गुरू का वाक्य ब्रह्मवाक्य समान
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गुरूगीता गुरूगत प्राण शिष्यों के लिए मंत्रमय है। जो शिष्य हैं, वे महामंत्रमयी गुरूगीता का मर्म समझते हैं। उन्हें मालूम है कि मंत्र साधक की मानसिक चेतना की दशा व दिशा को आमूल- चूल बदल देता है। यह बदलाव लोहे को सोने में बदलने जैसा है। मंत्र पारस के छूते ही सब कुछ बदल जाता है। लोहे की कलंक- कालिख सोने की स्वर्णिम आभा बिखरने लगती है। साधना व गुरूकृपा से अनजान चित्त के लिए यह पारस कथा अतिशयोक्ति भरा झूठ लग सकती है। पर जिन्हें गुरू की कृपा छाँव मिली है, वे जानते हैं कि गुरूदेव की छुअन में सारे आश्चर्यकारी परिवर्तन समाये हैं। उनकी कृपा से सारे असम्भव सहज सम्भव हो जाते हैं। साधना का सच- गुरूकृपा का प्रभाव तार्किक विश्लेषण व गणित शास्त्र के समीकरण की सभी सीमाओं से पार है। इसका अतुलनीय प्रभाव हमेशा ही हमें अनुभव करने का नेह निमंत्रण देता है। जिन्हें यह निमंत्रण मिला है, जिन्होंने इसका अनुभव पाया है, उनके हृदय इन क्षणों में भी गद्गद एवं पुलकित हैं। इस पुलकन के कुछ पल इस गुरूभक्ति कथा के पूर्वोक्त मंत्रों में विवेचित किये गये हैं। इसमें शिव संदेश यही है कि गुरूदेव से अधिक और कुछ नहीं है। भगवान् भोलेनाथ ने यही कहा है- गुरूतत्त्व परम कल्याणकारी है। यह मेरा (शिव का) आदेश है। गुरू ध्यान की सहज परिणति साफ है। उन कृपालु सद्गुरू की कृपा से मैं मुक्त हूँ, ऐसा चिंतन करना चाहिए। ऐसा चिंतन करने वाला सदा ही मुक्त रहता है। कर्मों की श्रृंखला उसे बाँधने में कभी समर्थ नहीं होती। इस सच के नये आयाम खोलते हुए भगवान् सदाशिव आदि माता भवानी से कहते हैं-
गुरूदर्शितमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत्। अनित्यं खण्डयेत् सर्वं यत्किंञ्चिदात्मगोचरम्॥ ९९॥ ज्ञेयं सर्वस्वरूपं च ज्ञानं च मन उच्यते। ज्ञानं ज्ञेयसमं कुर्यात् नान्यः पन्था द्वितीयकः॥ १००॥
गुरूदेव जो भी राह दिखायें, उसी राह पर चलते हुए मन की शुद्धि करना कर्त्तव्य है। शिष्य को चाहिए कि मन व इन्द्रियों से भोगे जाने वाले सभी भोगों को और सभी अनित्य पदार्थों को त्याग दे ॥ ९९॥ सभी को आत्मस्वरूप अनुभव करना ज्ञान हैं। जिसे ज्ञान हो रहा है और जिसका ज्ञान हो रहा है, ये दोनों ही समान है अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् अपनी आत्मा का विस्तार है। ऐसा अनुभव ही मोक्ष कारक है। इसके सिवा अन्य कोई पथ नहीं है॥ १००॥ गुरूगीता के रूप में उचारे गये इन शिव वचनों में साधना ,साध्य व सिद्धि का मर्म छिपा है। साधना वही, जो गुरूदेव बतायें। साध्य वही, जिसकी ओर वे इशारा करें और सिद्धि वही, जिसमें कि उनकी आत्मतत्त्व के विस्तार रूप में अनुभव हो। इस सम्पूर्ण जगत् में एक ही तत्त्व है- एक ही सत्य है। इस आत्मतत्त्व के अनुभव में जो प्रतिष्ठित हो गये, वही ज्ञानी हैं। ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। सब एक ही का विस्तार है। गुरू द्वारा दिखाई गयी राह पर चलने से प्रत्येक शिष्य को यह अनुभूति हो जाती है। इस अनुभूति को बताने वाली एक शिष्य की बड़ी मधुर बीती है। गुरू के स्पर्श ने इस शिष्य को अनायास ही लोहे से सोने में बदल दिया। बंगाल के एक गाँव सिहुड़ में जन्म हुआ। माँ- बाप ने नाम दिया सिद्धेश्वर। जिसे बाद में गाँव- टोले के लोगों ने मिलकर सिधुआ बना दिया। जैसा नाम वैसा गुण, सिद्धेश्वर बचपन से ही सीधा और भोला था। दैव का प्रकोप माँ- बाप बचपन में ही चल बसे। अनाथ होने का दर्द उसके सिवा भला और कौन अनुभव कर सकता था। अपमान से दिया गया अन्न और तिरस्कार से दिया गया जल उसकी भूख- प्यास बुझा देता था, पर कभी- कभी जब और अधिक अपमान सहने की हिम्मत न पड़ती, तो वह भूखा ही सो जाता। उसका बचपन ऐसे ही बीत रहा था। तभी एक दिन बाबा सोमेश्वर उसके गाँव में आये। उनकी भव्य देह यष्टि, शुभ्र केश, ज्योति बिखेरती आँखें, आशीर्वचन सुनाते होंठ उसने जब पहली बार उनको देखा तो देखता ही रह गया। समझ में नहीं आया क्या कहे? कैसे कहे? उसने तो बस इतना ही सुना कि बाबा को लोग परमहंस देव कह रहे हैं। उसने जब उनके पास जाने के लिए सोचा, तो किसी ने उसे जोर का धक्का दिया, पर बाबा ने अपने बलिष्ठ हाथों से उसे सम्भाल लिया। वह तो बस डर के मारे उनसे चिपट गया। भिड़ जब बाबा के पास से विदा हुई, तो बाबा उसका सिर सहलाते हुए बोले- बेटा! मैं इस गाँव में केवल तुम्हारे लिए आया हूँ। उसका भी कोई अपना है, यह उसके लिए बड़े अचरज की बात थी। पर बाबा ने उसे बड़े प्यार से माँ दुर्गा का मंत्र स्मरण करना सिखाया और बोले- बेटा! तुम बिना परेशान हुए इसी गाँव में रहते हुए सबकी सेवा करते रहो। पर बाबा ये लोग ता़! वह और कुछ बोल पाता तभी बाबा बोले बहुत सताते हैं न तुम्हें। हाँ बाबा। उसकी हाँ सुनकर बाबा सोमेश्वर ने अपनी आँखें शून्य में टिका ली और कहीं आकाश में खो गये। कुछ सोचते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आये। फिर थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हुए और बोले- ये सब जो भी सतायें, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहते हुए इनकी सेवा करो। सही तुम्हारा साधना पथ है। मानोगे मेरी बात, कर सकोगे ऐसा। १५- १६ साल का सिद्धेश्वर चुप हो गया। पर मना कैसे करता, जिन्दगी में पहली बार तो किसी ने उससे प्रेम से बात की है। उसने हामी भर दी। माँ दुर्गा का स्मरण, सारे तिरस्कार को सहकर सबको सेवा, यही उसका जीवन बन गया। लोग जितना अधिक अपमानित करते, माँ दुर्गा उसे उतनी ज्यादा याद आती। बड़े विह्वल होकर वह माँ को पुकारने लगता। रात में जब सोता, तब सपने में कभी- कभी वह परमहंस बाबा सोमेश्वर उसके सिरहाने बैठे दिखते। इन सालों में उसमें एक फर्क यह हुआ कि अब वह युवा हो गया। एक दूसरा फर्क यह हुआ कि अब सोते- जगते उसका मन जगन्माता माँ दुर्गा और अपने प्यारे गुरूदेव में विलीन रहता। अब धीरे- धीरे उसे लोगों ने अपमानित करना बन्द कर दिया। पर उसका मन अब माँ का हो गया था। माँ के स्मरण से ही उसकी सुबह होती और माँ के स्मरण से ही उसकी पलके