मद्गुरूः श्री जगद्गुरूः
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गुरूगीता के गायन से भावनाओं में गुरूभक्ति का ज्वार उठता है। ऐसा वे कहते हैं, जो शिष्यत्व की, समर्पण की डगर पर चल रहे हैं। इन भावनाशीलों को प्रतिमास गुरूगीता की अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहती है। उनके मन में बड़ी अकुलाहट, बड़ी त्वरा होती है। श्वास- श्वास में गुरूदेव का नाम, मन में उनका चिन्तन, भावनाओं में उनकी ही करूणापूर्ण छवि, यही शिष्य का परिचय है। जो शिष्य होने की लालसा में जी रहे हैं- उन्हें सब कुछ मिलेगा। उनकी राहों में भले ही काँटे बिछे हों, पर जल्दी ही उनकी डगर में फूल खिलेंगे। बस धीरज और साहस का सम्बल नहीं छोड़ना है। सद्गुरू की एक मात्र सच्चाई हैं। उनके चरणों की छाँव में अध्यात्म विद्या के सभी रहस्य अनायास मिल जाते हैं। बस गुरू चरणों में भक्ति सदा बनी रहे। उनको सदा नमन होता रहे। जिनकी अन्तर्चेतना में सद्गूरू नमन के स्वर मुखरित होते हैं ,, उन्हें स्मरण होगा कि पिछले मंत्रों में यह कहा गया है कि अखण्ड वलयाकार चेतना के रूप में जो इस सम्पूर्ण चर- अचर में व्याप्त हैं, ब्रह्मतत्त्व एवं आत्मतत्त्व के रूप में उन्हीं गुरूवर की चेतना दर्शित होती है। वैदिक ऋचाएँ हों या उपनिषदों के महावाक्य रत्न सभी गुरूदेव की कृपा से अपना प्रकाश देते हैं। गुरूदेव के स्मरण मात्र से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। वे प्रभु ही परम चैतन्य, शाश्वत, शान्त और आकाश से भी अतीत एवं माया से परे हैं। वे नादबिन्दु एवं काल से परे हैं, उन परम कृपालु सद्गुरू को नमन है। गुरू नमन की इस पावन प्रकिया को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ माँ पार्वती से कहते हैं-
स्थावरं जंगमं चैव तथा चैव चराचरम्। व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७१॥ ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः ।। भुक्तिमुक्तिप्रदाताय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७२॥ अनेकजन्मसंप्राप्त -सर्वकर्मविदाहिने ।। स्वात्माज्ञानप्रभावेण तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७३॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः। तत्त्वम् ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरूवे नमः॥ ७४॥ मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरू श्रीजगद्गुरूः। ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७५॥
परम आराध्य गुरूदेव इस जड़- चेतन ,चर- अचर सम्पूर्ण जगत् में संव्याप्त हैं। उन सद्गुरू को नमन है॥ ७१॥ ज्ञान शक्ति पर आरूढ़, सभी तत्त्वों की माला से विभूषित गुरूदेव भोग एवं मोक्ष दोनों ही फल प्रदान करने वाले हैं। उन कृपालु सद्गुरू को नमन है॥७२॥ जो अपने आत्मज्ञान के प्रभाव से शिष्य के अनेक जन्मों से संचित सभी कर्मों को भस्मसात कर देते हैं, उन कृपालु सद्गुरू को नमन है॥७३॥ श्री गुरूदेव से बढ़कर अन्य कोई तत्त्व नहीं है। श्री गुरू सेवा से बढ़कर कोई दूसरा तप नहीं है, उनसे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, ऐसे कृपालु गुरूदेव को नमन है॥ ७४॥ मेरे स्वामी गुरूदेव ही जगत् के स्वामी हैं। मेरे गुरूदेव ही जगतगुरू हैं। मेरे आत्म स्वरूप गुरूदेव समस्त प्राणियों की अन्तरात्मा हैं। ऐसे श्री गुरूदेव को मेरा नमन है॥ ७५॥ सद्गुरू महिमा का यह मंत्रात्मक स्तोत्र अपने आप में अनेकों दार्शनिक रहस्यों को समाए हैं। इसमें श्रद्धा एवं चिन्तन दोनों का ही मेल है। सद्गुरूदेव की पराचेतना न केवल सर्वव्यापी है; बल्कि शिष्य के सभी पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है। सचमुच ही गुरूदेव से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व या सत्य नहीं है; क्योंकि जो कर्म के गहनतम रहस्य को जानते हैं, उनके लिए यह बड़ा ही स्पष्ट है कि कर्मों के क्रूर, कुटिल कुचक्र से सद्गुरू ही उबारने में समर्थ होते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है- गुरू बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥ यानि कि श्री गुरूदेव के बिना कोई भी संसार सागर को नहीं पार कर सकता ,, फिर भले ही ब्रह्मा अथवा शिव की भाँति ही समर्थ क्यों न हों। इस सत्य को उजागर करने वाली एक सच्ची घटना यहाँ पर कहने का मन है। इस घटना पर मनन करके श्री गुरूदेव की कृपा का अनुभव किया जा सकता है। यह सत्यकथा रूसी सन्त गुरजिएफ एवं उनके एक शिष्य रूशिल मिनकोव के बारे में है। गुरजिएफ महात्मा कबीर की भाँति बड़े अक्कड़- फक्कड़ सन्त हुए हैं। वे परम ज्ञानी होने के साथ आध्यात्मिक रहस्यों के महान् जानकार थे। इस सब के बावजूद उनका व्यवहार काफी अटपटा- बेबूझ और विचित्र सा होता था। उनके शिष्य समझ ही नही पाते थे कि ये क्यों और किसलिए ऐसा कर रहे हैं। पर शायद यही शिष्यों की परीक्षा का उनका ढंग था। इसी कसौटी पर वे शिष्यों की श्रद्धा को जाँचा- परखा करते थे। जो इस जाँच- परख में सही पाया गया, वही आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सुयोग्य पात्र समझा जाता था। रूशिल मिनकोव ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उनके साथ सह परीक्षा लगातार चौबीस सालों तक चलती रही। रूशिल लिखते हैं कि वह लगभग साढ़े तेईस साल की आयु में गुरजिएफ से मिले थे। बातचीत एवं श्रद्धा की अभिव्यक्ति के क्रम में उन्होंने कहा- गुरूदेव मैं अध्यात्म विद्या पाना चाहता हूँ। शिष्य की इस चाहत पर गुरजिएफ बोले- ठीक है मिलेगी; पर देख, पाँव जमाकर इस कोठरी में रहना। जो भी हो उसे सहना, भागना मत। पीड़ा, परेशानी, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ यदि तू सहता रहा, तो समझ तू वह सब पा जाएगा जिसकी तुझे चाहत है। अपने, गुरू के इस कथन पर मिनकोव ने हाँ भर दी। हालाँकि उसे उस समय भविष्य में आने वाली परेशानियों का कोई अन्दाजा नहीं था। गुरजिएफ के शरीर छोड़ते ही उस पर एक के बाद एक नए- नए वज्रपात होना शुरू हो गए। सालों- साल चलने वाली शरीरिक व्याधियाँ, जैसे- तैसे घिसट- घिसट कर चलता जीवन। हालाँकि मिनकोव अपनी पीड़ाओं के बावजूद किसी अन्य की सहायता करने से चूकता नहीं था। जिनकी वह सहायता करता उसमें पुरूष- स्त्रियाँ ,बच्चे सभी शामिल थे। अपनी सारी सहायताओं एवं सभी अच्छे कर्मों के बदले उसे वंचना ही मिली। प्रत्येक सत्कर्म के बदले दुष्परिणाम! जब तब लगने वाले चारित्रिक लांछन उसे प्रायः पीड़ाओं में डुबोए रखते; पर करता भी क्या? श्री गुरूदेव को दिया