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Books - गुरुगीता

Media: TEXT
Language: HINDI
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मंत्रराज है सद्गुरू का नाम

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First 18 20 Last
     गुरूगीता के गायन से गुरूभक्ति जाग्रत् होती है। शिष्य में समर्पण की सजलता पनपती है। ज्यों- ज्यों इसकी प्रगाढ़ता बढ़ती है, त्यों- त्यों शिष्य की चेतना अपने गुरूदेव में विलीन हो जाती है। शिष्य गुरूमय हो जाता है। यह सब प्रभाव- प्रताप गुरूगीता का है। धन्य हैं वे, जो इसका निरन्तर पठन, चिन्तन व मनन करते हैं गुरूभक्ति का यह शास्त्र सब भाँति से अद्भुत- अनुपम है। जो अनुभवी हैं, वे इसके मर्म को जानते हैं। जिन्हें अभी इसका अनुभव नहीं मिला है, वे प्रयास करने पर इसका स्वाद चख सकते हैं। शिव के वचन आदिमाता पार्वती के द्वारा श्रवण से उपजा यह शास्त्र अनेक आध्यात्मिक रहस्यों से भरा है। इसके प्रत्येक मंत्र में सद्गुरू की कृपा का अमृत है।      अमृत सिंचन के उपर्युक्त मंत्र में गुरूगत प्राण शिष्यों ने पढ़ा कि श्रीगुरू की कृपादृष्टि से ही इस जगत् की सृष्टि हुई है। जगत् के सभी पदार्थ इसी से पुष्ट होते हैं। सत्शास्त्रो का सार मर्म इसी में समाया है। गुरूदेव की कृपादृष्टि की अनुभूति होने पर पता चलता है कि जगत् की सभी सम्पदाएँ व्यर्थ हैं। इस दृष्टि से ही शिष्य के अवगुण धुलकर परिमार्जित होते हैं। तत् सत्ता यही है। इसी से साधक में एकत्व से युक्त समत्व दृष्टि विकसित होती है। गुणों को विकसित करने वाली, मोक्ष मार्ग को प्रकाशित करने वाली, सकल भुवनों की स्थापना का परम कारण यही है। सद्गुरू की दृष्टि में ही पुरूष- प्रकृति एवं अन्य चौबीस तत्त्व समाये हैं। समष्टि की रूपमाला व जीवन के सभी नियम- काल सभी कुछ गुरूदेव की कृपादृष्टि में समाहित हैं।      गुरूकृपा और गुरूदेव के नाम की महिमा के एक नये आयाम को उद्घाटित करते हुए भगवान् साम्ब सदाशिव माता पार्वती से कहते हैं- 
अग्निशुद्धसमंतात ज्वालापरिचकाधिया। मंत्रराजमिमं मन्येऽहर्निशं पातु मृत्युतः॥ ६१॥ तदेजति तन्नैजति तहूरे तत्समीपके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः॥६२॥ अजोऽहमजरोऽहं च अनादिनिधनः स्वयम्। अविकारश्चिदानन्द अणीयान्महतो महान् ॥ ६३॥ 
     हे देवि! सद्गुरू का नाम परम मंत्र है। यह मंत्रराज है। इसका जप करने से बुद्धि अग्रि में तपाए सुवर्ण की भाँति शुद्ध होती है। इसके स्मरण- चिंतन से निरन्तर मृत्यु से रक्षा होती है॥ ६१॥ चलते हुए या बैठे हुए, दूर होने पर, पास रहने पर, बाहर होने पर अथवा अन्दर रहने पर गुरू नाम का यह महामंत्र समूची सामर्थ्य से रक्षा करता है॥ ६२॥ जो इस मंत्रराज की साधना करता है, उसे अजन्मा, अमर, अजर, अनादि, मृत्युरहित, निर्विकार, चिदानन्द, अणु से भी सूक्ष्म और महत् से भी विराट् आत्मतत्त्व की निरन्तर अनुभूति होती रहती है।      गुरूगीता के इन मंत्रों में साधना के कई गम्भीर रहस्य समाए हैं। इन मंत्रों में जिस साधना विधि का सांकेतिक वर्णन है, उसकी विस्तृत चर्चा कई तांत्रिक ग्रन्थों में मिलती है। इसकी विस्तार से विवेचना तो एक अलग लेख की विषय वस्तु बनेगी। जिसे श्रद्धालु शिष्यों के अनुरोध पर फिर कभी दिया जाएगा; परन्तु यहाँ संक्षेप में सद्गुरू नाम के महामंत्र का उल्लेख अवश्य किया जा रहा है। इसे ही भगवान् भोलेनाथ ने परम मंत्र एवं मन्त्रराज कहा है। इस मंत्र का स्वरूप क्या होगा? इस प्रश्न के उत्तर में गुरूभक्त सिद्धजन कहते हैं कि ॐऐं (नाम) आनन्दनाथाय गुरवे नमः ॐ, इस प्रकार सद्गुरू के नाम का जप करना चाहिए। इस मंत्र के स्वरूप को अपने गुरूदेव के मंगलमय नाम के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। जैसे अपने गुरूदेव का नाम है श्रीराम तो उनके नाम का महामंत्र होगा- ॐ ऐं श्रीराम आनन्दनाथाय गुरूवे नमः ॐ। जो गुरूभक्त हैं, वे प्रतिदिन गायत्री महामंत्र के जप के साथ इस महामंत्र की एक माला का भी जप कर सकते हैं।      अनुभवी साधकों का तो यह भी कहना है कि गायत्री महामंत्र के जप का दशांश गुरू नाम मंत्र का जप करने से गायत्री जप पूर्ण हो जाता है। नियमित साधना करने वाले सूक्ष्मतत्त्व के ज्ञाता साधकों का यह मानना है कि कई बार जन्म- जन्मान्तर के अशुभ कर्मों के कारण गायत्री का जप शीध्र फलदायी नहीं हो पाता। विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए किए गए अनुष्ठान सफल नहीं होते हैं। इसका कारण केवल इतना ही है कि विगत जन्मों के अशुभ संस्कार, दुर्लंध्य प्रारब्ध इसमें बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। इसी वजह से गायत्री महामंत्र के कई अनुष्ठान कर लेने के बावजूद भी पुत्र प्राप्ति की, धन प्राप्ति की कामनाएँ अधूरी रहती हैं। कई बार तो साधक के मन की आस्था घटने लगती है। उसे अविश्वास घेर लेता है। अन्तःकरण में अंकुरित होने वाले सन्देह एवं भ्रम कहने लगते हैं कि कहीं गायत्री साधना के ही प्रभाव में कुछ कमी तो नहीं।      ऐसी स्थिति में सद्गुरू का तपोबल ही सम्बल होता है। जो काम अपने प्रयास, पुरूषार्थ से असम्भव होता है, वह गुरूकृपा से सम्भव होता है। गुरू कृपा ही असम्भव को सम्भव बनाने वाली प्रक्रिया है; पर इसका विधिवत् आह्वान करना पड़ता है। इसे अपने अन्तःकरण में धारण करना पड़ता है। यदि ऐसा किया जा सके, तो दुष्कर और दुरूह प्रारब्ध को भी मोड़- मरोड़ कर अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। सभी तरह की विघ्र- बाधाओं को धूल- धूसरित और धराशायी किया जा सकता है। राह के सभी रोड़े फिर कभी आड़े नहीं आते। असफलता- सफलता में परिवर्तित होती है। खोया आत्मबल फिर से वापस मिलता है।      बस इसके लिए करना इतना ही है कि सन्ध्यावंदन के बाद गायत्री जप करने से पहले एक माला गुरू नाम के महामंत्र का जप करें। फिर इसके बाद गायत्री जप करें और बाद में गायत्री जप का दशांश गुरू नाम मंत्र का जप करें। उदाहरण के लिए यदि तीस माला गायत्री जपी गयी है, तो तीन माला गुरूनाम मंत्र का जप करें। कई तन्त्र ग्रन्थ यह भी कहते हैैं कि प्रत्येक दस माला के बाद एक माला गुरू नाम मंत्र का जप किया जा सकता है। कई साधकों ने इस विधि को भी परम कल्याणकारी अनुभव किया है। इस विधि से की गई साधना न केवल लौकिक उपलब्धियाँ एवं सफलताएँ प्रदान करती है; बल्कि अलौकिक आध्यात्मिक सफलताओं के भी भण्डार खोलती है। इस तरह नियमित निरन्तर की गई साधना से साधक को आत्मतत्त्व की अनुभूति होती है। उसका जीवन कृतकृत्य एवं कृतार्थ होता है। गुरूदेव के तपोबल को और अधिक शिष्य कैसे आत्मसात् करें, इसकी चर्चा अगले मंत्रों में की गई है।
First 18 20 Last


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गुरुगीता
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