न करके हमारी प्रार्थना सुनें। हमारी आयु को किसी प्रकार क्षीण न करें।
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य
बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ*
समिमं दधातु। विश्वेदेवास ऽ इह
मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ। -२.१३
अर्थात्- हे सवितादेव! आपका वेगवान् मन आज्य (घृत) का सेवन करे। बृहस्पति देव इस यज्ञ को अनिष्ट रहित करके इसका विस्तार करें, इसे धारण करें। सभी देवी- शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित हों- सन्तुष्ट हों। (सविता देव की ओर से कथन) तथास्तु- प्रतिष्ठित हों।
॥ कलशप्रार्थना॥
सभी परिजन कलश में प्रतिष्ठित देव शक्तियों की हाथ जोड़कर प्रार्थना करें।
ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्यस्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥१॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे,
सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः,
सामवेदो ह्यथर्वणः॥२॥
अङ्गैश्च सहिताः सर्वे,
कलशन्तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री,
शान्ति पुष्टिकरी सदा॥३॥
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि,
त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
शिवः स्वयं त्वमेवासि,
विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥४॥
आदित्या वसवो रुद्रा,
विश्वेदेवाः सपैतृकाः।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि,
यतः कामफलप्रदाः॥५॥
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव।
सान्निध्यं कुरु मे देव!
प्रसन्नो भव सर्वदा॥६॥
अर्थात्- कलश के मुख स्थान पर विष्णु, कण्ठ स्थान में रुद्र, मूल (पेंदी) स्थान में ब्रह्मा, मध्य स्थान में मातृका गण (षोडश मातृका), कुक्षि (गर्भ- पेट) स्थान में सभी सागर, सातों द्वीपों वाली धरती, ऋग्, यजु, साम और अथर्ववेद तथा छहों अङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष) सभी कलश में विद्यमान हैं। यहीं (कलश मध्य में) गायत्री, सावित्री, शान्ति, पुष्टिदायी- शक्ति सर्वदा निवास करती है। हे कलश! तुममें सभी प्राणी और सभी प्रजापति ब्रह्मा हो। हे कलश देवता! आदित्यगण (१२ सूर्य), वसुगण (८ वसु), रुद्रगण (११ रुद्र), विश्वेदेवगण (९ विश्वे देव), समस्त पितृगण आदि तुममें निवास करते हैं, जो कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हे जल से उत्पन्न कलश!आपकी प्रसन्नता से यह यज्ञ सम्पन्न करना चाहता हूँ। हे देव! आप यहाँ उपस्थित रहें और सदा- सर्वदा हम सब पर प्रसन्न रहें।
॥ दीपपूजनम्॥
दीपक को सर्वव्यापी चेतना का प्रतीक माना गया है। दीपक का गुण है ऊर्ध्वगमन और सबको प्रकाशित करना। हम भी दीपक की तरह महानता के पथ पर चलें और सबको ज्ञान का आलोक बाँटे और सबके जीवन के दुःख और अँधेरे को मिटाने का प्रयास करें, इसी भावना के साथ दीप देवता का पञ्चोपचार पूजन करें।
ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा
सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा
अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा
सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा। -३.९
अर्थात्- अग्नि तेजरूप है तथा तेज अग्निरूप है, हम तेजरूपी अग्नि में हवि देते हैं। सूर्य ज्योतिरूप है एवं ज्योति सूर्यरूप है, हम ज्योतिरूपी अग्नि में आहुति देते हैं। अग्नि वर्चस्रूप है और ज्योति वर्चस्रूप है, हम वर्चस्रूपी अग्नि में हवन करते हैं। सूर्य ब्रह्म तेज का रूप है तथा ब्रह्मवर्चस सूर्यरूप है, हम उसमें हवि प्रदान करते हैं। ज्योति ही सूर्य है और सूर्य ही ज्योति है, हम उसमें (इस मन्त्र से) आहुति समर्पित करते हैं।
॥ देवावाहनम्॥
निरन्तर दैवी अनुदान प्रदान करने वाली देवशक्तियों का, सद्गुणों और सत्कर्मों में अभिवृद्धि के लिये आवाहन- पूजन किया जाता है।
गुरु-
प्रत्येक शुभ कार्य में दैवी अनुग्रह आवश्यक है। इस यज्ञीय कार्य में सर्वप्रथम गुरुसत्ता का आवाहन करते हैं। वे हमारे अन्दर के अज्ञान को हटा कर ज्ञान को प्रतिष्ठित करें। हे गुरुदेव! आप ही शिव हैं, आप ही विष्णु हैं। आप हमारे सद्ज्ञान और सद्भाव को बढ़ाते रहें और हम सब इस यज्ञीय कार्य को सफल और सार्थक बना सकें।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥१॥
अर्थात्- गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरुदेव ही महेश्वर हैं। गुरु ही परब्रह्म हैं, उन श्रीगुरु को नमस्कार है।
अखण्डमण्डलाकारं,
व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन,
तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥ -गु०गी० ४३,४५
अर्थात्- जिस (परब्रह्म) ने अखण्डमण्डलाकार चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, उस (ब्रह्म) पद को जिनने दिखला दिया है, उन श्री गुरु को नमस्कार है।
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै,
श्रद्धा- प्रज्ञायुता च या॥३॥
अर्थात्- माता के समान लालन- पालन करने वाली, पिता के समान मार्गदर्शन प्रदान करने वाली, श्रद्धा और प्रज्ञा के स्वरूप वाली उस गुरुसत्ता को नमस्कार है। गायत्री- शास्त्रों में कहा गया है गायत्री सर्वकामधुक अर्थात् गायत्री समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। हे माँ! हमें सद्बुद्धि देना, जिससे हम सत्कर्म करें और सद्कार्यों से सद्गति को प्राप्त कर सकें। इस भाव से पूजन करें।
ॐ आयातु वरदे देवि!
त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि!
गायत्रिच्छन्दसां मातः!
ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥४॥ -सं०प्र०
अर्थात्- हे वरदायिनि देवि! त्र्यक्षर स्वरूपा (अ, उ, म्) ब्रह्मवादिनी (मन्त्र प्रवक्ता), ब्रह्म की उद्भाविका गायत्री देवि! आप छन्दों (वेदों) की माता हैं! आप यहाँ आयें, आपको नमस्कार है।
ॐ स्तुता मया वरदा
वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्। -अथर्व० १९.७१.१
अर्थात्- हम साधकों द्वारा स्तुत (पूजित) हुई, अभीष्ट फल प्रदान करने वाली, वेदमाता (गायत्री) द्विजों को पवित्रता और प्रेरणा प्रदान करने वाली हैं। आप हमें दीर्घ जीवन, प्राणशक्ति, सुसन्तति, श्रेष्ठ पशु (धन), कीर्ति, धन- वैभव और ब्रह्मतेज प्रदान करके ब्रह्मलोक के लिए प्रस्थान करें।
गणेश- अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं,
पूजितो यः सुरासुरैः।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै, गणाधिपतये नमः ॥५॥
अर्थात्- जो अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए देवताओं- दैत्यों द्वारा पूजे गये हैं और सम्पूर्ण विघ्नों को समाप्त कर देने वाले हैं, उन गणाधिपति(प्रमथादि गणों के स्वामी) को नमस्कार है।
गौरी- सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थसाधिके!
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि, नारायणि! नमोऽस्तु ते॥६॥
अर्थात्- सभी का सब प्रकार से मङ्गल करने वाली शिवा (कल्याणकारिणि)! सभी कार्यों को पूर्ण करने वाली, शरणदात्री, त्रिनेत्रधारिणी, गौरी, नारायणी देवि! (महादेवि) आपको नमस्कार है।
हरि- शुक्लाम्बरधरं देवं, शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् , सर्वविघ्नोपशान्तये॥७॥
सर्वदा सर्वकार्येषु, नास्ति तेषाममंगलम्।
येषां हृदिस्थो भगवान्, मङ्गलायतनो हरिः॥८॥
अर्थात्- शुक्ल (श्वेत) वस्त्र धारण करने वाले, दिव्य गुणों से युक्त, चन्द्र सदृश (आह्लादक) वर्ण वाले, चतुर्भुज, प्रसन्न मुख (भगवान् श्रीहरि) का सम्पूर्ण विघ्नों की परिसमाप्ति के लिए ध्यान करना चाहिए। सर्वदा, सभी कार्यों में उसका अमङ्गल नहीं होता है, जिसके हृदय में मंगल स्वरूप भगवान् श्रीहरि विराजमान होते हैं।
सप्तदेव-
विनायकं गुरुं भानुं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान्।
सरस्वतीं प्रणौम्यादौ, शान्तिकार्यार्थसिद्धये॥९॥
अर्थात्- शान्तिपूर्वक सभी कार्यों की पूर्णता के लिये सर्वप्रथम विनायक (गणेश), गुरु, सूर्यदेव, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और देवी सरस्वती को प्रणाम करता हूँ।
पुण्डरीकाक्ष- मङ्गलं भगवान् विष्णुः,
मङ्गलं गरुडध्वजः।
मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो,
मङ्गलायतनो हरिः॥१०॥
अर्थात्- भगवान् विष्णु मङ्गलदायक हैं। गरुडध्वज (गरुडाङ्कित ध्वज वाले भगवान् विष्णु) मङ्गलकारी हैं। पुण्डरीकाक्ष (निर्लिप्त नेत्र वाले भगवान् विष्णु) मङ्गल स्वरूप हैं। हरि (पापों को हर लेने वाले भगवान् विष्णु) मङ्गल के आयतन (आश्रय) हैं।
ब्रह्मा-
त्वं वै चतुर्मुखो ब्रह्मा, सत्यलोकपितामहः।
आगच्छ मण्डले चास्मिन्, मम सर्वार्थसिद्धये॥११॥
अर्थात्- आप निश्चित रूप से चतुर्मुख ब्रह्मा (सृष्टिकर्त्ता), सत्यलोक (सत्य पर दृढ़ रहने वाले) पितामह (सभी के पोषणकर्ता) हैं। मेरे सर्वार्थसिद्धि (सभी अभीष्ट की पूर्ति) के लिए आप इस मण्डल (स्थान) में आकर विराजमान हों।
विष्णु-
शान्ताकारं भुजगशयनं, पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं,
मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं,
योगिभिर्ध्यानगम्यं,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं, सर्वलोकैकनाथम्॥१२॥
अर्थात्- शान्ताकार (शान्त प्रकृति वाले), भुजगशायी (शेष नाग पर शयन करने वाले), सुरेश (देवों के स्वामी), विश्वाधार (संसार के आधारभूत), गगन सृदश (आकाशवत्- सर्वत्र व्याप्त रहने वाले), मेघ के समान वर्ण वाले, शुभाङ्ग (श्रेष्ठ अंग- अवयव वाले), लक्ष्मीकान्त (लक्ष्मी के स्वामी), कमलनयन (कमल जैसे नेत्र वाले), योगियों द्वारा ध्यान किये जाने वाले, भवसागर का भय दूर करने वाले तथा सभी लोकों के एकमात्र स्वामी विष्णु की (मैं) वन्दना करता हूँ।
शिव-
वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्, वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम्।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ,,
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शङ्करम्॥१३॥
अर्थात्- उमापति, देवताओं के गुरु, देव (शिव) की वन्दना करता हूँ, जगत् के कारणभूत (भगवान् शङ्कर) की वन्दना करता हूँ, सर्पों के आभूषण वाले, मृग (चर्म) धारण करने वाले (शङ्कर) की वन्दना करता हूँ। पशुओं (जीवात्मा) के स्वामी (महेश) की वन्दना करता हूँ। सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि रूप नेत्र वाले (त्रिनेत्र) की वन्दना करता हूँ, मुकुन्द (विष्णु के) प्रिय (महेश्वर) की वन्दना करता हूँ। भक्तजनों को आश्रय देने वाले (आशुतोष) की वन्दना करता हूँ तथा कल्याणकारी शुभदाता (अवघढ़ दानी) की वन्दना करता हूँ।]
त्र्यम्बक-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥१४॥ ३.६०
अर्थात्- सुगन्धि (सद्गुण) और पुष्टिवर्धक (पोषण करने वाले) त्र्यम्बक (त्रिनेत्र शिव) का मैं यजन (पूजन) करता हूँ, (वे देव) मुझे अपने अमृत (गुणों) से उर्वारुक (पकने के बाद फल के द्वारा डण्ठल छोड़ देने) के समान मृत्यु के बन्धन से मुक्त करें, अमृतत्त्व से नहीं।
दुर्गा- दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥१५॥
अर्थात्- हे देवि दुर्गे! (समस्त) प्राणियों के द्वारा स्मृत (पूजित) हुई तुम उनके समस्त भय को दूर कर देती हो। स्वस्थजनों के द्वारा स्मृत होने पर उन्हें सद्बुद्धि तथा अत्यधिक शुभ- कल्याण प्रदान करती हो। हे दारिद्र्य, दुःख और भय दूर करने वाली देवि! सभी का उपकार करने के लिए सदैव सरस हृदय वाली तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है? अर्थात् कोई नहीं।
सरस्वती- शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमां, आद्यां जगद्व्यापिनीं,
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां, जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम्,
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं, बुद्धिप्रदां शारदाम्॥१६॥
अर्थात्- जो शुक्लवर्ण वाली, ब्रह्म विचार (वेदों का ज्ञान) के सार स्वरूप, अत्यधिक श्रेष्ठ, आद्यशक्ति, जगत् में (सर्वत्र) व्याप्त रहने वाली, वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, अभयदान देने वाली, अज्ञानान्धकार को दूर करने वाली, हाथ में स्फटिक की माला धारण करने वाली, (श्वेत) कमल के आसन पर विराजमान तथा सद्बुद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन परमेश्वरी (सर्वसमर्थ) भगवती (ऐश्वर्य शालिनी) देवी सरस्वती को नमस्कार है।
लक्ष्मी-
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो मऽआवह॥१७॥
अर्थात्- सरस हृदय वाली, हाथी पर सवारी करने वाली, पोषण प्रदान करने वाली, सुवर्ण (सुन्दर वर्ण) वाली, सोने की माला धारण करने वाली, सूर्य शक्ति स्वरूपा अर्थात् सूर्य की पत्नी (संज्ञा) स्वरूपा, स्वर्णमयी (समृद्धिशाली) अग्नि की शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी देवि! मैं आपका आवाहन करता हूँ।
काली- कालिकां तु कलातीतां, कल्याणहृदयां शिवाम्।
कल्याणजननीं नित्यं, कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥१८॥
अर्थात्- मैं सदा कलाओं से परे, कल्याणकारी हृदय वाली, शिवास्वरूपा,कल्याणों की जन्मदात्री, कल्याणमयी देवी कालिका (काली) की पूजा करता हूँ।
गङ्गा- विष्णुपादाब्जसम्भूते, गङ्गे त्रिपथगामिनि।
धर्मद्रवेति विख्याते, पापं मे हर जाह्नवि॥१९॥
अर्थात्- भगवान् विष्णु के चरण कमल से निःसृत, त्रिपथगामी (आकाश, भू, पाताल में गमन करने वाली),धर्म- द्रव (सजल धर्म) के नाम से विख्यात हे जाह्नवि! (राजा जह्नु के कान से निष्पन्न गङ्गे!) मेरे पापों का हरण करो।
तीर्थ-
पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरितस्तथा।
आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥२०॥
अर्थात्- पुष्कर आदि तीर्थ तथा गङ्गा आदि नदियाँ पूजा के समय, मुझे पवित्र करने के लिए सदैव यहाँ उपिस्थत रहें।
नवग्रह-
ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी, भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः,सर्वेग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु॥२१॥
अर्थात्- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चन्द्र, भूमिसुत (मङ्गल) बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सभी ग्रह शान्तिदायक हों।
षोडशमातृका- गौरी पद्मा शची मेधा,
सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा,
मातरो लोकमातरः ॥२२॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता।
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥२३॥
अर्थात्- गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, माताएँ, लोक माताएँ, धृति, पुष्टि, तुष्टि तथा अपनी कुल देवी ये सोलह पूजनीया मातृकाएँ गणेश से भी अधिक वृद्धि प्रदान करने वाली हैं।
सप्तमातृका-
कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा, सिद्धिः प्रज्ञा सरस्वती। माङ्गल्येषु प्रपूज्याश्च, सप्तैता दिव्यमातरः॥२४॥
अर्थात्- कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, सिद्धि, प्रज्ञा और सरस्वती- ये सातों दिव्य माताएँ सभी माङ्गगलिक कृत्यों में पूजनीय होती हैं।
वास्तुदेव- नागपृष्ठसमारूढं, शूलहस्तं महाबलम्।
पातालनायकं देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥२५॥
अर्थात्- हाथी की पीठ पर आसीन, हाथ में शूल (त्रिशूल) धारण किये हुए, महान् बलशाली पाताल के नायक (स्वामी) वास्तुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।
क्षेत्रपाल-
क्षेत्रपालान्नमस्यामि, सर्वारिष्टनिवारकान्। अस्य यागस्य सिद्ध्यर्थं, पूजयाराधितान् मया॥२६॥
अर्थात्- इस यज्ञ की सिद्धि (सफलता) के लिए मेरी पूजा (सम्मान) से आराधित (आवाहित- प्रार्थित) हुए सभी अरिष्टों (विघातकों) को दूर करने वाले क्षेत्रपालों को (मैं) नमस्कार करता हूँ।
॥ सर्वदेवनमस्कारः॥
नमस्कार का अर्थ है सम्मान, हमारा झुकाव देवत्व (आदर्शों )) की ओर हो, इसी भाव से सभी देव शक्तियों को नमन करें।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।
अर्थात्- सिद्धि और बुद्धि के सहित श्रीगणेश जी को नमस्कार है।
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
अर्थात्- लक्ष्मी और नारायण को नमस्कार है।
ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः।
अर्थात्- उमा और महेश्वर को नमस्कार है।
ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः।
अर्थात्- वाणी और हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा जी) को नमस्कार है।
ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः।
अर्थात्- शची इन्द्राणी और पुरन्दर (इन्द्र को) नमस्कार है।
ॐ मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः।
अर्थात्- माता- पिता के चरण कमलों को नमस्कार है।
ॐ कुलदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- कुल (वंश) के देवताओं को नमस्कार है।
ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- इष्ट (इच्छित) फल प्रदाता देवताओं को नमस्कार है।
ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- ग्राम (समूह या गाँव) के देवताओं को नमस्कार है।
ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- स्थानीय देवताओं को नमस्कार है।
ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- वास्तु (वस्तुओं के अधिष्ठाता) देवताओं को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
अर्थात्- समस्त देवों को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
अर्थात्- सभी ब्राह्मणों (ब्रह्मपरायणों) को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यस्तीर्थेभ्यो नमः।
अर्थात्- सभी तीर्थों (तार देने वालों) को नमस्कार है।
ॐ एतत्कर्मप्रधान श्रीगायत्रीदेव्यै नमः।
अर्थात्- इस (देवयजन) कार्य की प्रधान देवी गायत्री माता को नमस्कार है।
ॐ पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।
अर्थात्- उपर्युक्त पुण्याहवाचन पुण्य एवं दीर्घायु प्रदान करे।
॥ षोडशोपचारपूजनम्॥
देवशक्तियाँ पदार्थों की भूखी नहीं। पदार्थों को समर्पण के समय जो श्रद्धा- भावना उमड़ती है, भगवान् उसी से सन्तुष्ट होते हैं। ऐसी भावनाओं को सँजोये हुये, प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन, देवशक्तियों का पूजन क्रमशः बताये गये पदार्थों से करें।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि॥१॥
अर्थात्- सभी देवताओं को नमस्कार है। सभी देवताओं को आवाहित एवं स्थापित करता हूँ।
आसनं समर्पयामि॥२॥
अर्थात्- आसन प्रदान करता हूँ।
पाद्यं समर्पयामि॥३॥
अर्थात्- पाद्य (पैर धोने का जल) प्रदान करता हूँ।
अर्घ्यं समर्पयामि॥४॥
अर्थात्- अर्घ्य (सम्मानार्थ जल) प्रदान करता हूँ।
आचमनं समर्पयामि॥५॥
अर्थात्- आचमन (मुख प्रक्षालनाादि के निमित्त जल) प्रदान करता हूँ।
स्नानं समर्पयामि॥६॥
अर्थात्- स्नान हेतु जल प्रदान करता हूँ।
वस्त्रं समर्पयामि॥७॥
अर्थात्- वस्त्र समर्पित करता हूँ।
यज्ञोपवीतं समर्पयामि॥८॥
अर्थात्- यज्ञोपवीत प्रदान करता हूँ।
गन्धं विलेपयामि॥९॥
अर्थात्- गन्ध (चन्दन या रोली) लगाता हूँ।
अक्षतान् समर्पयामि॥१०॥
अर्थात्- अक्षत प्रदान करता हूँ।
पुष्पाणि समर्पयामि॥११॥
अर्थात्- पुष्प समर्पित करता हूँ।
धूपं आघ्रपयामि॥१२॥
अर्थात्- धूप सुवासित करता हूँ।
दीपं दर्शयामि॥१३॥
अर्थात्- दीपक दिखाता हूँ।
नैवेद्यं निवेदयामि॥१४॥
अर्थात्- नैवेद्य (मिष्टान्न आदि) का भोग लगाता हूँ।
ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि॥१५॥
अर्थात्- पान- सुपारी समर्पित करता हूँ।
दक्षिणां समर्पयामि॥१६॥
अर्थात्- दक्षिणा प्रदान करता हूँ।
सर्वाभावे अक्षतान् समर्पयामि॥
अर्थात्- अन्य किसी भी पदार्थ के अभाव में अक्षत प्रदान करता हूँ।
ततो नमस्कारं करोमि।
अर्थात्- तत्पश्चात् सभी देव शक्तियों को नमस्कार करता हूँ।
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
अर्थात्- हे अनन्तरूप वाले! सहस्र आकृतियों वाले, सहस्र पैरों, नेत्रों, सिरों, जङ्घाओं, भुजाओं वाले, सहस्र नामों वाले तथा सहस्र- करोड़ों युगों को धारण (पोषण) करने वाले शाश्वत पुरुष! आपको बार- बार नमस्कार है।
॥ स्वस्तिवाचनम्॥
स्वस्ति का तात्पर्य है कल्याणकारी, वाचन अर्थात् वचन बोलना ।। सभी के कल्याण की कामना करते हुये प्रत्येक परिजन दायें हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लें, बायाँ हाथ नीचे लगायें। मन्त्र पूरा हो जाने पर माथे से लगाकर पूजा की तश्तरी पर रख लें।
ॐ गणानां त्वा गणपति * हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपति * हवामहे
निधीनां त्वा निधिपति * हवामहे
वसो मम। आहमजानि गर्भधमा
त्वमजासि गर्भधम्॥ -२३.१९
अर्थात्- हे गणों के बीच रहने वाले सर्वश्रेष्ठ गणपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे प्रियों के बीच रहने वाले प्रियपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे निधियों के बीच रहने वाले सर्वश्रेष्ठ निधिपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे जगत् को बसाने वाले! आप हमारे हों। आप समस्त जगत् को गर्भ में धारण करते हैं, पैदा (प्रकट) करते हैं, आपकी इस क्षमता को हम भली प्रकार जानें।
ॐ स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्तिनस्ताक्र्ष्योअरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।- २५.१९
अर्थात्- महान् ऐश्वर्यशाली, इन्द्रदेव हमारा कल्याण करें, सब कुछ जानने वाले पूषादेवता हमारा कल्याण करें, अनिष्ट का नाश करने वाले गरुड़ देव हमारा कल्याण करें तथा देवगुरु बृहस्पति हम सबका कल्याण करें।
ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो
दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः
प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥- १८.३६
अर्थात्- हे अग्ने! आप इस पृथ्वी पर समस्त पोषक रसों को स्थापित करें। ओषधियों में जीवन रूपी रस को स्थापित करें। द्युलोक में दिव्य रस को स्थापित करें। अन्तरिक्ष में श्रेष्ठ रस को स्थापित करें। हमारे लिए ये सब दिशाएँ एवं उपदिशाएँ अभीष्ट रसों को देने वाली हों।
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥- ५.२१
अर्थात्- भगवान् विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा) का प्रकाश फैल रहा है, उन (विष्णु) के द्वारा यह जगत् स्थिर है तथा विस्तार को प्राप्त हो रहा है, सम्पूर्ण जगत् परमात्मा से व्याप्त है, उन (विष्णु) के द्वारा यह जड़- चेतन दो प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है, उन्हीं भगवान् विष्णु के लिए यह देवकार्य किया जा रहा है।
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता
चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवता
ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा
देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता॥ -१४.२०
अर्थात्- अग्निदेवता, वायुदेवता, सूर्यदेवता, चन्द्रमादेवता, आठों वसु- देवता, ग्यारह रुद्रगण, बारह आदित्यगण, उनचास मरुद्गण, नौ विश्वेदेवागण, बृहस्पतिदेवता, इन्द्रदेवता और वरुणदेवता आदि सम्पूर्ण दिव्य शक्तिधाराओं को हम अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए स्थापित करते हैं।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष * शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व* शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
अर्थात्- द्युलोक (स्वर्ग), अन्तरिक्षलोक तथा पृथिवीलोक हमें शान्ति प्रदान करे। जल शान्ति प्रदायक हो, ओषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्ति प्रदान करने वाली हों। विश्वेदेवागण शान्ति प्रदान करने वाले हों। ब्रह्म (सर्वव्यापी परमात्मा) सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करे, शान्ति ही शान्ति हो, शान्ति भी हमें परम शान्ति प्रदान करे।
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ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा
सुव। यद्भद्रं तन्न ऽ आ सुव।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
सर्वारिष्टसुशान्ति:र्भवतु।- ३०।३
अर्थात्- हे सर्व- उत्पादक सवितादेव!
आप हमारी समस्त बुराइयों (पाप
कर्मों) को दूर करें तथा हमारे लिए जो
कल्याणकारी हो, उसे प्रदान करें।
॥रक्षाविधानम्॥
जहाँ उत्कृष्ट बनने, शुभ कार्य करने की
आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक
है कि दुष्टों की दुष्प्रवृत्ति से सतर्क रहा
जाय। इसीलिये रक्षाविधान किया
जाता है। इसके लिये प्रयेक कुड से
एक- एक परिजन बायें हाथ में पीले
अक्षत लेकर खड़े हो जायें और मन्त्र
के साथ निर्देशित दशों दिशाओं में
चावल प्रक्षेपित करें।
ॐ पूर्वे रक्षतु वाराहः,
आग्नेय्यां गरुडवजः।
दक्षिण पद्मनाभस्तु,
नैऋर्यां मधुसूदनः॥ २॥
पश्चिमे चैव गोविदो,
वायव्यां तु जनार्दनः।
उत्त्ररे श्रीपति रक्षेद्,
ऐशायां हि महेश्वरः॥ २॥
ऊर्वं रक्षतु धाता वो,
ह्यधोऽनतश्च रक्षतु।
अनुक्तमपि यतस्थानं,
रक्षवीशो ममाद्रिधृक्॥ ३॥
अपसर्पतु ते भूता,
ये भूता भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तार:,
ते गच्छन्तु शिवाज्ञाया॥ ४॥
अपक्रामतु भूतानि,
पिशाचाः सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन,
यज्ञकर्म समारभे॥ भ्॥
अर्थात्- पूर्व दिशा में वाराह भगवान्
रक्षा करें, आग्नेय में विष्णु भगवान्
रक्षा करें, दक्षिणा में पद्मनाभ (शेषशायी
विष्णु) रक्षा करें, उत्तर में श्रीपति रक्षा
करें, नैऋत्य में मधुसूदन रक्षा करें,
पश्चिम में गोविंद रक्षा करें, वायव्य में
जनार्दन रक्षा करें, ईशान में महेश्वर
रक्षा करें, ऊपर धाता (धारण तथा रक्षण
करने वाले विष्णु) रक्षा करें, नीचे अनन्त
भगवान् रक्षा करें,इसके अतिरित
जिन स्थानों का कथन नहीं हुआ, उसकी
रक्षा परमेश्वर करें। भगवान् शिव की
आज्ञा से वे सभी भूत- प्रेतगण दूर हट
जायें, जो इस यज्ञ स्थल पर विद्यमान हैं
और विघ्न डाला करते हैं। सभी भूत- प्रेत
पिशाचगण यहाँ से सभी दिशाओं की
ओर चले जाएँ। इस प्रकार सभी के
अविराधे पवूर्क (बिना किसी वैर -विरोध
के) मैं इस यज्ञ कृत्य का को प्रारम्भ करता हूँ।
अग्निस्थापनम्अग्नि को ब्रह्म का प्रतिनिधि मानकर
यज्ञ कुण्ड में उनकी प्रतिष्ठा की जाती है।
अग्नि का स्वभाव है आगे बढ़ना
निरन्तर ऊपर उठना। सभी की प्रगति
की कामना से यज्ञ कुण्ड में अग्निदेव का
आवाहन करें। किसी समिधा या चम्मच
में, रुई की घी में डुबोईं फूल बत्ती या
कपूर को प्रज्ज्वलित कर अग्नि प्रतिष्ठित
करें और अग्निदेव का पंचोपचार विधि
से पूजन करें।
ॐ भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव
वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि
पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे। अग्निं दूतं
पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ२आ
सादयादिह। -३।५, २२।१७
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि,
स्थापयामि, यायामि। गधाक्षतं,
पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
अर्थात्- (हे अग्निदेव!) आप भूः
(पृथिवीलोक में अग्निरूप), भुवः
(अंतरिक्ष में विध्युत् रूप) एवं स्वः
(ध्युलोक में सूर्यरूप) में सर्वत्र विद्यमान
हैं। देवताओं के निमित्त यज्ञ सम्पादन के
लिए उत्तम स्थान प्रदान करने वाली हे
पृथिवि! हम देवों को हवि प्रदान करने के
लिए आपके ऊपर बनी हुई यज्ञ- वेदी पर
अग्निदेव को प्रतिष्ठित करते हैं। (इस
अग्निस्थापन के द्वारा) हम (पुत्र -
पौत्रादि तथा इष्ट- मित्रों से युक्त होकर)
द्युलोक के समान सुविस्तृत तथा (यश,
गौरव, ऐश्वर्यादि से युक्त होकर) पृथिवी के समान महिमावान् हों। हवि को देवों
तक के जाने वाले देवदूत रूप अग्निदेव
को हम अपने समक्ष स्थापित करते हैं
और उन्हीं से प्रार्थना करते हैं कि वे अन्य
देवताओं को भी लाकर यहाँ उपस्थित
करें।
गायत्रीस्तवनम्
जड़ चेतन सभी में प्राण का सचार करने
वाले सविता देवता हम सभी में दिव्य
प्राण का सचार करें, इसी भाव से
सविता देवता का स्तवन करें।
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं,
रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य- दुःखक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ १॥
शुभ योति के पुज,
अनादि, अनुपम।
ब्रह्माण्डव्यापी आलोककर्ता।। दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल प्रकाश उत्पन्न करने वाला,
विशाल रत्नों की तीव्र प्रभा वाला,
अनादि रूप वाला तथा दरिद्रता और
दुःख को नष्ट करने वाला है, वह मुझे
पवित्र करे।
यमडलं देवगणै: सुपूजितं,
विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ २॥
ऋषि देवताओं से निय पूजित।
हे भर्ग भवबन्धन मुक्तिकर्ता।।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ २॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज) मण्डल देवगणों से भली- भाँति पूजित है,
ब्राह्मणों के द्वारा मानव- मुक्ति दाता के
रूप में स्तुत है, उस देवों के देव भर्ग
(तेज) को मैं प्रणाम करता हूँ, वह मुझे
पवित्र करे।
यन्मनण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं,
त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणाम्।
समस्त- तेजोमय- दिव्यरुपं
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित!
पावन गुणों के विस्तारकर्ता।
समस्त प्रतिभा के आदिकारण।
पावन बना दो हे देव सविता!॥३॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ज्ञान का घनीभूत रूप है, अगम्य
(अबाध) है, तीनों लोकों में पूजित है,
त्रिगुण रूप है तथा समस्त दिव्य तेजों से
समन्वित है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं,
धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित!
तुम दोष- पापादि संहारकर्ता।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥४॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मडल गूढ़मति (अज्ञान से आच्छादित
बुद्धि) का प्रकाशक है, लोगों के अन्तस्
में धर्म तत्त्व की वृद्धि करने वाला है तथा
जो समस्त पापों के क्षय का कारण है,
वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं,
यदृग्यजुः सामसु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्वः,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ५॥
हे व्याधिनाशक, हे पुष्टिदाता!
ऋग् साम यजु वेद संचारकर्ता।
हे भूर्भुवः स्वः में स्व- प्रकाशित।
पावन बना दो हे देव सविता!॥५॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल व्याधियों (शारीरिक कष्टों) को
विनष्ट करने में दक्ष है। ऋग्, यजुः तथा
सामवेद के द्वारा प्रशंसित है तथा जिससे
भूः, भुवः और स्वः लोक प्रकाशित हैं,
सविता का वह मण्डल हमें पवित्र करे।
यन्मडलं वेदविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चरण सिद्धसङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी।
जिसके सदा से हैं गानकर्ता।।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ६॥
अर्थात- जो श्रेष्ठ सविता का (तजे ))
मण्डल वेदज्ञों द्वारा व्याख्यायित है, जो
सिद्ध- चारणों द्वारा गाया (प्रशंसित किया)
जाता है। जो योगी जनो और यागेस्थ जनों
द्वारा प्रशंसित है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं,
ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्यलोके।
यत्काल- कालादिमनादिरूपं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ७॥
हे विश्वमानव से आदि पूजित!
नश्वर जगत् में शुभ ज्योतिकर्ता।
हे काल के काल अनादि ईश्वर!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ७॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल सभी लोगों द्वारा पूजित है, इस
मर्त्यलोक में ज्योति- स्वरूप है तथा जो
देशकाल से परे अनादि रूप वाला है, वह
मुझे पवित्रा करे।
यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं,
यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित!
हे भक्तपालक, हे पापहर्ता!।
हे काल कल्पादि के आदिस्वामी!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ८॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ब्रह्मा, विष्णु के मुख मण्डल
सदृश है, जो अक्षर (नष्ट न होने वाला)
तथा लोगों के पापों को दूर करने वाला
है, जो काल और कल्प के क्षय का
कारण भी है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं,
त्पत्ति- रक्षा प्रलयप्रगल्भम्।
यस्मिन् जगसंहरतेऽखिलं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ 9॥
हे विश्वमडल के आदिकारण !
उत्पत्ति-पालन-संहारकर्त्ता- पालन।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ 9॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल सृजन के लिए प्रसिद्ध है, सृष्टि
की रक्षा, उत्पत्ति और संहार- कार्य में
सक्षम है, जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
प्रलयकाल में समाहित- लीन हो जाते हैं,
वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णों,
आत्मा परंधाम विशुद्धतवम्।
सूक्ष्मातरैर्योगपथानुगम्यं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥१०॥
हे सर्वव्यापी, प्रेरक नियता!
विशुद्ध आत्मा, कल्याणकर्ता।।
शुभ योग पथ पर हमको चलाओ।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १०॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तजे ))
मण्डल सवर्गत, सर्वत्र संव्याप्त- विष्णु की
आत्मा है, सर्वशुद्ध् एव एवं पर (श्रेष्ठ )) धाम है।
जो योग माग र्द्वारा सूक्ष्म अन्त:करण से
ज्ञात होने वाला है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलों ब्रह्मविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चारण- सिद्धसंघाः।
यन्मण्डलों वेदविदः स्मरन्ति,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदिपूजित!
वेदज्ञ जिसके गुणगानकर्ता।
सद्भावना हम सबमें जगा दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ११॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ब्रह्मज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है,
जिसका चारण और सिद्ध समुदायों
द्वारा गुण- गान किया जाता है तथा
वेदज्ञानी जिस मण्डल को नित्य स्मरण
करते हैं, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं वेद विदोपगीतं,
यद्योगिनां योगपथानुगम्यम्।
तसर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ १२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक!
