साधना से सिद्धि में आसन व दिशा का भी महत्तव
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गुरूगीता में साधना जीवन के रहस्यों का विपुल भण्डार है। यौगिक रहस्य, मांत्रिक रहस्य एवं यांत्रिक रहस्य इसमें अलौकिक रूप से गुँथे हुए हैं। अनुभव सम्पन्न साधक जानते हैं कि साधना, साधक की अपने साध्य के साथ गहरे सामंजस्य, लय और अंततोगत्वा सम्पूर्ण विलय एवं विसर्जित होने का सत्य है। यह लय मूलतः विचारों एवं भावों की होती है। इसकी प्रगाढ़ता एवं परिपक्वता पर ही साधना की सफलता निर्भर है। परन्तु यह कार्य इतना आसान नहीं है। इसमें अनेकों विध्नों, विक्षेपों एवं अंतरायों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कई परिस्थितिजन्य होते हैं, तो कई प्रारब्धजन्य। परिस्थितियों मे स्थान, काल, परिवेश एवं घटनाचक्रों की गणना की जा सकती है, तो प्रारब्ध का पूरा दारोमदार सूक्ष्म संस्कारो एवं कर्मबीजों पर निर्भर करता है। प्रकारान्तर से यह प्रारब्ध ही परिस्थितियों का जन्मदाता है। जिनका सदुपयोग अपने विवेक एवं पुरूषार्थ पर निर्भर है। विवेक एवं पुरूषार्थ सजग रहे, तो साधना के विध्न शमित हो सकते हैं। किसी दुष्कर प्रारब्धवश इनकी सम्पूर्ण समाप्ति नहीं हो सके, तो भी इन्हें समाप्तप्राय तो किया ही जा सकता है। बस जरूरत सही साधना उपक्रमों के चयन एवं उनके उपयोग की है। इन साधना उपक्रमों में काल, मुहुर्त, मंत्र ,पूजा उपचार के साथ दिशा एवं आसान का चयन भी महत्त्वपूर्ण है। कतिपय ,बुद्धिवादी इस कथन पर संदेह कर सकते हैं। पर जिनकी बुद्धि सूक्ष्मग्राही है, सृष्टि के विभिन्न ऊर्जा प्रवाहों, चुम्बकत्व एवं जैव विद्युत की सामर्थ्य से जो परिचित हैं, उन्हें इस कथन के मर्म तक पहुँचने में समय न लगेगा। पूजा उपचार एवं तत्सम्बन्धी उपक्रम इन्हीं के संतुलित सदुपयोग के लिए है। गुरूगीता के पिछले क्रम में भगवान् सदाशिव के वचनों को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि गुरूगीता का विधिवत् अनुष्ठान स्वयं में एक समर्थ उपचार है। यह काल एवं म़त्यु के भय का हरण करने वाला है। सभी संकट इस अनुष्ठान से नष्ट होते हैं। साथ ही इससे यक्ष, राक्षस, भूत, चोर एवं व्याघ्र के भय का हरण भी होता है। इसके जप से न केवल व्याधियाँ दूर होती हैं, बल्कि सभी सिद्धियों एवं अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है। यहाँ तक कि इसके जप से सम्मोहन- वशीकरण आदि की तांत्रिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इन तांत्रिक शक्तियों की प्राप्ति में आसन एवं उपयुक्त दिशा के चुनाव का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। भगवान् सदाशिव इस सत्य को चेताते हुए माता भवानी से कहते हैं-
