सारे तीर्थ विद्यमान होते हैं जहाँ
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गुरूगीता की मंत्रशक्ति अमोघ है। इसका प्रयोग कभी विफल या असफल नहीं होता। बस करने वाले में गहरी भावनात्मक प्रगाढ़ता एवं पैनी वैचारिक एकाग्रता चाहिए। जो शंकालु हैं, संशयग्रस्त हैं, उनकी कभी कोई साधनाएँ सफल नहीं हो पाती। फिर भी वे किन्हीं भी साधना उपक्रमों की उलटफेर करते रहते हैं। कई बार चाहतों की चिंता से भरे हुए ऐसे लोग चमत्कारी साधना विधानों की खोज में रहते हैं। उनका चित यत्र- तत्र सर्वत्र भटकता रहता है। कभी किसी महात्मा के पास ,, तो कभी किसी देवता के पास ,कभी किसी की समाधि पर ,, तो कभी किसी की मजार पर। परन्तु जैसे- जैसे उनकी यह भटकन बढ़ती है, वैसे- वैसे उनकी असफलता भी बढ़ती जाती है। चिंता एवं अवसाद के सिवा उन्हें कुछ हाथ नहीं लगता और लगे भी कैसे? सारे सुख एवं शान्ति तो श्रीगुरूचरणों में है। गुरूगीता के पिछले कथा क्रम में इसी साधना सुफल की बात कही गयी है। भगवान् सदाशिव ने पराम्बा भगवती को बताया है कि गुरूगीता के जप -अनुष्ठान से सारे प्राणी सभी सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। भोग और मोक्ष की उन्हें प्राप्ति होती है, उसमें कोई संशय नहीं है। भगवान सदाशिव पूरी दृढ़ता से बताते हैं कि हे देवि! यह मेरे द्वारा प्रकाशित धर्म युक्त ज्ञान है। यह ही सत्य ही नहीं, सम्पूर्ण सत्य है कि गुरूगीता के समान और कुछ भी नहीं है एक ही देव है, एक ही धर्म है, एक ही निष्ठा है एवं एक की परम तप है कि गुरू से परे और कुछ भी नहीं है। गुरू से श्रेष्ठ न कोई तत्व है और न सत्य है। हे देवि! गुरू- भक्त को धारण करने वाले माता- पिता एवं वंश धन्य है क्योंकि गुरूभक्ति अत्यंत दुर्लभ है हे देवि! शरीर, इन्द्रिय, प्राण, धन, माता, स्वजन, बान्धव सभी कुछ सद्गुरु की चेतना के विस्तार के अन्य कुछ भी नहीं। इस गुरूभक्ति कथा के आयाम बताते हुए भगवान् भोलेनाथ कहते हैं- आकल्पजन्मना कोट्या जपतपोव्रतः क्रियाः। तत्सर्वं सफलं देवि! गुरू संतोषमात्रतः॥१७१॥ विद्या तपोबलेनैव मन्दभाग्याश्च ये नराः। गुरूसेवां न कुर्वन्ति सत्यं सत्यं वरानने॥१७२॥ ब्रह्माविष्णुमहेशाश्च देवर्षिपितृकिन्नरा। सिद्धचारणयक्षाश्च अन्येऽपि मुनयो जना॥१७३॥ गुरूभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम्। सर्वतीर्थाश्रयं देवि पादाङ्गुष्ठे च वर्तते॥१७४॥ जपेन जयमाप्नोति चानन्तफलमाप्नुयात्। हीनंकर्म त्यजन्सर्वं स्थानानि चाधमानि च॥१७५॥
हे महादेवि! सदगुरू के संतोष मात्र से करोड़ों जन्मों के जप- तप एवं व्रत आदि क्रियाएँ सफल हो जाती हैं॥१७१॥ हे सुमुखे ! जो अपने विद्याबल व तपबल के गर्व में गुरूसेवा नहीं करते, वे अभागे हैं। फिर से स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा देवर्षि, पितर, किन्नर अथवा कोई भी क्यों न हो। यही नहीं सिद्ध चरणा, यक्ष एवं मुनिजन भी गुरूसेवा से रहित होने पर हतभाग्य ही कहे जायेंगे॥१७२- १७३॥ गुरूभाव परम तीर्थ है, इसके बिना अन्य सारे तीर्थ निरर्थक हैं। सत्य तो यह है कि सारे तीर्थ सदगुरूदेव के पाँव के अंगूठे में आश्रय ग्रहण करते हैं॥