सच्चे शिष्य का एक ही स्वर- निष्काम कर्म
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गुरूगीता के महामंत्रों की साधना से सद्गुरू का सामीप्य एवं सद्गुरू की कृपा दोनों ही सम्भव है। कई बार नवीन साधक के मन में जिज्ञासा होती है कि कहाँ ढुँढे अपने सद्गुरू को? कैसे मिले सद्गुरू? किसके चरणों में करें अपने समर्पण की साधना? कुछ अक्षरों में गुँथे इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढना आसान नहीं लगता, क्योंकि व्यावहारिक अनुभव यही कहता है कि सद्गुरू की प्राप्ति आसान नहीं होती। प्रायः यही होता हैं कि सद्गुरू मिलते ही नहीं और यदि किसी संयोगवश मिल भी गये, तो उनकी सद्गुरू के रूप में पहचान आसान नहीं होती। यह एक ऐसी जटिल पहेली है, जिसे हल करने में लोग अपना सम्पूर्ण जीवन गँवा देते हैं, फिर भी समस्या ज्यों की त्यों रहती है। इस समस्या के समाधान में एक अनुभव कथा कहने का मन है। यह कथा एक किशोरवय के साधक की है, जो अपने सद्गुरू को ढूँढ रहा था। अपनी इस खोज को उसने अपनी साधना बना लिया। उसकी इस साधना के तीन पहलू रहे- पहला का आस्थापूर्वक पाठ। दूसरा- गुरू रूप में भगवान् शिव का वरण एवं तीसरा- गुरूमंत्र के रूप में गायत्री मंत्र का जप। जो सतत साधना करते हैं, जिनका शास्त्र ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन है- वे इस सत्य को भलीभाँति जानते हैं कि भगवान् शिव अपने दक्षिणामूर्ति स्वरूप में सभी प्राणियों के गुरू हैं। दस रूप में वे सभी को सद्गुरू प्राप्ति का वरदान देते हैं। कोई भी साधक यदि उपरोक्त साधना ठीक से करता रहे, तो एक दिन भगवान् शिव ही उसे उसके सद्गुरू का परिचय देते हैं और उनकी प्राप्ति कराते हैं। अनुभूति कथा के इस किशोर साधक को भी अपनी यह साधना निरन्तर आठ वर्षों तक करनी पड़ी। अन्त में एक दिन स्वयं भगवान् सदाशिव ने उसके स्वप्न में आकर कहा- देख, मुझे पहचान मैं हूँ तेरा सद्गुरू। और इस स्वप्न में ही भगवान् शिव का दिव्य कलेवर उसके सद्गुरू के रूप में बदल गया। हाँ यह बात अलग है, इस स्वप्न परिचय को साकार होने में उसे दो वर्षों की साधना और करनी पड़ी। इन दो वर्षों में परिस्थिति चक्र में आश्चर्यजनक मोड़ आये, उसे उसके सद्गुरू का सान्निध्य भी मिला और कृपा भी। यह सत्य कथा किसी भी साधक के जीवन का सच बन सकती है। बस, प्रयास हो भावभरे मन से साधना की। साधना बनी रहे, तो सिद्धि मिलते, सिद्ध बनते देर नहीं लगती। गुरूगीता के पिछले क्रम में भगवान् भोलेनाथ ने जगन्माता से ऐसे सिद्ध साधक के विषय में कहा था कि ऐसा मुक्त पुरूष स्वयं सर्वमय होकर परम तत्त्व को देखता है। वह इस सत्य का अनुभव करता है कि आत्म तत्त्व ही श्रेष्ठ है। श्री गुरूकृपा से इस परम तत्त्व का अवलोकन करने के बाद वह शिष्य ,साधक सभी आसक्तियों से रहित, एकाकी, निःस्पृह, शान्त और स्थिर हो जाता है। उसे अभीष्ट मिले या फिर न मिले, उसे ज्यादा मिले या कम मिले, इस चिन्ता को छोड़कर वह सभी कामनाओं से रहित, संतुष्ट चित्त होकर जीवन यापन करता है। उसे यह सब मिलता है- गुरू द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण करने से। इस गुरू मार्ग की महिमा को बताते हुए भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं-
उपदेशः तथा देवि गुरूमार्गेण मुक्तिदः। गुरूभक्तिस्तथा ध्यानं सकलं तव कीर्तितम्॥ १२८॥ अनेन यदभवेत् कार्य तद्वदामि महामते। लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु न भावयेत् ॥ १२९॥ लौकिकात्कर्मणो यान्ति ज्ञानहीना भवार्णवम्। ज्ञानी तू भावयेत्सर्वं कर्म निष्कर्म यत्कृतम्॥ १३०॥