सद्ज्ञान के आदि सच्चारकर्ता।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभी का।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १२॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल वेदज्ञानियों द्वारा गेय है तथा
योगियों द्वारा योग मार्ग से प्राप्तव्य है,
उस सर्वज्ञ दिव्यतव को हम प्रणाम
करते हैं, वह मुझे पवित्र करे।
॥ अग्निप्रदीपनम्॥
अग्नि को भली प्रकार प्रवलित करके
आहुतियाँ समर्पित करने का विधान है।
हमारे जीवन का प्रयेक क्षण सद्ज्ञान के
प्रकाश से आलोकित हो, पूर्णता की प्राप्ति
के लिये जागरूक हो, ऐसी भावना से
प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन पंखे
से अग्नि को प्रदीप्त करें।
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि
त्वमिषटा पूर्ते स सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्
विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।
-१५।५४, १८।६१
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप जाग्रत् हों
और प्रतिदिन यजमान को भी जाग्रत्
करें। इस यज्ञ में यजमान के लिए इष्ट
(अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, अतिथि सत्कार
आदि) और पुर्त्त (देवालय, धर्मशाला,
चिकित्सालय आदि निर्माण) कर्मों को
करने और उसका फल प्राप्त करने की
स्थिति बनाएँ। आपके अनुग्रह से इस
यजमान की श्रेष्ठ इच्छाओं की पूर्ति हो। हे
विश्वेदेवागण! याजकों को देवताओं के
योग्य सर्वश्रेष्ठ निवास- स्थान देवलोक में
चिरकाल तक निवास प्रदान करें।
॥ समिधाधानम्॥
जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम,
सेवा का अवलम्बन लेकर अपने
अन्त:करण चतुष्टय- मन, बुद्धि, चित्त
और अहङ्कार को शुद्ध और शक्तिसम्पन्न
बनाने की प्रार्थना के साथ चार समिधाएँ
यज्ञ भगवान् को समर्पित की जाती हैं।
प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन
समिधाओं के दोनों छोरों को घी में
डुबोकर एक- एक करके स्वाहा के साथ
आहुतियाँ समर्पित करें।
१ ॐ अयन्त इध्म आत्मा
जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व।
चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया
पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन अन्नाद्येन
समेधय स्वाहा।- आश्व.गृ.सू. १.१०
इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम।
अर्थात्- जातवेदा इध्ममान हों, बढे़ं
और वृद्धि का को प्राप्त होकर हमको प्रजा
से, पशुओं से, ब्रह्मवर्चस से और
अन्नादि से समेधित (सवंर्द्धित) करें।
२ ॐ समिधाऽग्निं दुवस्यत
धृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥- ३।१
अर्थात्- हेऋत्विजो ! आप घृतसिक्त
समिधा से (यज्ञों में) अग्नि को
प्रज्ज्वलित करें। घृत की आहुति
प्रदान करके, सब कुछ आमसात्
करने वाले अग्निदेव को प्रदीप्त करें।
इसके बाद अग्नि में हवि- द्रव्य की
आहुतियाँ प्रदान करें।
३ ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे
घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम॥
अर्थात्- हे ऋत्विजो! श्रेष्ठ, भली-
भाँति प्र वलित, जा वल्यमान,
सर्वा (जातवेद), देदीयमान
यज्ञाग्नि में शुद्ध पिघले हुए घृत की
आहुतियाँ प्रदान करें।]
४ ॐ तं वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन
वर्धयामसि। बृहछोचा यविष्ठय
स्वाहा। इदं अग्नये अङ्गिरसे
इदं न मम॥ -३।३
अर्थात्- हे अग्निदेव! हम आपको
घृत और (उससे सिक्त) समिधाओं
से प्रदीप्त करते हैं। हे नित्य तरुण
(तेजस्वी) अग्निदेव! (घृत आहुति
प्राप्त होने के बाद) आप ऊँची उठने
वाली ज्वालओं के माध्यम से
प्रकाश युक्त हों।
॥ जलप्रसेचनम्॥
यज्ञीय ऊर्जा का दुरुपयोग न हो,
इसलिये इसकी सीमा मर्यादा निर्धारित
करने के लिये जलप्रसेचन किया जाता
है। प्रत्येक कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि
प्रोक्षणी पात्र में जल भरकर, कुण्ड के
बाहर मन्त्र के साथ निर्देशित दिशा में
जल का घेरा बनायें।
ॐ अदितेऽनुमयस्व॥
(इति पूर्वे) -गो.गृ.सू. १।३।१
ॐ अनुमतेऽनुमयस्व॥
(इति पश्चिमे) -गो.गृ.सू. १।३।२
ॐ सरस्वयनुमयस्व॥
(इति उत्तरे)- गो.गृ.सू. १।३।३
ॐ देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव
यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गधर्वः केतपूः,
केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः
स्वदतु॥ (इति चतुर्दिक्षु)- ११।७
अर्थात्- हे अदिते! आप मुझे इस
कर्म को करने की अनुमति दें।
हे अनुमते! आप इस कर्म को करने
की मुझे अनुमति प्रदान करें।
हे सरस्वति देवि! मुझे आप इस कर्म
को करने की अनुमति दें।
अर्थात्- हे सवितादेव! आप यज्ञीय
कर्मों की प्रेरणा सभी को दें। यज्ञ- कर्म
सम्पादित करने वालों को ऐश्वर्य-
सम्पदा से युत करके सकर्म की ओर
प्रेरित करें। (हे सवितादेव! आप)
दिव्यज्ञान के संरक्षक, वाणी के अधिपति
हमारे ज्ञान में पवित्रता का संचार करें
और हमारी वाणी में मधुरता का
समावेश करें।
॥ आ याहुतिः॥
सर्वप्रथम घी की सात आहुतियाँ दी जाती हैं। घी स्नेह, प्रेम का प्रतीक है। हमारा
प्रेम देवतत्व के प्रति हो, यज्ञीय जीवन के
प्रति हो इस भाव से आहुति समर्पित
करें। प्रत्येक कुंड से एक- एक प्रतिनिधि
स्रुवा पात्र के सहारे, स्वाहा के साथ
आहुति समर्पित करें, लौटाते समय घी
की एक बूँद जल से भरे प्रणीता पात्र में
टपकायें।
१ ॐ प्रजापतये स्वाहा।
इदं प्रजापतये इदं न मम॥ -१८।२८
अर्थात्- यह आहुति प्रजापति
(प्रजापालक) के लिए है, मेरे लिए
नहीं है।
२ ॐ इन्द्राय स्वाहा।
इदं इन्द्राय इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति इन्द्र (श्रेष्ठता)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
३ ॐ अग्नये स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति अग्नि
(तेजस्विता) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
४ ॐ सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय इदं न मम॥ -२२।२७
अर्थात्- यह आहुति सोम
(आह्लादकता) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
५ ॐ भूः स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति भूः (पृथ्वी)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
६ ॐ भुवः स्वाहा।
इदं वायवे इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति भुवः
(अन्तरिक्ष) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
७ ॐ स्वः स्वाहा।
इदं सूर्याय इदं न मम॥
-गो.गृ.सू. १।८।१५
अर्थात्- यह आहुति स्वः (स्वर्ग)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
॥गायत्री मन्त्राहुति: ॥जिस पक्रार अति सम्माननीय अतिथि को प्रेम और सम्मानपूर्वक भोजन कराया
जाता है। उसी श्रद्धा, भक्ति और सम्मान से
यज्ञ भगवान को दायें हाथ की अनामिका,
मध्यमा और अंगुष्ठ के सहारे, स्वाहा के
साथ आहुित समपिर्त करें।
ॐ भूर्भुवः स्वः।
तसवितुर्वरेयं भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा।
इदं गायत्र्यै इदं न मम॥ -३६।३
अर्थात्- (तत्) उस (भूर्)
प्राणस्वरूप, (भुवः) दुःखनाशक, (स्वः)
सुखस्वरूप, (वरेण्यं) श्रेष्ठ, (सवितुः)
तेजस्वी, (भर्गः) पापनाशक, (देवस्य)
देवस्वरूप, (ॐ) परमात्मा को (धीमहि)
हम अंतरात्मा में धारणा करें। (यो) वह
परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धि को
(प्रचोदयात्) सन्मार्ग में प्रेरित करे। यह
आहुति उसी गायत्री तत्त्व को समर्पित
है, मेरे लिए नहीं।
॥ महामृयुञ्जय मन्त्राहुति:॥
विराट् देव परिवार से जुड़े हुये सभी
परिजनों के स्वास्थ्य लाभ और
आध्यात्मिक उन्नति की कामना करते
हुए महामृयुञ्जय मन्त्र से आहुति
समर्पित करें।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बधनान्
मृयोर्मुक्षीय माऽमृतात्, स्वाहा॥ -३।६०
इदं महामृयुञ्जयाय इदं न मम॥
अर्थात्- तीनों दृष्टियों
(आधिभौतिक, आधिदैविक तथा
आध्यात्मिक ) से युक्त रुद्रदेव की हम
उपासना करते हैं। वे देव, जीवन में
सुगन्धि (सदाशयता) एवं पुष्टि
(समर्थता) की वृद्धि करने वाले हैं, जिस
प्रकार पका हुआ फल स्वयं डण्ठल से
अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम
मृत्यु- भय से मुक्त हो जाएँ; कितु
अमृतत्व से दूर न हों।
।।स्विष्टकृत्होम्:।।स्विष्टकृत् होम में मिष्टान्न की आहुति समर्पित की जाती है। मिष्टान्न मधुरता
का प्रतीक है, जीवन में सर्वाङ्गीण - वाणी,,
व्यवहार और आचरण में मधुरता का
समावेश हो इसी भाव से प्रत्येक कुण्ड से
एक- एक प्रतिनिधि स्रुचि पात्र में मिष्टान्न
और घी भर लें, स्वाहा के साथ यज्ञाग्नि
में आहुति समर्पित करें।
ॐ यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं
यद्वायूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यासर्वं
स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते
सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां
कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः
कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।
इदं अग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥
-आश्व. गृ.सू. १।१०
अर्थात्- हे अग्निदेव! इस यज्ञ कार्य में
जो भी किसी विधान का उल्लंघन हुआ
हो, जो कुछ भी न्यूनता रह गयी हो, उसे
इस स्विष्टकृत् आहुति से मेरे लिए सुहुत
(श्रेष्ठ आहुति) बना दो। अग्निदेव के लिए
यह स्विष्टकृत् आहुति भली प्रकार होम
रहा हूँ। सम्पूर्ण दोषों के प्रायश्चित
स्वरूप समर्पित की गयी यह आहुति
हमारी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने
वाली हो; क्योंकि आप कामनाओं की
पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह स्विष्टकृत्
आहुति अग्निदेव के लिए है, मेरे लिए
नहीं।
॥ देवदक्षिणा- पूर्णाहुति:॥
परमामा पूर्ण है, हम भी पूर्ण बनें और
हमारे कोई भी कार्य अधूरे न रहें, पूर्णता
तक पहुँचें, साथ ही एक बुराई छोड़ने
और अच्छाई ग्रहण करने के सङ्कल्प
सहित पूर्णाहुति करें। प्रत्येक कुण्ड के
एक- एक प्रतिनिधि स्रुचिपात्र में सुपारी/
नारियल का गोला और अन्य लोग हवन
सामग्री/ नारियल का गोला लेकर
अपने स्थान पर खड़े हों और मन्त्र के
साथ आहुति समर्पित करें।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्
पूर्णमुदच्यते।
पूर्ण्स्य पूर्णमादाय पूणर्मेवावशिष्यते॥
-बृह. उ३।५।१।१
अर्थात्- वह (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (संसार)
पूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्म से प्रकट होने के
कारण इस संसार को भी पूर्ण कहा जाता
है। पूर्णतत्व में से पूर्णता ले ली जाय, तो
भी वह पूर्ण ही रहता है।
ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज * शतक्रतो
स्वाहा॥ -३।४९-
ॐ सर्वं वै पूर्ण * स्वाहा॥
अर्थात्- हे (काष्ठ निर्मित) दर्वे! आप
समीपवर्ती अन्न से पूर्ण होकर, उत्कृष्ट
होती हुई इन्द्रदेव की ओर गमन करें।
कर्मफल से भली- भाँति परिपूर्ण होती
हुई, पुनः इन्द्रदेव के पास गमन करें।
अनेक श्रेष्ठ कार्यों के सम्पादक हे
इन्द्रदेव! हम दोनों निर्धारित मूल्य में
इस हवि रूप अन्न रस का परस्पर
विक्रय करें। (अर्थात् हम आपको
हविर्दान करें और आप हमें सु- फल
प्रदान करें।) निश्चित रूप से सब कुछ
पूर्णता को प्राप्त हो, इस निमित्त यह
आहुति समर्पित है।
॥ वसोर्धारा॥
कार्य के आरम्भ में जितनी लगन और
उत्साह हो अन्त में उससे भी ज्यादा बनी
रहे और जो भी यज्ञीय परमार्थ के प्रति
समर्पित हों, उन पर अपने स्नेह की धार
उड़ेलते रह सकें। इसी भाव से प्रत्येक
कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि स्रुचि पात्र में
घी भरकर मन्त्र के साथ धारा सतत
छोड़ते रहें।
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं
वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।
देवस्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण
शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा। -१।३
अर्थात्- सैकड़ों- सहस्रों धाराओं
वाले आप वसुओं को पवित्र करने वाले
साधन हो। सबको पवित्र करने वाले
सविता, अपनी सैकड़ों धाराओं से
((वसुओं को पवित्र करने वाले साधनों से)
तुम्हें पवित्र बनाएँ। हे मानव / तुम और
किस (कामना) की पूर्ति चाहते हो? अर्थात्
किस कामधेनु को दहुना चाहते हो।
॥ नीराजनम् (आरती)॥
आर्तभाव से की गई प्रार्थना ही आरती है। देवव का चतुर्दिक् गुणगान हो; ताकि
सभी लोगों को उसकी श्रेष्ठता से प्रेरणा
और लाभ मिल सके, देव प्रतिमाओं की
आरती उतारने का यही उद्देश्य है। प्रत्येक
कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि आरती की
थाली में रखे दीप को प्रज्वलित कर,
तीन बार जल घुमाकर यज्ञभगवान् और
देव प्रतिमाओं की आरती उतारें। आरती
के पश्चात् पुनः तीन बार जल घुमाकर
सबको आरती प्रदान करें।
ॐ यं ब्रह्मवेदातविदो वदन्ति,
परं प्रधानं पुरुषं तथाये।
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा,
तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय॥
अर्थात्- जिसे वेदान्ती जन परब्रह्म
कहते हैं तथा अन्य लोगों
(सांख्यवादियों, नैयायिकों, मीमांसकों
आदि) द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति के जिस
परमकारण को ‘परमप्रधान पुरुष’
अथवा ‘ईश्वर’ कहा गया है, उस विघ्न-
विनाशक परमामा को नमस्कार है।
ॐ यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः,
स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः,
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैः,
गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थित- तद्गतेन मनसा,
पश्यन्ति यं योगिनो,
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा:,
देवाय तस्मै नमः॥
अर्थात्- जिस (परमात्मा) की ब्रह्मा,
वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरुदादिगण दिव्य
स्तोस्त्रों से स्तुति करते हैं। साम गान
करने वाले अङ्ग, पद, क्रम और
उपनिषदों सहित वेदमंत्रों के साथ
जिसका स्तवन करते हैं, जिनको
योगीजन ध्यानावस्था में तन्मय होकर
मन से देखा करते हैं, देवता और असुर
भी जिनको नहीं जान पाते, उन देव
(परमात्मा) को नमस्कार है।
॥घृतावघ्राणम् ॥
सभी याजक प्रणीता पात्र में ‘इदं न मम’
के साथ टपकाये घृत और जल को
दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्र भाग में
लें, दोनों हाथ की हथेलियों में मलें, मन्त्र
के साथ यज्ञ कुण्ड की ओर रखें ।। बाद में
गायत्री मन्त्र के साथ सूँघें और कमर के
ऊपरी हिस्से में लगायें। भावना करें
यज्ञीय ऊर्जा को आमसात् कर रहे हैं।
ॐ तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाहि।
ॐ आयुर्दा अग्नेऽसि आयुर्मे देहि॥
ॐ वर्चोदा अग्नेऽसि, वर्चो मे देहि।
ॐ अग्ने यन्मे तवाऽ
ऊनन्तन्म ऽआपृण्॥
ॐ मेधां मे देवः सविता आदधातु।
ॐ मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु॥
ॐ मेधां मे अश्विनौ देवावाधत्तां
पुष्करस्रजौ। -पा.गृ.सू. २।४।७-८-
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप शरीर
रक्षक हो, मेरे शरीर को सदैव नीरोग
रखो।
अर्थात्- हे अग्ने! आप
आयुष्यकारक हो, मुझे दीर्घायु
बनाओ।
अर्थात्- हे अग्ने! आप वर्चस्वदायी
हो, हमें वर्चस्वी बनाओ।
अर्थात्- हे अग्ने! मेरी सभी
कमियों की पूर्ति कर दो।
अर्थात्- सविता देवता मुझे मेधा
(बुद्धि) सम्पन्न बनायें।
अर्थात्- देवी सरस्वती मुझे
मेधावान् बनायें।
अर्थात्- पुष्कर (नीलकमल) की
माला धारणा किए हुए अश्विनी कुमार
मुझे सदैव मेधाशक्ति से युक्त रखें।
॥ भस्मधारणम् ॥
मृत्यु जीवन का एक सुनिश्चित सत्य है।
वह कभी भी आ सकती है। अतः मन,
वचन और कर्म से ऐसे विवेकयुक्त कार्य
करें; ताकि जीवन को सार्थक बना
सकें, सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन व्यर्थ न
जाये। इन्हीं भावों से यज्ञभस्म को
अनामिका उँगली में लेकर मन्त्र के
साथ मस्तक, कण्ठ, भुजा और हृदय से
लगायें।
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः इति ललाटे।
(मस्तक पर)
ॐ कश्यपस्य त्र्यायायुषं इति ग्रीवायाम्।
(कण्ठ में)
ॐ यद्देदेवेषु त्र्यायुषं इति
दक्षिणबाहुमूले। (दाहिने कन्धे पर)
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषं इति हृदि।
(हृदय पर) -३।६२
अर्थात्- जो जमदग्नि की (बाल्य,
यौवन, वृद्ध) त्रिविध आयु (तेजस्वी
जीवन) है, जो कश्यप की तीन
अवस्थाओं वाली आयु है तथा जो
देवताओं की तीन अवस्थाएँ हैं, उसको
हम प्राप्त करें।
॥ क्षमा प्रार्थना॥
यज्ञ कार्य के विविध विधि- विधानों में
कोई भूल, कमी या त्रुटि रह गई हो।
किसी के प्रति अप्रिय अथवा अनुचित
व्यवहार हो गया हो, तो इसके निराकरण
और परिष्कार के लिये अन्त:करण से क्षमायाचना करें।
ॐ आवाहनं न जानामि,
नैव जानामि पूजनम्।
विसर्जनं न जानामि,
क्षमस्व परमेश्वर!॥ १॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं,
भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव!
परिपूर्ण तदस्तु मे॥ २॥
यदक्षरपदभ्रष्टं,
मन्त्रहीनं च यद् भवेत्।
तसर्वं क्षम्यतां देव!