१७४॥ गुरूगीता का जाप करने से मनुष्य निश्चित ही विजय लाभ प्राप्त करता है। उसे इस साधना से अनंत फल मिलता है इसलिए उसे सभी हीन कर्मों का त्याग करके, सभी अधम स्थानों का परित्याग करके इस श्रेष्ठ जप को करना चाहिये॥१७५॥ भगवान शिव के इन वचनों का मर्म गहरा है। वे प्रभु कहते हैं कि गरूगीता निश्चित ही सुफल देती है, परंतु इसके लिए हमें हीन कर्म एवं अधम स्थान का त्याग करना पड़ेगा। हीनकर्मों का परिचय तो शायद सभी को है जो कर्म दूसरे को पीड़ा पहुँचाये, जिससे द्वेष- दुर्भावना बढ़े अथवा जो केवल स्वार्थ एवं अहं के वशीभूत हो किया जाय, वह कर्म हीन ही हीन ही होगा। ध्यान रहे, श्रेष्ठ उद्देश्यों से जुड़कर ही कोई कर्म श्रेष्ठ होता है, फिर वह जप- तप ही क्यों न हों? राक्षसराज रावण महातांत्रिक था, उसे अनेक गुह्य साधनाओं का ज्ञान था, परन्तु उसके उद्देश्य निकृष्ट थे। इन निकृष्ट उद्देश्यों के चलते उसके सभी कर्म हीन हो गये और अधोगति मिली। रही बात अधम स्थान की तो अन्य कहीं नहीं, अपना ही कलुषित हृदय है। गुरूगीता का जप हृदय गुहा में किया जाता है। यही यदि कलुषित हो, तो फिर जप कैसे सफल होगा। इसलिए पहले हृदय के भावों का स्वच्छ होना अनिवार्य है। जो ऐसा कर पाते हैं, उनकी गुरूगीता साधना उन्हें प्रकाश, पवित्रता एवं पूर्णता के अनुदान देती है। इस बारे में गुरूभक्त साधक महान् योगी अनन्ता बाबा का मार्मिक प्रंसग है। जिस समय बाबा ने अपना यह प्रंसग सुनाया, वह एक आदिवासी गाँव में रहते थे। आदिवासी उन्हें अपने देवता मानकर पूजते थे, श्रद्धा करते थे। बाबा उनके लिए माता- पिता ,एवं भगवान् थे। बाबा भी इन ग्रामवासियों का ध्यान अपने बच्चों की तरह रखते थे। बहुत पढ़े- लिखे न होने पर भी उन्होंने इन भोले गाँववासियों को शिक्षा का संस्कार देने की कोशिश की थी। अपने साधारण ज्ञान एवं असाधारण आध्यात्मिक ऊर्जा के द्वारा वह इन सरल ग्रामीण का कल्याण करते रहते थे। उनके पास आश्चर्यकारी शक्तियाँ थीं। एक बार जब किसी ने उनसे पूछा कि उनको ये अद्भुत विद्याएँ कहाँ से मिलीं? तो उन्होंने अपने पुराने झोले से एक फटी हुई पुस्तक निकाली। यह पुस्तक गुरूगीता की थी। उन्होंने इस पुस्तक को अपने माथे से लगाया। ऐसा करते हुए उनकी आँखें भर आयीं। वह अपने अतीत की यादों में खो गये और जब उबरे, तब उनकी आँखों में गुरूभक्ति का प्रकाश था। समूचे मुख पर श्रद्धा की अनोखी दीप्ति थी। अपनी स्मृतियों को कुरेदते हुए उन्होंने कहा कि- बचपन से ही प्रभु ने मुझे अपना रखा था। शायद तभी उन्होंने मुझे संसार में रमने नहीं दिया। एक के बाद एक अनेक कष्ट मेरे जीवन में आते चले गये। छोटा ही था, तब घाघरा नदी की बाढ़ में सब कुछ बह गया था। माता- पिता, स्वजन- परिजन मुझे अपने कहने वाला कोई न था। बाढ़ मुझे भी बहा ले गयी थी ,पर मुझे जब होश आया, तब मैंने स्वयं को एक सुनसान स्थान में बने शिव मंदिर में पाया। मेरा सिर एक वृद्ध महात्मा की गोद में था और वे बड़े प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रहे थे। मेरे आँखें खोलने पर उन्होंने मेरी