सद्गुरू की प्राप्ति ही आत्मसाक्षात्कार
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गुरूगीता बोधिवृक्ष है। इसकी छाँव तले होने वाली सद्गुरू कृपा अनुभूति साधक को सम्यक् सम्बुद्ध बनाती है। उपर्युक्त पंक्तियों में गुरूतत्त्व के प्रति जिज्ञासु साधकों ने पढ़ा कि गुरू के अभाव में समस्त शास्त्र एवं सारी विद्याएँ अर्थहीन हो जाती हैं। परमगुरू भगवान शिव के ये वचन बड़े अनूठे हैं। इनको आत्मसात करने के लिए गहन श्रद्धा एवं प्रखर विवेक की जरूरत है। श्रद्धा एवं विवेक के संयोग से ही यह तत्त्व समझ में आता है कि समस्त शास्त्र सारगर्भित हैं और सारी विद्याएँ अर्थवान् हैं, पर तभी जब सद्गुरु कृपा करके इनका सम्यक् बोध कराएँ। सद्गुरू के न होने पर शास्त्र केवल वाक्जाल और वितण्डावाद का साधन बनकर रह जाते हैं। इन्हें पढ़ने और रटने वाले अहंकार से छुटकारा पाने की जगह ज्ञानी होने के झूठे अहं के ज्वर से पीड़ित होते रहते हैं। यही स्थिति विद्याओं की है। गुरू सान्निध्य के अभाव में कल्याणकारी विद्याएँ भी अकल्याणकारी बन जाती हैं। यह ऐसा अनुभव सिद्ध सत्य है, जिसे अनेकों बार अनेकों ने अनुभव किया है। गुरू महिमा की इस कथा को आगे बढ़ाते हुए भगवान् सदाशिव, आदिमाता पार्वती से कहते हैं- यज्ञो व्रतं तपो दानं जपस्तीर्थ तथैव च। गुरूतत्त्वमविज्ञाय मूढस्तु चरते जनः ॥ ८॥
यज्ञ, व्रत ,, तप ,, दान ,, जप और तीर्थ आदि सारी प्रक्रियाओं को करने वाले लोग भी गुरूतत्त्व के बोध के अभाव में मूढ़ की तरह विचरते रहते हैं। गुरूओं के भी गुरू भगवान् सदाशिव के इन वचनों का केन्द्रीय तत्त्व यही है कि गुरूतत्त्व की अनुभूति पाए बिना जिन्दगी की मूढ़ता किसी भी दशा में दूर नहीं होती। और मूढ़ता की इस भावदशा में किए गए उच्चकर्म भी अपना सार्थक सत्परिणाम नहीं दे पाते हैं। यज्ञ, व्रत, तप, दान ,, जप और तीर्थ ये सभी श्रेष्ठ कर्म है ; परन्तु सद्गुरू के अभाव में इनकी श्रेष्ठता भी क्षुद्रता एवं संकीर्णता का रूप ले लेती है ।। इन्हें करने वाले इन उच्च कर्मों की श्रेष्ठता को, अपने स्वार्थ, अहंकार एवं मतवाद की संकीर्णता से ढाँप देते हैं। उदाहरण के लिए जो यज्ञकर्म इदं न मम् का भाव प्रवर्तक है- वह गुरूज्ञान के अभाव में प्रायः कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। इसी तरह व्रत के पालन का तात्पर्य व्रतशील जीवन से है; परन्तु साधारणतया लोग विभिन्न व्रतों को अपनी मनोकामनाओं की तृप्ति का साधन बना लेते हैं। ठीक यही स्थिति तप, दान, जप और तीर्थ की है। इस स्थिति से उबरने का उपाय सुझाते हुए भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं-
गुरूर्बुद्धयात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं न संशयः। तल्लाभार्थ प्रयत्नस्तु कर्तव्यो हि मनीषिभिः॥ ९॥
प्रबुद्ध आत्मा एवं सद्गुरू एक ही है, भिन्न नहीं है। यह सत्य है- सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिए मननशील मनीषियों को इसकी प्राप्ति हेतु ही सभी श्रेष्ठ कर्तव्य कर्म करना चाहिए। भगवान महादेव के इन वचन में ऊपर कहे हुए वचन की पूर्णता है। साधकों के मन में इस मंत्र के पहले वाले मंत्र को पढ़कर यह शंका जन्म ले सकती है कि जब गुरूज्ञान के अभाव में यज्ञ, व्रत, तप दान, जप और तीर्थ आदि कर्म केवल मूढ़ता के द्योतक बने रहते हैं, ताक फिर यदि सद्गुरू का सान्निध्य