मुँदती। एक रात जब वह सो रहा था, तभी अचानक मूलाधार में सोई महासर्पिणी जाग उठी। अजीब सा प्रभाव हुआ उस पर। लगभग विक्षिप्त सा हो गया। यह दशा सालों बनी रही, परन्तु बाद में उसका मन स्थिर और शान्त हो गया। उसके मन के ज्ञान- कपाट खुल गए। इतने दिनों में चौबीस सालों का अन्तराल हो गया था। एक दिन बाबा सोमेश्वर फिर से उसके पास आए और बोले बेटा! तुम्हारी साधना सफल हो गयी है। अब तुम सिद्ध हो। उसने विह्वल हो उनके पाँव पकड़ लिए और बोला बाबा मेैं तो इन चरणों का दास हूँ। मैं तो कुछ किया ही नहीं, बस आपके कहे को करता रहा हूँ। बाबा हँसते हुए बोले, गुरू के कहे हुए को जो अक्षरशः कर लेता है, वह शुद्ध बुद्ध व मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो गुरू का विशेष करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।
गुरूदर्शितमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत्। अनित्यं खण्डयेत् सर्वं यत्किंञ्चिदात्मगोचरम्॥ ९९॥ ज्ञेयं सर्वस्वरूपं च ज्ञानं च मन उच्यते। ज्ञानं ज्ञेयसमं कुर्यात् नान्यः पन्था द्वितीयकः॥ १००॥
गुरूदेव जो भी राह दिखायें, उसी राह पर चलते हुए मन की शुद्धि करना कर्त्तव्य है। शिष्य को चाहिए कि मन व इन्द्रियों से भोगे जाने वाले सभी भोगों को और सभी अनित्य पदार्थों को त्याग दे ॥ ९९॥ सभी को आत्मस्वरूप अनुभव करना ज्ञान हैं। जिसे ज्ञान हो रहा है और जिसका ज्ञान हो रहा है, ये दोनों ही समान है अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् अपनी आत्मा का विस्तार है। ऐसा अनुभव ही मोक्ष कारक है। इसके सिवा अन्य कोई पथ नहीं है॥ १००॥ गुरूगीता के रूप में उचारे गये इन शिव वचनों में साधना ,साध्य व सिद्धि का मर्म छिपा है। साधना वही, जो गुरूदेव बतायें। साध्य वही, जिसकी ओर वे इशारा करें और सिद्धि वही, जिसमें कि उनकी आत्मतत्त्व के विस्तार रूप में अनुभव हो। इस सम्पूर्ण जगत् में एक ही तत्त्व है- एक ही सत्य है। इस आत्मतत्त्व के अनुभव में जो प्रतिष्ठित हो गये, वही ज्ञानी हैं। ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। सब एक ही का विस्तार है। गुरू द्वारा दिखाई गयी राह पर चलने से प्रत्येक शिष्य को यह अनुभूति हो जाती है। इस अनुभूति को बताने वाली एक शिष्य की बड़ी मधुर बीती है। गुरू के स्पर्श ने इस शिष्य को अनायास ही लोहे से सोने में बदल दिया। बंगाल के एक गाँव सिहुड़ में जन्म हुआ। माँ- बाप ने नाम दिया सिद्धेश्वर। जिसे बाद में गाँव- टोले के लोगों ने मिलकर सिधुआ बना दिया। जैसा नाम वैसा गुण, सिद्धेश्वर बचपन से ही सीधा और भोला था। दैव का प्रकोप माँ- बाप बचपन में ही चल बसे। अनाथ होने का दर्द उसके सिवा भला और कौन अनुभव कर सकता था। अपमान से दिया गया अन्न और तिरस्कार से दिया गया जल उसकी भूख- प्यास बुझा देता था, पर कभी- कभी जब और अधिक अपमान सहने की हिम्मत न पड़ती, तो वह भूखा ही सो जाता। उसका बचपन ऐसे ही बीत रहा था। तभी एक दिन बाबा सोमेश्वर उसके गाँव में आये। उनकी भव्य देह यष्टि, शुभ्र केश, ज्योति