स्थिति जानी कुछ हलवा खाने को दिया। कई दिन बाद जब मैं स्वस्थ हुआ, तो उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। संस्कृत व हिन्दी का साधारण ज्ञान देने के बाद एक दिन उन्होंने मुझे गुरूगीता की पोथी थमायी और बोले -बेटा! इसी ने मेरा कल्याण किया है और यही तुम्हारा भी कल्याण करेगी। मेरा कोई शिष्य नहीं है, तुम भी नहीं हो सकते। भगवान् भोलेनाथ सबके गुरू हैं, उन्हें ही अपना गुरू एवं ईश्वर मानो। गुरूगीता उन्हीं की वाणी है, इसकी साधना से उन सर्वेश्वर को प्रसन्न करो। इसी के साथ उनहोंने बतायी गुरूगीता की पाठविधि। साथ ही उन्होंने कहा कि कोई साधना कठिन तप एवं पवित्र भावना के बिना सफल नहीं होती। उन महान् सन्त के सान्निध्य में यह साधना चलती गयी। अंतःकरण के कोनों में आध्यात्मिक उजाले की किरणें भरती गयीं। गुरूगीता की कृपा से सब कुछ स्वतः प्राप्त होता गया। समय के साथ अंतस् की संवेदना इतनी व्यापक होती गयी कि सभी कुछ मिलता गया। जब उन महान् सन्त ने अपना शरीर छोड़ा ,तब मैं वहाँ से चलकर यहाँ आ गया और जीव सेवा को ही शिव सेवा मान लिया। प्रभु की कृपा से मुझे सब कुछ सहज प्राप्त है। गुरूगीता के अंतर रहस्यों को जो भी जान लेगा, उसे भी ऐसा ही दिव्य अनुदान मिल जायेगा।
हे महादेवि! सदगुरू के संतोष मात्र से करोड़ों जन्मों के जप- तप एवं व्रत आदि क्रियाएँ सफल हो जाती हैं॥१७१॥ हे सुमुखे ! जो अपने विद्याबल व तपबल के गर्व में गुरूसेवा नहीं करते, वे अभागे हैं। फिर से स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा देवर्षि, पितर, किन्नर अथवा कोई भी क्यों न हो। यही नहीं सिद्ध चरणा, यक्ष एवं मुनिजन भी गुरूसेवा से रहित होने पर हतभाग्य ही कहे जायेंगे॥१७२- १७३॥ गुरूभाव परम तीर्थ है, इसके बिना अन्य सारे तीर्थ निरर्थक हैं। सत्य तो यह है कि सारे तीर्थ सदगुरूदेव के पाँव के अंगूठे में आश्रय ग्रहण करते हैं॥१७४॥ गुरूगीता का जाप करने से मनुष्य निश्चित ही विजय लाभ प्राप्त करता है। उसे इस साधना से अनंत फल मिलता है इसलिए उसे सभी हीन कर्मों का त्याग करके, सभी अधम स्थानों का परित्याग करके इस श्रेष्ठ जप को करना चाहिये॥१७५॥ भगवान शिव के इन वचनों का मर्म गहरा है। वे प्रभु कहते हैं कि गरूगीता निश्चित ही सुफल देती है, परंतु इसके लिए हमें हीन कर्म एवं अधम स्थान का त्याग करना पड़ेगा। हीनकर्मों का परिचय तो शायद सभी को है जो कर्म दूसरे को पीड़ा पहुँचाये, जिससे द्वेष- दुर्भावना बढ़े अथवा जो केवल स्वार्थ एवं अहं के वशीभूत हो किया जाय, वह कर्म हीन ही हीन ही होगा। ध्यान रहे, श्रेष्ठ उद्देश्यों से जुड़कर ही कोई कर्म श्रेष्ठ होता है, फिर वह जप- तप ही क्यों न हों? राक्षसराज रावण महातांत्रिक था, उसे अनेक गुह्य साधनाओं का ज्ञान था, परन्तु उसके उद्देश्य निकृष्ट थे। इन निकृष्ट उद्देश्यों के चलते उसके सभी कर्म हीन हो गये और अधोगति मिली। रही बात अधम स्थान की तो अन्य कहीं नहीं, अपना ही कलुषित हृदय है। गुरूगीता का जप हृदय गुहा में किया जाता है। यही यदि कलुषित हो, तो फिर जप कैसे सफल होगा। इसलिए पहले हृदय के भावों का स्वच्छ होना अनिवार्य है। जो ऐसा कर पाते हैं, उनकी गुरूगीता साधना उन्हें प्रकाश, पवित्रता एवं पूर्णता के अनुदान देती है। इस बारे में गुरूभक्त साधक महान् योगी अनन्ता बाबा का मार्मिक प्रंसग है। जिस समय बाबा ने अपना यह प्रंसग सुनाया, वह एक आदिवासी गाँव में रहते थे। आदिवासी उन्हें अपने देवता मानकर पूजते थे, श्रद्धा करते थे। बाबा उनके लिए माता- पिता ,एवं भगवान् थे। बाबा भी इन ग्रामवासियों का ध्यान अपने बच्चों की तरह रखते थे। बहुत पढ़े- लिखे न होने पर भी उन्होंने इन भोले गाँववासियों को शिक्षा का संस्कार देने की कोशिश की थी। अपने साधारण ज्ञान एवं असाधारण आध्यात्मिक ऊर्जा के द्वारा वह इन सरल ग्रामीण का कल्याण करते रहते थे। उनके पास आश्चर्यकारी शक्तियाँ थीं। एक बार जब किसी ने उनसे पूछा कि उनको ये अद्भुत विद्याएँ कहाँ से मिलीं? तो उन्होंने अपने पुराने झोले से एक फटी हुई पुस्तक निकाली। यह पुस्तक गुरूगीता की थी। उन्होंने इस पुस्तक को अपने माथे से लगाया। ऐसा करते हुए उनकी आँखें भर आयीं। वह अपने अतीत की यादों में खो गये और जब उबरे, तब उनकी आँखों में गुरूभक्ति का प्रकाश था। समूचे मुख पर श्रद्धा की अनोखी दीप्ति थी। अपनी स्मृतियों को कुरेदते हुए उन्होंने कहा कि- बचपन से ही प्रभु ने मुझे अपना रखा था। शायद तभी उन्होंने मुझे संसार में रमने नहीं दिया। एक के बाद एक अनेक कष्ट मेरे जीवन में आते चले गये। छोटा ही था, तब घाघरा नदी की बाढ़ में सब कुछ बह गया था। माता- पिता, स्वजन- परिजन मुझे अपने कहने वाला कोई न था। बाढ़ मुझे भी बहा ले गयी थी ,पर मुझे जब होश आया, तब मैंने स्वयं को एक सुनसान स्थान में बने शिव मंदिर में पाया। मेरा सिर एक वृद्ध महात्मा की गोद में था और वे बड़े प्यार से मेरे माथे पर हाथ फेर रहे थे। मेरे आँखें खोलने पर उन्होंने मेरी स्थिति जानी कुछ हलवा खाने को दिया। कई दिन बाद जब मैं स्वस्थ हुआ, तो उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। संस्कृत व हिन्दी का साधारण ज्ञान देने के बाद एक दिन उन्होंने मुझे गुरूगीता की पोथी थमायी और बोले -बेटा! इसी ने मेरा कल्याण किया है और यही तुम्हारा भी कल्याण करेगी। मेरा कोई शिष्य नहीं है, तुम भी नहीं हो सकते। भगवान् भोलेनाथ सबके गुरू हैं, उन्हें ही अपना गुरू एवं ईश्वर मानो। गुरूगीता उन्हीं की वाणी है, इसकी साधना से उन सर्वेश्वर को प्रसन्न करो। इसी के साथ उनहोंने बतायी गुरूगीता की पाठविधि। साथ ही उन्होंने कहा कि कोई साधना कठिन तप एवं पवित्र भावना के बिना सफल नहीं होती। उन महान् सन्त के सान्निध्य में यह साधना चलती गयी। अंतःकरण के कोनों में आध्यात्मिक उजाले की किरणें भरती गयीं। गुरूगीता की कृपा से सब कुछ स्वतः प्राप्त होता गया। समय के साथ अंतस् की संवेदना इतनी व्यापक होती गयी कि सभी कुछ मिलता गया। जब उन महान् सन्त ने अपना शरीर छोड़ा ,तब मैं वहाँ से चलकर यहाँ आ गया और जीव सेवा को ही शिव सेवा मान लिया। प्रभु की कृपा से मुझे सब कुछ सहज प्राप्त है। गुरूगीता के अंतर रहस्यों को जो भी जान लेगा, उसे भी ऐसा ही दिव्य अनुदान मिल जायेगा।