गुरूगीता से मिलता है ज्ञान का परम प्रकाश
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गुरूगीता के महामंत्रों का अवतरण जिसके अन्तस् में हुआ, समझो वहाँ आध्यात्मिक प्रकाश की धाराएँ बरस गयीं। उसे सद्गुरू कृपा व ईश्वर कृपा का वरदान मिल गया। जिनके अन्तःकरण में आध्यात्मिक भावों का उदय होता है, उनमें यह चाहत भी जगती है कि सद्गुरू का सान्निध्य मिले ,ईश्वर की कृपा मिले। पर कैसे? इसकी विधि उन्हें नहीं मालूम होती। इस विधि के अभाव में पल्ले पड़ती है, तो सिर्फ भटकन ,उलझन और संत्रास। परन्तु जो गुरूगीता के आध्यात्मिक प्रभावों की समझ रखते हैं, वे बड़ी ही आसानी से इससे उबर जाते हैं। गुरूगीता की कृपा जिन्हें प्राप्त है, उन्हें भटकन, उलझन के कंटक नहीं चुभते। इसके अनुष्ठान से उनकी सभी आध्यात्मिक उलझने अन्तःकरण में स्वयमेव फूट पड़ते हैं। गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी महत्त्व को बताया गया है। इसमें कहा गया है कि गुरूगीता का जप- पाठ ,अनुष्ठान शक्ति, सूर्य, गणपति, विष्णु, शिव सभी के उपासकों को सिद्धि देने वाला है। यह सत्य है, सत्य है, इसमें कोई संशय नहीं है। भगवान् शिव ने माता से कहा- हे सुमुखि! अब मैं तुम्हें गुरूगीता के अनुष्ठान के लिए योग्य स्थानों का वर्णन करता हूँ। इसके लिए उपयुक्त स्थान सागर, नदी का किनारा अथवा शिव या विष्णु का मंदिर है। भगवती का मंदिर ,गौशाला अथवा कोई देवमंदिर, वट, आँवला वृक्ष, मठ अथवा तुलसी वन इसके लिए शुभ माने गए हैं ।। पवित्र निर्मल स्थान में मौन भाव से इसका जप अनुष्ठान करना चाहिए। इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ कहते हैं-
गुरूपुत्रो वरं मूर्खस्तस्य सिद्ध्यन्ति नान्यथा। शुभकर्माणि सर्वाणि दीक्षाव्रततपांसि च॥ १५६॥ संसारमलनाशार्थं भवपाशनिवृत्तये। गुरूगीताम्भसि स्न्नानं तत्त्वज्ञः कुरूते सदा॥ १५७॥ स एव च गुरूः साक्षात् सदा सद्ब्रह्मवित्तमः। तस्य स्थानानि सर्वाणि पवित्राणि न संशय॥ १५८॥ सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति ।। तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रे पीठे वसन्ति हि॥ १५९॥ आसनस्थः शयानो वा गच्छंस्तिष्ठन् वदन्नपि। अश्वारूढो गजारूढः सुप्तो वा जाग्रतोऽपि वा॥ १६०॥ शुचिमांश्च सदा ज्ञानी गुरूगीता जपेन तु। तस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६१॥
गुरूपुत्र मूर्ख होने पर भी वरण के योग्य है। इससे भी कराए गये दीक्षा- तप आदि व्रत एवं अन्य शुभ कर्म सिद्ध होते हैं, वृथा नहीं होते ॥ १५६॥ गुरूगीता के महामंत्रों से स्न्नान संसार के मल को धोने वाला है, इससे भवपाशों से छुटकारा मिलता है॥ १५७॥ जो गुरूगीता के जल से स्न्नान करता है, वह सभी ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ एवं सदागुरू होता है। वह जिस किसी स्थान में निवास करता है, वह स्थान पवित्र होता है, इसमें कोई संशय नहीं है॥ १५८॥ सर्वशुद्ध एवं पवित्र गुरूदेव जहाँ भी स्वाभाविक रूप से निवास करते हैं, वहाँ सभी देवों का निवास होता है॥ १५९॥ गुरूगीता का जप करने वाला पवित्र ज्ञानी पुरूष बैठा हुआ ,सोया हुआ, जाता हुआ, खड़ा हुआ, बोलता हुआ ,अश्व की पीठ पर आरूढ़ ,हाथी पर आरूढ़, सुप्त अथवा जाग्रत् सर्वदा विशुद्ध होता है। किसी भी अवस्था में उसका दर्शन करने से पुनर्जन्म नहीं होता॥ १६०- १६१॥ भगवान् शिव की इस अमृतवाणी में गुरूगीता के अनुष्ठान का महत्त्व है। गुरूगीता का जप- पाठ साधक को सच्चा शिष्य और सच्चे शिष्य को गुरूपद पर आरूढ़ करता है। ऐसा साधक हमेशा ही गुरूकृपा, ईश्वरकृपा के सान्निध्य में रहता है। उसके अन्तःकरण में भगवद्कृपा हिलोरे लेती है। गुरूगीता का यह महत्त्व केवल सिद्धान्त ,विचार या कल्पना न होकर सारभूत अनुभव है। इसे उन्होंने पाया, जिन्होंने गुरूगीता की साधना की। जो इसकी कृपा छाँव में बैठकर तप करते रहे। ऐसा ही एक अनुभव भक्तिमती नारी गंगाबाई का है। गंगाबाई भगवान् के परम भक्त लाखाजी की बेटी थी। भक्त लाखाजी विशेष पढ़े तो नहीं थे, परन्तु गुरूगीता उन्हें कंठस्थ थी। भगवान् में उनका अगाध विश्वास था। इनकी दो सन्ताने थी- एक पुत्र, एक कन्या। पुत्र का नाम देवा और कन्या का नाम गंगाबाई था। पुत्र के विवाह के दो साल बाद उन्होंने कन्या का विवाह कर दिया। लाखाजी नियम से गुरूगीता के ११ पाठ एवं शिव सहस्त्रनाम का पाठ करते थे। उनके पुत्र एवं कन्या को भी गुरूगीता से प्रगाढ़ अनुराग हो गया था। न मालूम प्रारब्ध के किस संयोग से कैसे दिन बदल जाते हैं? गंगाबाई के पति को सर्प ने काट लिया। सर्प के काटने से उसकी तत्क्षण मृत्यु हो गयी। पुत्री के जीवन की इस त्रासदी की खबर लाखाजी को लगी। उन्होंने यह बात अपनी पत्नी, पुत्र व पुत्रवधु को बतायी। सभी इस शोक समाचार को सुनकर व्याकुल हो गए। लाखाजी ने सभी को सम्भाला और पुत्री को सान्त्वना देने के लिए उसकी ससुराल पहुँचे। ससुराल पहुँचने पर उन्हें भारी अचरज हुआ। बात भी अचरज की थी। उन्होंने देखा कि उनकी भक्तिमती पुत्री बड़े शान्त एवं स्थिर भाव से अपने सास- श्वसुर को प्रबोध दे रही है। उसकी इन बातों से सास- ससुर शान्त चित्त हो रहे थे। गंगाबाई की यह स्थिति देखकर लाखाजी ने पूछा -बेटी! तेरी ऐसी स्थिति देखकर मैं चकित हूँ। मैं तो यहाँ तरह- तरह के विचार करके आया था कि तुझे धीरज बंधाऊँगा। परन्तु तेरे ज्ञान ने तो मुझे चकित कर दिया है। तुझे यह ज्ञान आया कहाँ से? गंगाबाई ने कहा- पिता जी यह सब आपकी दी हुई सीख का फल है। आप के सान्निध्य में मैंने गुरूगीता कंठस्थ कर ली थी। बचपन से ही गुरूगीता का पाठ, इसके विधिवत अनुष्ठान मेरा नियम बन गया था। इस साधना को मैंने कभी भी नहीं छोड़ा। इसी का प्रभाव है कि आपके जामाता की मृत्यु के तीन दिन पहले भगवान् ने मुझे स्वन्प में दर्शन देकर कहा- बेटी! तेरे पति की आयु पूरी हो चुकी है, यह मेरा भक्त हे। तेरे साथ उसका पूर्वजन्म का संयोग शेष था। इसी से उसने जन्म लिया था। अब इसे तीन दिन बाद साँप डसेगा। उस समय तू उसे गुरूगीता सुनाती रहना। ऐसा करने से इसका कल्याण होगा। मैं तुझे सच्चा वैराग्य