प्रसीद परमेश्वर! ॥ ३॥
यस्यस्मृया च नामोक्त्या,
तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्ण्ता याति,
सद्यो वदे तमच्युतम्॥ ४॥
प्रमादाकुर्वतां कर्म,
प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णों,
सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः॥ ५॥
अर्थात्- हे परमेश्वर! मैं न आवाहन
जानता हूँ, न पूजन और न ही विसर्जन।
अतः आप मुझे (इस अज्ञानता के लिए)
क्षमा करें ॥1॥
हे सुरेश्वर! मैं मन्त्र, क्रिया और
भक्ति से हीन हूँ, हे देव! जैसा भी कुछ
पूजन कृय कर सका, वह मेरे लिए
पूर्ण्ता प्राप्त करे, अर्थात् मुझे अपना
अभीष्ट प्राप्त हो॥२॥
हे देव! हे परमेश्वर! (आप मुझ पर)
प्रसन हों। (मन्त्र बोलने में) जो भी
अक्षर, पद व मात्राओं की त्रुटि हुई हो,
उन सभी को क्षमा कर दें॥३॥
तप, यज्ञ आदि क्रियाओं में जिनकी
स्मृति और स्तुति मात्र से सम्पूर्ण
न्यूयनताएँ शीघ्र दूर हो जाती हैं, उन
अयुत् (अक्षीणता दोष से रहित! विष्णु)
को मैं नमन करता हूँ॥४॥
प्रमादवश इस यज्ञ में जो कुछ
विधि- विधान का उल्लंघन हो जाता है,
वह सब भगवान् विष्णु के स्मरण करने
से सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाता है, ऐसा
श्रुति कहती है॥ ५॥
---------------॥ साष्टाङ्गनमस्कारः॥ कण- कण में व्याप्त परमात्म सत्ता को हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर श्रद्धापूर्वक प्रणाम करें।
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते,
सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
अर्थात्- हे अनन्त रूपों वाले! सहस्रों आकृतियों वाले, सहस्रों पैरों, नेत्रों, सिरों, जङ्घाओं, भुजाओं वाले, सहस्रों नामों वाले तथा सहस्रों- करोड़ों युगों को धारण (पोषण) करने वाले शाश्वत पुरुष! आपको बार- बार नमस्कार है।
॥ शुभकामना॥
हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष- दुर्भाव न हो, अशुभ चिन्तन किसी के लिये भी न करें। सबके कल्याण में ही अपना कल्याण निहित है। परमार्थ में ही स्वार्थ जुड़ा हुआ है। इसी भाव से सबके कल्याण के लिये, याचना की मुद्रा में प्रार्थना करें।
ॐ स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्तां,
न्याय्येन मार्गेण महीं महीशाः।
गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं,
लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु॥१॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः,
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्॥२॥
श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां,
विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम्।
तेज आयुष्यमारोग्यं, देहि मे हव्यवाहन॥३॥ -लौगा० स्मृ०
अर्थात्- प्रजाजनों का कल्याण हो। शासक न्यायपूर्वक धरती पर शासन करें। गो- ब्राह्मणों को नित्य प्रति शुभ की प्राप्ति हो, समस्त लोक सुखी हों॥१॥ सभी सुखी हों। सभी नीरोग हों, सभी का कल्याण हो, कोई भी दुःख का भागी न बनें॥२॥ हे हव्यवाहन(अग्निदेव!) मुझे श्रद्धा, मेधा, यश, प्रज्ञा, विद्या, पुष्टि, श्री (वैभव), बल, तेजस्विता, दीर्घायु एवं आरोग्य प्रदान करें॥
॥ पुष्पाञ्जलिः॥
सभी परिजन पुष्प की तरह जीवन क्रम अपनाने, देवत्व के मार्ग को अपनाने और ईश्वरीय सेवा में जीवन को लगाने का व्रत लें। देवगणों ने कृपापूर्वक यज्ञीय प्रक्रिया में जो सहयोग, मार्गदर्शन और संरक्षण दिया है। उसका आभार मानते हुये हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर पुष्पाञ्जलि समर्पित करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।
ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि॥ -३१.१६
अर्थात्- आदिकालीन श्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञ रूप विराट् का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले (याजक) पूर्वकाल के सिद्ध, साध्यगणों तथा देवताओं के निवास महिमाशाली स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।
॥ शान्ति- अभिषिञ्चनम्॥
सभी को दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्ति मिले, सर्वत्र शान्ति ही शान्ति हो, इसी भावना से देव कलश के जल को एक प्रतिनिधि लेकर आम्रपल्लव या पुष्प के माध्यम से सबके ऊपर सिञ्चन करें।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष * शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः
सर्व * शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।- ३६.१७
अर्थात्- स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा पृथिवीलोक हमें शान्ति प्रदान करें। जल शान्ति प्रदायक हो, ओषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्ति प्रदान करने वाली हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करने वाले हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करें। सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करें, शान्ति भी हमें परम शान्ति प्रदान करे। त्रिविध दुःख (आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आधिआध्यात्मिक) शान्त हों। सभी अरिष्ट भली- प्रकार शान्त हों।
॥ सूर्यार्घ्यदानम्॥
सविता देवता हमें ओजस्, तेजस्, वर्चस् प्रदान करें, इस भाव से कलश के बचे हुये जल से, सूर्यभगवान् को अर्घ्यदान दें।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो,
तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या,
गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।
अर्थात्- हे सहस्र किरणों वाले तेजः पुञ्ज, जगत् के स्वामी दिवाकर सूर्यदेव! मेरे ऊपर कृपा करो और भक्तिपूर्वक समर्पित इस अर्घ्यजल को स्वीकार करो।
सूर्य (सबके प्रेरक) को, आदित्य (प्रकाशवान्) को तथा भास्कर (कान्तिमान्) को नमस्कार है।
॥ प्रदक्षिणा॥
साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा को जीवन में अपनाकर अच्छे मार्ग पर सतत चलते रहने का सङ्कल्प लेते हुये यज्ञ भगवान् की प्रदक्षिणा करें।
ॐ यानि कानि च पापानि, ज्ञाताज्ञातकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्ति, प्रदक्षिण पदे- पदे।
अर्थात्- जो कुछ ज्ञात- अज्ञात पाप कर्म हो गये हैं, वे सभी प्रदक्षिणा के एक- एक पद (कदम) से नष्ट हो जाते हैं।
॥ विसर्जनम्॥
आवाहित, सम्पूजित देवताओं को एवं सम्माननीय अतिथियों का यथा सम्मान विदाई करने का विधान है। पूजा वेदियों पर एवं यज्ञ कुण्डों के बाहर अक्षत, पुष्प कि वर्षा करते हुये देवशक्तियों को गद्गद् भाव से विदा करें और प्रार्थना करें की ऐसा ही अनुग्रह बार- बार मिले।
ॐ गच्छ त्वं भगवन्नग्ने,
स्वस्थाने कुण्डमध्यतः।
हुतमादाय देवेभ्यः, शीघ्रं देहि प्रसीद मे॥
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ,
स्वस्थाने परमेश्वर! ॥
यत्र ब्रह्मादयो देवाः,
तत्र गच्छ हुताशन!॥
यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं, पुनरागमनाय च॥
अर्थात्- हे अग्ने! हे भगवन्! इस कुण्ड स्थान से अपने निवास स्थान पर पधारें, मेरे ऊपर प्रसन्न हों और ये आहुतियाँ देवताओं तक शीघ्र पहुँचायें। हे देवश्रेष्ठ परमेश्वर! जहाँ ब्रह्मा आदि देवता निवास कर रहे हैं, हे हुताशन! आप वहाँ पधारें। मेरे इस पूज्य भाव कोलेक रहे देवगणो! पधारो, परन्तु अभीष्ट पूर्ति के लिए पुनः आने की मैं प्रार्थना करता हूँ।
व्रतबन्धे विवाहे च चतुर्थ्यां सहभोजने।
व्रते दाने मखे श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे।
सर्वेषु धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभा।
अभिषेके विप्रपादप्रक्षालने चैव वामतः।
अपि च- संस्कार्यः पुरुषो वाऽपि स्त्री वा दक्षिणतः सदा।
संस्कारकर्ता सर्वत्र तिष्ठेदुत्तरतः सदा।। -धर्मसिन्धु- ३/५१६
कर्मकाण्ड की व्यवस्था बनाकर, जाँचकर जब कर्मकाण्ड प्रारम्भ करना हो, तो सञ्चालक को सावधान होकर वातावरण को अनुकूल बनाना चाहिए। कुछ जयघोष बोलकर शान्त रहने की अपील करके कार्य प्रारम्भ किया जाए। सञ्चालक- आचार्य का काम करने वाले स्वयंसेवक को नीचे दिये गये अनुशासन के साथ कार्य प्रारम्भ करना चाहिए , वे हैं-
(१) व्यासपीठ नमन, (२) गुरुवन्दना
(३) सरस्वती वन्दना
(४) व्यास वन्दना।
ये चारों कृत्य कर्मकाण्ड के पूर्व के हैं। यजमान के लिए नहीं, सञ्चालक- आचार्य के लिए हैं। कर्मकाण्ड ऋषियों, मनीषियों द्वारा विकसित ज्ञान- विज्ञान से समन्वित अद्भुत कृत्य हैं, उस परम्परा का निर्वाह हमसे हो सके, इसलिए उस स्थान को तथा अपने आपको संस्कारित करने, उस दिव्य प्रवाह का माध्यम बनने की पात्रता पाने के लिए ये कृत्य किये जाते हैं।
व्यासपीठ नमन-
व्यासपीठ पर- सञ्चालक के आसन पर बैठने के पूर्व उसे श्रद्धापूर्वक नमन करें। यह हमारा आसन नहीं, व्यासपीठ है। इसके साथ एक पुनीत परिपाटी जुड़ी है। उस पर बैठकर उस परिपाटी के साथ न्याय कर सकें, इसके लिए उस पीठ की गरिमा- मर्यादा को प्रणाम करते हैं, तब उस पर बैठते हैं।
।। गुरु- ईश वन्दना।।
गुरु- गुरु व्यक्ति तक सीमित नहीं, एक दिव्य चेतन प्रवाह- ईश्वर का अंश है। चेतना का एक अंश जो अनुशासन व्यवस्था बनाता, उसकाउसका फल देता है- ईश्वर कहलाता है, दूसरा अंश जो अनुशासन की मर्यादा सिखाता है, उसमें प्रवृत्त करता है, वह गुरु है। आइये, गुरुसत्ता को नमन- वन्दन करें।
ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं, केवलं ज्ञानमूर्तिं,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादि- लक्ष्यम्॥
एकं नित्यं विमलमचलं, सर्वधीसाक्षिभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं, सद्गुरुं तं नमामि॥१॥
अखण्डानन्दबोधाय, शिष्यसन्तापहारिणे।
सच्चिदानन्दरूपाय, तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥
अर्थात्- ब्रह्मानन्द स्वरूप, परम सुख देने वाले, केवल ज्ञान मूर्ति, द्वन्द्व (सुख- दुःख, लाभ- हानि आदि) से परे, आकाश के समान (व्यापक), तत्त्वमसि आदि महावाक्य के लक्ष्य भूत, एक, नित्य, विमल, अचल, सदा साक्षी स्वरूप, भाव (शुभ- अशुभ) से अतीत, तीनों गुणों (सत, रज, तम) से रहित (परे) उस सद्गुरु को नमस्कार करते हैं।
सरस्वती-
माँ सरस्वती विद्या एवं वाणी की देवी हैं। बोले गये शब्द में अन्तःकरण को प्रभावित करने योग्य प्राण पैदा हो, इस कामना- भावना के साथ माँ सरस्वती की वन्दना करें।
लक्ष्मीर्मेधा धरापुष्टिः,
गौरी तुष्टिः प्रभा धृतिः।
एताभिः पाहि तनुभिः,
अष्टाभिर्मां सरस्वति॥१॥
अर्थात्- लक्ष्मी, मेधा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति- इन आठ रूपों वाली देवी सरस्वती हमारी रक्षा करें।
सरस्वत्यै नमो नित्यं, भद्रकाल्यै नमो नमः।
वेदवेदान्तवेदाङ्ग, विद्यास्थानेभ्य एव च॥२॥
अर्थात्- वेद- वेदान्त तथा वेदाङ्ग- विद्या के स्वरूप वाली माता सरस्वती एवं भद्रकाली को बारम्बार नमस्कार है।
मातस्त्वदीय- पदपङ्कज -- भक्तियुक्ता,
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण,
भू- वह्नि- वायु-गगनाम्बु,
विनिमिर्तेन।।३।।
अर्थात्- हे माँ सरस्वति! जो लोग अन्य जनों का आश्रय त्याग कर, भक्ति- भाव हृदय से आपके चरण कमलों का भजन (सेवन) करते हैं, वे पञ्चतत्त्व- (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश- )) निर्मित शरीर से मुक्ति पा जाते हैं।
व्यास-
व्यासपीठ पर बैठकर कर्मकाण्ड सञ्चालन का जो उत्तरदायित्व उठाया है, उसके अनुरूप अपने मन, वाणी, अन्तःकरण, बुद्धि आदि को बनाने की याचना इस वन्दना के साथ करें।
व्यासाय विष्णुरूपाय, व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये, वासिष्ठाय नमो नमः॥१॥
अर्थात्- ब्रह्मनिधि (ब्रह्मज्ञान से परिपूर्ण) वसिष्ठ वंशज (वसिष्ठ के प्रपौत्र) विष्णु रूपी व्यास और व्यास रूपी विष्णु को नमस्कार है। विष्णु रूपी व्यास और व्यास रूपी विष्णु को नमस्कार है।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे, फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः।
-- ब्र०पु० २४५.७.११
अर्थात्- अत्यधिक बुद्धिशाली, विकसित कमल की तरह नेत्रों वाले, हे महर्षि व्यास! आपको नमस्कार है। आपने महाभारत रूपी तेल से परिपूर्ण ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित किया है।
॥ साधनादिपवित्रीकरणम्॥
सत्कार्यों, श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिये यथाशक्ति साधन, माध्यम भी पवित्र रखने पड़ते हैं। कर्मकाण्ड में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों, साधनों में सन्निहित अशुभ संस्कार हटाये जाते हैं, उन्हें मन्त्र शक्ति से नष्ट किया जाता है एवं देवत्व का संस्कार जगाया जाता है। एक प्रतिनिधि जल लेकर मंत्र पाठ के साथ पल्लवों/ कुशाओं या पुष्पों से सभी उपकरणों, साधकों, पूजन सामग्रियों पर जल सिंचन करें। भावना करें मन्त्र शक्ति के प्रभाव से उनमें कुसंस्कारों के पलायन और सुसंस्कारों के उभार स्थापन का क्रम चल रहा है।
ॐ पुनाति ते परिस्रुत* सोम* सूर्यस्य दुहिता। वारेण शश्वता तना। -१९.४
अर्थात्- हे यजमान! जिस प्रकार सूर्यपुत्री उषा सोम को शाश्वत छन्ना (प्रकृतिगत शोधन प्रक्रिया) से पवित्र करती है, उसी प्रकार श्रद्धा तुम्हें पवित्र करती है। (देवशक्तियों के लिए उपयोगी बनाती है।)
ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा। -१९.३९
अर्थात्- देवगण हमें पवित्र बनाएँ। सुविचारों से सुवासित मन एवं बुद्धि हमें पवित्र बनाएँ। सम्पूर्ण प्राणी हमें पवित्र बनाएँ। हे जातवेदः(अग्निदेव)! आप भी हमें पवित्र बनाएँ।
ॐ यत्ते पवित्रमर्चिषि अग्ने विततमन्तरा।
ब्रह्म तेन पुनातु मा॥ -१९.४१
अर्थात्- हे अग्ने! आपकी तेजस्वी ज्वालाओं के मध्य में जो परम पवित्र, सत्य, ज्ञान एवं अनन्त रूप विविध लक्षणों से युक्त ब्रह्म विस्तृत हुआ है, उससे हमारे जीवन को पवित्र करें।
ॐ पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणिः।
यः पोता स पुनातु मा।- १९.४२
अर्थात्- जो पवित्रता प्रदान करने वाले विलक्षण द्रष्टा वायुदेव सर्वज्ञाता और स्वयं पवित्र हैं, वे आज अपनी पवित्रता से हमारे जीवन को पवित्र करें।
ॐ उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सवेन च।
मां पुनीहि विश्वतः॥ -१९.४३
अर्थात्- हे सर्वप्रेरक सविता देव! आप अपने दोनों प्रकार के स्वरूपों से अर्थात् अपनी (यज्ञ के लिए) आज्ञा से और प्रत्यक्ष पवित्र स्वरूप से, सब ओर से हमारे जीवन को पवित्र बनाएँ।
॥ मङ्गलाचरणम्॥
प्रत्येक शुभ कार्य को सम्पन्न करने से पहले वाले याजकों, साधकों के कल्याण,उत्साह अभिवर्धन, सुरक्षा और प्रशंसा की दृष्टि से पीले अक्षत और पुष्प की वर्षा कर स्वागत किया जाता है। मन्त्र के साथ भावना की जाय, देव अनुग्रह की वर्षा हो रही है, देवत्व के धारण तथा निर्वाह की क्षमता का विकास हो रहा है।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रंपश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा * सस्तनूभिः व्यशेमहि देव हितं यदायुः॥ -२५.२१
अर्थात्- याजकों के पोषक हे देवताओ! हम सदैव कल्याणकारी वचनों को ही अपने कानों से सुनें, नेत्रों से सदैव कल्याणकारी दृश्य ही देखें। हे देव! परिपुष्ट अंगों से युक्त सुदृढ़ शरीर वाले हम आपकी वन्दना करते हुए- लोक हितकारी कार्यों को करते हुए पूर्ण आयु तक जीवित रहें।
॥ पवित्रीकरणम्॥
देवत्व से जुड़ने की पहली शर्त पवित्रता है। उन्हें शरीर और मन से, आचरण और व्यवहार से शुद्ध व्यक्ति ही प्रिय होते हैं। इसीलिये यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कार्य में भाग लेने के लिये शरीर और मन को पवित्र बनाना होता है। बायें हाथ की हथेली में एक चम्मच जल लें, दायें हाथ से ढकें, मन्त्र से अभिपूरित जल शरीर पर छिड़कें, भाव करें हम अन्दर और बाहर से पवित्र हो रहे हैं।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु।
-वा०पु० ३३.६
अर्थात्- पवित्र अथवा अपवित्र किसी भी अवस्था में कोई क्यों न हो, जो पुण्डरीकाक्ष (कमलवत् निर्लिप्त नेत्रों वाले भगवान्- विष्णु) का स्मरण करता है, वह अन्तर्बाह्य (शरीर- मन) से पवित्र हो जाता है। हे परमात्मन्! हमें पवित्र करो, हे पुण्डरीकाक्ष ! हमें पवित्र करो, हे पुण्डरीकाक्ष! हमें पवित्र करो।
॥ आचमनम्॥ आचमन का अर्थ है क्रियाशक्ति, विचारशक्ति और भावशक्ति का परिमार्जन इन तीनों ही केन्द्रों में शान्ति, शीतलता, सात्विकता और पवित्रता का समावेश हो। इन्हीं भावनाओं के साथ तीन आचमनी जल स्वाहा के साथ मुख में डालें।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥१॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा॥२॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा॥३॥
-आश्व०गृ०सू० १.२४ मा०गृ०सू० १.९
अर्थात्- हे अमृत स्वरूप जल (देवता) तुम मेरे बिस्तर (आधार) हो। हे अमृत स्वरूप जल (देवता) तुम मेरे आच्छादन (उपकारक) हो। हे देव! मुझे सत्य, यश और श्री- समृद्धि से सम्पन्न बनाओ।
॥ शिखावन्दनम्॥
शिखावन्दन- शिखा का दूसरा नाम चोटी भी है। चोटी शिखर स्तर की होती है। हम भी शिखर स्तर के उच्च विचारों, भावनाओं और आदर्शों से युक्त हों। इन्हीं भावनाओं के साथ बायें हाथ की हथेली में जल लेकर दायें हाथ की उँगलियों को गीलाकर शिखा स्थान का स्पर्श करें।
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ -सं.प्र.
