ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान रूप में गुरूगीता
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गुरूगीता शिष्य की हृदयवीणा से निकले भक्ति के स्वरों की गूँज है। यह ऐसी झंकार है, जो शिष्य के भाव विह्वल हृदय से उठकर सीधे अपने सारे सद्गुरू के प्रेम विह्वल को झंकृत कर देती है। शिष्य के हृदय के इस मौन कंपन को भला उसके गुरूदेव के अलावा और सुनेगा भी तो कौन? यह एक ऐसा सच है, जिसे शिष्य हुए बिना गाया नहीं जा सकता। जिनके जीवन में सारे रिश्ते उसके गुरूदेव में ही समा चुके हों, वह भला किसी और की याद कैसे करें और क्यों करें? वह तो अपने जीवन की हर साँस में अपने गुरू का नाम लेता है। वह तारे, चाहे मारे, शिष्य की गति और कहीं नहीं हो सकती। गुरूगीता के पिछले क्रम में शिष्य के जीवन का यह यथार्थ नए- नए प्रसंगों नए- नए संदर्भों में नए- नए ढंग से कहा गया है। पिछले क्रम में भी इन्हीं स्वरों की गूँज उठी थी कि जो शिष्य है, उनके जीवन का परम शास्त्र गुरूगीता के सिवा और कुछ नहीं है। गुरूगीता का भक्तिपूर्ण पठन, श्रवण एवं लिखकर इसका दान करने से सभी सुफल प्राप्त होते हैं। भगवान् सदाशिव ने भगवती जगदम्बा से यही कहा था कि गुरूगीता का जो शुद्धतत्त्व मैंने आपके सामने कहा है, उसके सविधि जप से संसार की सारी कठिनाइयाँ दूर होती हैं। गुरूगीता स्वयं में मंत्रराज है, इसके जप का अनन्त फल है। इसका पाठ करने वाला इस अनन्त फल को प्राप्त किए बिना नहीं रहता। ऐसा करने से उसके पाप एवं दरिद्रता दोनों ही सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। गुरूगीता के इस विस्मयकारी सुफल को भगवान् सदाशिव कहते हैं-
कालमृत्युभयहरं सर्वसंकटनाशनम् ।। यक्षराक्षसभूतानां चौरव्याघ्रभयापहम्॥ १३५॥ महाव्याधिहरं सर्व विभूतिसिद्धिदं भवेत्। अथवा मोहनं वश्यं स्वयमेवं जपेत्सदा॥ १३६॥
गुरूगीता का जप काल एवं मृत्यु के भय का हरण करने वाला है। इससे सभी संकटों का नाश होता है। इतना ही नहीं, इससे यक्ष, राक्षस, भूत, चोर एवं व्याघ्र आदि के भय का भी हरण होता है॥ १३५॥ इसके जप से सभी व्याधियाँ दूर होती हैं। सभी सिद्धियों एवं अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती हैं। यहाँ तक कि इस गीता को स्वयं जपने से सम्मोहन वशीकरण आदि की शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है॥ १३६॥ गुरूगीता के दार्शनिक रहस्य, यौगिक रहस्य तो अद्भुत हैं ही इसके काम्य प्रयोग भी विलक्षण हैं। जिनका मूल स्त्रोत है, शिष्य की श्रद्धा, आस्था और उपयुक्त विधि- विधान। शिष्य की श्रद्धा एवं उपयुक्त विधियाँ गुरूगीता के मंत्रों को महासमर्थ बनाती हैं। हालाँकि इसके प्रयोगकर्त्ता विरले एवं विलक्षण ही मिलते हैं। फिर भी इनका सम्पूर्ण अभाव नहीं है। साधक समुदाय में बंगाल के तारानाथ भट्टाचार्य की बड़े सम्मान से चर्चा की जाती है। इनकी तांत्रिक