Books - गायत्री महाविज्ञान
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Language: HINDI
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वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ
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आज व्यापक रूप में अनैतिकता फैली हुई है। स्वार्थी और धूर्तों का बाहुल्य है। सच्चे और सत्पात्रों का भारी अभाव हो रहा है। आज न तो तीव्र उत्कण्ठा वाले शिष्य हैं और न सच्चा पथ प्रदर्शन की योग्यता रखने वाले चरित्रवान् तपस्वी, दूरदर्शी एवं अनुभवी गुरु ही रहे हैं। ऐसी दशा में गुरु-शिष्य सम्बन्ध की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता का पूरा होना कठिन हो रहा है। शिष्य चाहते हैं कि उन्हें कुछ न करना पड़े, कोई ऐसा गुरु मिले जो उनकी नम्रता मात्र से प्रसन्न होकर सब कुछ उनके लिए करके रख दे। गुरुओं की मनोवृत्ति यह है कि शिष्यों को उल्लू बनाकर उनसे आर्थिक लाभ उठाया जाए, उनकी श्रद्धा को दुहा जाए। ऐसे जोड़े-‘लोभी गुरु लालची चेला, दूहुँ नरक में ठेलमठेला’ का उदाहरण बनते हैं। ऐसे ही लोगों की अधिकता के कारण यह महान् सम्बन्ध शिथिल हो गया है। अब किसी को गुरु बनाना एक आडम्बर में फँसना और किसी को शिष्य बनाना एक झञ्झट मोल लेना समझा जाता है। जहाँ सच्चाई है, वहाँ दोनों ही पक्ष सम्बन्ध जोड़ते हुए कतराते हैं। फिर भी, आज की विषम स्थिति कितनी ही बुरी और कितनी ही निराशाजनक क्यों न हो, भारतीय धर्म की मूलभूत आधारशिला का महत्त्व कम नहीं हो सकता।
गायत्री द्वारा आत्मविकास की तीनों कक्षाएँ पार की जाती हैं। सर्वसाधारण की जानकारी के लिए ‘गायत्री महाविज्ञान’ के इस ग्रन्थ में यथासम्भव उपयोगी जानकारी देने का हमने प्रयत्न किया है। इसमें वह शिक्षा मौजूद है, जिसे दृष्टिकोण का परिमार्जन एवं मन्त्रदीक्षा कहते हैं। यज्ञोपवीत का रहस्य, गायत्री ही कल्पवृक्ष है, गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री रामायण, गायत्री उपनिषद्, गायत्री की दस भुजा आदि प्रकरणों में यह बताया गया है कि हम अपने विचारों, भावनाओं और इच्छाओं में संशोधन करके किस प्रकार सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इसमें अग्निदीक्षा की द्वितीय भूमिका की शिक्षा भी विस्तार पूर्वक दी गई है। ब्रह्मसन्ध्या, अनुष्ठान, ध्यान, पापनाशक तपश्चर्याएँ, उद्यापन, विशेष साधनाएँ, उपवास, प्राणविद्या, मनोमय कोश की साधना, पुरश्चरण आदि प्रकरणों में शक्ति उत्पन्न करने की शिक्षा दी गई है। ब्रह्मदीक्षा की शिक्षा कुण्डलिनी जागरण, ग्रन्थिभेद, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश की साधना के अन्तर्गत भली प्रकार दी गई है। शिक्षाएँ इस प्रकार मौजूद ही हैं, उपयुक्त व्यक्ति की तलाश करने से कई बार दुष्प्राप्य वस्तुएँ भी मिल जाती हैं।
