स्वयं से कहो- शिष्योऽहम्
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गुरूगीता की भक्ति कथा गुरूभक्तों के लिए अमृत सरोवर है। इसके अवगाहन से मिलने वाले भक्ति- संवेदन गुरू भक्त साधक को सहज ही सद्गुरू कृपा का संस्पर्श करा देते हैं। परम कृपालु सद्गुरू की कृपा साधक के सभी दोष -दुर्मति जन्य विकारों का हरण करके उसे जीवन के परमलक्ष्य की प्राप्ति करा देती है। इसी सत्य को दर्शाते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने एक स्थान पर कहा है- तुलसी सद्गुरू त्यागि कै, भजहि जे पामर भूत। अंत फजीहत होहिं गे, गनिका के से पूत॥
जो पामर मनुष्य परम कृपालु सद्गुरू और उनके बताए साधन मार्ग को छोड़ कर तंत्र- मंत्र भूत- प्रेतों में उलझे रहते हैं, उनकी अन्त महत होती है। वे गणिका पुत्र की भाँति हर कहीं दुत्कारे और फटकारे जाते हैं। सद्गुरू की कृपा साधक का परम आश्रय है। इस तत्त्व की अनुभूति कैसे और किस तरह हो यही तो गुरूगीता के प्रत्येक मंत्र में उद्घाटित हो रहा है। पिछले मंत्र में भगवान् सदाशिव ने जगन्माता पार्वती को बताया कि गुरू चरणामृत की महिमा अतुलनीय है। गुरू प्रसाद श्रेष्ठतम है। गुरू का सान्निध्य ही पवित्र काशीधाम है। गुरूदेव ही भगवान् विश्वेश्वर हैं। वही तारक ब्रह्म है। अक्षयवट और तीर्थराज प्रयाग भी वही है। भगवान् महादेव एक ही सत्य को बार- बार सुनाते हैं, बताते हैं, समझाते हैं- अन्यत्र कहीं भटको मत, अन्यत्र कहीं अटको मत, अन्यत्र कहीं अटको मत। उन्हीं की शरण गहो, जिन्होंने तुम्हें मंत्र का दान दिया, जिन्होंने जीवन की राह दिखाई। जो हर पल, हर क्षण अपनी अजस्त्र कृपा तुम पर बरसाते रहते हैं। इस कृपा के धारण व ग्रहण की विधि बताते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती से कहते हैं-
गुरूमूर्तिं स्मरेत्रित्यं गुरूनाम सदा जपेत् ।। गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यन्न भावयेत्॥ १८॥ गुरूवक्त्रस्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः। गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतेर्यथा॥ १९॥ स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्तिं पुष्टिवर्धनम्। एतत्सर्वं परित्यज्य गुरोन्यत्र भावयेत् ॥ २०॥
सद्गुरू कृपा से अपने जीवन में भौतिक , आध्यात्मिक, लौकिक- अलौकिक समस्त विभूतियों को पाने की चाहत रखने वाले साधक को सदा ही गुरूदेव की छवि का स्मरण करना चाहिए। उनके नाम का प्रति पल, प्रति क्षण जप करना चाहिए। साथ ही गुरू आज्ञा का जीवन की सभी विपरीतताओं के बावजूद सम्पूर्ण निष्ठा से पालन करना चाहिए ।। अपने जीवन में कल्याण कामना करने वाले साधक को गुरूदेव के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं रखनी चाहिए ॥ १८॥ गुरू के मुख में ब्रह्मा का वास है। इस कारण मुख से बोले हुए उनके शब्द ब्रह्म वाक्य ही हैं। गुरू कृपा प्रसाद से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती हैं। परम पतिव्रता स्त्री जिस तरह से सदा ही अपने पति का ध्यान करती है, ठीक उसी तरह अध्यात्म तत्त्व के अभीप्सु साधक को अपने गुरू का ध्यान करना चाहिए॥ १९॥ साधक में इस ध्यान की प्रगाढ़ता कुछ इस कदर होनी चाहिए कि उसे अपना आश्रम, अपनी जाति, अपनी कीर्ति का पोषण ,, वर्धन, सभी कुछ भूल जाए। गुरू के अलावा अन्य कोई भावना उसे न व्यापे॥ २०॥ इन महामंत्रों का मनन और इनका आचरण साधकों के लिए राजमार्ग है। साधना का यह पथ बड़ा ही सरल, सुगम और निरापद है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव के अनेक शिष्य थे। उनमें से कई बहुत पढ़े- लिखे, विद्धान् और तपस्वी थे। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की अलौकिक प्रतिभा से तो समूची दुनिया चमत्कृत रह गयी। इन शिष्यों में एक लाटू महाराज भी थे। निरे अपढ़- गँवार, विद्या- बुद्धि का कोई चमत्कार उनमें नहीं था। बस हृदय में भक्ति थी। न वे शास्त्र चर्चा के गाम्भीर्य में डूब सकते थे और न ही किसी से शास्त्रार्थ कर सकते थे। पश्चिमी ज्ञान- विज्ञान तो उन्हें छू भी नहीं गया था। अपनी इस स्थिति पर विचार कर उन्होंने परमहंस देव से कहा- ठाकुर! मेरा कैसे होगा? श्री श्री ठाकुर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा तेरे लिए मैं हूँ न। बस मेरा नाम स्मरण करने से मेरा ध्यान करने से, सब कुछ हो जाएगा। तब से लाटू महाराज का नियम बन गया- अपने गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम स्मरण ,, उन्हीं का ध्यान और उनकी सेवा ।। ठाकुर की आज्ञा ही उनके लिए सर्वस्व हो गयी। यह सब करते हुए उनके जीवन में आश्चर्यजनक आघ्यात्मिक परिवर्तन हुए। अनेकों दैवी घटनाएँ एवं चमत्कारों ने उनकी साधना को धन्य किया। उनके अद्भुत आध्यात्मिक जीवन और योग शक्तियों के अद्भुत विकास को देखकर स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें अद्भुतानन्द नाम दिया। श्री रामकृष्ण संघ में वह इसी नाम से विख्यात हुए। स्वामी विवेकानन्द उनके बारे में कहा करते थे- लाटू ठाकुर का चमत्कार है। वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुरू स्मरण , गुरूसेवा और गुरू की आज्ञापालन से सब कुछ सम्भव हो सकता है। जो जन्म- जन्मान्तरों के तप से सम्भव नहीं , वह सद्गुरू कृपा से सहज ही साकार हो जाता है। सद्गुरू के मुख में ब्रह्म का वास होता है। उनकी वाणी ब्रह्म वाणी है। उनके द्वारा बोले गए वचन ब्रह्म वाक्य हैं। महान् दार्शनिक योगी भगवान् शंकराचार्य ने कहा है- मंत्र वही नहीं है, जो वेद और तन्त्र ग्रन्थों में लिखे हैं। मंत्र वे भी हैं, जिन्हें गुरू कहते हैं। सद्गुरू के वचन महामंत्र हैं। इनके अनुसार साधना करने वाला जीवन के परम लक्ष्य को पाए बिना नहीं रहता। पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और कर्म की सम्पूर्ण निष्ठा को नियोजित करके गुरूदेव भगवान् का ध्यान करना चाहिए। भावना हो या चिन्तन अथवा फिर क्रिया ,सभी कुछ सम्मिलित रूप से एक ही दिशा में -सद्गुरू के चरणों की ओर प्रवाहित होना चाहिए। ध्यान रहे इस महासाधना में अपना कोई बड़प्पन आड़े न आए। अपना कोई क्षुद्र स्वार्थ इसमें बाधा न बने ।। श्री रामकृष्णदेव कभी- कभी हँसते हुए अपने भक्तों से कहते थे- कुछ ऐसे हैं, जिनके मन में तो भगवान् के प्रति और गुरू के प्रति भक्त्ति है ; परन्तु उन्हें लाज लगती है, शरम आती है कि लोग क्या कहेंगे? आश्रम एवं कुल की झूठी मर्यादा, अपनी जाति का अभिमान, यश- प्रतिष्ठा का लोभ उन्हें गुरू की सेवा करने में बाधा बनता है। परमहंस देव जब यह कह रहे थे, तो उनके एक भक्त शिष्य मास्टर महाशय ने पूछा ,, तो फिर मार्ग क्या है? परमहंस देव ने कहा -इन सबको छोड़ दो, त्यागो इन्हें ,, तिनके की तरह ।। सद्गुरू की आज्ञापालन में जो भी बाधाएँ सामने आएँ, उनका सामना करने में कभी कोई संकोच नहीं करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द महाराज कहा करते थे- तुम अपने से पूछो- कोऽहम्? मैं कौन हूँ? देखो तुम्हें क्या उत्तर मिलता है। हो सकता है तुम्हें उत्तर मिले मैं पुत्र हूँ, पिता हूँ, पति हूँ अथवा पत्नी हूँ ,माँ हूँ पुत्री हूँ ।ऐसे उत्तर मिलने पर और गहराई में उतरो- गुरूचरणों में और ज्यादा नेह बढ़ाओं। फिर तुम्हें एक और सिर्फ एक उत्तर मिलेगा- शिष्योऽहम् मैं शिष्य हूँ। सारे रिश्ते- नाते इस एक सम्बन्ध में विलीन हो जाएँगे। ध्यान रहे जो शिष्य है, वही साधक हो सकता है। उसी में जीवन की समस्त सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं। उसी में जीवन की समस्त सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं और जो सच्चा शिष्य है- उसके सभी कर्त्तव्य अपने गुरू के लिए हैं। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ शिष्य को सद्गुरू कृपा किस रूप में फलती है, इसका बोध भगवान् भोलेनाथ ने गुरूगीता के अगले मंत्रों में कराया है