शक्तियाँ बड़ी आश्चर्यजनक एवं विस्मयकारी थी। तंत्र साधक होने के बावजूद भट्टाचार्य महाशय पंचमकार के स्थूल प्रयोगों से कोसों दूर थे। उन्होंने सारे जीवन में कभी भी मांस, मद्य एवं मीन को नहीं छुआ। सभी स्त्रियों के प्रति उनका मातृभाव था। वह प्रत्येक स्त्री को जगदम्बा का रूप मानते थे और ब्रह्मचर्य में उनकी सम्पूर्ण निष्ठा थी। वह श्मशान भी जाते थे और शवसाधना भी करते थे। किन्तु इन दोनों साधनाओं के प्रति भी उनकी विशेष दृष्टि थी। श्मशान वह इसलिए जाते थे, क्योंकि वहाँ बैठने से उन्हें वैराग्य का स्फुरण होता था। भगवान् महाकाल एवं भगवती महाकाली की लय- लीला का प्रत्यक्ष बोध होता था। वह कहा करते थे- श्मशान से अधिक पावन साधनाभूमि भला और कहाँ होगी- जहाँ दैहिक आकार परमाणुओं में रूपान्तरित होते हैं। सृष्टि के विघटन एवं लय की प्रभु लीला को और कहीं बैठकर सही रीति से नहीं जाना जा सकता। शव साधना के बारे में उनका कहना था कि सच्चा साधक वह है, जो अपनी देह को शवपीठ के रूप में अनुभव कर ले। सामान्य जीव की देह में तो चाहत एवं वासनाओं का खेल चलता है। पर साधक तो इन सबसे दूर हो जाता हेै। वह अपनी जीवित देह को भी वैराग्य के महातप से शव के रूप में अनुभव करता है। प्रतिफल उसकी यह अनुभूति रहती है कि वह स्वयं शव है और इसमें चल रही चित् शक्ति की महालीला का वह साक्षी है। तारानाथ भट्टाचार्य की जो साधना स्थिति थी, उसे विरले साधक प्राप्त कर पाते हैं। लेकिन स्वयं तारानाथ अपनी सारी शक्तियों एवं सिद्धियों का उद्गम गुरूगीता को मानते थे। इसके काम्य एवं तांत्रिक प्रयोगों में उन्हें विशेषज्ञता हासिल थी। ऐसे ही एक प्रसंग में उन्होंने तंत्रदर्शन के महाचार्य प़ं० गोपीनाथ कविराज को एक घटनाक्रम बताया। उन्होंने बताया कि तंत्र साधनाओं में अलग- अलग मूहूर्तों- नियमों एवं तांत्रिक रात्रियों यथा- कालरात्रि, महारात्रि मोहरात्रि एवं दारूणरात्रि आदि अवसरों पर वह गुरूगीता का अलग- अलग रीति से पाठ करते थे। गुरूगीता के स्थितिक्रम, सृष्टि क्रम एवं संहारक्रम से उन्होंने अनेकों अनुष्ठान किए। इन अनुष्ठानों में वह गुरूगीता को भगवती गायत्री के ब्रह्मास्त्र मंत्र के साथ सभी महाविद्याओं के लोम- विलोम सम्पुटीकरण के विलक्षण प्रयोग किए। अपने एक अनुभव में उन्होंने बताया कि प्रारम्भिक दिनों में ब्रह्म पिशाच से पीड़ित एक परिवार उनके पास आया। पिशाच खतरनाक था और शक्तिशाली भी। बड़े- बड़े तंत्र साधकों को उसने हैरान बेहाल कर रखा था। इस सम्बन्ध में अचूक समझे जाने वाले प्रयोगों को उसने विफल कर रखा था। जब यह परिवार उनके पास आया, तो परिवार के आने के पहले ही ब्रह्मपिशाच ने उन्हें कई धमकियाँ दे डाली। इन धमकियों की परवाह न करते हुए जब उन्होंने कई मंत्रों के हवन की व्यवस्था की, तो ठीक समय पर वह आकर हवनीय अग्रि बुझा देता। अन्त में उन्होंने गुरूगीता के साथ गायत्री का