वस्त्रासने च दारिद्रयं पाषाणे रोगसम्भवः। मेदिप्यां दुःखमाप्रोति काष्ठे भवति निष्फलम्॥ १३७ ॥ कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मोक्षश्रीव्याघ्रचर्मणि। कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले॥१३८॥ कुशैर्वा दूर्वया देवि आसने शुभ्रकम्बले। उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः॥ १३९॥ ध्येयं शुक्लं च शान्त्यर्थं वश्ये रक्तासनं प्रिये। अभिचारं कृष्णवर्णं पीतवर्णं धनागमे ॥ १४०॥ उत्तरे शान्तिकामस्तु वश्ये पूर्वमुखो जपेत्। दक्षिणे मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः॥ १४१॥
वस्त्रासन पर साधना करने से दरिद्रता आती है ; पत्थर पर साधना करने से रोग होते हैं। धरती पर बैठकर साधना करने से दुःख मिलता है और काष्ठासन पर की गई साधना निष्फल होती है॥ १३७॥ काले हरिण के चर्म पर साधना करने से ज्ञान की प्राप्ति होती हैं, व्याघ्रचर्म पर साधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, कुश के आसन पर साधना करने से ज्ञान सिद्ध होता है, जबकि कम्बल पर बैठकर साधना करने से सर्वसिद्धियाँ मिलती है॥१३८॥ भगवान् शिव कहते हैं- हे देवि ! इस गुरूगीता का स्वाध्याय कुश के आसन पर, दूब के आसन पर अथवा श्वेत कम्बल के आसन पर बैठकर करना उचित है ॥ १३९॥ शान्ति प्राप्ति के लिए श्वेत आसन पर वशीकरण के लिए रक्तवर्ण के आसन पर ,सम्मोहन के लिए काले आसन पर एवं धन प्राप्ति के लिए पीले आसन पर बैठकर साधना करनी चाहिए॥१४०॥ इस क्रम में उत्तर दिशा शान्ति कार्यों के लिए, पूर्व दिशा वशीकरण के लिए, मारण कर्म के लिए दक्षिण दिशा एवं धन प्राप्ति के लिए पश्चिम दिशा उपयुक्त मानी गयी है॥१४१॥ गुरूगीता के इन मंत्रों की रहस्य वाणी उनके लिए अति उपयोगी है, जो साधना विज्ञान पर विशेष अनुसंधान के उत्सुक हैं। इसकी वैज्ञानिकता को वे अपने प्रयोगों से चरितार्थ कर सकते हैं। इस संदर्भ में महाराष्ट्र के संत वामन पण्डित का प्रसंग बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। वामन पण्डित समर्थ रामदास के समकालीन थे। इनका जन्म बीजापुर में हुआ था एवं विद्याध्ययन काशी में। काशी में रहते ही भगवान् विश्वनाथ की कृपा से इनकी साधना रूचि तीव्र हुई। परन्तु साधना की तीव्र इच्छा के बावजूद इनका संकल्प बार- बार टूट जाता था। मन भी सदा अशान्त रहता। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें ?? कई बार तो ये अपनी स्थिति से इतना खिन्न हो जाते कि अंतस् हताशा से भर जाता। मन सोचता कि जो जीवन उद्देश्य प्राप्ति में निरर्थक है, उसे रखकर ही क्या करें ।। इस निराशा के कुहासे में कोई मार्ग न सूझता था। जप तो करते, पर मन न लगता, साधना बार- बार भंग हो जाती। लिए गये संकल्प दीर्धकाल न चल पाते। एक- दो दिन में ही इनकी इतिश्री हो जाती। कुछ प्रारब्ध भी विपरीत था और कुछ निराशा का असर इनका शरीर भी रोगी रहने लगा। आखिर एक दिन इनका धैर्य विचलित हो गया और इन्होंने सोचा कि आज अपने आपको माँ गंगा में समर्पित कर देंगे। इस निश्चय के साथ ही वे गंगा के मणिकर्णिका घाट पर आ विराजे ।। बस, अंधकार की प्रतीक्षा थी कि अँधेरा हो और चुपके से देह का विसर्जन कर दें। अपने इन चिंतन में डूबे वे भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे- हे प्रभो! मैं चाहकर भी इस देह से तप न कर सका। हे प्रभु ! अगले जन्म में ऐसा शरीर देने की कृपा करना, जो साधना करने में समर्थ हो। ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी ! जिसकी वृत्तियाँ तप में विध्नकारी न हों। श्री वामन पण्डित अपनी प्रार्थना के इन्हीं भावों में लीन थे। उनकी आँखों से निरन्तर अश्रुपात हो रहा था। सूर्यास्त कब अँधेरे में बदल गया, उन्हें पता ही न चला। उनकी चेत तो तब आया, जब एक वृद्ध संन्यासी ने उन्हें सचेत किया। उन संन्यासी महाराज के चेताने से इनकी आँखें खुलीं। आँखें खुलने पर इन्होंने देखा कि उन वयोवृद्ध संन्यासी का दाया हाथ इनके सिर पर था और वे कह रहे थे कि धैर्य रखो वत्स ! साधना में बाधाएँ आना स्वाभाविक है, पर तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें बीजमंत्र का उपदेश देता हूँ। इसका नियमित जप करो। परन्तु यह जप तुम्हें कुश के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना होगा। इस तरह से जप करने से न केवल तुम्हें शान्ति मिलेगी, बल्कि ज्ञान की प्राप्ति भी होगी। श्री वामन पण्डित ने उन संन्यासी महाराज के निर्देश के अनुसार साधना प्रारम्भ की। शीघ्र ही उनकी साधना सिद्धि में बदल गयी। उन्होंने अध्यात्म तत्त्व पर अनेक ग्रंथों का सृजन किया। अंतस् के सभी विक्षेप स्वतः ही गहन शान्ति में बदल गये। उन्हें साधना के उपचार की महत्ता के साथ गुरू के महत्त्व का बोध हो गया।
वस्त्रासने च दारिद्रयं पाषाणे रोगसम्भवः। मेदिप्यां दुःखमाप्रोति काष्ठे भवति निष्फलम्॥ १३७ ॥ कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मोक्षश्रीव्याघ्रचर्मणि। कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले॥१३८॥ कुशैर्वा दूर्वया देवि आसने शुभ्रकम्बले। उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः॥ १३९॥ ध्येयं शुक्लं च शान्त्यर्थं वश्ये रक्तासनं प्रिये। अभिचारं कृष्णवर्णं पीतवर्णं धनागमे ॥ १४०॥ उत्तरे शान्तिकामस्तु वश्ये पूर्वमुखो जपेत्। दक्षिणे मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः॥ १४१॥
वस्त्रासन पर साधना करने से दरिद्रता आती है ; पत्थर पर साधना करने से रोग होते हैं। धरती पर बैठकर साधना करने से दुःख मिलता है और काष्ठासन पर की गई साधना निष्फल होती है॥ १३७॥ काले हरिण के चर्म पर साधना करने से ज्ञान की प्राप्ति होती हैं, व्याघ्रचर्म पर साधना करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, कुश के आसन पर साधना करने से ज्ञान सिद्ध होता है, जबकि कम्बल पर बैठकर साधना करने से सर्वसिद्धियाँ मिलती है॥१३८॥ भगवान् शिव कहते हैं- हे देवि ! इस गुरूगीता का स्वाध्याय कुश के आसन पर, दूब के आसन पर अथवा श्वेत कम्बल के आसन पर बैठकर करना उचित है ॥ १३९॥ शान्ति प्राप्ति के लिए श्वेत आसन पर वशीकरण के लिए रक्तवर्ण के आसन पर ,सम्मोहन के लिए काले आसन पर एवं धन प्राप्ति के लिए पीले आसन पर बैठकर साधना करनी चाहिए॥१४०॥ इस क्रम में उत्तर दिशा शान्ति कार्यों के लिए, पूर्व दिशा वशीकरण के लिए, मारण कर्म के लिए दक्षिण दिशा एवं धन प्राप्ति के लिए पश्चिम दिशा उपयुक्त मानी गयी है॥