अर्थात्- हे चैतन्य- स्वरूपे महामाये! (ब्रह्म की पराशक्ति) दिव्य तेज से सम्पन्न देवि! मेरे शिखा स्थान पर विराजमान होकर मुझे दिव्य तेज प्रदान कीजिए।
॥ प्राणायामः॥
श्रेष्ठता के संवर्धन और निक्रिष्टता के निष्कासन के लिये विशिष्ट प्राण शक्ति की जरूरत होती है। प्राणायाम की क्रिया द्वारा उसी शक्ति को अन्दर धारण किया जाता है। कमर सीधी करके बैठें, धीरे- धीरे गहरी श्वास अन्दर खींचें, यथाशक्ति अन्दर रोकें, धीरे- धीरे बाहर निकालें, थोड़ी देर बिना श्वास के रहें। भावना करें शरीरबल, मनोबल और आत्मबल में वृद्धि हो रही है।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।
ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ। -तै०आ० १०.२७
अर्थात्- ॐ अर्थात् परमात्मा भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम् -इन सात लोकों में संव्याप्त है। उस वरण करने योग्य भर्ग स्वरूप (पापनाशक) दिव्य सविता देवता का ध्यान करता हूँ, जो (वह) हमारी बुद्धि को (सत्कर्म में) प्रेरित करे। ब्रह्म (परमात्मा) आपः (जल) रूप, ज्योति (तेज) रूप, रस (आनन्द) रूप तथा अमृतरूप है, भूः भुवः आदि समस्त लोकों में विद्यमान है।
॥ न्यासः॥
न्यास का अर्थ होता है धारण करना, हम भी ऋषि- देवताओं की तरह देवत्व धारण कर सकें, इसके लिये न्यास किया जाता है। बायें हाथ की हथेली में जल लें, दायें हाथ की उँगलियों को गीला कर, मन्त्र के साथ निर्दिष्ट अंगों को बायें से दायें स्पर्श करते चलें। भावना करें हमारी इन्द्रियों में देवत्व की स्थापना हो रही है।
ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)
ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु।
(समस्त शरीर पर)
-पा. गृ. सू. १.३.२५
अर्थात्- हे परमात्मन्! मेरे मुख में वाणी (वाक् शक्ति) हो। मेरी नासिका में प्राण तत्त्व हो। मेरी आँखों में चक्षु (दर्शन शक्ति) हो। मेरे कानों में श्रवण (की शक्ति) हो। मेरी भुजाओं में बल (बलिष्ठता) हो। मेरे समस्त अङ्ग दोषरहित होकर मेरे साथ सहयोग करें।
॥ पृथ्वीपूजनम्॥
वेदों में कहा गया है 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः' अर्थात् धरती हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। धरती माता के ऋण से उऋण होने और उनके जैसी उदारता, सहनशीलता, विशालता के गुणों को धारण करने के भाव से एक आचमनी जल धरती पर छोड़ें तथा प्रणाम करें।
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका, देवि! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरु चासनम्॥ -सं०प्र०
अर्थात्- हे पृथ्विी ! तुम भगवान् विष्णु के द्वारा धारण की गयी हो और तुमने सभी लोकों को धारण किया है। हे देवि! तुम मुझे भी धारण करो और मेरे आसन को पवित्र करो।
॥ सङ्कल्पः॥
सङ्कल्प करने से मनोबल बढ़ता है। मन के ढीलेपन के कुसंस्कार पर अंकुश लगता है। स्थूल घोषणा से सत्पुरुषों का तथा मन्त्रों द्वारा की गई घोषणा से देवशक्तियों का मार्गदर्शन और सहयोग मिलता है। दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लेकर श्रद्धा- निष्ठापूर्वक अभीष्ट कार्य सम्पादन हेतु सङ्कल्प लें।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो
महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया
प्रवर्त्तर्मानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये
परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे
वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे
भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते..........क्षेत्रे..........
स्थले मासानां मासोत्तमेमासे..........
मासे..........पक्षे..........तिथौ..........
वासरे.......... गोत्रोत्पन्नः
..........नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय,
दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय,
आत्मकल्याणाय, वातावरण-
परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्य- कामनापूर्तये च प्रबलपुरुषार्थं करिष्ये,
अस्मै प्रयोजनाय च कलशादि-
आवाहितदेवता ...............कर्मसम्पादनार्थं सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
अर्थात्- विष्णु स्वरूप परमात्मा की आज्ञा से प्रवर्तित (प्रारम्भ) होने वाले श्री ब्रह्माजी के आज दूसरे परार्द्ध (दिन के अपराह्न काल) में, श्री श्वेत वाराहकल्प में, वैवस्वत मन्वन्तर में, भूलोक में, भरतखण्ड के आर्यावर्त्त (भारत) देश के अन्तर्गत क्षेत्र
में.............स्थान
में.............मासोत्तम मास
में..............पक्ष
में............तिथि
में..............दिन
में.............गोत्र
में उत्पन्न हुआ .............नामवाला मैं, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, दुृष्प्रवृत्ति का उन्मूलन करने के लिए लोककल्याण और आत्मकल्याण के लिए, वातावरण को परिष्कृत करने के लिए उज्ज्वल भविष्य की कामना- पूर्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ करूँगा और इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए कलश आदि आवाहित देवता के पूजन पूर्वक ....................कर्म सम्पन्न करने के लिए सङ्कल्प करता हूँ।
॥ यज्ञोपवीतधारणम्॥
यज्ञीय दर्शन को सदा- सर्वदा स्मरण रखने, धारण करने के लिये तथा व्रतशील जीवन जीने की प्रेरणा लेते हुये मन्त्र के साथ यज्ञोपवीत धारण करें।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं,
प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं,
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।
-पार०गृ०सू० २.२.११
अर्थात्- परम पवित्र यज्ञोपवीत को प्रजापति ने सहजतया (सबके लिए) सर्वप्रथम विनिर्मित किया है। यह (यज्ञोपवीत )) आयुष्य, अग्र्य(श्रेष्ठता), यश, बल और तेजस्विता देने वाला है।
॥ जीर्णोपवीत- विसर्जनम्॥
नया यज्ञोपवीत धारण करने के बाद मन्त्र के साथ पुराना यज्ञोपवीत निकाल दें। पुराने यज्ञोपवीत को किसी देववृक्ष पर लटका दें या जमीन में गाड़ दें।
ॐ एतावद्दिनपर्यन्तं,
ब्रह्मत्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथा सुखम्॥
अर्थात्- हे ब्रह्मसूत्र- यज्ञोपवीत! इतने दिनों तक मैंने तुम्हें धारण किया, अब जीर्ण हो जाने से तुम्हारा परित्याग कर रहा हूँ। तुम सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान को चले जाओ।
॥ चन्दनधारणम्॥
शरीर की सारी क्रियाओं का सञ्चालन विचारों से, मस्तिष्क से होता है। हमारा मस्तक सदा शान्त और विवेकयुक्त बना रहे। विचारों में देवत्व का, श्रेष्ठता का सञ्चार होता रहे; ताकि हमारे क्रियाकलाप श्रेष्ठ हों। इसी भाव से दायें हाथ की अनामिका उँगली के सहारे मस्तक पर तिलक लगायें।
ॐ चन्दनस्य महत्पुण्यं,
पवित्रं पापनाशनम्।
आपदां हरते नित्यं,
लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा॥
अर्थात्- चन्दन धारण करना महान् पुण्यदायक, पवित्रतावर्धक, पाप नाशक, आपत्ति निवारक और नित्य प्रति समृद्धिवर्धक है।
॥ रक्षासूत्रम्॥
यह वरण सूत्र है। आचार्य की ओर से प्रतिनिधियों द्वारा बाँधा जाना चाहिए। पुरुषों तथा अविवाहित कन्याओं के दायें हाथ में तथा महिलाओं के बायें हाथ में कलावा बाँधा जाता है। जिस हाथ में रक्षा सूत्र बँधवायें, उसकी मुट्ठी बाँधकर रखें, दूसरा हाथ सिर पर रखें। इस पुण्य कार्य के लिए व्रतशील बनकर उत्तरदायित्व स्वीकार करने का भाव रखा जाय।
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति
दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति
श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ -१९.३०
अर्थात्- व्रतपूर्वक यज्ञानुष्ठान सम्पन्न करने पर मनुष्य (दीक्षा) दक्षता को प्राप्त करता है, दक्षता से प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, प्रतिष्ठा से श्रद्धा की प्राप्ति होती है और श्रद्धा से सत्य (रूप परमेश्वर) को प्राप्त करता है।
॥ कलशपूजनम्॥
भारतीय संस्कृति में कलश का बड़ा महत्व है। वैदिक काल से ही शुभ अवसरों पर कलश स्थापना एवं पूजन का प्रचलन रहा है। कलश विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक है, इसमें सभी देव शक्तियाँ निवास करती हैं। सभी में जल जैसी शीतलता एवं कलश जैसी पात्रता का विकास हो इस भाव से एक प्रतिनिधि जल, गन्ध- अक्षत, पुष्प, धूप- दीप, नैवेद्य से पूजन करें।
ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः तदा
शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश * समानऽ आयुः प्रमोषीः। -- १८.४९
अर्थात्- वेद मन्त्रों द्वारा अभिनन्दित हे वरुणदेव! हवियों का दान देकर यजमान लौकिक सुखों की आकांक्षा करता है। हम वेद- वाणियों के ज्ञाता (ब्राह्मण) यजमान की तुष्टि एवं प्रसन्नता के निमित्त स्तुतियों द्वारा आपकी प्रार्थना करते हैं। सबके द्वारा स्तुत्य देव! इस स्थान में आप क्रोध न करके हमारी प्रार्थना सुनें। हमारी आयु को किसी प्रकार क्षीण न करें।
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य
बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ*
समिमं दधातु। विश्वेदेवास ऽ इह
मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ। -२.१३
अर्थात्- हे सवितादेव! आपका वेगवान् मन आज्य (घृत) का सेवन करे। बृहस्पति देव इस यज्ञ को अनिष्ट रहित करके इसका विस्तार करें, इसे धारण करें। सभी देवी- शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित हों- सन्तुष्ट हों। (सविता देव की ओर से कथन) तथास्तु- प्रतिष्ठित हों।
॥ कलशप्रार्थना॥
सभी परिजन कलश में प्रतिष्ठित देव शक्तियों की हाथ जोड़कर प्रार्थना करें।
ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्यस्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥१॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे,
सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः,
सामवेदो ह्यथर्वणः॥२॥
अङ्गैश्च सहिताः सर्वे,
कलशन्तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री,
शान्ति पुष्टिकरी सदा॥३॥
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि,
त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
शिवः स्वयं त्वमेवासि,
विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥४॥
आदित्या वसवो रुद्रा,
विश्वेदेवाः सपैतृकाः।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि,
यतः कामफलप्रदाः॥५॥
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव।
सान्निध्यं कुरु मे देव!
प्रसन्नो भव सर्वदा॥६॥
अर्थात्- कलश के मुख स्थान पर विष्णु, कण्ठ स्थान में रुद्र, मूल (पेंदी) स्थान में ब्रह्मा, मध्य स्थान में मातृका गण (षोडश मातृका), कुक्षि (गर्भ- पेट) स्थान में सभी सागर, सातों द्वीपों वाली धरती, ऋग्, यजु, साम और अथर्ववेद तथा छहों अङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष) सभी कलश में विद्यमान हैं। यहीं (कलश मध्य में) गायत्री, सावित्री, शान्ति, पुष्टिदायी- शक्ति सर्वदा निवास करती है। हे कलश! तुममें सभी प्राणी और सभी प्रजापति ब्रह्मा हो। हे कलश देवता! आदित्यगण (१२ सूर्य), वसुगण (८ वसु), रुद्रगण (११ रुद्र), विश्वेदेवगण (९ विश्वे देव), समस्त पितृगण आदि तुममें निवास करते हैं, जो कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हे जल से उत्पन्न कलश!आपकी प्रसन्नता से यह यज्ञ सम्पन्न करना चाहता हूँ। हे देव! आप यहाँ उपस्थित रहें और सदा- सर्वदा हम सब पर प्रसन्न रहें।
॥ दीपपूजनम्॥
दीपक को सर्वव्यापी चेतना का प्रतीक माना गया है। दीपक का गुण है ऊर्ध्वगमन और सबको प्रकाशित करना। हम भी दीपक की तरह महानता के पथ पर चलें और सबको ज्ञान का आलोक बाँटे और सबके जीवन के दुःख और अँधेरे को मिटाने का प्रयास करें, इसी भावना के साथ दीप देवता का पञ्चोपचार पूजन करें।
ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा
सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा
अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा
सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा। -३.९
अर्थात्- अग्नि तेजरूप है तथा तेज अग्निरूप है, हम तेजरूपी अग्नि में हवि देते हैं। सूर्य ज्योतिरूप है एवं ज्योति सूर्यरूप है, हम ज्योतिरूपी अग्नि में आहुति देते हैं। अग्नि वर्चस्रूप है और ज्योति वर्चस्रूप है, हम वर्चस्रूपी अग्नि में हवन करते हैं। सूर्य ब्रह्म तेज का रूप है तथा ब्रह्मवर्चस सूर्यरूप है, हम उसमें हवि प्रदान करते हैं। ज्योति ही सूर्य है और सूर्य ही ज्योति है, हम उसमें (इस मन्त्र से) आहुति समर्पित करते हैं।
॥ देवावाहनम्॥
निरन्तर दैवी अनुदान प्रदान करने वाली देवशक्तियों का, सद्गुणों और सत्कर्मों में अभिवृद्धि के लिये आवाहन- पूजन किया जाता है।
गुरु-
प्रत्येक शुभ कार्य में दैवी अनुग्रह आवश्यक है। इस यज्ञीय कार्य में सर्वप्रथम गुरुसत्ता का आवाहन करते हैं। वे हमारे अन्दर के अज्ञान को हटा कर ज्ञान को प्रतिष्ठित करें। हे गुरुदेव! आप ही शिव हैं, आप ही विष्णु हैं। आप हमारे सद्ज्ञान और सद्भाव को बढ़ाते रहें और हम सब इस यज्ञीय कार्य को सफल और सार्थक बना सकें।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥१॥
अर्थात्- गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरुदेव ही महेश्वर हैं। गुरु ही परब्रह्म हैं, उन श्रीगुरु को नमस्कार है।
अखण्डमण्डलाकारं,
व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन,
तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥ -गु०गी० ४३,४५
अर्थात्- जिस (परब्रह्म) ने अखण्डमण्डलाकार चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, उस (ब्रह्म) पद को जिनने दिखला दिया है, उन श्री गुरु को नमस्कार है।
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै,
श्रद्धा- प्रज्ञायुता च या॥३॥
अर्थात्- माता के समान लालन- पालन करने वाली, पिता के समान मार्गदर्शन प्रदान करने वाली, श्रद्धा और प्रज्ञा के स्वरूप वाली उस गुरुसत्ता को नमस्कार है। गायत्री- शास्त्रों में कहा गया है गायत्री सर्वकामधुक अर्थात् गायत्री समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। हे माँ! हमें सद्बुद्धि देना, जिससे हम सत्कर्म करें और सद्कार्यों से सद्गति को प्राप्त कर सकें। इस भाव से पूजन करें।
ॐ आयातु वरदे देवि!
त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि!
गायत्रिच्छन्दसां मातः!
ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥४॥ -सं०प्र०
अर्थात्- हे वरदायिनि देवि! त्र्यक्षर स्वरूपा (अ, उ, म्) ब्रह्मवादिनी (मन्त्र प्रवक्ता), ब्रह्म की उद्भाविका गायत्री देवि! आप छन्दों (वेदों) की माता हैं! आप यहाँ आयें, आपको नमस्कार है।
ॐ स्तुता मया वरदा
वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्। -अथर्व० १९.७१.१
अर्थात्- हम साधकों द्वारा स्तुत (पूजित) हुई, अभीष्ट फल प्रदान करने वाली, वेदमाता (गायत्री) द्विजों को पवित्रता और प्रेरणा प्रदान करने वाली हैं। आप हमें दीर्घ जीवन, प्राणशक्ति, सुसन्तति, श्रेष्ठ पशु (धन), कीर्ति, धन- वैभव और ब्रह्मतेज प्रदान करके ब्रह्मलोक के लिए प्रस्थान करें।
गणेश- अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं,
पूजितो यः सुरासुरैः।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै, गणाधिपतये नमः ॥५॥
अर्थात्- जो अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए देवताओं- दैत्यों द्वारा पूजे गये हैं और सम्पूर्ण विघ्नों को समाप्त कर देने वाले हैं, उन गणाधिपति(प्रमथादि गणों के स्वामी) को नमस्कार है।
गौरी- सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थसाधिके!