ब्रह्मास्त्र प्रयोग करने का निश्चय किया। इसे उन्होंने अलग- अलग एवं सम्मिलित रूप से सिद्ध कर रखा था। गुरूगीता के संहारक्रम का ब्रह्मास्त्रपुटित अनुष्ठान के पूर्व उन्होंने स्वयं सहित के कल्याण के लिए स्वयं किया। इस अनुष्ठान के पूर्व उन्होंने स्वयं सहित सम्पूर्ण वातावरण को कीलित कर रखा था। अनुष्ठान के बाद जप- हवन का दिन आया, तो ब्रह्मपिशाच के तेवर ढीले पड़ चुके थे। गुरूगीता के सम्पूर्ण मंत्रों के हवन के साथ ब्रह्मपिशाच का अस्तित्त्व खतरे में पड़ता गया और अन्त में पीड़ित परिवार को उस कू्रर पिशाच से छुटकारा मिल गया। तारानाथ भट्टाचार्य ने यह प्रसंग सुनाते हुए कहा कि गुरूगीता के ये प्रयोग कष्ट साध्य तो हैं, पर इनसे सभी असम्भव को सम्भव करने की सम्भावना पूरी है। महादुष्कर कार्य भी इनसे सहज साध्य हो जाते हैं।
कालमृत्युभयहरं सर्वसंकटनाशनम् ।। यक्षराक्षसभूतानां चौरव्याघ्रभयापहम्॥ १३५॥ महाव्याधिहरं सर्व विभूतिसिद्धिदं भवेत्। अथवा मोहनं वश्यं स्वयमेवं जपेत्सदा॥ १३६॥
गुरूगीता का जप काल एवं मृत्यु के भय का हरण करने वाला है। इससे सभी संकटों का नाश होता है। इतना ही नहीं, इससे यक्ष, राक्षस, भूत, चोर एवं व्याघ्र आदि के भय का भी हरण होता है॥ १३५॥ इसके जप से सभी व्याधियाँ दूर होती हैं। सभी सिद्धियों एवं अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती हैं। यहाँ तक कि इस गीता को स्वयं जपने से सम्मोहन वशीकरण आदि की शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है॥ १३६॥ गुरूगीता के दार्शनिक रहस्य, यौगिक रहस्य तो अद्भुत हैं ही इसके काम्य प्रयोग भी विलक्षण हैं। जिनका मूल स्त्रोत है, शिष्य की श्रद्धा, आस्था और उपयुक्त विधि- विधान। शिष्य की श्रद्धा एवं उपयुक्त विधियाँ गुरूगीता के मंत्रों को महासमर्थ बनाती हैं। हालाँकि इसके प्रयोगकर्त्ता विरले एवं विलक्षण ही मिलते हैं। फिर भी इनका सम्पूर्ण अभाव नहीं है। साधक समुदाय में बंगाल के तारानाथ भट्टाचार्य की बड़े सम्मान से चर्चा की जाती है। इनकी तांत्रिक शक्तियाँ बड़ी आश्चर्यजनक एवं विस्मयकारी थी। तंत्र साधक होने के बावजूद भट्टाचार्य महाशय पंचमकार के स्थूल प्रयोगों से कोसों दूर थे। उन्होंने सारे जीवन में कभी भी मांस, मद्य एवं मीन को नहीं छुआ। सभी स्त्रियों के प्रति उनका मातृभाव था। वह प्रत्येक स्त्री को जगदम्बा का रूप मानते थे और ब्रह्मचर्य में उनकी सम्पूर्ण निष्ठा थी। वह श्मशान भी जाते थे और शवसाधना भी करते थे। किन्तु इन दोनों साधनाओं के प्रति भी उनकी विशेष दृष्टि थी। श्मशान वह इसलिए जाते थे, क्योंकि वहाँ बैठने से उन्हें वैराग्य का स्फुरण होता था। भगवान् महाकाल एवं भगवती महाकाली की लय- लीला का प्रत्यक्ष बोध होता था। वह कहा करते थे- श्मशान से अधिक पावन साधनाभूमि भला और कहाँ होगी- जहाँ दैहिक आकार परमाणुओं में रूपान्तरित होते हैं। सृष्टि के विघटन