यदि उपयुक्त व्यक्ति न मिले तो किसी स्वर्गीय, पूर्व कालीन या दूरस्थ व्यक्ति की प्रतिमा को गुरु मानकर* यात्रा आरम्भ की जा सकती है। एक आवश्यक परम्परा का लोप न हो जाए, इसलिए किसी साधारण श्रेणी के सत्पात्र से भी काम चलाया जा सकता है। गुरु का निर्लोभ, निरहंकारी एवं शुद्ध चरित्र होना आवश्यक है। यह योग्यताएँ जिस व्यक्ति में हों, वह कामचलाऊ गुरु के रूप में काम दे सकता है। यदि उसमें शक्ति दान एवं पथ-प्रदर्शक की योग्यता न होगी, तो भी वह अपनी श्रद्धा को बढ़ाने में साथी की तरह सहयोग अवश्य देगा। ‘निगुरा’ रहने की अपेक्षा मध्यम श्रेणी के पथ-प्रदर्शक से काम चल सकता है। यज्ञोपवीत धारण करने एवं गुरुदीक्षा लेने की प्रत्येक द्विज को अनिवार्य आवश्यकता है। चिह्नपूजा के रूप में यह प्रथा चलती रहे तो समयानुसार उसमें सुधार भी हो सकता है; पर यदि उस श्रृं खला को ही तोड़ दिया, तो उसकी नवीन रचना कठिन होगी।
गायत्री द्वारा आत्मोन्नति होती है, यह निश्चित है। मनुष्य के अन्त:क्षेत्र के संशोधन, परिमार्जन, सन्तुलन एवं विकास के लिए गायत्री से बढ़कर और कोई ऐसा साधन भारतीय धर्मशास्त्रों में नहीं है, जो अतीत काल से असंख्यों व्यक्तियों के अनुभवों में सदा खरा उतरता आया हो। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्त:करण चतुष्टय गायत्री द्वारा शुद्ध कर लेने वाले व्यक्ति के लिए सांसारिक जीवन में सब ओर से, सब प्रकार की सफलताओं का द्वार खुल जाता है। उत्तम स्वभाव, अच्छी आदतें, स्वस्थ मस्तिष्क, दूरदृष्टि, प्रफुल्ल मन, उच्च चरित्र, कर्त्तव्यनिष्ठा आदि प्रवृत्तियों को प्राप्त कर लेने के पश्चात् गायत्री के साधक के लिए संसार में कोई दु:ख, कष्ट नहीं रह जाता, उसके लिए सामान्य परिस्थितियों में भी सुख ही सुख उपस्थित रहता है।
परन्तु गायत्री का यह लाभ केवल २४ अक्षर के मन्त्र मात्र से उपलब्ध नहीं हो सकता। एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिए की गाड़ी नहीं चलती, एक पंख का पक्षी नहीं उड़ता; इसी प्रकार अकेली गायत्री साधना अपूर्ण है, उसका दूसरा भाग गुरु का पथ-प्रदर्शन है। गायत्री गुरुमन्त्र है। इस महाशक्ति की कीलित कुञ्जी अनुभवी एवं सुयोग्य गुरु के पथ-प्रदर्शन में सन्निहित है। जब साधक को उभय पक्षीय साधन, गायत्री माता और पिता गुरु की छत्रछाया प्राप्त हो जाती है, तो आशाजनक सफलता प्राप्त होने में देर नहीं लगती।
*नोट- युगऋषि ने गुरु को चेतन सत्ता मानकर प्रतीक के माध्यम से भी दीक्षा लेने की जो बात कही है, वह अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप है। जिनकी श्रद्धा उनके प्रति है, उनके लिए निर्देश है कि युगशक्ति की प्रतीक ‘लाल मशाल’ को प्रतीक के रूप में स्थापित करके दीक्षा ली जा सकती है।
गायत्री द्वारा आत्मविकास की तीनों कक्षाएँ पार की जाती हैं। सर्वसाधारण की जानकारी के लिए ‘गायत्री महाविज्ञान’ के इस ग्रन्थ में यथासम्भव उपयोगी जानकारी देने का हमने प्रयत्न किया है। इसमें वह शिक्षा मौजूद है, जिसे दृष्टिकोण का परिमार्जन एवं मन्त्रदीक्षा कहते हैं। यज्ञोपवीत का रहस्य, गायत्री ही कल्पवृक्ष है, गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री रामायण, गायत्री उपनिषद्, गायत्री की दस भुजा आदि प्रकरणों में यह बताया गया है कि हम अपने विचारों, भावनाओं और इच्छाओं में संशोधन करके किस प्रकार सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इसमें अग्निदीक्षा की द्वितीय भूमिका की शिक्षा भी विस्तार पूर्वक दी गई है। ब्रह्मसन्ध्या, अनुष्ठान, ध्यान, पापनाशक तपश्चर्याएँ, उद्यापन, विशेष साधनाएँ, उपवास, प्राणविद्या, मनोमय कोश की साधना, पुरश्चरण आदि प्रकरणों में शक्ति उत्पन्न करने की शिक्षा दी गई है। ब्रह्मदीक्षा की शिक्षा कुण्डलिनी जागरण, ग्रन्थिभेद, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश की साधना के अन्तर्गत भली प्रकार दी गई है। शिक्षाएँ इस प्रकार मौजूद ही हैं, उपयुक्त व्यक्ति की तलाश करने से कई बार दुष्प्राप्य वस्तुएँ भी मिल जाती हैं।
