सत् चित् आनन्दमयी सद्गुरू की सत्ता
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गुरूगीता के महामंत्रों की साधना से सद्गुरू की चेतना शिष्य में अवतरित होती है। इस आध्यात्मिक अवतरण से शिष्य का जीवन परिष्कृत, परिमार्जित, परिवर्तित एवं रूपान्तरित हो जाता है। यह कुछ ऐसा है, जिसे महान् चमत्कार से कम न तो कुछ कहा जा सकता है और न आँका जा सकता है; लेकिन इसके लिए जरूरी है उस प्रक्रिया से गुजरना, जिसे गुरूगीता के महामंत्र कहते हैं, बताते हैं। जो भाव ,जो सत्य और जो क्रियाएँ इन महिमामय मंत्रों में निहित हैं, शिष्य को ऐसा ही करना चाहिए। जो शिष्य अपने अंतस् को सद्गुरू के चरणों में समर्पित करता है, उसे अपने आप ही सभी आध्यात्मिक तत्त्वों की उपलब्धि हो जाती है। गुरूदेव ही जड़- पदार्थ हैं और वही परात्पर चेतना। यह उन सभी को अनुभव होता है, जो उन्हें ध्याते हैं। गुरूगीता की पिछली पंक्तियों में इस सच्चाई के कई सूक्ष्म आयाम प्रकट किये जा चुके हैं। इसमें भगवान् भोलेनाथ बताते हैं कि ब्रह्मा से लेकर सामान्य तिनके तक सभी जड़- चेतन में परमात्मा- व्याप्त है। सद्गुरू परमात्मामय होने के कारण सर्वव्यापी हैं। शिष्य को चाहिए कि वह अपने सद्गुरू को सत्- चित् जाने। इस अनुभूति के रूप में वह नित्य, पूर्ण, निराकार, निर्गुण व आत्मस्थित गुरूतत्त्व की वन्दना करे। श्री गुरूदेव के शुद्ध स्वरूप का हृदयाकाश के मघ्य में ध्यान करे। ध्यान की यह अवधि एवं प्रक्रिया क्या हो, भगवान् महेश्वर अगले प्रकरण में स्पष्ट करते हैं- अंगुष्ठमात्रपुरूषं ध्यायतश्चिन्मयं हृदि। तत्र स्फुरति भावो यः शृणु तं कथयाम्यहम्॥ ११५॥ अगोचरं तथाऽगम्यं नामरूपविवर्जितम् ।। निःशब्दं तद्विजानीयात् स्वभावं ब्रह्म पार्वति॥ ११६॥ यथा गंधः स्वभावेन कर्पूरकुसुमादिषु। शीतोष्णादिस्वभावेन तथा ब्रह्म च शाश्वतम्॥ ११७॥ स्वयं तथाविधो भूत्वा स्थातव्यं यत्र कुत्रचित्। कीटभ्रमरवत् तत्र ध्यानं भवति तादृशम् ॥ ११८॥ गुरूध्यानं तथा कृत्वा स्वयं ब्रह्ममयो भवेत्। पिण्डे पदे तथा रूपे मुक्तोऽसौ नात्र संशयः॥११९॥ हृदय में चिन्मय आत्मज्योति के अंगुष्ठ मात्र स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। इस ध्यान की गहनता ,सघनता व प्रगाढ़ता से जो भाव स्फुरित होते हैं, उन्हें सुनो॥११५॥ भगवान् शिव कहते हैं- हे पार्वती! इन्द्रियों से परे, सब भाँति अगम्य, नाम- रूप आदि विशेषताओं से परे, शब्द से रहित ब्रह्म का अनुभव अपने ही स्वरूप में होता है॥११६॥ जिस तरह से कर्पूर एवं पुष्प आदि सुगन्धित पदार्थों में स्वाभाविक ही सुगन्ध व्याप्त है। जिस भाँति सर्दी एवं गर्मी स्वाभाविक है, उसी भाँति ब्रह्म शाश्वत है॥११७॥ अपनी आत्मचेतना में ध्यान करते रहने से कीट- भ्रमर सान्निध्य की भाँति यह जीवात्मा ब्रह्म के ध्यान से स्वयं ब्रह्म हो जाता है॥ ११८॥ यह ब्रह्म का ध्यान यथार्थ में गुरू का ध्यान ही है। शिष्य अपने चित्त में गुरू का ध्यान करने से ,गुरू की निराकार ज्योति का ध्यान करते रहने से सर्वथा मुक्त एवं ब्रह्ममय हो जाता है॥११९॥ गुरूगीता में बताई ध्यान की विधियों में यह विधि अनूठी है। इसमें कहा गया है कि सद्गरू का ध्यान हृदय में करो और उसे अंगुष्ठ मात्र चिन्मयज्योति के रूप में अनुभव करो। ऐसा करने से स्वयं ही ब्रह्मानुभूति हो जायेगी। ध्यान के इस उपदेश में एक विलक्षणता है और वह विलक्षणता यह है कि हृदय में भावमय भगवान् के सगुण रूप का ध्यान करते हैं। निराकार यह ज्योतिर्ध्यान आज्ञाचक्र या भ्रू- मध्य में किया जाता है; परन्तु निर्देश में कई संकेत निहित हैं। इन संकेतों पा ध्यान दें, तो पता चलता है कि जीवात्मा- परमात्मा एवं सद्गुरू की चेतना तात्विक रूप से एक ही है। तो स्वयं ही सद्गुरू की भगवत्ता की उपलब्धि कर लेता है। इस सम्बन्ध में एक अनुभूत कथा है। यह कथा सन्त हरिहर बाबा के एक शिष्य जगतराम की है। यह जगतराम बनारस के पास एक गाँव का