अभी प्राप्त न हो, तो इन्हें किया जाय अथवा नहीं। साधकों की यह शंका मात्र कोरी शंका नहीं है, परन्तु जिज्ञासु अन्तर्मन की जिज्ञासा भी है। महादेव भगवती पार्वती को इस मंत्र में इसी जिज्ञासा का समाधान सुझाते हैं। परम गुरू कहते हैं, हे देवि ! जो मननशील मनीषी हैं, वे शीघ्र ही इस गूढ़ रहस्य को समझ जाते हैं कि अपनी जाग्रत् आत्मा ही सद्गुरू है अथवा गुरूदेव भगवान् ही अपनी जाग्रत् आत्मा हैं। इस कथन में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करने वाला शब्द मनीषी है। मनीषी सब नहीं होते। ये बड़े ही विशेष प्रकार के साधना परायण व्यक्ति होते हैं। इनका विश्वास जीवन की यांत्रिक गतिविधियों में फँसकर सब कुछ गवाँ देने में नहीं होता। इनकी अन्तर्चेतना रोजी- रोटी कमाने तक सिमटी नहीं रहती। ये अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के साथ जीवन के सार तत्त्व के बारे में सतत मनन करते रहते हैं। ऐसे मननशील मनीषियों को शीघ्र ही इस यथार्थता का अहसास हो जाता है कि सद्गुरू की कृपाशक्ति से ही आत्मचेतना में जागृति आती है। और जब आत्म चेतना जाग्रत् होती है, तो यह सत्य अनुभूति का रूप ले लेता है कि सद्गुरूदेव की कृपाचेतना ही अपनी आत्मचेतना है। इन दोनों में कोई भिन्नता नहीं है। इसलिए गहन अर्थ में सद्गुरू के सत्य स्वरूप का साक्षात्कार ही आत्म साक्षात्कार है। सद्गुरू की प्राप्ति ही आत्मप्राप्ति है। मनुष्य जीवन का केन्द्रीय उद्देश्य एवं आधार भी यही है इसलिए जो भी कर्तव्य कर्म किए जाएँ, वे सभी इसी उद्देश्य एवं अभीप्सा के साथ हों। यज्ञ, व्रत, तप, दान, जप एवं तीर्थ इन सभी श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए; परन्तु इन कर्मों के पवित्र अनुष्ठान के साथ सद्गुरू की प्राप्ति का संकल्प अवश्यमेव जुड़ा हुआ हो। इस संकल्प के जुड़ने मात्र से ये सभी कर्म श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम होते चले जाएँगे और इनके अनुष्ठान में तत्पर व्यक्ति की अन्तर्चेतना मूढ़ता से ज्ञानदाता सद्गुरूदेव की ओर यात्रा कर सकेगी। भगवान महादेव गुरूगीता के अगले मंत्र में स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इस तरह के संकल्प के साथ किए गए पवित्र कर्मों के अनुष्ठान गूढ़ विद्या हैं।
गूढ़विधा जगन्माया देहेचाज्ञानसम्भवा। उदयो यत्प्रकाशेन गुरूशब्देन कथ्यते॥ १०॥
माया से आवृत जगत् और अज्ञान से उत्पन्न शरीर के लिए यह गूढ़विधा है। जिससे प्रकाशित होने से सत्यज्ञान का उदय होता है। इसी तत्त्व को गुरू संज्ञा दी गयी है। सद्गुरू प्राप्ति की अभीप्सा के संकल्प को भगवान् सदाशिव गूढ़विधा इसलिए कहते हैं ; क्योंकि यह तत्त्व साधारणतया किसी की समझ में नहीे आता ।। कामनाओं और वासनाओं के अँधेरे से घिरे लोग गुरू शब्द का महत्व ही नहीं समझ पाते। गुरू में पहला अक्षर गु अंधकार का वाचक है। और रु प्रकाश का वाचक है। इस तरह गुरू वह तत्व है, जो अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करके ज्ञानरूपी तेज का प्रकाश करता है। ऐसे सद्गुरू के लिए लगन, उनको पाने के लिए गहरी चाहत , उनके चरणों में अपने सर्वस्व समर्पण के लिए आतुरता में ही इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है। यद्यपि यह कार्य आसान नहीं है। आसान न होने का पहला कारण है कि यह समस्त जगत् अपने वास्तविक रूप में