जो पामर मनुष्य परम कृपालु सद्गुरू और उनके बताए साधन मार्ग को छोड़ कर तंत्र- मंत्र भूत- प्रेतों में उलझे रहते हैं, उनकी अन्त महत होती है। वे गणिका पुत्र की भाँति हर कहीं दुत्कारे और फटकारे जाते हैं। सद्गुरू की कृपा साधक का परम आश्रय है। इस तत्त्व की अनुभूति कैसे और किस तरह हो यही तो गुरूगीता के प्रत्येक मंत्र में उद्घाटित हो रहा है। पिछले मंत्र में भगवान् सदाशिव ने जगन्माता पार्वती को बताया कि गुरू चरणामृत की महिमा अतुलनीय है। गुरू प्रसाद श्रेष्ठतम है। गुरू का सान्निध्य ही पवित्र काशीधाम है। गुरूदेव ही भगवान् विश्वेश्वर हैं। वही तारक ब्रह्म है। अक्षयवट और तीर्थराज प्रयाग भी वही है। भगवान् महादेव एक ही सत्य को बार- बार सुनाते हैं, बताते हैं, समझाते हैं- अन्यत्र कहीं भटको मत, अन्यत्र कहीं अटको मत, अन्यत्र कहीं अटको मत। उन्हीं की शरण गहो, जिन्होंने तुम्हें मंत्र का दान दिया, जिन्होंने जीवन की राह दिखाई। जो हर पल, हर क्षण अपनी अजस्त्र कृपा तुम पर बरसाते रहते हैं। इस कृपा के धारण व ग्रहण की विधि बताते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती से कहते हैं-
गुरूमूर्तिं स्मरेत्रित्यं गुरूनाम सदा जपेत् ।। गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यन्न भावयेत्॥ १८॥ गुरूवक्त्रस्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः। गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतेर्यथा॥ १९॥ स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्तिं पुष्टिवर्धनम्। एतत्सर्वं परित्यज्य गुरोन्यत्र भावयेत् ॥ २०॥
सद्गुरू कृपा से अपने जीवन में भौतिक , आध्यात्मिक, लौकिक- अलौकिक समस्त विभूतियों को पाने की चाहत रखने वाले साधक को सदा ही गुरूदेव की छवि का स्मरण करना चाहिए। उनके नाम का प्रति पल, प्रति क्षण जप करना चाहिए। साथ ही गुरू आज्ञा का जीवन की सभी विपरीतताओं के बावजूद सम्पूर्ण निष्ठा से पालन करना चाहिए ।। अपने जीवन में कल्याण कामना करने वाले साधक को गुरूदेव के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं रखनी चाहिए ॥ १८॥ गुरू के मुख में ब्रह्मा का वास है। इस कारण मुख से बोले हुए उनके शब्द ब्रह्म वाक्य ही हैं। गुरू कृपा प्रसाद से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती हैं। परम पतिव्रता स्त्री जिस तरह से सदा ही अपने पति का ध्यान करती है, ठीक उसी तरह अध्यात्म तत्त्व के अभीप्सु साधक को अपने गुरू का ध्यान करना चाहिए॥ १९॥ साधक में इस ध्यान की प्रगाढ़ता कुछ इस कदर होनी चाहिए कि उसे अपना आश्रम, अपनी जाति, अपनी कीर्ति का पोषण ,, वर्धन, सभी कुछ भूल जाए। गुरू के अलावा अन्य कोई भावना उसे न व्यापे॥ २०॥ इन महामंत्रों का मनन और इनका आचरण साधकों के लिए राजमार्ग है। साधना का यह पथ बड़ा ही सरल, सुगम और निरापद है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव के अनेक शिष्य थे। उनमें से कई बहुत पढ़े- लिखे, विद्धान् और तपस्वी थे। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की अलौकिक प्रतिभा से तो समूची दुनिया चमत्कृत रह गयी। इन शिष्यों में एक लाटू महाराज भी थे। निरे अपढ़- गँवार, विद्या- बुद्धि का कोई चमत्कार उनमें नहीं था। बस हृदय में भक्ति थी। न वे शास्त्र चर्चा के गाम्भीर्य में डूब सकते थे और न ही किसी से शास्त्रार्थ कर सकते थे। पश्चिमी ज्ञान- विज्ञान तो उन्हें छू भी नहीं गया था। अपनी इस स्थिति पर विचार कर उन्होंने परमहंस देव से कहा- ठाकुर! मेरा कैसे होगा? श्री श्री ठाकुर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा तेरे लिए मैं हूँ न। बस मेरा नाम स्मरण करने से मेरा ध्यान करने से, सब कुछ हो जाएगा। तब से लाटू महाराज का नियम बन गया- अपने गुरूदेव श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम स्मरण ,, उन्हीं का ध्यान और उनकी सेवा ।। ठाकुर की आज्ञा ही उनके लिए सर्वस्व हो गयी। यह सब करते हुए उनके जीवन में आश्चर्यजनक आघ्यात्मिक परिवर्तन हुए। अनेकों दैवी घटनाएँ एवं चमत्कारों ने उनकी साधना को धन्य किया। उनके अद्भुत आध्यात्मिक जीवन और योग शक्तियों के अद्भुत विकास को देखकर स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें अद्भुतानन्द नाम दिया। श्री रामकृष्ण संघ में वह इसी नाम से विख्यात हुए। स्वामी विवेकानन्द उनके बारे में कहा करते थे- लाटू ठाकुर का चमत्कार है। वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुरू स्मरण , गुरूसेवा और गुरू की आज्ञापालन से सब कुछ सम्भव हो सकता है। जो जन्म- जन्मान्तरों के तप से सम्भव नहीं , वह सद्गुरू कृपा से सहज ही साकार हो जाता है। सद्गुरू के मुख में ब्रह्म का वास होता है। उनकी वाणी ब्रह्म वाणी है। उनके द्वारा बोले गए वचन ब्रह्म वाक्य हैं। महान् दार्शनिक योगी भगवान् शंकराचार्य ने कहा है- मंत्र वही नहीं है, जो वेद और तन्त्र ग्रन्थों में लिखे हैं। मंत्र वे भी हैं, जिन्हें गुरू कहते हैं। सद्गुरू के वचन महामंत्र हैं। इनके अनुसार साधना करने वाला जीवन के परम लक्ष्य को पाए बिना नहीं रहता। पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और कर्म की सम्पूर्ण निष्ठा को नियोजित करके गुरूदेव भगवान् का ध्यान करना चाहिए। भावना हो या चिन्तन अथवा फिर क्रिया ,सभी कुछ सम्मिलित रूप से एक ही दिशा में -सद्गुरू के चरणों की ओर प्रवाहित होना चाहिए। ध्यान रहे इस महासाधना में अपना कोई बड़प्पन आड़े न आए। अपना कोई क्षुद्र स्वार्थ इसमें बाधा न बने ।। श्री रामकृष्णदेव कभी- कभी हँसते हुए अपने भक्तों से कहते थे- कुछ ऐसे हैं, जिनके मन में तो भगवान् के प्रति और गुरू के प्रति भक्त्ति है ; परन्तु उन्हें लाज लगती है, शरम आती है कि लोग क्या कहेंगे? आश्रम एवं कुल की झूठी मर्यादा, अपनी जाति का अभिमान, यश- प्रतिष्ठा का लोभ उन्हें गुरू की सेवा करने में बाधा बनता है। परमहंस देव जब यह कह रहे थे, तो उनके एक भक्त शिष्य मास्टर महाशय ने पूछा ,, तो फिर मार्ग क्या है? परमहंस देव ने कहा -इन सबको छोड़ दो, त्यागो इन्हें ,, तिनके की तरह ।। सद्गुरू की आज्ञापालन में जो भी बाधाएँ सामने आएँ, उनका सामना करने में कभी कोई संकोच नहीं करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द महाराज कहा करते थे- तुम अपने से पूछो- कोऽहम्? मैं कौन हूँ? देखो तुम्हें क्या उत्तर मिलता है। हो सकता है तुम्हें उत्तर मिले मैं पुत्र हूँ, पिता हूँ, पति हूँ अथवा पत्नी हूँ ,माँ हूँ पुत्री हूँ ।ऐसे उत्तर मिलने पर और गहराई में उतरो- गुरूचरणों में और ज्यादा नेह बढ़ाओं। फिर तुम्हें एक और सिर्फ एक उत्तर मिलेगा- शिष्योऽहम् मैं शिष्य हूँ। सारे रिश्ते- नाते इस एक सम्बन्ध में विलीन हो जाएँगे। ध्यान रहे जो शिष्य है, वही साधक हो सकता है। उसी में जीवन की समस्त सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं। उसी में जीवन की समस्त सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं और जो सच्चा शिष्य है- उसके सभी कर्त्तव्य अपने गुरू के लिए हैं। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ शिष्य को सद्गुरू कृपा किस रूप में फलती है, इसका बोध भगवान् भोलेनाथ ने गुरूगीता के अगले मंत्रों में कराया है