गया वचन था। ऐसी ही विपत्तियों से जूझते- जूझते अठारह वर्ष बीत गए। हालाँकि संकट यथावत् थे। उसके मन में शंकाएँ घर करने लगीं; क्योकि शरीर छोड़ने के बाद गुरजिएफ ने उसे स्वन्प में भी दर्शन नहीं दिए थे। पर इस उन्नीसवें साल में गुरजिएफ की एक अन्य शिष्या ने उसे बताया कि अभी ६ वर्षों की सघन पीड़ाएँ सहनी है। गुरूदेव यही चाहते हैं। ६ सालों के सघन मानसिक यातना एवं कठोर श्रम के बाद ही तुम्हारे जीवन में प्रकाश का अवतरण होगा। मिनकोव ने छः वर्ष भी बिताए और अपने निष्कर्ष में कहा कि आज मैं गुरूदेव की कृपा को अनुभव कर रहा हूँ, जो कर्मजाल शायद अनेकों जन्मों में भी न कटता, उन्होंने मात्र चौबीस सालों में ही काट दिया सद्गुरू जिस पर जितना ज्यादा कठोर हैं, समझो उस पर उतने ही अधिक कृपालु हैं। मिनकोव की ये बातें रहस्यमय होते हुए भी सद्गुरू की करूणा को जताती हैं।
स्थावरं जंगमं चैव तथा चैव चराचरम्। व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७१॥ ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः ।। भुक्तिमुक्तिप्रदाताय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७२॥ अनेकजन्मसंप्राप्त -सर्वकर्मविदाहिने ।। स्वात्माज्ञानप्रभावेण तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७३॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः। तत्त्वम् ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरूवे नमः॥ ७४॥ मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरू श्रीजगद्गुरूः। ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७५॥
परम आराध्य गुरूदेव इस जड़- चेतन ,चर- अचर सम्पूर्ण जगत् में संव्याप्त हैं। उन सद्गुरू को नमन है॥ ७१॥ ज्ञान शक्ति पर आरूढ़, सभी तत्त्वों की माला से विभूषित गुरूदेव भोग एवं मोक्ष दोनों ही फल प्रदान करने वाले हैं। उन कृपालु सद्गुरू को नमन है॥७२॥ जो अपने आत्मज्ञान के प्रभाव से शिष्य के अनेक जन्मों से संचित सभी कर्मों को भस्मसात कर देते हैं, उन कृपालु सद्गुरू को नमन है॥७३॥ श्री गुरूदेव से बढ़कर अन्य कोई तत्त्व नहीं है। श्री गुरू सेवा से बढ़कर कोई दूसरा तप नहीं है, उनसे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, ऐसे कृपालु गुरूदेव को नमन है॥ ७४॥ मेरे स्वामी गुरूदेव ही जगत् के स्वामी हैं। मेरे गुरूदेव ही जगतगुरू हैं। मेरे आत्म स्वरूप गुरूदेव समस्त प्राणियों की अन्तरात्मा हैं। ऐसे श्री गुरूदेव को मेरा नमन है॥ ७५॥ सद्गुरू महिमा का यह मंत्रात्मक स्तोत्र अपने आप में अनेकों दार्शनिक रहस्यों को समाए हैं। इसमें श्रद्धा एवं चिन्तन दोनों का ही मेल है। सद्गुरूदेव की पराचेतना न केवल सर्वव्यापी है; बल्कि शिष्य के सभी पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है। सचमुच ही गुरूदेव से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व या सत्य नहीं है; क्योंकि जो कर्म के गहनतम रहस्य को जानते हैं, उनके लिए यह बड़ा ही स्पष्ट है कि कर्मों के क्रूर, कुटिल कुचक्र से सद्गुरू ही उबारने में समर्थ होते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है- गुरू बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥ यानि कि श्री गुरूदेव के बिना