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि, नारायणि! नमोऽस्तु ते॥६॥
अर्थात्- सभी का सब प्रकार से मङ्गल करने वाली शिवा (कल्याणकारिणि)! सभी कार्यों को पूर्ण करने वाली, शरणदात्री, त्रिनेत्रधारिणी, गौरी, नारायणी देवि! (महादेवि) आपको नमस्कार है।
हरि- शुक्लाम्बरधरं देवं, शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् , सर्वविघ्नोपशान्तये॥७॥
सर्वदा सर्वकार्येषु, नास्ति तेषाममंगलम्।
येषां हृदिस्थो भगवान्, मङ्गलायतनो हरिः॥८॥
अर्थात्- शुक्ल (श्वेत) वस्त्र धारण करने वाले, दिव्य गुणों से युक्त, चन्द्र सदृश (आह्लादक) वर्ण वाले, चतुर्भुज, प्रसन्न मुख (भगवान् श्रीहरि) का सम्पूर्ण विघ्नों की परिसमाप्ति के लिए ध्यान करना चाहिए। सर्वदा, सभी कार्यों में उसका अमङ्गल नहीं होता है, जिसके हृदय में मंगल स्वरूप भगवान् श्रीहरि विराजमान होते हैं।
सप्तदेव-
विनायकं गुरुं भानुं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान्।
सरस्वतीं प्रणौम्यादौ, शान्तिकार्यार्थसिद्धये॥९॥
अर्थात्- शान्तिपूर्वक सभी कार्यों की पूर्णता के लिये सर्वप्रथम विनायक (गणेश), गुरु, सूर्यदेव, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और देवी सरस्वती को प्रणाम करता हूँ।
पुण्डरीकाक्ष- मङ्गलं भगवान् विष्णुः,
मङ्गलं गरुडध्वजः।
मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो,
मङ्गलायतनो हरिः॥१०॥
अर्थात्- भगवान् विष्णु मङ्गलदायक हैं। गरुडध्वज (गरुडाङ्कित ध्वज वाले भगवान् विष्णु) मङ्गलकारी हैं। पुण्डरीकाक्ष (निर्लिप्त नेत्र वाले भगवान् विष्णु) मङ्गल स्वरूप हैं। हरि (पापों को हर लेने वाले भगवान् विष्णु) मङ्गल के आयतन (आश्रय) हैं।
ब्रह्मा-
त्वं वै चतुर्मुखो ब्रह्मा, सत्यलोकपितामहः।
आगच्छ मण्डले चास्मिन्, मम सर्वार्थसिद्धये॥११॥
अर्थात्- आप निश्चित रूप से चतुर्मुख ब्रह्मा (सृष्टिकर्त्ता), सत्यलोक (सत्य पर दृढ़ रहने वाले) पितामह (सभी के पोषणकर्ता) हैं। मेरे सर्वार्थसिद्धि (सभी अभीष्ट की पूर्ति) के लिए आप इस मण्डल (स्थान) में आकर विराजमान हों।
विष्णु-
शान्ताकारं भुजगशयनं, पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं,
मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं,
योगिभिर्ध्यानगम्यं,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं, सर्वलोकैकनाथम्॥१२॥
अर्थात्- शान्ताकार (शान्त प्रकृति वाले), भुजगशायी (शेष नाग पर शयन करने वाले), सुरेश (देवों के स्वामी), विश्वाधार (संसार के आधारभूत), गगन सृदश (आकाशवत्- सर्वत्र व्याप्त रहने वाले), मेघ के समान वर्ण वाले, शुभाङ्ग (श्रेष्ठ अंग- अवयव वाले), लक्ष्मीकान्त (लक्ष्मी के स्वामी), कमलनयन (कमल जैसे नेत्र वाले), योगियों द्वारा ध्यान किये जाने वाले, भवसागर का भय दूर करने वाले तथा सभी लोकों के एकमात्र स्वामी विष्णु की (मैं) वन्दना करता हूँ।
शिव-
वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्, वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम्।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ,,
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शङ्करम्॥१३॥
अर्थात्- उमापति, देवताओं के गुरु, देव (शिव) की वन्दना करता हूँ, जगत् के कारणभूत (भगवान् शङ्कर) की वन्दना करता हूँ, सर्पों के आभूषण वाले, मृग (चर्म) धारण करने वाले (शङ्कर) की वन्दना करता हूँ। पशुओं (जीवात्मा) के स्वामी (महेश) की वन्दना करता हूँ। सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि रूप नेत्र वाले (त्रिनेत्र) की वन्दना करता हूँ, मुकुन्द (विष्णु के) प्रिय (महेश्वर) की वन्दना करता हूँ। भक्तजनों को आश्रय देने वाले (आशुतोष) की वन्दना करता हूँ तथा कल्याणकारी शुभदाता (अवघढ़ दानी) की वन्दना करता हूँ।]
त्र्यम्बक-
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥१४॥ ३.६०
अर्थात्- सुगन्धि (सद्गुण) और पुष्टिवर्धक (पोषण करने वाले) त्र्यम्बक (त्रिनेत्र शिव) का मैं यजन (पूजन) करता हूँ, (वे देव) मुझे अपने अमृत (गुणों) से उर्वारुक (पकने के बाद फल के द्वारा डण्ठल छोड़ देने) के समान मृत्यु के बन्धन से मुक्त करें, अमृतत्त्व से नहीं।
दुर्गा- दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥१५॥
अर्थात्- हे देवि दुर्गे! (समस्त) प्राणियों के द्वारा स्मृत (पूजित) हुई तुम उनके समस्त भय को दूर कर देती हो। स्वस्थजनों के द्वारा स्मृत होने पर उन्हें सद्बुद्धि तथा अत्यधिक शुभ- कल्याण प्रदान करती हो। हे दारिद्र्य, दुःख और भय दूर करने वाली देवि! सभी का उपकार करने के लिए सदैव सरस हृदय वाली तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है? अर्थात् कोई नहीं।
सरस्वती- शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमां, आद्यां जगद्व्यापिनीं,
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां, जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम्,
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं, बुद्धिप्रदां शारदाम्॥१६॥
अर्थात्- जो शुक्लवर्ण वाली, ब्रह्म विचार (वेदों का ज्ञान) के सार स्वरूप, अत्यधिक श्रेष्ठ, आद्यशक्ति, जगत् में (सर्वत्र) व्याप्त रहने वाली, वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, अभयदान देने वाली, अज्ञानान्धकार को दूर करने वाली, हाथ में स्फटिक की माला धारण करने वाली, (श्वेत) कमल के आसन पर विराजमान तथा सद्बुद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन परमेश्वरी (सर्वसमर्थ) भगवती (ऐश्वर्य शालिनी) देवी सरस्वती को नमस्कार है।
लक्ष्मी-
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो मऽआवह॥१७॥
अर्थात्- सरस हृदय वाली, हाथी पर सवारी करने वाली, पोषण प्रदान करने वाली, सुवर्ण (सुन्दर वर्ण) वाली, सोने की माला धारण करने वाली, सूर्य शक्ति स्वरूपा अर्थात् सूर्य की पत्नी (संज्ञा) स्वरूपा, स्वर्णमयी (समृद्धिशाली) अग्नि की शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी देवि! मैं आपका आवाहन करता हूँ।
काली- कालिकां तु कलातीतां, कल्याणहृदयां शिवाम्।
कल्याणजननीं नित्यं, कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥१८॥
अर्थात्- मैं सदा कलाओं से परे, कल्याणकारी हृदय वाली, शिवास्वरूपा,कल्याणों की जन्मदात्री, कल्याणमयी देवी कालिका (काली) की पूजा करता हूँ।
गङ्गा- विष्णुपादाब्जसम्भूते, गङ्गे त्रिपथगामिनि।
धर्मद्रवेति विख्याते, पापं मे हर जाह्नवि॥१९॥
अर्थात्- भगवान् विष्णु के चरण कमल से निःसृत, त्रिपथगामी (आकाश, भू, पाताल में गमन करने वाली),धर्म- द्रव (सजल धर्म) के नाम से विख्यात हे जाह्नवि! (राजा जह्नु के कान से निष्पन्न गङ्गे!) मेरे पापों का हरण करो।
तीर्थ-
पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरितस्तथा।
आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥२०॥
अर्थात्- पुष्कर आदि तीर्थ तथा गङ्गा आदि नदियाँ पूजा के समय, मुझे पवित्र करने के लिए सदैव यहाँ उपिस्थत रहें।
नवग्रह-
ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी, भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः,सर्वेग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु॥२१॥
अर्थात्- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चन्द्र, भूमिसुत (मङ्गल) बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सभी ग्रह शान्तिदायक हों।
षोडशमातृका- गौरी पद्मा शची मेधा,
सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा,
मातरो लोकमातरः ॥२२॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता।
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥२३॥
अर्थात्- गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, माताएँ, लोक माताएँ, धृति, पुष्टि, तुष्टि तथा अपनी कुल देवी ये सोलह पूजनीया मातृकाएँ गणेश से भी अधिक वृद्धि प्रदान करने वाली हैं।
सप्तमातृका-
कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा, सिद्धिः प्रज्ञा सरस्वती। माङ्गल्येषु प्रपूज्याश्च, सप्तैता दिव्यमातरः॥२४॥
अर्थात्- कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, सिद्धि, प्रज्ञा और सरस्वती- ये सातों दिव्य माताएँ सभी माङ्गगलिक कृत्यों में पूजनीय होती हैं।
वास्तुदेव- नागपृष्ठसमारूढं, शूलहस्तं महाबलम्।
पातालनायकं देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥२५॥
अर्थात्- हाथी की पीठ पर आसीन, हाथ में शूल (त्रिशूल) धारण किये हुए, महान् बलशाली पाताल के नायक (स्वामी) वास्तुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।
क्षेत्रपाल-
क्षेत्रपालान्नमस्यामि, सर्वारिष्टनिवारकान्। अस्य यागस्य सिद्ध्यर्थं, पूजयाराधितान् मया॥२६॥
अर्थात्- इस यज्ञ की सिद्धि (सफलता) के लिए मेरी पूजा (सम्मान) से आराधित (आवाहित- प्रार्थित) हुए सभी अरिष्टों (विघातकों) को दूर करने वाले क्षेत्रपालों को (मैं) नमस्कार करता हूँ।
॥ सर्वदेवनमस्कारः॥
नमस्कार का अर्थ है सम्मान, हमारा झुकाव देवत्व (आदर्शों )) की ओर हो, इसी भाव से सभी देव शक्तियों को नमन करें।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।
अर्थात्- सिद्धि और बुद्धि के सहित श्रीगणेश जी को नमस्कार है।
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
अर्थात्- लक्ष्मी और नारायण को नमस्कार है।
ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः।
अर्थात्- उमा और महेश्वर को नमस्कार है।
ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः।
अर्थात्- वाणी और हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा जी) को नमस्कार है।
ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः।
अर्थात्- शची इन्द्राणी और पुरन्दर (इन्द्र को) नमस्कार है।
ॐ मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः।
अर्थात्- माता- पिता के चरण कमलों को नमस्कार है।
ॐ कुलदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- कुल (वंश) के देवताओं को नमस्कार है।
ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- इष्ट (इच्छित) फल प्रदाता देवताओं को नमस्कार है।
ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- ग्राम (समूह या गाँव) के देवताओं को नमस्कार है।
ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- स्थानीय देवताओं को नमस्कार है।
ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः।
अर्थात्- वास्तु (वस्तुओं के अधिष्ठाता) देवताओं को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
अर्थात्- समस्त देवों को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
अर्थात्- सभी ब्राह्मणों (ब्रह्मपरायणों) को नमस्कार है।
ॐ सर्वेभ्यस्तीर्थेभ्यो नमः।
अर्थात्- सभी तीर्थों (तार देने वालों) को नमस्कार है।
ॐ एतत्कर्मप्रधान श्रीगायत्रीदेव्यै नमः।
अर्थात्- इस (देवयजन) कार्य की प्रधान देवी गायत्री माता को नमस्कार है।
ॐ पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।
अर्थात्- उपर्युक्त पुण्याहवाचन पुण्य एवं दीर्घायु प्रदान करे।
॥ षोडशोपचारपूजनम्॥
देवशक्तियाँ पदार्थों की भूखी नहीं। पदार्थों को समर्पण के समय जो श्रद्धा- भावना उमड़ती है, भगवान् उसी से सन्तुष्ट होते हैं। ऐसी भावनाओं को सँजोये हुये, प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन, देवशक्तियों का पूजन क्रमशः बताये गये पदार्थों से करें।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि॥१॥
अर्थात्- सभी देवताओं को नमस्कार है। सभी देवताओं को आवाहित एवं स्थापित करता हूँ।
आसनं समर्पयामि॥२॥
अर्थात्- आसन प्रदान करता हूँ।
पाद्यं समर्पयामि॥३॥
अर्थात्- पाद्य (पैर धोने का जल) प्रदान करता हूँ।
अर्घ्यं समर्पयामि॥४॥
अर्थात्- अर्घ्य (सम्मानार्थ जल) प्रदान करता हूँ।
आचमनं समर्पयामि॥५॥
अर्थात्- आचमन (मुख प्रक्षालनाादि के निमित्त जल) प्रदान करता हूँ।
स्नानं समर्पयामि॥६॥
अर्थात्- स्नान हेतु जल प्रदान करता हूँ।
वस्त्रं समर्पयामि॥७॥
अर्थात्- वस्त्र समर्पित करता हूँ।
यज्ञोपवीतं समर्पयामि॥८॥
अर्थात्- यज्ञोपवीत प्रदान करता हूँ।
गन्धं विलेपयामि॥९॥
अर्थात्- गन्ध (चन्दन या रोली) लगाता हूँ।
अक्षतान् समर्पयामि॥१०॥
अर्थात्- अक्षत प्रदान करता हूँ।
पुष्पाणि समर्पयामि॥११॥
अर्थात्- पुष्प समर्पित करता हूँ।
धूपं आघ्रपयामि॥१२॥
अर्थात्- धूप सुवासित करता हूँ।
दीपं दर्शयामि॥१३॥
अर्थात्- दीपक दिखाता हूँ।
नैवेद्यं निवेदयामि॥१४॥
अर्थात्- नैवेद्य (मिष्टान्न आदि) का भोग लगाता हूँ।
ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि॥१५॥
अर्थात्- पान- सुपारी समर्पित करता हूँ।
दक्षिणां समर्पयामि॥१६॥
अर्थात्- दक्षिणा प्रदान करता हूँ।
सर्वाभावे अक्षतान् समर्पयामि॥
अर्थात्- अन्य किसी भी पदार्थ के अभाव में अक्षत प्रदान करता हूँ।
ततो नमस्कारं करोमि।
अर्थात्- तत्पश्चात् सभी देव शक्तियों को नमस्कार करता हूँ।
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
अर्थात्- हे अनन्तरूप वाले! सहस्र आकृतियों वाले, सहस्र पैरों, नेत्रों, सिरों, जङ्घाओं, भुजाओं वाले, सहस्र नामों वाले तथा सहस्र- करोड़ों युगों को धारण (पोषण) करने वाले शाश्वत पुरुष! आपको बार- बार नमस्कार है।
॥ स्वस्तिवाचनम्॥
स्वस्ति का तात्पर्य है कल्याणकारी, वाचन अर्थात् वचन बोलना ।। सभी के कल्याण की कामना करते हुये प्रत्येक परिजन दायें हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लें, बायाँ हाथ नीचे लगायें। मन्त्र पूरा हो जाने पर माथे से लगाकर पूजा की तश्तरी पर रख लें।
ॐ गणानां त्वा गणपति * हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपति * हवामहे
निधीनां त्वा निधिपति * हवामहे
वसो मम। आहमजानि गर्भधमा
त्वमजासि गर्भधम्॥ -२३.१९
अर्थात्- हे गणों के बीच रहने वाले सर्वश्रेष्ठ गणपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे प्रियों के बीच रहने वाले प्रियपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे निधियों के बीच रहने वाले सर्वश्रेष्ठ निधिपते! हम आपका आवाहन करते हैं। हे जगत् को बसाने वाले! आप हमारे हों। आप समस्त जगत् को गर्भ में धारण करते हैं, पैदा (प्रकट) करते हैं, आपकी इस क्षमता को हम भली प्रकार जानें।
ॐ स्वस्ति नऽ इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्तिनस्ताक्र्ष्योअरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।- २५.१९
अर्थात्- महान् ऐश्वर्यशाली, इन्द्रदेव हमारा कल्याण करें, सब कुछ जानने वाले पूषादेवता हमारा कल्याण करें, अनिष्ट का नाश करने वाले गरुड़ देव हमारा कल्याण करें तथा देवगुरु बृहस्पति हम सबका कल्याण करें।
ॐ पयः पृथिव्यां पय ऽ ओषधीषु पयो
दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः
प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥- १८.३६
अर्थात्- हे अग्ने! आप इस पृथ्वी पर समस्त पोषक रसों को स्थापित करें। ओषधियों में जीवन रूपी रस को स्थापित करें। द्युलोक में दिव्य रस को स्थापित करें। अन्तरिक्ष में श्रेष्ठ रस को स्थापित करें। हमारे लिए ये सब दिशाएँ एवं उपदिशाएँ अभीष्ट रसों को देने वाली हों।
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥- ५.२१
अर्थात्- भगवान् विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा) का प्रकाश फैल रहा है, उन (विष्णु) के द्वारा यह जगत् स्थिर है तथा विस्तार को प्राप्त हो रहा है, सम्पूर्ण जगत् परमात्मा से व्याप्त है, उन (विष्णु) के द्वारा यह जड़- चेतन दो प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है, उन्हीं भगवान् विष्णु के लिए यह देवकार्य किया जा रहा है।
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता
चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवता
ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा
देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता॥ -१४.२०
अर्थात्- अग्निदेवता, वायुदेवता, सूर्यदेवता, चन्द्रमादेवता, आठों वसु- देवता, ग्यारह रुद्रगण, बारह आदित्यगण, उनचास मरुद्गण, नौ विश्वेदेवागण, बृहस्पतिदेवता, इन्द्रदेवता और वरुणदेवता आदि सम्पूर्ण दिव्य शक्तिधाराओं को हम अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए स्थापित करते हैं।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष * शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व* शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
अर्थात्- द्युलोक (स्वर्ग), अन्तरिक्षलोक तथा पृथिवीलोक हमें शान्ति प्रदान करे। जल शान्ति प्रदायक हो, ओषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्ति प्रदान करने वाली हों। विश्वेदेवागण शान्ति प्रदान करने वाले हों। ब्रह्म (सर्वव्यापी परमात्मा) सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करे, शान्ति ही शान्ति हो, शान्ति भी हमें परम शान्ति प्रदान करे।
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ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा
सुव। यद्भद्रं तन्न ऽ आ सुव।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
सर्वारिष्टसुशान्ति:र्भवतु।- ३०।३
अर्थात्- हे सर्व- उत्पादक सवितादेव!