यदि उपयुक्त व्यक्ति न मिले तो किसी स्वर्गीय, पूर्व कालीन या दूरस्थ व्यक्ति की प्रतिमा को गुरु मानकर* यात्रा आरम्भ की जा सकती है। एक आवश्यक परम्परा का लोप न हो जाए, इसलिए किसी साधारण श्रेणी के सत्पात्र से भी काम चलाया जा सकता है। गुरु का निर्लोभ, निरहंकारी एवं शुद्ध चरित्र होना आवश्यक है। यह योग्यताएँ जिस व्यक्ति में हों, वह कामचलाऊ गुरु के रूप में काम दे सकता है। यदि उसमें शक्ति दान एवं पथ-प्रदर्शक की योग्यता न होगी, तो भी वह अपनी श्रद्धा को बढ़ाने में साथी की तरह सहयोग अवश्य देगा। ‘निगुरा’ रहने की अपेक्षा मध्यम श्रेणी के पथ-प्रदर्शक से काम चल सकता है। यज्ञोपवीत धारण करने एवं गुरुदीक्षा लेने की प्रत्येक द्विज को अनिवार्य आवश्यकता है। चिह्नपूजा के रूप में यह प्रथा चलती रहे तो समयानुसार उसमें सुधार भी हो सकता है; पर यदि उस श्रृं खला को ही तोड़ दिया, तो उसकी नवीन रचना कठिन होगी।
गायत्री द्वारा आत्मोन्नति होती है, यह निश्चित है। मनुष्य के अन्त:क्षेत्र के संशोधन, परिमार्जन, सन्तुलन एवं विकास के लिए गायत्री से बढ़कर और कोई ऐसा साधन भारतीय धर्मशास्त्रों में नहीं है, जो अतीत काल से असंख्यों व्यक्तियों के अनुभवों में सदा खरा उतरता आया हो। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्त:करण चतुष्टय गायत्री द्वारा शुद्ध कर लेने वाले व्यक्ति के लिए सांसारिक जीवन में सब ओर से, सब प्रकार की सफलताओं का द्वार खुल जाता है। उत्तम स्वभाव, अच्छी आदतें, स्वस्थ मस्तिष्क, दूरदृष्टि, प्रफुल्ल मन, उच्च चरित्र, कर्त्तव्यनिष्ठा आदि प्रवृत्तियों को प्राप्त कर लेने के पश्चात् गायत्री के साधक के लिए संसार में कोई दु:ख, कष्ट नहीं रह जाता, उसके लिए सामान्य परिस्थितियों में भी सुख ही सुख उपस्थित रहता है।
परन्तु गायत्री का यह लाभ केवल २४ अक्षर के मन्त्र मात्र से उपलब्ध नहीं हो सकता। एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिए की गाड़ी नहीं चलती, एक पंख का पक्षी नहीं उड़ता; इसी प्रकार अकेली गायत्री साधना अपूर्ण है, उसका दूसरा भाग गुरु का पथ-प्रदर्शन है। गायत्री गुरुमन्त्र है। इस महाशक्ति की कीलित कुञ्जी अनुभवी एवं सुयोग्य गुरु के पथ-प्रदर्शन में सन्निहित है। जब साधक को उभय पक्षीय साधन, गायत्री माता और पिता गुरु की छत्रछाया प्राप्त हो जाती है, तो आशाजनक सफलता प्राप्त होने में देर नहीं लगती।
*नोट- युगऋषि ने गुरु को चेतन सत्ता मानकर प्रतीक के माध्यम से भी दीक्षा लेने की जो बात कही है, वह अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप है। जिनकी श्रद्धा उनके प्रति है, उनके लिए निर्देश है कि युगशक्ति की प्रतीक ‘लाल मशाल’ को प्रतीक के रूप में स्थापित करके दीक्षा ली जा सकती है।