एवं लय की प्रभु लीला को और कहीं बैठकर सही रीति से नहीं जाना जा सकता। शव साधना के बारे में उनका कहना था कि सच्चा साधक वह है, जो अपनी देह को शवपीठ के रूप में अनुभव कर ले। सामान्य जीव की देह में तो चाहत एवं वासनाओं का खेल चलता है। पर साधक तो इन सबसे दूर हो जाता हेै। वह अपनी जीवित देह को भी वैराग्य के महातप से शव के रूप में अनुभव करता है। प्रतिफल उसकी यह अनुभूति रहती है कि वह स्वयं शव है और इसमें चल रही चित् शक्ति की महालीला का वह साक्षी है। तारानाथ भट्टाचार्य की जो साधना स्थिति थी, उसे विरले साधक प्राप्त कर पाते हैं। लेकिन स्वयं तारानाथ अपनी सारी शक्तियों एवं सिद्धियों का उद्गम गुरूगीता को मानते थे। इसके काम्य एवं तांत्रिक प्रयोगों में उन्हें विशेषज्ञता हासिल थी। ऐसे ही एक प्रसंग में उन्होंने तंत्रदर्शन के महाचार्य प़ं० गोपीनाथ कविराज को एक घटनाक्रम बताया। उन्होंने बताया कि तंत्र साधनाओं में अलग- अलग मूहूर्तों- नियमों एवं तांत्रिक रात्रियों यथा- कालरात्रि, महारात्रि मोहरात्रि एवं दारूणरात्रि आदि अवसरों पर वह गुरूगीता का अलग- अलग रीति से पाठ करते थे। गुरूगीता के स्थितिक्रम, सृष्टि क्रम एवं संहारक्रम से उन्होंने अनेकों अनुष्ठान किए। इन अनुष्ठानों में वह गुरूगीता को भगवती गायत्री के ब्रह्मास्त्र मंत्र के साथ सभी महाविद्याओं के लोम- विलोम सम्पुटीकरण के विलक्षण प्रयोग किए। अपने एक अनुभव में उन्होंने बताया कि प्रारम्भिक दिनों में ब्रह्म पिशाच से पीड़ित एक परिवार उनके पास आया। पिशाच खतरनाक था और शक्तिशाली भी। बड़े- बड़े तंत्र साधकों को उसने हैरान बेहाल कर रखा था। इस सम्बन्ध में अचूक समझे जाने वाले प्रयोगों को उसने विफल कर रखा था। जब यह परिवार उनके पास आया, तो परिवार के आने के पहले ही ब्रह्मपिशाच ने उन्हें कई धमकियाँ दे डाली। इन धमकियों की परवाह न करते हुए जब उन्होंने कई मंत्रों के हवन की व्यवस्था की, तो ठीक समय पर वह आकर हवनीय अग्रि बुझा देता। अन्त में उन्होंने गुरूगीता के साथ गायत्री का ब्रह्मास्त्र प्रयोग करने का निश्चय किया। इसे उन्होंने अलग- अलग एवं सम्मिलित रूप से सिद्ध कर रखा था। गुरूगीता के संहारक्रम का ब्रह्मास्त्रपुटित अनुष्ठान के पूर्व उन्होंने स्वयं सहित के कल्याण के लिए स्वयं किया। इस अनुष्ठान के पूर्व उन्होंने स्वयं सहित सम्पूर्ण वातावरण को कीलित कर रखा था। अनुष्ठान के बाद जप- हवन का दिन आया, तो ब्रह्मपिशाच के तेवर ढीले पड़ चुके थे। गुरूगीता के सम्पूर्ण मंत्रों के हवन के साथ ब्रह्मपिशाच का अस्तित्त्व खतरे में पड़ता गया और अन्त में पीड़ित परिवार को उस कू्रर पिशाच से छुटकारा मिल गया। तारानाथ भट्टाचार्य ने यह प्रसंग सुनाते हुए कहा कि गुरूगीता के ये प्रयोग कष्ट साध्य तो हैं, पर इनसे सभी असम्भव को सम्भव करने की सम्भावना पूरी है। महादुष्कर कार्य भी इनसे सहज साध्य हो जाते हैं।