सबसे सच्ची सिद्धि गुरूभक्ति
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गुरूगीता के भक्तिगीत अन्तस् में गुरूभक्ति का अंकुरण- स्फुरण करते हैं। इन भक्ति गीतों के पठन -मनन- गायन से अन्तःकरण गुरूभक्ति से आप्लावित होता है। चित्त की गहराइयों में गुरूदेव के प्रति अनुराग प्रगाढ़ होता है। यह प्रगाढ़ अनुराग ही तो अध्यात्म साधना की घनीभूत ऊर्जा है। जिसके अन्तस् में इस महाऊर्जा का घनत्व जितना अधिक है, वह अध्यात्म पथ पर उतनी ही अधिक तीव्रता से गतिशील होता है। इसके विपरीत जिसके अन्तस् में गुरूभक्ति की ऊर्जा का घनत्व अविकसित ,, अल्प अथवा शून्य है, उसका आध्यात्मिक जीवन भी शून्य बना रहता है। उसके आध्यात्मिक लक्ष्य उससे हमेशा दूर बने रहते हैं। फिर भले ही वह कितना जप- तप अथवा कर्मकाण्ड स्थूल देह के कलेवर का निर्माण भर करते हैं। इसमें प्राण का संचरण केवल गुरूभक्ति से ही होता है। पिछले मंत्रों में भगवान् सदाशिव के यही वचन थे कि गुरूदेव जो भी राह दिखाएँ उसी राह पर चलते हुए मन की शुद्धि करना शिष्य का कर्त्तव्य है। शिष्य का यही कर्त्तव्य है कि मन व इन्द्रियों से भोगे जाने वाले सभी भोगों को और सभी नाशवान् पदार्थों को त्याग दे। सम्पूर्ण जगत् को अपनी आत्मा के विस्तार के रूप में अनुभव करे। गुरूकृपा से यदि यह अनुभूति निरन्तर होती रहे ,, तो शिष्य, साधक अपने परम गन्तव्य तक, जीवन के चरम आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुँच जाता है। भगवान् सदाशिव गुरूगीता के अगले प्रकरण में कहते हैं कि यदि भूल से, प्रभाव से अथवा अहंकारवश यदि कोई शिष्य गुरूवचनों की अवहेलना करता है, तो उसका अध्यात्म मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। माँ भवानी से इस प्रकरण को स्पष्ट करते हुए भोले बाबा कहते हैं-
एवं श्रुत्वा महादेविं गुरूनिन्दां करोति यः। स याति नरकं घोरं यावच् चन्द्रदिवाकरौ॥ १०१॥ यावत्कल्पांतको देहस्तावदेव गुरूं स्मरेत्। गुरूलोपो न कर्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत्॥ १०२॥ हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञैः शिष्यैः कथञ्चन। गुरोरग्रे न वक्तव्यम् असत्यं च कदाचन॥ १०३॥ गुरूं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरूंनिर्जित्य वादतः। अरण्ये निर्जले देशे स भवेद् ब्रह्मराक्षसः॥ १०४॥ मुनिभिः पन्नगैर्वाऽपि सुरैर्वा शापितो यदि। कालमृत्युभयाद्वापि गुरूरक्षति पार्वति ॥ १०५॥ अशक्ता हि सुराद्याश्च अशक्ता मुनयस्तथा। गुरूशापेन ते शीघ्रं क्षयं यान्ति न संशयः॥१०६॥
गुरू की जो महिमा मैंने पहले बतायी ,, उसे जानकर ,सुनकर भी यदि कोई गुरूनिन्दा करता है, वह जब तक चन्द्र ,सूर्य है, तब तक घोर नरक में पड़ा रहता है॥ १०१॥ इसलिए जब तक देह है, तब तक यहाँ तक कि कल्पान्त तक भी गुरूदेव का स्मरण करते रहना चाहिए। शिष्य को चाहिए कि मुक्त होने पर भी वह गुरू स्मरण का लोप न होने दे॥ १०२॥ जो शिष्य प्रज्ञावान व विवेक हैं, वे कभी भी अपने गुरू के सामने हुंकारपूर्वक (तेज स्वर में )) बात नहीं करते। इतना ही नहीं ,वे गुरू के सामने कभी भी असत्य नहीं बोलते॥ १०३॥ और जो गुरू के पास तू करके ,हूं करके बाते करते हैं, वे किसी निर्जन अरण्य प्रदेश में ब्रह्मराक्षस का जीवन जीने के लिए विवश होते हैं॥१०४॥ भगवान् शिव कहते हैं- हे पार्वती! मुनि, नाग, देवों के शाप से, काल और मृत्यु के भय से केवल गुरूदेव ही शिष्य का रक्षण करने में समर्थ हैं॥ १०५॥ लेकिन जो गुरू के शाप से ग्रस्त हैं, उनकी रक्षा कोई भी देवता अथवा मुनि नहीं कर पाते। ऐसे शिष्य शीघ्र ही नष्ट होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है॥१०६॥ देवाधिदेव भगवान् महादेव के इन वचनों में बड़ी गहरी अनुभूति समायी है। जो तार्किक हैं, वे तो इस सच को शायद ही छू पाएँ ; लेकिन जो तप करते हैं, जिन्होंने अपनी अन्तर्यात्रा में गुरू- महिमा को जाना है, वे इस अनुभूति कथा को पल- पल पीते हैं। इस अनुभव को साकार करने वाली बड़ी मर्मस्पर्शी घटना है, जो एक शिष्य के जीवन में तब हुई, जब उसका अपने आराध्य गुरूदेव से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ था। विद्यार्थी जीवन में उसका परिचय एक अघोर साधक से हुआ। यह अघोर साधक जिसे सभी अघोरी कहते थे, कई आश्चर्यजनक सिद्धियों- शक्तियों का स्वामी था। एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में बदल देना उसके लिए साधारण कौैतुक भर था। मिठाई को विष्ठा बना देना और सड़े मांस को सुगन्धित, सुरभित मिष्ठान्न में परिवर्तित कर देना उसके लिए पलक झपकाने भर का काम था। पंचभूतों के अणुु- परमाणु को अपने संकल्प बल से एकत्रित करके किसी भी वस्तु को साकार कर देना भी उसके लिए सामान्य सी बात थी और भी अनेकों आश्चर्यजनक सिद्धियाँ उसके पास थीं। अपनी इन सारी शक्तियों के बावजूद यह अघोर साधक बड़ा व्यथित, पीड़ित रहा करता था। यहाँ तक कि कभी- कभी शून्य में तकते हुए उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती। एक दिन इस विद्यार्थी ने उससे पूछा- बाबा! आप बीच- बीच में इतने दुःखी क्यों हो जाते हैं? आपके पास तो इतनी सिद्धियाँ हैं, फिर भी आप रोने लगते हैं? जवाब में उसने लगभग बिलखते हुए कहा- बेटा! तू शायद अभी समझेगा नहीं। पर चल तुझे बताकर अपना मन हलका कर लेता हूँ। तू पूछता है तो सुन ले- मेरा भगवान् मुझसे रूठ गया है। मेरा गुरू मुझसे नाराज है। उसने मुझे एक हजार साल तक भटकते रहने का शाप दिया है। बाबा की ये अटपटी बातें इस विद्यार्थी के पल्ले नहीं पडीं। उसने बस यूँ ही पूछा- तब कितने साल हो गए आपको भटकते हुए। ७५०साल, उसने बडे इत्मिनान से जवाब दिया। इस जवाब ने पूछने वाले को गहरी हैरानी में डाल दिया। उसने कहा- पर आप तो केवल ५०- ६० साल के लगते हैं। सह बात सुनकर वह जोर से हँसा और बोला- अरे, मैं शरीर की बात थोड़े ही करता हूँ। इस शरीर की तो यही उम्र होगी। मैं तो अपनी बात करता हूँ। शरीर तो जब भी पुराना हो जाता है, मैं उसे छोड़कर किसी युवा मृत शरीर में प्रवेश कर जाता हूँ। साँप काटे हुए व्यक्ति को प्रायः लोग बहा देते हैं। ऐसे ही किसी शरीर को मैं अपना बना लेता हूँ। पर आपके गुरू नाराज क्यों हुए? गुरू तो बड़े कृपालु होते हैं। सिद्धियों के घमण्ड से? अरे बेटा! मुझे अपनी साधना और सिद्धियों का भारी घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण मैं किसी को कुछ नहीं समझता था। यहाँ तक कि लोगों के बहकावे में आकर मैं स्वयं को भगवान् मानने लगा था। इसी अहं के कारण एक दिन मैंने अपने गुरू को भी खरी- खोटी सुना दी। इस पर गुरूदेव ने कहा- तू क्या समझता है सिद्धियों से कोई भगवान् हो जाता है। जा तू अब १००० साल तक भटक और सिद्धियों के दंश को झेल ।। बस बेटा तब से मैं नए- नए शरीरों में रहते हुए सिद्धियों के दंश को झेल रहा हूँ। अपनी बात कहते हुए उसने पूछने वाले के सिर पर प्यार से हाथ रखा और बोला- बेटा! आगे कुछ सालों के बाद तुझे तेरे गुरू मिलेंगे। तू कभी भी उनकी बात की अवहेलना न करना। उनकी सब बातें मानना और सिद्धियों के जाल में मत उलझना। सबसे सच्ची सिद्धि तो गुरूभक्ति है। जिसे यह मिल गई, उसे समझो सब कुछ मिल गया। इस सिद्धि का उपाय क्या है? यह अगले मंत्र में स्पष्ट किया गया है।
एवं श्रुत्वा महादेविं गुरूनिन्दां करोति यः। स याति नरकं घोरं यावच् चन्द्रदिवाकरौ॥ १०१॥ यावत्कल्पांतको देहस्तावदेव गुरूं स्मरेत्। गुरूलोपो न कर्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत्॥ १०२॥ हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञैः शिष्यैः कथञ्चन। गुरोरग्रे न वक्तव्यम् असत्यं च कदाचन॥ १०३॥ गुरूं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरूंनिर्जित्य वादतः। अरण्ये निर्जले देशे स भवेद् ब्रह्मराक्षसः॥ १०४॥ मुनिभिः पन्नगैर्वाऽपि सुरैर्वा शापितो यदि। कालमृत्युभयाद्वापि गुरूरक्षति पार्वति ॥ १०५॥ अशक्ता हि सुराद्याश्च अशक्ता मुनयस्तथा। गुरूशापेन ते शीघ्रं क्षयं यान्ति न संशयः॥१०६॥
गुरू की जो महिमा मैंने पहले बतायी ,, उसे जानकर ,सुनकर भी यदि कोई गुरूनिन्दा करता है, वह जब तक चन्द्र ,सूर्य है, तब तक घोर नरक में पड़ा रहता है॥ १०१॥ इसलिए जब तक देह है, तब तक यहाँ तक कि कल्पान्त तक भी गुरूदेव का स्मरण करते रहना चाहिए। शिष्य को चाहिए कि मुक्त होने पर भी वह गुरू स्मरण का लोप न होने दे॥ १०२॥ जो शिष्य प्रज्ञावान व विवेक हैं, वे कभी भी अपने गुरू के सामने हुंकारपूर्वक (तेज स्वर में )) बात नहीं करते। इतना ही नहीं ,वे गुरू के सामने कभी भी असत्य नहीं बोलते॥ १०३॥ और जो गुरू के पास तू करके ,हूं करके बाते करते हैं, वे किसी निर्जन अरण्य प्रदेश में ब्रह्मराक्षस का जीवन जीने के लिए विवश होते हैं॥१०४॥ भगवान् शिव कहते हैं- हे पार्वती! मुनि, नाग, देवों के शाप से, काल और मृत्यु के भय से केवल गुरूदेव ही शिष्य का रक्षण करने में समर्थ हैं॥ १०५॥ लेकिन जो गुरू के शाप से ग्रस्त हैं, उनकी रक्षा कोई भी देवता अथवा मुनि नहीं कर पाते। ऐसे शिष्य शीघ्र ही नष्ट होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है॥१०६॥ देवाधिदेव भगवान् महादेव के इन वचनों में बड़ी गहरी अनुभूति समायी है। जो तार्किक हैं, वे तो इस सच को शायद ही छू पाएँ ; लेकिन जो तप करते हैं, जिन्होंने अपनी अन्तर्यात्रा में गुरू- महिमा को जाना है, वे इस अनुभूति कथा को पल- पल पीते हैं। इस अनुभव को साकार करने वाली बड़ी मर्मस्पर्शी घटना है, जो एक शिष्य के जीवन में तब हुई, जब उसका अपने आराध्य गुरूदेव से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ था। विद्यार्थी जीवन में उसका परिचय एक अघोर साधक से हुआ। यह अघोर साधक जिसे सभी अघोरी कहते थे, कई आश्चर्यजनक सिद्धियों- शक्तियों का स्वामी था। एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में बदल देना उसके लिए साधारण कौैतुक भर था। मिठाई को विष्ठा बना देना और सड़े मांस को सुगन्धित, सुरभित मिष्ठान्न में परिवर्तित कर देना उसके लिए पलक झपकाने भर का काम था। पंचभूतों के अणुु- परमाणु को अपने संकल्प बल से एकत्रित करके किसी भी वस्तु को साकार कर देना भी उसके लिए सामान्य सी बात थी और भी अनेकों आश्चर्यजनक सिद्धियाँ उसके पास थीं। अपनी इन सारी शक्तियों के बावजूद यह अघोर साधक बड़ा व्यथित, पीड़ित रहा करता था। यहाँ तक कि कभी- कभी शून्य में तकते हुए उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती। एक दिन इस विद्यार्थी ने उससे पूछा- बाबा! आप बीच- बीच में इतने दुःखी क्यों हो जाते हैं? आपके पास तो इतनी सिद्धियाँ हैं, फिर भी आप रोने लगते हैं? जवाब में उसने लगभग बिलखते हुए कहा- बेटा! तू शायद अभी समझेगा नहीं। पर चल तुझे बताकर अपना मन हलका कर लेता हूँ। तू पूछता है तो सुन ले- मेरा भगवान् मुझसे रूठ गया है। मेरा गुरू मुझसे नाराज है। उसने मुझे एक हजार साल तक भटकते रहने का शाप दिया है। बाबा की ये अटपटी बातें इस विद्यार्थी के पल्ले नहीं पडीं। उसने बस यूँ ही पूछा- तब कितने साल हो गए आपको भटकते हुए। ७५०साल, उसने बडे इत्मिनान से जवाब दिया। इस जवाब ने पूछने वाले को गहरी हैरानी में डाल दिया। उसने कहा- पर आप तो केवल ५०- ६० साल के लगते हैं। सह बात सुनकर वह जोर से हँसा और बोला- अरे, मैं शरीर की बात थोड़े ही करता हूँ। इस शरीर की तो यही उम्र होगी। मैं तो अपनी बात करता हूँ। शरीर तो जब भी पुराना हो जाता है, मैं उसे छोड़कर किसी युवा मृत शरीर में प्रवेश कर जाता हूँ। साँप काटे हुए व्यक्ति को प्रायः लोग बहा देते हैं। ऐसे ही किसी शरीर को मैं अपना बना लेता हूँ। पर आपके गुरू नाराज क्यों हुए? गुरू तो बड़े कृपालु होते हैं। सिद्धियों के घमण्ड से? अरे बेटा! मुझे अपनी साधना और सिद्धियों का भारी घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण मैं किसी को कुछ नहीं समझता था। यहाँ तक कि लोगों के बहकावे में आकर मैं स्वयं को भगवान् मानने लगा था। इसी अहं के कारण एक दिन मैंने अपने गुरू को भी खरी- खोटी सुना दी। इस पर गुरूदेव ने कहा- तू क्या समझता है सिद्धियों से कोई भगवान् हो जाता है। जा तू अब १००० साल तक भटक और सिद्धियों के दंश को झेल ।। बस बेटा तब से मैं नए- नए शरीरों में रहते हुए सिद्धियों के दंश को झेल रहा हूँ। अपनी बात कहते हुए उसने पूछने वाले के सिर पर प्यार से हाथ रखा और बोला- बेटा! आगे कुछ सालों के बाद तुझे तेरे गुरू मिलेंगे। तू कभी भी उनकी बात की अवहेलना न करना। उनकी सब बातें मानना और सिद्धियों के जाल में मत उलझना। सबसे सच्ची सिद्धि तो गुरूभक्ति है। जिसे यह मिल गई, उसे समझो सब कुछ मिल गया। इस सिद्धि का उपाय क्या है? यह अगले मंत्र में स्पष्ट किया गया है।