आप हमारी समस्त बुराइयों (पाप
कर्मों) को दूर करें तथा हमारे लिए जो
कल्याणकारी हो, उसे प्रदान करें।
॥रक्षाविधानम्॥
जहाँ उत्कृष्ट बनने, शुभ कार्य करने की
आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक
है कि दुष्टों की दुष्प्रवृत्ति से सतर्क रहा
जाय। इसीलिये रक्षाविधान किया
जाता है। इसके लिये प्रयेक कुड से
एक- एक परिजन बायें हाथ में पीले
अक्षत लेकर खड़े हो जायें और मन्त्र
के साथ निर्देशित दशों दिशाओं में
चावल प्रक्षेपित करें।
ॐ पूर्वे रक्षतु वाराहः,
आग्नेय्यां गरुडवजः।
दक्षिण पद्मनाभस्तु,
नैऋर्यां मधुसूदनः॥ २॥
पश्चिमे चैव गोविदो,
वायव्यां तु जनार्दनः।
उत्त्ररे श्रीपति रक्षेद्,
ऐशायां हि महेश्वरः॥ २॥
ऊर्वं रक्षतु धाता वो,
ह्यधोऽनतश्च रक्षतु।
अनुक्तमपि यतस्थानं,
रक्षवीशो ममाद्रिधृक्॥ ३॥
अपसर्पतु ते भूता,
ये भूता भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तार:,
ते गच्छन्तु शिवाज्ञाया॥ ४॥
अपक्रामतु भूतानि,
पिशाचाः सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन,
यज्ञकर्म समारभे॥ भ्॥
अर्थात्- पूर्व दिशा में वाराह भगवान्
रक्षा करें, आग्नेय में विष्णु भगवान्
रक्षा करें, दक्षिणा में पद्मनाभ (शेषशायी
विष्णु) रक्षा करें, उत्तर में श्रीपति रक्षा
करें, नैऋत्य में मधुसूदन रक्षा करें,
पश्चिम में गोविंद रक्षा करें, वायव्य में
जनार्दन रक्षा करें, ईशान में महेश्वर
रक्षा करें, ऊपर धाता (धारण तथा रक्षण
करने वाले विष्णु) रक्षा करें, नीचे अनन्त
भगवान् रक्षा करें,इसके अतिरित
जिन स्थानों का कथन नहीं हुआ, उसकी
रक्षा परमेश्वर करें। भगवान् शिव की
आज्ञा से वे सभी भूत- प्रेतगण दूर हट
जायें, जो इस यज्ञ स्थल पर विद्यमान हैं
और विघ्न डाला करते हैं। सभी भूत- प्रेत
पिशाचगण यहाँ से सभी दिशाओं की
ओर चले जाएँ। इस प्रकार सभी के
अविराधे पवूर्क (बिना किसी वैर -विरोध
के) मैं इस यज्ञ कृत्य का को प्रारम्भ करता हूँ।
अग्निस्थापनम्अग्नि को ब्रह्म का प्रतिनिधि मानकर
यज्ञ कुण्ड में उनकी प्रतिष्ठा की जाती है।
अग्नि का स्वभाव है आगे बढ़ना
निरन्तर ऊपर उठना। सभी की प्रगति
की कामना से यज्ञ कुण्ड में अग्निदेव का
आवाहन करें। किसी समिधा या चम्मच
में, रुई की घी में डुबोईं फूल बत्ती या
कपूर को प्रज्ज्वलित कर अग्नि प्रतिष्ठित
करें और अग्निदेव का पंचोपचार विधि
से पूजन करें।
ॐ भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव
वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि
पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे। अग्निं दूतं
पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ२आ
सादयादिह। -३।५, २२।१७
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि,
स्थापयामि, यायामि। गधाक्षतं,
पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।
अर्थात्- (हे अग्निदेव!) आप भूः
(पृथिवीलोक में अग्निरूप), भुवः
(अंतरिक्ष में विध्युत् रूप) एवं स्वः
(ध्युलोक में सूर्यरूप) में सर्वत्र विद्यमान
हैं। देवताओं के निमित्त यज्ञ सम्पादन के
लिए उत्तम स्थान प्रदान करने वाली हे
पृथिवि! हम देवों को हवि प्रदान करने के
लिए आपके ऊपर बनी हुई यज्ञ- वेदी पर
अग्निदेव को प्रतिष्ठित करते हैं। (इस
अग्निस्थापन के द्वारा) हम (पुत्र -
पौत्रादि तथा इष्ट- मित्रों से युक्त होकर)
द्युलोक के समान सुविस्तृत तथा (यश,
गौरव, ऐश्वर्यादि से युक्त होकर) पृथिवी के समान महिमावान् हों। हवि को देवों
तक के जाने वाले देवदूत रूप अग्निदेव
को हम अपने समक्ष स्थापित करते हैं
और उन्हीं से प्रार्थना करते हैं कि वे अन्य
देवताओं को भी लाकर यहाँ उपस्थित
करें।
गायत्रीस्तवनम्
जड़ चेतन सभी में प्राण का सचार करने
वाले सविता देवता हम सभी में दिव्य
प्राण का सचार करें, इसी भाव से
सविता देवता का स्तवन करें।
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं,
रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य- दुःखक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ १॥
शुभ योति के पुज,
अनादि, अनुपम।
ब्रह्माण्डव्यापी आलोककर्ता।। दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल प्रकाश उत्पन्न करने वाला,
विशाल रत्नों की तीव्र प्रभा वाला,
अनादि रूप वाला तथा दरिद्रता और
दुःख को नष्ट करने वाला है, वह मुझे
पवित्र करे।
यमडलं देवगणै: सुपूजितं,
विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ २॥
ऋषि देवताओं से निय पूजित।
हे भर्ग भवबन्धन मुक्तिकर्ता।।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ २॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज) मण्डल देवगणों से भली- भाँति पूजित है,
ब्राह्मणों के द्वारा मानव- मुक्ति दाता के
रूप में स्तुत है, उस देवों के देव भर्ग
(तेज) को मैं प्रणाम करता हूँ, वह मुझे
पवित्र करे।
यन्मनण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं,
त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणाम्।
समस्त- तेजोमय- दिव्यरुपं
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित!
पावन गुणों के विस्तारकर्ता।
समस्त प्रतिभा के आदिकारण।
पावन बना दो हे देव सविता!॥३॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ज्ञान का घनीभूत रूप है, अगम्य
(अबाध) है, तीनों लोकों में पूजित है,
त्रिगुण रूप है तथा समस्त दिव्य तेजों से
समन्वित है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं,
धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित!
तुम दोष- पापादि संहारकर्ता।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥४॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मडल गूढ़मति (अज्ञान से आच्छादित
बुद्धि) का प्रकाशक है, लोगों के अन्तस्
में धर्म तत्त्व की वृद्धि करने वाला है तथा
जो समस्त पापों के क्षय का कारण है,
वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं,
यदृग्यजुः सामसु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्वः,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ५॥
हे व्याधिनाशक, हे पुष्टिदाता!
ऋग् साम यजु वेद संचारकर्ता।
हे भूर्भुवः स्वः में स्व- प्रकाशित।
पावन बना दो हे देव सविता!॥५॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल व्याधियों (शारीरिक कष्टों) को
विनष्ट करने में दक्ष है। ऋग्, यजुः तथा
सामवेद के द्वारा प्रशंसित है तथा जिससे
भूः, भुवः और स्वः लोक प्रकाशित हैं,
सविता का वह मण्डल हमें पवित्र करे।
यन्मडलं वेदविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चरण सिद्धसङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी।
जिसके सदा से हैं गानकर्ता।।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ६॥
अर्थात- जो श्रेष्ठ सविता का (तजे ))
मण्डल वेदज्ञों द्वारा व्याख्यायित है, जो
सिद्ध- चारणों द्वारा गाया (प्रशंसित किया)
जाता है। जो योगी जनो और यागेस्थ जनों
द्वारा प्रशंसित है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं,
ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्यलोके।
यत्काल- कालादिमनादिरूपं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ७॥
हे विश्वमानव से आदि पूजित!
नश्वर जगत् में शुभ ज्योतिकर्ता।
हे काल के काल अनादि ईश्वर!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ७॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल सभी लोगों द्वारा पूजित है, इस
मर्त्यलोक में ज्योति- स्वरूप है तथा जो
देशकाल से परे अनादि रूप वाला है, वह
मुझे पवित्रा करे।
यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं,
यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित!
हे भक्तपालक, हे पापहर्ता!।
हे काल कल्पादि के आदिस्वामी!
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ८॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ब्रह्मा, विष्णु के मुख मण्डल
सदृश है, जो अक्षर (नष्ट न होने वाला)
तथा लोगों के पापों को दूर करने वाला
है, जो काल और कल्प के क्षय का
कारण भी है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं,
त्पत्ति- रक्षा प्रलयप्रगल्भम्।
यस्मिन् जगसंहरतेऽखिलं च,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ 9॥
हे विश्वमडल के आदिकारण !
उत्पत्ति-पालन-संहारकर्त्ता- पालन।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ 9॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल सृजन के लिए प्रसिद्ध है, सृष्टि
की रक्षा, उत्पत्ति और संहार- कार्य में
सक्षम है, जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
प्रलयकाल में समाहित- लीन हो जाते हैं,
वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णों,
आत्मा परंधाम विशुद्धतवम्।
सूक्ष्मातरैर्योगपथानुगम्यं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥१०॥
हे सर्वव्यापी, प्रेरक नियता!
विशुद्ध आत्मा, कल्याणकर्ता।।
शुभ योग पथ पर हमको चलाओ।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १०॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तजे ))
मण्डल सवर्गत, सर्वत्र संव्याप्त- विष्णु की
आत्मा है, सर्वशुद्ध् एव एवं पर (श्रेष्ठ )) धाम है।
जो योग माग र्द्वारा सूक्ष्म अन्त:करण से
ज्ञात होने वाला है, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलों ब्रह्मविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चारण- सिद्धसंघाः।
यन्मण्डलों वेदविदः स्मरन्ति,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ ११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदिपूजित!
वेदज्ञ जिसके गुणगानकर्ता।
सद्भावना हम सबमें जगा दो।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ ११॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल ब्रह्मज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है,
जिसका चारण और सिद्ध समुदायों
द्वारा गुण- गान किया जाता है तथा
वेदज्ञानी जिस मण्डल को नित्य स्मरण
करते हैं, वह मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं वेद विदोपगीतं,
यद्योगिनां योगपथानुगम्यम्।
तसर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं,
पुनातु मां तसवितुर्वरेयम्॥ १२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक!
सद्ज्ञान के आदि सच्चारकर्ता।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभी का।
पावन बना दो हे देव सविता!॥ १२॥
अर्थात्- जो श्रेष्ठ सविता का (तेज)
मण्डल वेदज्ञानियों द्वारा गेय है तथा
योगियों द्वारा योग मार्ग से प्राप्तव्य है,
उस सर्वज्ञ दिव्यतव को हम प्रणाम
करते हैं, वह मुझे पवित्र करे।
॥ अग्निप्रदीपनम्॥
अग्नि को भली प्रकार प्रवलित करके
आहुतियाँ समर्पित करने का विधान है।
हमारे जीवन का प्रयेक क्षण सद्ज्ञान के
प्रकाश से आलोकित हो, पूर्णता की प्राप्ति
के लिये जागरूक हो, ऐसी भावना से
प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन पंखे
से अग्नि को प्रदीप्त करें।
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि
त्वमिषटा पूर्ते स सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्
विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।
-१५।५४, १८।६१
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप जाग्रत् हों
और प्रतिदिन यजमान को भी जाग्रत्
करें। इस यज्ञ में यजमान के लिए इष्ट
(अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, अतिथि सत्कार
आदि) और पुर्त्त (देवालय, धर्मशाला,
चिकित्सालय आदि निर्माण) कर्मों को
करने और उसका फल प्राप्त करने की
स्थिति बनाएँ। आपके अनुग्रह से इस
यजमान की श्रेष्ठ इच्छाओं की पूर्ति हो। हे
विश्वेदेवागण! याजकों को देवताओं के
योग्य सर्वश्रेष्ठ निवास- स्थान देवलोक में
चिरकाल तक निवास प्रदान करें।
॥ समिधाधानम्॥
जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम,
सेवा का अवलम्बन लेकर अपने
अन्त:करण चतुष्टय- मन, बुद्धि, चित्त
और अहङ्कार को शुद्ध और शक्तिसम्पन्न
बनाने की प्रार्थना के साथ चार समिधाएँ
यज्ञ भगवान् को समर्पित की जाती हैं।
प्रत्येक कुण्ड से एक- एक परिजन
समिधाओं के दोनों छोरों को घी में
डुबोकर एक- एक करके स्वाहा के साथ
आहुतियाँ समर्पित करें।
१ ॐ अयन्त इध्म आत्मा
जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व।
चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया
पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन अन्नाद्येन
समेधय स्वाहा।- आश्व.गृ.सू. १.१०
इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम।
अर्थात्- जातवेदा इध्ममान हों, बढे़ं
और वृद्धि का को प्राप्त होकर हमको प्रजा
से, पशुओं से, ब्रह्मवर्चस से और
अन्नादि से समेधित (सवंर्द्धित) करें।
२ ॐ समिधाऽग्निं दुवस्यत
धृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥- ३।१
अर्थात्- हेऋत्विजो ! आप घृतसिक्त
समिधा से (यज्ञों में) अग्नि को
प्रज्ज्वलित करें। घृत की आहुति
प्रदान करके, सब कुछ आमसात्
करने वाले अग्निदेव को प्रदीप्त करें।
इसके बाद अग्नि में हवि- द्रव्य की
आहुतियाँ प्रदान करें।
३ ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे
घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम॥
अर्थात्- हे ऋत्विजो! श्रेष्ठ, भली-
भाँति प्र वलित, जा वल्यमान,
सर्वा (जातवेद), देदीयमान
यज्ञाग्नि में शुद्ध पिघले हुए घृत की
आहुतियाँ प्रदान करें।]
४ ॐ तं वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन
वर्धयामसि। बृहछोचा यविष्ठय
स्वाहा। इदं अग्नये अङ्गिरसे
इदं न मम॥ -३।३
अर्थात्- हे अग्निदेव! हम आपको
घृत और (उससे सिक्त) समिधाओं
से प्रदीप्त करते हैं। हे नित्य तरुण
(तेजस्वी) अग्निदेव! (घृत आहुति
प्राप्त होने के बाद) आप ऊँची उठने
वाली ज्वालओं के माध्यम से
प्रकाश युक्त हों।
॥ जलप्रसेचनम्॥
यज्ञीय ऊर्जा का दुरुपयोग न हो,
इसलिये इसकी सीमा मर्यादा निर्धारित
करने के लिये जलप्रसेचन किया जाता
है। प्रत्येक कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि
प्रोक्षणी पात्र में जल भरकर, कुण्ड के
बाहर मन्त्र के साथ निर्देशित दिशा में
जल का घेरा बनायें।
ॐ अदितेऽनुमयस्व॥
(इति पूर्वे) -गो.गृ.सू. १।३।१
ॐ अनुमतेऽनुमयस्व॥
(इति पश्चिमे) -गो.गृ.सू. १।३।२
ॐ सरस्वयनुमयस्व॥
(इति उत्तरे)- गो.गृ.सू. १।३।३
ॐ देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव
यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गधर्वः केतपूः,
केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः
स्वदतु॥ (इति चतुर्दिक्षु)- ११।७
अर्थात्- हे अदिते! आप मुझे इस
कर्म को करने की अनुमति दें।
हे अनुमते! आप इस कर्म को करने
की मुझे अनुमति प्रदान करें।
हे सरस्वति देवि! मुझे आप इस कर्म
को करने की अनुमति दें।
अर्थात्- हे सवितादेव! आप यज्ञीय
कर्मों की प्रेरणा सभी को दें। यज्ञ- कर्म
सम्पादित करने वालों को ऐश्वर्य-
सम्पदा से युत करके सकर्म की ओर
प्रेरित करें। (हे सवितादेव! आप)
दिव्यज्ञान के संरक्षक, वाणी के अधिपति
हमारे ज्ञान में पवित्रता का संचार करें
और हमारी वाणी में मधुरता का
समावेश करें।
॥ आ याहुतिः॥
सर्वप्रथम घी की सात आहुतियाँ दी जाती हैं। घी स्नेह, प्रेम का प्रतीक है। हमारा
प्रेम देवतत्व के प्रति हो, यज्ञीय जीवन के
प्रति हो इस भाव से आहुति समर्पित
करें। प्रत्येक कुंड से एक- एक प्रतिनिधि
स्रुवा पात्र के सहारे, स्वाहा के साथ
आहुति समर्पित करें, लौटाते समय घी
की एक बूँद जल से भरे प्रणीता पात्र में
टपकायें।
१ ॐ प्रजापतये स्वाहा।
इदं प्रजापतये इदं न मम॥ -१८।२८
अर्थात्- यह आहुति प्रजापति
(प्रजापालक) के लिए है, मेरे लिए
नहीं है।
२ ॐ इन्द्राय स्वाहा।
इदं इन्द्राय इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति इन्द्र (श्रेष्ठता)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
३ ॐ अग्नये स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति अग्नि
(तेजस्विता) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
४ ॐ सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय इदं न मम॥ -२२।२७
अर्थात्- यह आहुति सोम
(आह्लादकता) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
५ ॐ भूः स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति भूः (पृथ्वी)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
६ ॐ भुवः स्वाहा।
इदं वायवे इदं न मम॥
अर्थात्- यह आहुति भुवः
(अन्तरिक्ष) के लिए है,
मेरे लिए नहीं है।
७ ॐ स्वः स्वाहा।
इदं सूर्याय इदं न मम॥
-गो.गृ.सू. १।८।१५
अर्थात्- यह आहुति स्वः (स्वर्ग)
के लिए है, मेरे लिए नहीं है।
॥गायत्री मन्त्राहुति: ॥जिस पक्रार अति सम्माननीय अतिथि को प्रेम और सम्मानपूर्वक भोजन कराया
जाता है। उसी श्रद्धा, भक्ति और सम्मान से
यज्ञ भगवान को दायें हाथ की अनामिका,
मध्यमा और अंगुष्ठ के सहारे, स्वाहा के
साथ आहुित समपिर्त करें।
ॐ भूर्भुवः स्वः।
तसवितुर्वरेयं भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा।