अनपढ़- गँवार लड़का था। अपने गाँव में गाय- भैंस आदि जानवर चराया करता था। न जाने किस प्रेरणा से बाबा के पास आ गया। उसके पास इतनी बुद्धि नहीं थी कि उसे कुछ विशेष समझाया जा सके, लेकिन फिर भी उसे भगवान् की भक्ति करने की लगन थी, पर भगवान् को तो वह जानता नहीं था। सो उसने अपने गुरूदेव हरिहर बाबा को ही भगवान् मान लिया था। बस, उसे बाबा की एक बात समझ में न जाने कैसे आ गई थी कि इंसान जो सोचता है, एक दिन वही बन जाता है। इसलिए जो तुम चाहते हो, सो सोचा करो। बड़ी आसान और सहज बात थी, यह मन में जम गई। सरल चित्त जगतराम को तो अपने गुरू में भगवान् को पाना था। उसे गुरूभक्ति में भगवद्भक्ति करनी थी। बस इसी लगन के साथ वह अपनी सोच में तल्लीन हो गया। उसे आसन, बन्ध, मुद्राएँ, प्राणायाम एवं ध्यान आदि क्रियाएँ तो आती न थीं। शास्त्र को न तो उसने पढ़ा था और न सुना था। कठिन- कठिन बातें उसे समझ में न आती थीं। बस, एक बात मन में थी, जो चाहिए उसे सोचो। जो सोचोगे, वैसा अपने आप मिलेगा। हरिहर बाबा के इस कथन को उसने अपने जीवन का महामंत्र मान लिया। उसे जब भी समय मिलता, गंगा किनारे बैठकर हरिहर बाबा की छवि का ध्यान करते हुए मन ही मन उनकी पूजा किया करता। मंदिर में पूजा होती उसने देखी थी, बस, वह अपने गुरू की वैसी ही पूजा करता। धूप, दीप, नैवेध, आरती सब कुछ मंदिर की भाँति वह मन ही मन करता, लेकिन प्रत्यक्ष में उसके पास न तो कोई साधन होता और न सामान। अपने इस काम में उसे न तो दिन दीखता और न रात। चिलचिलाती धूप हो या फिर कड़ाके की ठण्ड, सुबह का उजाला हो या शाम का अँधेरा या फिर घनी काली रात, उसे तो बस अपने गुरू की भावपूजा भाती थी। इस पूजा में वह अपने सारे भाव उड़ेल देता। ऐसी पूजा करते हुए कई बरस बीत गये। एक रात जब वह भावपूजा में लीन था, तो उसे ऐसा लगा, जैसे कि हरिहर बाबा सचमुच ही उसके पास आ खड़े हुए हों। बस ,इस आ खड़े होने में फरक यह था कि यह उनका प्रकाश शरीर था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे हरिहर बाबा के शरीर के सारे अंग प्रकाश के बने हों। बड़ी भक्ति से वह मन ही मन अपने गरूुदेव को निहारता रहा। इस प्रक्रिया में उसे कितना समय बीता याद नहीं। याद तो उसे तब आई जब उसे अनुभव हुआ कि गुरूदेव का सम्पूर्ण प्रकाश शरीर एकाएक बिखर कर उसके रोम- रोम में समा गया। सम्पूर्ण प्रकाश न केवल उसमें लीन हुआ ,बल्कि लीन होकर उसके ही अन्दर घनीभूत होने लगा। हृदय स्थल पर वह सम्पूर्ण प्रकाशज्योति के रूप में घनीभूत हो गया। यह सारा वाकया कुछ ही समय में घटित हो गया। हृदय मध्य में अंगुष्ठज्योति प्रकाशित हो उठी और साथ ही सुनाई दी हरिहर बाबा की चिर- परिचित वाणी- 'बेटा जगत! अब से तू ज्योति के बारे में सोचा कर ।। इसी को निहार, इसी को देख, इसी की भक्ति कर।' जो आज्ञा बाबा! कहते हुए जगतराम ने अपने कार्यक्रम में थोड़ा फेरबदल कर दिया। स्थिति वही रही, बस सोचने का केन्द्रबिन्दु बदल गया। इस अंगुष्ठज्योति को निहारने में दिन- रात बीतने लगे। सालोंसाल यही क्रिया चलती रही। जाड़ा- गरमी, धूप- छाँव पहले की ही भाँति गुजर गये। उसे होश तब आया, जब फिर से एक रात्रि को दृश्य बदला। अब की बार उसने अनुभव किया कि उसकी वही हृदयज्योति अचानक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गई। सृष्टि का कण- कण उसी से प्रकाशित है। इस प्रकाश की धाराएँ उसे न जाने कब से कब तक नहलाती रहीं। वह अनूठी भावसमाधि में बेसुध बना रहा। उसके तन, मन, प्राण, भाव, बुद्धि सब प्रकाशित हो गये ।। जब उसे होश आया ,, तब उसने देखा कि उसके गुरू हरिहर बाबा खड़े हैं, जो उसे बड़े प्यार से निहार रहे हैं। उनकी आँखों में अर्पूव वात्सल्य था। इसी वात्सल्य से सने स्वरों में वे उससे बोले- बेटा! जो गुरू है- वही आत्मा है, जो आत्मा है वही परमात्मा है जो इन तीनों को एक मानता है ,, वही सचमुच का ज्ञानी है। उनकी यह वाणी शिष्यों की धरोहर बन गई ।।