और ज्ञान प्राप्त होगा। पिताजी इतना कहकर भगवान् भोलेनाथ अन्तर्ध्यान हो गए। मैं जाग पड़ी, मानों उसी समय से मुझे ज्ञान का परम प्रकाश मिल गया। मैं सारे शोक- मोह छोड़कर पति के कल्याण में लग गयी। मैंने व्रत धारण किया और रातो जागकर पति को गुरूगीता एवं शिव सहस्त्रनाम सुनाती रही। तीसरे दिन जब पतिदेव सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे, उसी समय अचानक एक कालसर्प ने आकर उनके पैर को डस लिया। देखते- देखते उनके प्राण पखेरू उड़ गए। मैंने देखा कर्पूरगौर भगवान् सदाशिव उनके सम्मुख विद्यमान हैं। इस दृश्य ने गुरूगीता पर मेरी आस्था बढ़ा दी। अब आप मेरी सहायता कीजिए कि भगवान् सदाशिव की भक्ति कर सकूँ। पुत्री के इस अनुभव को सुनकर पिता को रोमांच हो आया। सचमुच ही गुरूगीता से सच्चा ज्ञान सहज सम्भव है।
गुरूपुत्रो वरं मूर्खस्तस्य सिद्ध्यन्ति नान्यथा। शुभकर्माणि सर्वाणि दीक्षाव्रततपांसि च॥ १५६॥ संसारमलनाशार्थं भवपाशनिवृत्तये। गुरूगीताम्भसि स्न्नानं तत्त्वज्ञः कुरूते सदा॥ १५७॥ स एव च गुरूः साक्षात् सदा सद्ब्रह्मवित्तमः। तस्य स्थानानि सर्वाणि पवित्राणि न संशय॥ १५८॥ सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति ।। तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रे पीठे वसन्ति हि॥ १५९॥ आसनस्थः शयानो वा गच्छंस्तिष्ठन् वदन्नपि। अश्वारूढो गजारूढः सुप्तो वा जाग्रतोऽपि वा॥ १६०॥ शुचिमांश्च सदा ज्ञानी गुरूगीता जपेन तु। तस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६१॥
गुरूपुत्र मूर्ख होने पर भी वरण के योग्य है। इससे भी कराए गये दीक्षा- तप आदि व्रत एवं अन्य शुभ कर्म सिद्ध होते हैं, वृथा नहीं होते ॥ १५६॥ गुरूगीता के महामंत्रों से स्न्नान संसार के मल को धोने वाला है, इससे भवपाशों से छुटकारा मिलता है॥ १५७॥ जो गुरूगीता के जल से स्न्नान करता है, वह सभी ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ एवं सदागुरू होता है। वह जिस किसी स्थान में निवास करता है, वह स्थान पवित्र होता है, इसमें कोई संशय नहीं है॥ १५८॥ सर्वशुद्ध एवं पवित्र गुरूदेव जहाँ भी स्वाभाविक रूप से निवास करते हैं, वहाँ सभी देवों का निवास होता है॥ १५९॥ गुरूगीता का जप करने वाला पवित्र ज्ञानी पुरूष बैठा हुआ ,सोया हुआ, जाता हुआ, खड़ा हुआ, बोलता हुआ ,अश्व की पीठ पर आरूढ़ ,हाथी पर आरूढ़, सुप्त अथवा जाग्रत् सर्वदा विशुद्ध होता है। किसी भी अवस्था में उसका दर्शन करने से पुनर्जन्म नहीं होता॥ १६०- १६१॥ भगवान् शिव की इस अमृतवाणी में गुरूगीता के अनुष्ठान का महत्त्व है। गुरूगीता का जप- पाठ साधक को सच्चा शिष्य और सच्चे शिष्य को गुरूपद पर आरूढ़ करता है। ऐसा साधक हमेशा ही गुरूकृपा, ईश्वरकृपा के सान्निध्य में रहता है। उसके अन्तःकरण में भगवद्कृपा हिलोरे लेती है। गुरूगीता का यह महत्त्व केवल सिद्धान्त ,विचार या कल्पना न होकर सारभूत अनुभव है। इसे उन्होंने पाया, जिन्होंने गुरूगीता की साधना की। जो इसकी कृपा छाँव में बैठकर तप करते रहे। ऐसा ही