हे देवि! उपदेशित गुरू मार्ग मुक्ति दायक है। गुरू की भक्ति, गुरू का ध्यान और वह सब जो आपसे कहा गया है॥ १२८॥ इस सबका उपयोग साधक को लोक कल्याण के लिए करना चाहिए न कि लौकिक कामनाओं को पूरा करने के लिए॥ १२९॥ जो ज्ञानहीन लोग इन सबका लौकिक कामनाओं के लिए उपयोग करते हैं, उन्हें बार- बार भवसागर में गिरना पड़ता है, परन्तु जो ज्ञानी अपने कर्म का निष्काम भाव से प्रतिपादन करते हैं, वे सभी कर्म बन्धनों से मुक्त रहते हैं॥ १३०॥ बात अनूठी है, सद्गुरू एवं सद्गुरू द्वारा प्रदर्शित मार्ग की उपयोगिता क्या है? संसार पाने के लिए अथवा संसार से मुक्त होने के लिए। इस सत्य पर शिष्य को बार- बार विचार करना चाहिए। यह विचार न करने पर शिष्य के लिए सद्गुरू मिलन व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि वह सद्गुरू प्राप्ति को भी संसार से जोड़कर देखता है और इसी मापदण्ड पर सद्गुरू की सत्यता का मापन करता है। ऐसा व्यक्ति बार- बार इसी को सोचता है कि सद्गुरू से मिलने के बाद उसे कितनी सांसारिक सफलताएँ या विफलताएँ हासिल हुई। जबकि सोचा यह जाना चाहिए कि सद्गुरू प्राप्ति के बाद अपना अन्तःकरण कितना अनासक्त एवं निष्काम हुआ। कथा महाभारत की है और जगविदित है, परन्तु फिर भी एक बार पुनः मनन करने योग्य है। माता कुन्ती भगवान् कृष्ण की सगी बुआ थी। श्रीकृष्ण को उन्होंने भगवान् के रूप में जाना भी था। उसके बाद भी उनके ऊपर सम्पूर्ण जीवन भर एक के बाद एक नये कष्ट आते रहे। उनके विवाह के बाद राजा पाण्डु को शाप मिला और वे अपने पति के वियोग ,सखी एवं बहन जैसी माद्री के वियोग की कथा से उनके जीवन कार्यों का प्रारम्भ हुआ। बहुत दिनों तक वे पाँचो पाण्डवों के साथ वन का दुःख झेलती रही। अन्त में महात्मा भीष्म के बुलाने पर उनका हस्तिनापुर आना हुआ। और यहीं से आरम्भ हुई कौरवों के कुचक्रों की शुरूआत। साथ ही जगद्गुरू कृष्ण का साहचर्य भी रहा। लाक्षागृह- वरणावत का अग्रिकाण्ड फिर उससे बच निकलना। बाद में पाण्डवों का द्रोपदी से विवाह, परन्तु साथ ही राज्य के बँटवारे में पुनः छल और पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ का बीहड़ वन दिया जाना, जिसे उन्होंने अपने बल और कौशल से इन्द्रप्रस्थ के रूप में सँवारा। पुनः कौरवों की ईर्ष्या और जुए के कुटिल खेल का प्रारम्भ। इसमें द्रोपदी का अपमान और पाण्डवों का पुनः वनवास। वन में बाहर वर्षों तक निरन्तर कष्टों को सहन करना, फिर एक साल के अज्ञातवास में छिपे रहना। इसके बाद प्रारम्भ हुआ महाभारत का महासंग्राम। और इसके बाद कुन्ती का पुनः वनगमन और वहाँ उनकी मृत्यु। इतनी दुःसह व्यथा सहने वाली कुन्ती से जब श्रीकृष्ण ने पूछा- बुआ तुम्हें क्या वरदान चाहिए, तो उन्होंने बड़ी भक्ति से कहा- हे केशव! मैं दुःखों का वरदान चाहती हूँ। चकित कृष्ण ने उनसे जानना चाहा इतने दुःखों की चाहत क्यूँ है? तो वे बोली- हे केशव! जीवन के दुःखों में तुम्हारी याद बहुत आती है। और हे भक्तवत्सल प्रभु! मैं तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहती। सो हे जनार्दन! वे दुःख बहुत अच्छे लगते हैं, जो मुझे तुम्हारी याद दिलाते हैं। बस यही सच्चे शिष्य का स्वर है, जो वह गुरू से कहता है, उनसे माँगता है। जो इस तत्त्व को, सत्य को जानता है- वही शिष्य है और उसी ने गुरूगीता के मर्म को जाना है।