इदं गायत्र्यै इदं न मम॥ -३६।३
अर्थात्- (तत्) उस (भूर्)
प्राणस्वरूप, (भुवः) दुःखनाशक, (स्वः)
सुखस्वरूप, (वरेण्यं) श्रेष्ठ, (सवितुः)
तेजस्वी, (भर्गः) पापनाशक, (देवस्य)
देवस्वरूप, (ॐ) परमात्मा को (धीमहि)
हम अंतरात्मा में धारणा करें। (यो) वह
परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धि को
(प्रचोदयात्) सन्मार्ग में प्रेरित करे। यह
आहुति उसी गायत्री तत्त्व को समर्पित
है, मेरे लिए नहीं।
॥ महामृयुञ्जय मन्त्राहुति:॥
विराट् देव परिवार से जुड़े हुये सभी
परिजनों के स्वास्थ्य लाभ और
आध्यात्मिक उन्नति की कामना करते
हुए महामृयुञ्जय मन्त्र से आहुति
समर्पित करें।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बधनान्
मृयोर्मुक्षीय माऽमृतात्, स्वाहा॥ -३।६०
इदं महामृयुञ्जयाय इदं न मम॥
अर्थात्- तीनों दृष्टियों
(आधिभौतिक, आधिदैविक तथा
आध्यात्मिक ) से युक्त रुद्रदेव की हम
उपासना करते हैं। वे देव, जीवन में
सुगन्धि (सदाशयता) एवं पुष्टि
(समर्थता) की वृद्धि करने वाले हैं, जिस
प्रकार पका हुआ फल स्वयं डण्ठल से
अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम
मृत्यु- भय से मुक्त हो जाएँ; कितु
अमृतत्व से दूर न हों।
।।स्विष्टकृत्होम्:।।स्विष्टकृत् होम में मिष्टान्न की आहुति समर्पित की जाती है। मिष्टान्न मधुरता
का प्रतीक है, जीवन में सर्वाङ्गीण - वाणी,,
व्यवहार और आचरण में मधुरता का
समावेश हो इसी भाव से प्रत्येक कुण्ड से
एक- एक प्रतिनिधि स्रुचि पात्र में मिष्टान्न
और घी भर लें, स्वाहा के साथ यज्ञाग्नि
में आहुति समर्पित करें।
ॐ यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं
यद्वायूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यासर्वं
स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते
सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां
कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः
कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।
इदं अग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥
-आश्व. गृ.सू. १।१०
अर्थात्- हे अग्निदेव! इस यज्ञ कार्य में
जो भी किसी विधान का उल्लंघन हुआ
हो, जो कुछ भी न्यूनता रह गयी हो, उसे
इस स्विष्टकृत् आहुति से मेरे लिए सुहुत
(श्रेष्ठ आहुति) बना दो। अग्निदेव के लिए
यह स्विष्टकृत् आहुति भली प्रकार होम
रहा हूँ। सम्पूर्ण दोषों के प्रायश्चित
स्वरूप समर्पित की गयी यह आहुति
हमारी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने
वाली हो; क्योंकि आप कामनाओं की
पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह स्विष्टकृत्
आहुति अग्निदेव के लिए है, मेरे लिए
नहीं।
॥ देवदक्षिणा- पूर्णाहुति:॥
परमामा पूर्ण है, हम भी पूर्ण बनें और
हमारे कोई भी कार्य अधूरे न रहें, पूर्णता
तक पहुँचें, साथ ही एक बुराई छोड़ने
और अच्छाई ग्रहण करने के सङ्कल्प
सहित पूर्णाहुति करें। प्रत्येक कुण्ड के
एक- एक प्रतिनिधि स्रुचिपात्र में सुपारी/
नारियल का गोला और अन्य लोग हवन
सामग्री/ नारियल का गोला लेकर
अपने स्थान पर खड़े हों और मन्त्र के
साथ आहुति समर्पित करें।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्
पूर्णमुदच्यते।
पूर्ण्स्य पूर्णमादाय पूणर्मेवावशिष्यते॥
-बृह. उ३।५।१।१
अर्थात्- वह (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (संसार)
पूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्म से प्रकट होने के
कारण इस संसार को भी पूर्ण कहा जाता
है। पूर्णतत्व में से पूर्णता ले ली जाय, तो
भी वह पूर्ण ही रहता है।
ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज * शतक्रतो
स्वाहा॥ -३।४९-
ॐ सर्वं वै पूर्ण * स्वाहा॥
अर्थात्- हे (काष्ठ निर्मित) दर्वे! आप
समीपवर्ती अन्न से पूर्ण होकर, उत्कृष्ट
होती हुई इन्द्रदेव की ओर गमन करें।
कर्मफल से भली- भाँति परिपूर्ण होती
हुई, पुनः इन्द्रदेव के पास गमन करें।
अनेक श्रेष्ठ कार्यों के सम्पादक हे
इन्द्रदेव! हम दोनों निर्धारित मूल्य में
इस हवि रूप अन्न रस का परस्पर
विक्रय करें। (अर्थात् हम आपको
हविर्दान करें और आप हमें सु- फल
प्रदान करें।) निश्चित रूप से सब कुछ
पूर्णता को प्राप्त हो, इस निमित्त यह
आहुति समर्पित है।
॥ वसोर्धारा॥
कार्य के आरम्भ में जितनी लगन और
उत्साह हो अन्त में उससे भी ज्यादा बनी
रहे और जो भी यज्ञीय परमार्थ के प्रति
समर्पित हों, उन पर अपने स्नेह की धार
उड़ेलते रह सकें। इसी भाव से प्रत्येक
कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि स्रुचि पात्र में
घी भरकर मन्त्र के साथ धारा सतत
छोड़ते रहें।
ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं
वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।
देवस्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण
शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा। -१।३
अर्थात्- सैकड़ों- सहस्रों धाराओं
वाले आप वसुओं को पवित्र करने वाले
साधन हो। सबको पवित्र करने वाले
सविता, अपनी सैकड़ों धाराओं से
((वसुओं को पवित्र करने वाले साधनों से)
तुम्हें पवित्र बनाएँ। हे मानव / तुम और
किस (कामना) की पूर्ति चाहते हो? अर्थात्
किस कामधेनु को दहुना चाहते हो।
॥ नीराजनम् (आरती)॥
आर्तभाव से की गई प्रार्थना ही आरती है। देवव का चतुर्दिक् गुणगान हो; ताकि
सभी लोगों को उसकी श्रेष्ठता से प्रेरणा
और लाभ मिल सके, देव प्रतिमाओं की
आरती उतारने का यही उद्देश्य है। प्रत्येक
कुण्ड से एक- एक प्रतिनिधि आरती की
थाली में रखे दीप को प्रज्वलित कर,
तीन बार जल घुमाकर यज्ञभगवान् और
देव प्रतिमाओं की आरती उतारें। आरती
के पश्चात् पुनः तीन बार जल घुमाकर
सबको आरती प्रदान करें।
ॐ यं ब्रह्मवेदातविदो वदन्ति,
परं प्रधानं पुरुषं तथाये।
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा,
तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय॥
अर्थात्- जिसे वेदान्ती जन परब्रह्म
कहते हैं तथा अन्य लोगों
(सांख्यवादियों, नैयायिकों, मीमांसकों
आदि) द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति के जिस
परमकारण को ‘परमप्रधान पुरुष’
अथवा ‘ईश्वर’ कहा गया है, उस विघ्न-
विनाशक परमामा को नमस्कार है।
ॐ यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः,
स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः,
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैः,
गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थित- तद्गतेन मनसा,
पश्यन्ति यं योगिनो,
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा:,
देवाय तस्मै नमः॥
अर्थात्- जिस (परमात्मा) की ब्रह्मा,
वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरुदादिगण दिव्य
स्तोस्त्रों से स्तुति करते हैं। साम गान
करने वाले अङ्ग, पद, क्रम और
उपनिषदों सहित वेदमंत्रों के साथ
जिसका स्तवन करते हैं, जिनको
योगीजन ध्यानावस्था में तन्मय होकर
मन से देखा करते हैं, देवता और असुर
भी जिनको नहीं जान पाते, उन देव
(परमात्मा) को नमस्कार है।
॥घृतावघ्राणम् ॥
सभी याजक प्रणीता पात्र में ‘इदं न मम’
के साथ टपकाये घृत और जल को
दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्र भाग में
लें, दोनों हाथ की हथेलियों में मलें, मन्त्र
के साथ यज्ञ कुण्ड की ओर रखें ।। बाद में
गायत्री मन्त्र के साथ सूँघें और कमर के
ऊपरी हिस्से में लगायें। भावना करें
यज्ञीय ऊर्जा को आमसात् कर रहे हैं।
ॐ तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाहि।
ॐ आयुर्दा अग्नेऽसि आयुर्मे देहि॥
ॐ वर्चोदा अग्नेऽसि, वर्चो मे देहि।
ॐ अग्ने यन्मे तवाऽ
ऊनन्तन्म ऽआपृण्॥
ॐ मेधां मे देवः सविता आदधातु।
ॐ मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु॥
ॐ मेधां मे अश्विनौ देवावाधत्तां
पुष्करस्रजौ। -पा.गृ.सू. २।४।७-८-
अर्थात्- हे अग्निदेव! आप शरीर
रक्षक हो, मेरे शरीर को सदैव नीरोग
रखो।
अर्थात्- हे अग्ने! आप
आयुष्यकारक हो, मुझे दीर्घायु
बनाओ।
अर्थात्- हे अग्ने! आप वर्चस्वदायी
हो, हमें वर्चस्वी बनाओ।
अर्थात्- हे अग्ने! मेरी सभी
कमियों की पूर्ति कर दो।
अर्थात्- सविता देवता मुझे मेधा
(बुद्धि) सम्पन्न बनायें।
अर्थात्- देवी सरस्वती मुझे
मेधावान् बनायें।
अर्थात्- पुष्कर (नीलकमल) की
माला धारणा किए हुए अश्विनी कुमार
मुझे सदैव मेधाशक्ति से युक्त रखें।
॥ भस्मधारणम् ॥
मृत्यु जीवन का एक सुनिश्चित सत्य है।
वह कभी भी आ सकती है। अतः मन,
वचन और कर्म से ऐसे विवेकयुक्त कार्य
करें; ताकि जीवन को सार्थक बना
सकें, सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन व्यर्थ न
जाये। इन्हीं भावों से यज्ञभस्म को
अनामिका उँगली में लेकर मन्त्र के
साथ मस्तक, कण्ठ, भुजा और हृदय से
लगायें।
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः इति ललाटे।
(मस्तक पर)
ॐ कश्यपस्य त्र्यायायुषं इति ग्रीवायाम्।
(कण्ठ में)
ॐ यद्देदेवेषु त्र्यायुषं इति
दक्षिणबाहुमूले। (दाहिने कन्धे पर)
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषं इति हृदि।
(हृदय पर) -३।६२
अर्थात्- जो जमदग्नि की (बाल्य,
यौवन, वृद्ध) त्रिविध आयु (तेजस्वी
जीवन) है, जो कश्यप की तीन
अवस्थाओं वाली आयु है तथा जो
देवताओं की तीन अवस्थाएँ हैं, उसको
हम प्राप्त करें।
॥ क्षमा प्रार्थना॥
यज्ञ कार्य के विविध विधि- विधानों में
कोई भूल, कमी या त्रुटि रह गई हो।
किसी के प्रति अप्रिय अथवा अनुचित
व्यवहार हो गया हो, तो इसके निराकरण
और परिष्कार के लिये अन्त:करण से क्षमायाचना करें।
ॐ आवाहनं न जानामि,
नैव जानामि पूजनम्।
विसर्जनं न जानामि,
क्षमस्व परमेश्वर!॥ १॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं,
भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव!
परिपूर्ण तदस्तु मे॥ २॥
यदक्षरपदभ्रष्टं,
मन्त्रहीनं च यद् भवेत्।
तसर्वं क्षम्यतां देव!
प्रसीद परमेश्वर! ॥ ३॥
यस्यस्मृया च नामोक्त्या,
तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्ण्ता याति,
सद्यो वदे तमच्युतम्॥ ४॥
प्रमादाकुर्वतां कर्म,
प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णों,
सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः॥ ५॥
अर्थात्- हे परमेश्वर! मैं न आवाहन
जानता हूँ, न पूजन और न ही विसर्जन।
अतः आप मुझे (इस अज्ञानता के लिए)
क्षमा करें ॥1॥
हे सुरेश्वर! मैं मन्त्र, क्रिया और
भक्ति से हीन हूँ, हे देव! जैसा भी कुछ
पूजन कृय कर सका, वह मेरे लिए
पूर्ण्ता प्राप्त करे, अर्थात् मुझे अपना
अभीष्ट प्राप्त हो॥२॥
हे देव! हे परमेश्वर! (आप मुझ पर)
प्रसन हों। (मन्त्र बोलने में) जो भी
अक्षर, पद व मात्राओं की त्रुटि हुई हो,
उन सभी को क्षमा कर दें॥३॥
तप, यज्ञ आदि क्रियाओं में जिनकी
स्मृति और स्तुति मात्र से सम्पूर्ण
न्यूयनताएँ शीघ्र दूर हो जाती हैं, उन
अयुत् (अक्षीणता दोष से रहित! विष्णु)
को मैं नमन करता हूँ॥४॥
प्रमादवश इस यज्ञ में जो कुछ
विधि- विधान का उल्लंघन हो जाता है,
वह सब भगवान् विष्णु के स्मरण करने
से सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाता है, ऐसा
श्रुति कहती है॥ ५॥
---------------॥ साष्टाङ्गनमस्कारः॥ कण- कण में व्याप्त परमात्म सत्ता को हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर श्रद्धापूर्वक प्रणाम करें।
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते,
सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
अर्थात्- हे अनन्त रूपों वाले! सहस्रों आकृतियों वाले, सहस्रों पैरों, नेत्रों, सिरों, जङ्घाओं, भुजाओं वाले, सहस्रों नामों वाले तथा सहस्रों- करोड़ों युगों को धारण (पोषण) करने वाले शाश्वत पुरुष! आपको बार- बार नमस्कार है।
॥ शुभकामना॥
हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष- दुर्भाव न हो, अशुभ चिन्तन किसी के लिये भी न करें। सबके कल्याण में ही अपना कल्याण निहित है। परमार्थ में ही स्वार्थ जुड़ा हुआ है। इसी भाव से सबके कल्याण के लिये, याचना की मुद्रा में प्रार्थना करें।
ॐ स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्तां,
न्याय्येन मार्गेण महीं महीशाः।
गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं,
लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु॥१॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः,
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्॥२॥
श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां,
विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम्।
तेज आयुष्यमारोग्यं, देहि मे हव्यवाहन॥३॥ -लौगा० स्मृ०
अर्थात्- प्रजाजनों का कल्याण हो। शासक न्यायपूर्वक धरती पर शासन करें। गो- ब्राह्मणों को नित्य प्रति शुभ की प्राप्ति हो, समस्त लोक सुखी हों॥१॥ सभी सुखी हों। सभी नीरोग हों, सभी का कल्याण हो, कोई भी दुःख का भागी न बनें॥२॥ हे हव्यवाहन(अग्निदेव!) मुझे श्रद्धा, मेधा, यश, प्रज्ञा, विद्या, पुष्टि, श्री (वैभव), बल, तेजस्विता, दीर्घायु एवं आरोग्य प्रदान करें॥
॥ पुष्पाञ्जलिः॥
सभी परिजन पुष्प की तरह जीवन क्रम अपनाने, देवत्व के मार्ग को अपनाने और ईश्वरीय सेवा में जीवन को लगाने का व्रत लें। देवगणों ने कृपापूर्वक यज्ञीय प्रक्रिया में जो सहयोग, मार्गदर्शन और संरक्षण दिया है। उसका आभार मानते हुये हाथ में अक्षत- पुष्प लेकर पुष्पाञ्जलि समर्पित करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।
ॐ मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि॥ -३१.१६
अर्थात्- आदिकालीन श्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञ रूप विराट् का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले (याजक) पूर्वकाल के सिद्ध, साध्यगणों तथा देवताओं के निवास महिमाशाली स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।
॥ शान्ति- अभिषिञ्चनम्॥
सभी को दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्ति मिले, सर्वत्र शान्ति ही शान्ति हो, इसी भावना से देव कलश के जल को एक प्रतिनिधि लेकर आम्रपल्लव या पुष्प के माध्यम से सबके ऊपर सिञ्चन करें।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष * शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः
सर्व * शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु।- ३६.१७
अर्थात्- स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा पृथिवीलोक हमें शान्ति प्रदान करें। जल शान्ति प्रदायक हो, ओषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्ति प्रदान करने वाली हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करने वाले हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करें। सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करें, शान्ति भी हमें परम शान्ति प्रदान करे। त्रिविध दुःख (आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आधिआध्यात्मिक) शान्त हों। सभी अरिष्ट भली- प्रकार शान्त हों।
॥ सूर्यार्घ्यदानम्॥
सविता देवता हमें ओजस्, तेजस्, वर्चस् प्रदान करें, इस भाव से कलश के बचे हुये जल से, सूर्यभगवान् को अर्घ्यदान दें।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो,
तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या,
गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः।
अर्थात्- हे सहस्र किरणों वाले तेजः पुञ्ज, जगत् के स्वामी दिवाकर सूर्यदेव! मेरे ऊपर कृपा करो और भक्तिपूर्वक समर्पित इस अर्घ्यजल को स्वीकार करो।
सूर्य (सबके प्रेरक) को, आदित्य (प्रकाशवान्) को तथा भास्कर (कान्तिमान्) को नमस्कार है।
॥ प्रदक्षिणा॥
साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा को जीवन में अपनाकर अच्छे मार्ग पर सतत चलते रहने का सङ्कल्प लेते हुये यज्ञ भगवान् की प्रदक्षिणा करें।
ॐ यानि कानि च पापानि, ज्ञाताज्ञातकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्ति, प्रदक्षिण पदे- पदे।
अर्थात्- जो कुछ ज्ञात- अज्ञात पाप कर्म हो गये हैं, वे सभी प्रदक्षिणा के एक- एक पद (कदम) से नष्ट हो जाते हैं।
॥ विसर्जनम्॥
आवाहित, सम्पूजित देवताओं को एवं सम्माननीय अतिथियों का यथा सम्मान विदाई करने का विधान है। पूजा वेदियों पर एवं यज्ञ कुण्डों के बाहर अक्षत, पुष्प कि वर्षा करते हुये देवशक्तियों को गद्गद् भाव से विदा करें और प्रार्थना करें की ऐसा ही अनुग्रह बार- बार मिले।
ॐ गच्छ त्वं भगवन्नग्ने,
स्वस्थाने कुण्डमध्यतः।
हुतमादाय देवेभ्यः, शीघ्रं देहि प्रसीद मे॥
गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ,
स्वस्थाने परमेश्वर! ॥
यत्र ब्रह्मादयो देवाः,
तत्र गच्छ हुताशन!॥
यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं, पुनरागमनाय च॥
अर्थात्- हे अग्ने! हे भगवन्! इस कुण्ड स्थान से अपने निवास स्थान पर पधारें, मेरे ऊपर प्रसन्न हों और ये आहुतियाँ देवताओं तक शीघ्र पहुँचायें। हे देवश्रेष्ठ परमेश्वर! जहाँ ब्रह्मा आदि देवता निवास कर रहे हैं, हे हुताशन! आप वहाँ पधारें। मेरे इस पूज्य भाव कोलेक रहे देवगणो! पधारो, परन्तु अभीष्ट पूर्ति के लिए पुनः आने की मैं प्रार्थना करता हूँ।