बिखेरती आँखें, आशीर्वचन सुनाते होंठ उसने जब पहली बार उनको देखा तो देखता ही रह गया। समझ में नहीं आया क्या कहे? कैसे कहे? उसने तो बस इतना ही सुना कि बाबा को लोग परमहंस देव कह रहे हैं। उसने जब उनके पास जाने के लिए सोचा, तो किसी ने उसे जोर का धक्का दिया, पर बाबा ने अपने बलिष्ठ हाथों से उसे सम्भाल लिया। वह तो बस डर के मारे उनसे चिपट गया। भिड़ जब बाबा के पास से विदा हुई, तो बाबा उसका सिर सहलाते हुए बोले- बेटा! मैं इस गाँव में केवल तुम्हारे लिए आया हूँ। उसका भी कोई अपना है, यह उसके लिए बड़े अचरज की बात थी। पर बाबा ने उसे बड़े प्यार से माँ दुर्गा का मंत्र स्मरण करना सिखाया और बोले- बेटा! तुम बिना परेशान हुए इसी गाँव में रहते हुए सबकी सेवा करते रहो। पर बाबा ये लोग ता़! वह और कुछ बोल पाता तभी बाबा बोले बहुत सताते हैं न तुम्हें। हाँ बाबा। उसकी हाँ सुनकर बाबा सोमेश्वर ने अपनी आँखें शून्य में टिका ली और कहीं आकाश में खो गये। कुछ सोचते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आये। फिर थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हुए और बोले- ये सब जो भी सतायें, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहते हुए इनकी सेवा करो। सही तुम्हारा साधना पथ है। मानोगे मेरी बात, कर सकोगे ऐसा। १५- १६ साल का सिद्धेश्वर चुप हो गया। पर मना कैसे करता, जिन्दगी में पहली बार तो किसी ने उससे प्रेम से बात की है। उसने हामी भर दी। माँ दुर्गा का स्मरण, सारे तिरस्कार को सहकर सबको सेवा, यही उसका जीवन बन गया। लोग जितना अधिक अपमानित करते, माँ दुर्गा उसे उतनी ज्यादा याद आती। बड़े विह्वल होकर वह माँ को पुकारने लगता। रात में जब सोता, तब सपने में कभी- कभी वह परमहंस बाबा सोमेश्वर उसके सिरहाने बैठे दिखते। इन सालों में उसमें एक फर्क यह हुआ कि अब वह युवा हो गया। एक दूसरा फर्क यह हुआ कि अब सोते- जगते उसका मन जगन्माता माँ दुर्गा और अपने प्यारे गुरूदेव में विलीन रहता। अब धीरे- धीरे उसे लोगों ने अपमानित करना बन्द कर दिया। पर उसका मन अब माँ का हो गया था। माँ के स्मरण से ही उसकी सुबह होती और माँ के स्मरण से ही उसकी पलके मुँदती। एक रात जब वह सो रहा था, तभी अचानक मूलाधार में सोई महासर्पिणी जाग उठी। अजीब सा प्रभाव हुआ उस पर। लगभग विक्षिप्त सा हो गया। यह दशा सालों बनी रही, परन्तु बाद में उसका मन स्थिर और शान्त हो गया। उसके मन के ज्ञान- कपाट खुल गए। इतने दिनों में चौबीस सालों का अन्तराल हो गया था। एक दिन बाबा सोमेश्वर फिर से उसके पास आए और बोले बेटा! तुम्हारी साधना सफल हो गयी है। अब तुम सिद्ध हो। उसने विह्वल हो उनके पाँव पकड़ लिए और बोला बाबा मेैं तो इन चरणों का दास हूँ। मैं तो कुछ किया ही नहीं, बस आपके कहे को करता रहा हूँ। बाबा हँसते हुए बोले, गुरू के कहे हुए को जो अक्षरशः कर लेता है, वह शुद्ध बुद्ध व मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो गुरू का विशेष करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।