है, तो ब्रह्ममय ,किन्तु इस पर माया का छद्म आवरण है। इस दुनिया में प्रायः सभी लोग इसी कारण मेरा- तेरा करने में लगे हुए हैं। गुरू प्राप्ति की लगन में अगली बाधा है शरीर ।। यहाँ शरीर का अर्थ केवल देह मात्र से नहीं है। बल्कि इसके अर्थ में दैहिक कष्ट और दैहिक वासना भी शामिल है। जो मनुष्य की आत्म चेतना को अपने से कसे- जकड़े रहती है। इन बाधाओं और अवरोधों को परे हटाकर जो सद्गुरू की प्राप्ति के लिए संकल्पित होते हैं, वे धन्य हैं, वे कृतार्थ और कृतकृत्य होते हैं, जो सद्गुरू के चरणों में भक्तिपूर्वक अपने को न्यौछावर करने के लिए आगे बढ़ते है ; क्योंकि गुरूचरणों की महिमा अपार है।
यज्ञ, व्रत ,, तप ,, दान ,, जप और तीर्थ आदि सारी प्रक्रियाओं को करने वाले लोग भी गुरूतत्त्व के बोध के अभाव में मूढ़ की तरह विचरते रहते हैं। गुरूओं के भी गुरू भगवान् सदाशिव के इन वचनों का केन्द्रीय तत्त्व यही है कि गुरूतत्त्व की अनुभूति पाए बिना जिन्दगी की मूढ़ता किसी भी दशा में दूर नहीं होती। और मूढ़ता की इस भावदशा में किए गए उच्चकर्म भी अपना सार्थक सत्परिणाम नहीं दे पाते हैं। यज्ञ, व्रत, तप, दान ,, जप और तीर्थ ये सभी श्रेष्ठ कर्म है ; परन्तु सद्गुरू के अभाव में इनकी श्रेष्ठता भी क्षुद्रता एवं संकीर्णता का रूप ले लेती है ।। इन्हें करने वाले इन उच्च कर्मों की श्रेष्ठता को, अपने स्वार्थ, अहंकार एवं मतवाद की संकीर्णता से ढाँप देते हैं। उदाहरण के लिए जो यज्ञकर्म इदं न मम् का भाव प्रवर्तक है- वह गुरूज्ञान के अभाव में प्रायः कामनाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। इसी तरह व्रत के पालन का तात्पर्य व्रतशील जीवन से है; परन्तु साधारणतया लोग विभिन्न व्रतों को अपनी मनोकामनाओं की तृप्ति का साधन बना लेते हैं। ठीक यही स्थिति तप, दान, जप और तीर्थ की है। इस स्थिति से उबरने का उपाय सुझाते हुए भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं-
गुरूर्बुद्धयात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं न संशयः। तल्लाभार्थ प्रयत्नस्तु कर्तव्यो हि मनीषिभिः॥ ९॥
प्रबुद्ध आत्मा एवं सद्गुरू एक ही है, भिन्न नहीं है। यह सत्य है- सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिए मननशील मनीषियों को इसकी प्राप्ति हेतु ही सभी श्रेष्ठ कर्तव्य कर्म करना चाहिए। भगवान महादेव के इन वचन में ऊपर कहे हुए वचन की पूर्णता है। साधकों के मन में इस मंत्र के पहले वाले मंत्र को पढ़कर यह शंका जन्म ले सकती है कि जब गुरूज्ञान के अभाव में यज्ञ, व्रत, तप दान, जप और तीर्थ आदि कर्म केवल मूढ़ता के द्योतक बने रहते हैं, ताक फिर यदि सद्गुरू का सान्निध्य अभी प्राप्त न हो, तो इन्हें किया जाय अथवा नहीं। साधकों की यह शंका मात्र कोरी शंका नहीं है, परन्तु जिज्ञासु अन्तर्मन की जिज्ञासा भी है। महादेव भगवती पार्वती को इस मंत्र में इसी जिज्ञासा का समाधान सुझाते हैं। परम गुरू कहते हैं, हे देवि ! जो मननशील मनीषी हैं, वे शीघ्र ही इस गूढ़ रहस्य को समझ जाते हैं कि अपनी जाग्रत् आत्मा ही सद्गुरू है अथवा गुरूदेव भगवान् ही अपनी जाग्रत् आत्मा हैं। इस कथन में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करने वाला शब्द मनीषी है। मनीषी सब नहीं होते। ये बड़े ही विशेष प्रकार के साधना परायण व्यक्ति होते हैं। इनका विश्वास जीवन की