सद्गुरू से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना
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गुरूगीता साधक संजीवनी है। इस पुस्तक के प्रथम शीर्षक में गुरूतत्त्व की जिज्ञासा का प्रसंग आया है। साधकों की आदिमाता महादेवी पार्वती ने परमगुरू भगवान् शिव से यह जिज्ञासा की। आदिमाता की इस जिज्ञासा पर भगवान् शिव अति प्रसन्न हुए। उच्चतम तत्त्व के प्रति जिज्ञासा भी उच्चतम चेतना में अंकुरित होती है। उत्कृष्टता एवं पवित्रता की उर्वरता में ही यह अंकुरण सम्भव हो पाता है। जिज्ञासा -जिज्ञासु की भावदशा का प्रतीक है। इसमें उसकी अन्तर्चेतना प्रतिबिम्बित होती है। जिज्ञासा के स्वरूप में जिज्ञासु की तन -साधना, उसके स्वाध्याय, चिन्तन- मनन व निदिध्यासन की झलक मिलती है। माता पार्वती की जिज्ञासा भी हम सब गुरूभक्तों की कल्याण कामना के उद्देश्य से उपजी थी। सर्वज्ञानमयी माँ ने अपनी सन्तानों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए देवेश्वर शिव से प्रश्न किया था। उत्तर में भगवान् शिव बोले- ईश्वर उवाच। मम रूपासि देवित्वं त्वत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्। लोकोपकारकः प्रश्नो न केनाऽपि कृतः पुरा॥ ४॥ दुर्लभं त्रिषु लोकेषु ततश्क्णुष्व वदाम्यहम् ।। गुरूं बिना ब्रह्म नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने॥ ५॥ हे देवि ! आप तो मेरा अपना स्वरूप हैं। आपका यह प्रश्न बड़ा ही लोकहितकारी है। ऐसा प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं पूछा। आपकी प्रीति के कारण इसके उत्तर को मैं अवश्य कहूँगा। हे महादेवि ! यह उत्तर भी तीनों लोकों में अत्यन्त दुर्लभ है ; परन्तु इसे मैं कहूँगा। आप सुने, सद्गुरू के सिवाय कोई ब्रह्म (कोई अन्य उच्चतम तत्त्व) नहीं है। हे सुमुखि ! यह सत्य है, सत्य है। भगवान् शिव के इस कथन के प्रथम चरण में गुरू और शिष्य की अनन्यता ,एकात्मता और तादात्म्यता है। गुरू और शिष्य अलग- अलग नहीं होते। बस उनके शरीर अलग- अलग दिखते भर हैं। उनकी अन्तर्चेतना आपस में घुली मिली होती है। सच्चा शिष्य गुरू का अपना स्वरूप होता है। उसमें सद्गुरू की चेतना प्रकाशित होती है। शिष्य के प्राणों में गुरू का तप प्रवाहित होता है। शिष्य के हृदय में गुरू की भावनाओं का उद्रेक होता है। शिष्य के विचारों में गुरू का ज्ञान प्रस्फुटित होता है। ऐसे गुरूगत प्राण शिष्य के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता। सद्गुरू उसे दुर्लभतम तत्त्व एवं सत्य बनाने के लिए सदा सर्वदा तैयार रहते हैं। शिष्य के भी समस्त क्रियाकलाप अपने सद्गुरू की अन्तर्चेतना की अभिव्यक्ति के लिए होते हैं। महादेव शिव के कथन का अन्तिम सत्य यह है कि गुरू ही ब्रह्म है। यह संक्षिप्त कथन बड़ा ही सारभूत है। इसे किसी बौद्धिक क्षमता से नहीं भावनाओं की गहराई से समझा जा सकता है। इसकी सार्थक अवधारणा के लिए शिष्य की छलकती भावनाएँ एवं समर्पित प्राण चाहिए। जिसमें यह पात्रता है, वह आसानी से भगवान् भोलेनाथ के कथन का अर्थ समझ सकेगा। गुरू ही ब्रह्म है में अनेकों गूढ़ार्थ समाए हैं। जो गुरूतत्त्व को समझ सका ,वही ब्रह्मतत्त्व का भी साक्षात्कार कर पाएगा। सद्गुरू कृपा से जिसे दिव्य दृष्टि मिल सकी, वही ब्रह्म का दर्शन करने में समक्ष हो सकेगा। इस अपूर्व दर्शन में द्रष्टा, दृष्टि, एवं दर्शन सब एकाकार हो जाएँगे अर्थात् शिष्य, सद्गुरू एवं ब्रह्मतत्त्व के बीच सभी भेद अपने आप ही मिट जाएँगे। यह ब्रह्म ही अपने सद्गुरू के रूप में साकार हुए हैं। भगवान् शिव कहते हैं, सद्गुरू की कृपा दृष्टि के अभाव में- वेदशास्त्रपुराणानि इतिहासादिकानि च। मंत्रयंत्रादि विद्याश्च स्मृतिरूच्चाटनादिकम्॥ ६॥ शैवशाक्तागमादीनि अन्यानि विविधानि च। अपभ्रंशकराणीह जीवानां भ्रान्तचेतसाम् ॥ ७॥ वेद, शास्त्र, पुराण ,इतिहास, स्मृति, मंत्र ,यंत्र, उच्चाटन आदि विद्याएँ ,, शैव- शाक्त ,, आगम आदि विविध विद्याएँ केवल जीव के चित्त को भ्रमित करने वाली सिद्ध होती हैं। विद्या कोई हो, लौकिक या आध्यात्मिक उसके सार तत्त्व को समझने के लिए गुरू की आवश्यकता होती है। विद्या के विशेषज्ञ गुरू ही उसका बोध कराने में सक्षम और समर्थ होते है। गुरू के अभाव में अर्थवान् विद्याएँ भी अर्थहीन हो जाती हैं। इन विद्याओं के सार और सत्य को न समझ सकने के कारण भटकन ही पल्ले पड़ती है। उच्चस्तरीय तत्त्वों के बारे में पढ़े गए पुस्तकीय कथन केवल मानसिक बोझ बनकर रह जाते हैं। भारभूत हो जाते हैं। जितना ज्यादा पढ़ो ,उतनी ही ज्यादा भ्रान्तियाँ घेर लेती हैं। गुरू के अभाव में काले अक्षर जिन्दगी में कालिमा ही फैलाते हैं। हाँ, यदि गुरूकृपा साथ हो ,तो ये काले अक्षर रोशनी के दीए बन जाते हैं। चीन में एक सन्त हुए हैं। शिन- हुआ। इन्होंने काफी दिनों तक साधना की। देश- विदेश के अनेक स्थानों का भ्रमण किया। विभित्र शास्त्र और विद्याएँ पढ़ी ; परन्तु चित्त को शान्ति न मिली। सालों- साल के विद्याभ्यास के बावजूद अविद्या की भटकन एवं भ्रान्ति यथावत् बनी रही। उन दिनों शिन- हुआ को भारी बेचैनी थी। अपनी बेचैनी के इन्हीं दिनों में उनकी मुलाकात बोधि धर्म से हुई। बोधिधर्म उन दिनों भारत से चीन गए हुए थे। बोधिधर्म के सान्निध्य में ,उनके सम्पर्क के एक पल में शिन- हुआ की सारी भ्रान्तियाँ, समूची भटकन समाप्त हो गयी। उनके मुख पर एक ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गयी। बात अनोखी थी। जो सालों- साल अनेकानेक शास्त्रों एवं विद्याओं को पढ़कर न हुआ, वह एक पल में हो गया। अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख शिन- हुआ ने अपने संस्मरणों में किया है। उन्होंने अपने गुरू बोधिधर्म के वचनों का उल्लेख करते हुए लिखा है- विधाएँ और शास्त्र दीए के चित्र भर हैं। इनमें केवल दीए बनाने की विधि भर लिखी है। इन चित्रों को ,, विधियों को कितना ही पढ़ा जाय, रटा जाय, इन्हें अपनी छाती से लगाए रखा जाय, थोड़ा भी फायदा नहीं होता। दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती। अंधेरा जब गहराता है, तो शास्त्र और विधाओं में उल्लेखित दीए के चित्र थोड़ा भी काम नहीं आते। मन वैसा ही तड़पता रहता है। लेकिन सद्गुरू से मिलना जैसे जलते हुए, रोशनी को चारों ओर फैलाते हुए दीए से मिलना है। शिन- हुआ ने लिखा है कि उनका अपने गुरू बोधीधर्म से मिलना ऐसे ही हुआ। वह कहते हैं कि प्रकाश स्त्रोत के सम्मुख हो, तो भला भ्रान्तियों एवं भटकनों का अंधेरा कितनी देर तक टिका रह सकेगा? यह कोई गणित का प्रश्नचिन्ह है। इसका जवाब जोड़- घटाव, गुणा- भाग में नही, सद्गुरू कृपा की अनुभूति में है। जीवन में यह अनुभूति आए ,, तो सभी विधाएँ, सारे शास्त्र अपने आप ही अपना रहस्य खोलने लगते हैं। शास्त्र और पुस्तकें न भी हों तो भी गुरूकृपा से तत्त्वबोध होने लगता है। गुरूकृपा की महिमा ही ऐसी है। इस महिमा की अभिव्यक्ति अगले मंत्रों में है।