एक अनुभव भक्तिमती नारी गंगाबाई का है। गंगाबाई भगवान् के परम भक्त लाखाजी की बेटी थी। भक्त लाखाजी विशेष पढ़े तो नहीं थे, परन्तु गुरूगीता उन्हें कंठस्थ थी। भगवान् में उनका अगाध विश्वास था। इनकी दो सन्ताने थी- एक पुत्र, एक कन्या। पुत्र का नाम देवा और कन्या का नाम गंगाबाई था। पुत्र के विवाह के दो साल बाद उन्होंने कन्या का विवाह कर दिया। लाखाजी नियम से गुरूगीता के ११ पाठ एवं शिव सहस्त्रनाम का पाठ करते थे। उनके पुत्र एवं कन्या को भी गुरूगीता से प्रगाढ़ अनुराग हो गया था। न मालूम प्रारब्ध के किस संयोग से कैसे दिन बदल जाते हैं? गंगाबाई के पति को सर्प ने काट लिया। सर्प के काटने से उसकी तत्क्षण मृत्यु हो गयी। पुत्री के जीवन की इस त्रासदी की खबर लाखाजी को लगी। उन्होंने यह बात अपनी पत्नी, पुत्र व पुत्रवधु को बतायी। सभी इस शोक समाचार को सुनकर व्याकुल हो गए। लाखाजी ने सभी को सम्भाला और पुत्री को सान्त्वना देने के लिए उसकी ससुराल पहुँचे। ससुराल पहुँचने पर उन्हें भारी अचरज हुआ। बात भी अचरज की थी। उन्होंने देखा कि उनकी भक्तिमती पुत्री बड़े शान्त एवं स्थिर भाव से अपने सास- श्वसुर को प्रबोध दे रही है। उसकी इन बातों से सास- ससुर शान्त चित्त हो रहे थे। गंगाबाई की यह स्थिति देखकर लाखाजी ने पूछा -बेटी! तेरी ऐसी स्थिति देखकर मैं चकित हूँ। मैं तो यहाँ तरह- तरह के विचार करके आया था कि तुझे धीरज बंधाऊँगा। परन्तु तेरे ज्ञान ने तो मुझे चकित कर दिया है। तुझे यह ज्ञान आया कहाँ से? गंगाबाई ने कहा- पिता जी यह सब आपकी दी हुई सीख का फल है। आप के सान्निध्य में मैंने गुरूगीता कंठस्थ कर ली थी। बचपन से ही गुरूगीता का पाठ, इसके विधिवत अनुष्ठान मेरा नियम बन गया था। इस साधना को मैंने कभी भी नहीं छोड़ा। इसी का प्रभाव है कि आपके जामाता की मृत्यु के तीन दिन पहले भगवान् ने मुझे स्वन्प में दर्शन देकर कहा- बेटी! तेरे पति की आयु पूरी हो चुकी है, यह मेरा भक्त हे। तेरे साथ उसका पूर्वजन्म का संयोग शेष था। इसी से उसने जन्म लिया था। अब इसे तीन दिन बाद साँप डसेगा। उस समय तू उसे गुरूगीता सुनाती रहना। ऐसा करने से इसका कल्याण होगा। मैं तुझे सच्चा वैराग्य और ज्ञान प्राप्त होगा। पिताजी इतना कहकर भगवान् भोलेनाथ अन्तर्ध्यान हो गए। मैं जाग पड़ी, मानों उसी समय से मुझे ज्ञान का परम प्रकाश मिल गया। मैं सारे शोक- मोह छोड़कर पति के कल्याण में लग गयी। मैंने व्रत धारण किया और रातो जागकर पति को गुरूगीता एवं शिव सहस्त्रनाम सुनाती रही। तीसरे दिन जब पतिदेव सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे, उसी समय अचानक एक कालसर्प ने आकर उनके पैर को डस लिया। देखते- देखते उनके प्राण पखेरू उड़ गए। मैंने देखा कर्पूरगौर भगवान् सदाशिव उनके सम्मुख विद्यमान हैं। इस दृश्य ने गुरूगीता पर मेरी आस्था बढ़ा दी। अब आप मेरी सहायता कीजिए कि भगवान् सदाशिव की भक्ति कर सकूँ। पुत्री के इस अनुभव को सुनकर पिता को रोमांच हो आया। सचमुच ही गुरूगीता से सच्चा ज्ञान सहज सम्भव है।