यांत्रिक गतिविधियों में फँसकर सब कुछ गवाँ देने में नहीं होता। इनकी अन्तर्चेतना रोजी- रोटी कमाने तक सिमटी नहीं रहती। ये अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के साथ जीवन के सार तत्त्व के बारे में सतत मनन करते रहते हैं। ऐसे मननशील मनीषियों को शीघ्र ही इस यथार्थता का अहसास हो जाता है कि सद्गुरू की कृपाशक्ति से ही आत्मचेतना में जागृति आती है। और जब आत्म चेतना जाग्रत् होती है, तो यह सत्य अनुभूति का रूप ले लेता है कि सद्गुरूदेव की कृपाचेतना ही अपनी आत्मचेतना है। इन दोनों में कोई भिन्नता नहीं है। इसलिए गहन अर्थ में सद्गुरू के सत्य स्वरूप का साक्षात्कार ही आत्म साक्षात्कार है। सद्गुरू की प्राप्ति ही आत्मप्राप्ति है। मनुष्य जीवन का केन्द्रीय उद्देश्य एवं आधार भी यही है इसलिए जो भी कर्तव्य कर्म किए जाएँ, वे सभी इसी उद्देश्य एवं अभीप्सा के साथ हों। यज्ञ, व्रत, तप, दान, जप एवं तीर्थ इन सभी श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए; परन्तु इन कर्मों के पवित्र अनुष्ठान के साथ सद्गुरू की प्राप्ति का संकल्प अवश्यमेव जुड़ा हुआ हो। इस संकल्प के जुड़ने मात्र से ये सभी कर्म श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम होते चले जाएँगे और इनके अनुष्ठान में तत्पर व्यक्ति की अन्तर्चेतना मूढ़ता से ज्ञानदाता सद्गुरूदेव की ओर यात्रा कर सकेगी। भगवान महादेव गुरूगीता के अगले मंत्र में स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इस तरह के संकल्प के साथ किए गए पवित्र कर्मों के अनुष्ठान गूढ़ विद्या हैं।
गूढ़विधा जगन्माया देहेचाज्ञानसम्भवा। उदयो यत्प्रकाशेन गुरूशब्देन कथ्यते॥ १०॥
माया से आवृत जगत् और अज्ञान से उत्पन्न शरीर के लिए यह गूढ़विधा है। जिससे प्रकाशित होने से सत्यज्ञान का उदय होता है। इसी तत्त्व को गुरू संज्ञा दी गयी है। सद्गुरू प्राप्ति की अभीप्सा के संकल्प को भगवान् सदाशिव गूढ़विधा इसलिए कहते हैं ; क्योंकि यह तत्त्व साधारणतया किसी की समझ में नहीे आता ।। कामनाओं और वासनाओं के अँधेरे से घिरे लोग गुरू शब्द का महत्व ही नहीं समझ पाते। गुरू में पहला अक्षर गु अंधकार का वाचक है। और रु प्रकाश का वाचक है। इस तरह गुरू वह तत्व है, जो अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करके ज्ञानरूपी तेज का प्रकाश करता है। ऐसे सद्गुरू के लिए लगन, उनको पाने के लिए गहरी चाहत , उनके चरणों में अपने सर्वस्व समर्पण के लिए आतुरता में ही इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है। यद्यपि यह कार्य आसान नहीं है। आसान न होने का पहला कारण है कि यह समस्त जगत् अपने वास्तविक रूप में है, तो ब्रह्ममय ,किन्तु इस पर माया का छद्म आवरण है। इस दुनिया में प्रायः सभी लोग इसी कारण मेरा- तेरा करने में लगे हुए हैं। गुरू प्राप्ति की लगन में अगली बाधा है शरीर ।। यहाँ शरीर का अर्थ केवल देह मात्र से नहीं है। बल्कि इसके अर्थ में दैहिक कष्ट और दैहिक वासना भी शामिल है। जो मनुष्य की आत्म चेतना को अपने से कसे- जकड़े रहती है। इन बाधाओं और अवरोधों को परे हटाकर जो सद्गुरू की प्राप्ति के लिए संकल्पित होते हैं, वे धन्य हैं, वे कृतार्थ और कृतकृत्य होते हैं, जो सद्गुरू के चरणों में भक्तिपूर्वक अपने को न्यौछावर करने के लिए आगे बढ़ते है ; क्योंकि गुरूचरणों की महिमा अपार है।