उपदेशः तथा देवि गुरूमार्गेण मुक्तिदः। गुरूभक्तिस्तथा ध्यानं सकलं तव कीर्तितम्॥ १२८॥ अनेन यदभवेत् कार्य तद्वदामि महामते। लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु न भावयेत् ॥ १२९॥ लौकिकात्कर्मणो यान्ति ज्ञानहीना भवार्णवम्। ज्ञानी तू भावयेत्सर्वं कर्म निष्कर्म यत्कृतम्॥ १३०॥
हे देवि! उपदेशित गुरू मार्ग मुक्ति दायक है। गुरू की भक्ति, गुरू का ध्यान और वह सब जो आपसे कहा गया है॥ १२८॥ इस सबका उपयोग साधक को लोक कल्याण के लिए करना चाहिए न कि लौकिक कामनाओं को पूरा करने के लिए॥ १२९॥ जो ज्ञानहीन लोग इन सबका लौकिक कामनाओं के लिए उपयोग करते हैं, उन्हें बार- बार भवसागर में गिरना पड़ता है, परन्तु जो ज्ञानी अपने कर्म का निष्काम भाव से प्रतिपादन करते हैं, वे सभी कर्म बन्धनों से मुक्त रहते हैं॥ १३०॥ बात अनूठी है, सद्गुरू एवं सद्गुरू द्वारा प्रदर्शित मार्ग की उपयोगिता क्या है? संसार पाने के लिए अथवा संसार से मुक्त होने के लिए। इस सत्य पर शिष्य को बार- बार विचार करना चाहिए। यह विचार न करने पर शिष्य के लिए सद्गुरू मिलन व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि वह सद्गुरू प्राप्ति को भी संसार से जोड़कर देखता है और इसी मापदण्ड पर सद्गुरू की सत्यता का मापन करता है। ऐसा व्यक्ति बार- बार इसी को सोचता है कि सद्गुरू से मिलने के बाद उसे कितनी सांसारिक सफलताएँ या विफलताएँ हासिल हुई। जबकि सोचा यह जाना चाहिए कि सद्गुरू प्राप्ति के बाद अपना अन्तःकरण कितना अनासक्त एवं निष्काम हुआ। कथा महाभारत की है और जगविदित है, परन्तु फिर भी एक बार पुनः मनन करने योग्य है। माता कुन्ती भगवान् कृष्ण की सगी बुआ थी। श्रीकृष्ण को उन्होंने भगवान् के रूप में जाना भी था। उसके बाद भी उनके ऊपर सम्पूर्ण जीवन भर एक के बाद एक नये कष्ट आते रहे। उनके विवाह के बाद राजा पाण्डु को शाप मिला और वे अपने पति के वियोग ,सखी एवं बहन जैसी माद्री के वियोग की कथा से उनके जीवन कार्यों का प्रारम्भ हुआ। बहुत दिनों तक वे पाँचो पाण्डवों के साथ वन का दुःख झेलती रही। अन्त में महात्मा भीष्म के बुलाने पर उनका हस्तिनापुर आना हुआ। और यहीं से आरम्भ हुई कौरवों के कुचक्रों की शुरूआत। साथ ही जगद्गुरू कृष्ण का साहचर्य भी रहा। लाक्षागृह- वरणावत का अग्रिकाण्ड फिर उससे बच निकलना। बाद में पाण्डवों का द्रोपदी से विवाह, परन्तु साथ ही राज्य के बँटवारे में पुनः छल और पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ का बीहड़ वन दिया जाना, जिसे उन्होंने अपने बल और कौशल से इन्द्रप्रस्थ के रूप में सँवारा। पुनः कौरवों की ईर्ष्या और जुए के कुटिल खेल का प्रारम्भ। इसमें द्रोपदी का अपमान और पाण्डवों का पुनः वनवास। वन में बाहर वर्षों तक निरन्तर कष्टों को सहन करना, फिर एक साल के अज्ञातवास में छिपे रहना। इसके बाद प्रारम्भ हुआ महाभारत का महासंग्राम। और इसके बाद कुन्ती का पुनः वनगमन और वहाँ उनकी मृत्यु। इतनी दुःसह व्यथा सहने वाली कुन्ती से जब श्रीकृष्ण ने पूछा- बुआ तुम्हें क्या वरदान चाहिए, तो उन्होंने बड़ी भक्ति से कहा- हे केशव! मैं दुःखों का वरदान चाहती हूँ। चकित कृष्ण ने उनसे जानना चाहा इतने दुःखों की चाहत क्यूँ है? तो वे बोली- हे केशव! जीवन के दुःखों में तुम्हारी याद बहुत आती है। और हे भक्तवत्सल प्रभु! मैं तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहती। सो हे जनार्दन! वे दुःख बहुत अच्छे लगते हैं, जो मुझे तुम्हारी याद दिलाते हैं। बस यही सच्चे शिष्य का स्वर है, जो वह गुरू से कहता है, उनसे माँगता है। जो इस तत्त्व को, सत्य को जानता है- वही शिष्य है और उसी ने गुरूगीता के मर्म को जाना है।