१४१॥ गुरूगीता के इन मंत्रों की रहस्य वाणी उनके लिए अति उपयोगी है, जो साधना विज्ञान पर विशेष अनुसंधान के उत्सुक हैं। इसकी वैज्ञानिकता को वे अपने प्रयोगों से चरितार्थ कर सकते हैं। इस संदर्भ में महाराष्ट्र के संत वामन पण्डित का प्रसंग बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। वामन पण्डित समर्थ रामदास के समकालीन थे। इनका जन्म बीजापुर में हुआ था एवं विद्याध्ययन काशी में। काशी में रहते ही भगवान् विश्वनाथ की कृपा से इनकी साधना रूचि तीव्र हुई। परन्तु साधना की तीव्र इच्छा के बावजूद इनका संकल्प बार- बार टूट जाता था। मन भी सदा अशान्त रहता। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें ?? कई बार तो ये अपनी स्थिति से इतना खिन्न हो जाते कि अंतस् हताशा से भर जाता। मन सोचता कि जो जीवन उद्देश्य प्राप्ति में निरर्थक है, उसे रखकर ही क्या करें ।। इस निराशा के कुहासे में कोई मार्ग न सूझता था। जप तो करते, पर मन न लगता, साधना बार- बार भंग हो जाती। लिए गये संकल्प दीर्धकाल न चल पाते। एक- दो दिन में ही इनकी इतिश्री हो जाती। कुछ प्रारब्ध भी विपरीत था और कुछ निराशा का असर इनका शरीर भी रोगी रहने लगा। आखिर एक दिन इनका धैर्य विचलित हो गया और इन्होंने सोचा कि आज अपने आपको माँ गंगा में समर्पित कर देंगे। इस निश्चय के साथ ही वे गंगा के मणिकर्णिका घाट पर आ विराजे ।। बस, अंधकार की प्रतीक्षा थी कि अँधेरा हो और चुपके से देह का विसर्जन कर दें। अपने इन चिंतन में डूबे वे भगवान् से प्रार्थना कर रहे थे- हे प्रभो! मैं चाहकर भी इस देह से तप न कर सका। हे प्रभु ! अगले जन्म में ऐसा शरीर देने की कृपा करना, जो साधना करने में समर्थ हो। ऐसा मन देना हे मेरे स्वामी ! जिसकी वृत्तियाँ तप में विध्नकारी न हों। श्री वामन पण्डित अपनी प्रार्थना के इन्हीं भावों में लीन थे। उनकी आँखों से निरन्तर अश्रुपात हो रहा था। सूर्यास्त कब अँधेरे में बदल गया, उन्हें पता ही न चला। उनकी चेत तो तब आया, जब एक वृद्ध संन्यासी ने उन्हें सचेत किया। उन संन्यासी महाराज के चेताने से इनकी आँखें खुलीं। आँखें खुलने पर इन्होंने देखा कि उन वयोवृद्ध संन्यासी का दाया हाथ इनके सिर पर था और वे कह रहे थे कि धैर्य रखो वत्स ! साधना में बाधाएँ आना स्वाभाविक है, पर तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें बीजमंत्र का उपदेश देता हूँ। इसका नियमित जप करो। परन्तु यह जप तुम्हें कुश के आसन पर बैठकर उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना होगा। इस तरह से जप करने से न केवल तुम्हें शान्ति मिलेगी, बल्कि ज्ञान की प्राप्ति भी होगी। श्री वामन पण्डित ने उन संन्यासी महाराज के निर्देश के अनुसार साधना प्रारम्भ की। शीघ्र ही उनकी साधना सिद्धि में बदल गयी। उन्होंने अध्यात्म तत्त्व पर अनेक ग्रंथों का सृजन किया। अंतस् के सभी विक्षेप स्वतः ही गहन शान्ति में बदल गये। उन्हें साधना के उपचार की महत्ता के साथ गुरू के महत्त्व का बोध हो गया।