कोई भी संसार सागर को नहीं पार कर सकता ,, फिर भले ही ब्रह्मा अथवा शिव की भाँति ही समर्थ क्यों न हों। इस सत्य को उजागर करने वाली एक सच्ची घटना यहाँ पर कहने का मन है। इस घटना पर मनन करके श्री गुरूदेव की कृपा का अनुभव किया जा सकता है। यह सत्यकथा रूसी सन्त गुरजिएफ एवं उनके एक शिष्य रूशिल मिनकोव के बारे में है। गुरजिएफ महात्मा कबीर की भाँति बड़े अक्कड़- फक्कड़ सन्त हुए हैं। वे परम ज्ञानी होने के साथ आध्यात्मिक रहस्यों के महान् जानकार थे। इस सब के बावजूद उनका व्यवहार काफी अटपटा- बेबूझ और विचित्र सा होता था। उनके शिष्य समझ ही नही पाते थे कि ये क्यों और किसलिए ऐसा कर रहे हैं। पर शायद यही शिष्यों की परीक्षा का उनका ढंग था। इसी कसौटी पर वे शिष्यों की श्रद्धा को जाँचा- परखा करते थे। जो इस जाँच- परख में सही पाया गया, वही आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सुयोग्य पात्र समझा जाता था। रूशिल मिनकोव ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उनके साथ सह परीक्षा लगातार चौबीस सालों तक चलती रही। रूशिल लिखते हैं कि वह लगभग साढ़े तेईस साल की आयु में गुरजिएफ से मिले थे। बातचीत एवं श्रद्धा की अभिव्यक्ति के क्रम में उन्होंने कहा- गुरूदेव मैं अध्यात्म विद्या पाना चाहता हूँ। शिष्य की इस चाहत पर गुरजिएफ बोले- ठीक है मिलेगी; पर देख, पाँव जमाकर इस कोठरी में रहना। जो भी हो उसे सहना, भागना मत। पीड़ा, परेशानी, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ यदि तू सहता रहा, तो समझ तू वह सब पा जाएगा जिसकी तुझे चाहत है। अपने, गुरू के इस कथन पर मिनकोव ने हाँ भर दी। हालाँकि उसे उस समय भविष्य में आने वाली परेशानियों का कोई अन्दाजा नहीं था। गुरजिएफ के शरीर छोड़ते ही उस पर एक के बाद एक नए- नए वज्रपात होना शुरू हो गए। सालों- साल चलने वाली शरीरिक व्याधियाँ, जैसे- तैसे घिसट- घिसट कर चलता जीवन। हालाँकि मिनकोव अपनी पीड़ाओं के बावजूद किसी अन्य की सहायता करने से चूकता नहीं था। जिनकी वह सहायता करता उसमें पुरूष- स्त्रियाँ ,बच्चे सभी शामिल थे। अपनी सारी सहायताओं एवं सभी अच्छे कर्मों के बदले उसे वंचना ही मिली। प्रत्येक सत्कर्म के बदले दुष्परिणाम! जब तब लगने वाले चारित्रिक लांछन उसे प्रायः पीड़ाओं में डुबोए रखते; पर करता भी क्या? श्री गुरूदेव को दिया गया वचन था। ऐसी ही विपत्तियों से जूझते- जूझते अठारह वर्ष बीत गए। हालाँकि संकट यथावत् थे। उसके मन में शंकाएँ घर करने लगीं; क्योकि शरीर छोड़ने के बाद गुरजिएफ ने उसे स्वन्प में भी दर्शन नहीं दिए थे। पर इस उन्नीसवें साल में गुरजिएफ की एक अन्य शिष्या ने उसे बताया कि अभी ६ वर्षों की सघन पीड़ाएँ सहनी है। गुरूदेव यही चाहते हैं। ६ सालों के सघन मानसिक यातना एवं कठोर श्रम के बाद ही तुम्हारे जीवन में प्रकाश का अवतरण होगा। मिनकोव ने छः वर्ष भी बिताए और अपने निष्कर्ष में कहा कि आज मैं गुरूदेव की कृपा को अनुभव कर रहा हूँ, जो कर्मजाल शायद अनेकों जन्मों में भी न कटता, उन्होंने मात्र चौबीस सालों में ही काट दिया सद्गुरू जिस पर जितना ज्यादा कठोर हैं, समझो उस पर उतने ही अधिक कृपालु हैं। मिनकोव की ये बातें रहस्यमय होते हुए भी सद्गुरू की करूणा को जताती हैं।