गुरूगीता के पाठ की महिमा न्यारी
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गुरूगीता के महामंत्रों के मनन से शिष्य का त्राण होता है। इसका विधानपूर्वक पाठ करने से साधक के अस्तित्त्व में मंत्रयोग की सम्पूर्ण प्रक्रियाएँ घटित होती हैं। और फिर प्रारम्भ हो जाती है- अन्तस् के रूपान्तरण की आध्यात्मिक प्रक्रिया। यह सच उनको सहज में समझ आने योग्य है, जो मंत्र के वैज्ञानिक महत्त्व से परिचित हैं। मंत्र में प्रधान महत्त्व शब्दों के गुँथे होने की रीति का है। इसके अर्थ की भावना श्रेयस्कर तो है, पर इसके बिना भी मंत्र अपना चमत्कार दिखाए बिना नहीं रहते। वैसे यदि मंत्र रटन के साथ अर्थ चिन्तन जुड़ जाए, तो सोने में सुगन्ध वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। हालाँकि ऐसा न होने पर भी अकेली मंत्ररटन अपने चमत्कारों की सुनहरी चमक को बरकरार रखती है। मंत्रों को रटने या मन ही मन उच्चारित करने से इसके सूक्ष्म कम्पन न केवल देह, प्राण व स्न्नायुमण्डल की प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं, बल्कि अस्तित्व की गहनता भी इनसे प्रेरित व परिवर्तित होती है। यह ऐसा अनुभव है, जो उन सभी को प्राप्त होता है, जो मंत्र के साधक हैं। इस साधना की प्रगाढ़ता में चित्त की वृतियाँ मंत्र की चेतना में विलीन होने लगती हैं और फिर क्रमिक रूप से चित्त मंत्र तदाकार होता है। बाद में यह तादात्म्य मंत्र के अधिदेवता से होते हुए मंत्र की सामर्थ्य के अनुसार परमात्म चेतना से हो जाता है। शाबर, डामर आदि क्षुद्र मंत्रों की बात छोड़ दे, तो गायत्री महामंत्र के साथ इस प्रक्रिया को घटित होते हुए अनुभव किया जा सकता है। गुरूगीता- माला मंत्र है। माला मंत्रों का पाठ किए जाने की परम्परा है। इस पाठ करने से साधक के अन्तरतम में पहले गुरूतत्व की अनुभूति होती है। जिन्हें अभी तक गुरू की प्राप्ति नहीं हुई है, वे इसकी साधना से अपने सद्गुरू को पहचान सकते हैं, पा सकते हैं। जिन्हें सद्गुरू तो मिले हैं, परन्तु जो अभी अपनी देह में नहीं हैं, गुरूगीता की पाठ साधना उन्हें उनके गुरू से संवाद सुलभ करा सकती है। विधानपूर्वक यदि सहस्त्र पाठ भी हो सके, तो भी ऐसा करने वाले साधक की चेतना सूक्ष्म संकेत अवतरित होने लगती है। साधना सतत बनी रहे ,, तो साधक न केवल गुरूतत्त्व का साक्षाकार करता है, बल्कि उसे गुरूतत्त्व एवं परमात्मतत्त्व की एकरसता का भी बोध होता है। गुरूगीता के विगत क्रम में कुछ ऐसे ही मांत्रिक महत्त्व की चर्चा की गयी है। इसमें बताया गया है कि गुरूपुत्र सब तरह से वरण के योग्य है गुरूगीता के महामंत्र संसार के मलों को धोकर भवपाशों से छुटकारा दिलाते हैं। जो गुरूगीता के जल से स्न्नान करता है, वह ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ होता है। वह जहाँ भी रहता है, वह स्थान पवित्र हो जाता है। यही नहीं वहाँ पर सभी देवशक्तियाँ निवास करती हैं। गुरूगीता का पाठ करने वाला पवित्र ज्ञानी पुरूष प्रत्येक अवस्था में विशुद्ध होता है, किसी भी अवस्था मे उसका दर्शन कल्याणकारी है। इस तत्त्वकथा का विस्तार करते हुए भगवान् भोलेनाथ कहते हैं-
समुद्रे च यथा तोयं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम्। भिन्ने कुम्भे यथाकाशः तथात्मा परमात्मनि॥ १६२॥ तथैव ज्ञानी जीवात्मा परमात्मनि लीयते। ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र तत्र दिवानिशम् ॥ १६३॥ एवंविधो महामुक्तः सर्वदा वर्त्तते बुधः। तस्य सर्वप्रयत्नेन भावभक्तिं करोति यः॥१६४॥ सर्वसंदेहरहितो मुक्तो भवति पार्वति। भुक्तिमुक्तिद्वयं तस्य जिह्वाग्रे च सरस्वती॥१६५॥
समुद्र में जिस तरह से जल ,दुग्ध में दुग्ध ,घृत में घृत, घड़े का आकाश घड़े के फूट जाने से बाह्याकाश में मिल जाता है, उसी तरह से आत्मा परमात्मा में मिल जाती है॥ १६२॥ इसी तरह से ज्ञानी जीवात्माएँ परमात्मा चेतना में लीनता का अनुभव करती हैं। इस एकता के कारण ही ज्ञानी दिन- रात आनन्द में निमज्जित रहता है॥ १६३॥ इस तरह सक ज्ञानी सदा जीवन मुक्त होकर वास करता है, जो साधक प्रयत्नपूर्वक उसकी भावभक्ति करता है, वह सन्देह रहित होकर मुक्त होता है। उसे भोग एवं मोक्ष दोनों ही मिलते हैं, उसकी जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है॥ १६४- १६५॥ भगवान् सदाशिव के इन वचनों में न केवल गुरूगीता के पाठ का महत्त्व है, बल्कि पाठ करने वाले को भी महत्त्वपूर्ण बताया गया है। जो गुरूगीता की शरण में है, उसे किसी अन्य की आवश्यकता नहीं रहती। बस सद्गुरू की मूर्ति, चित्र के सामने पंचोपचार पूजन के पश्चात् पाठ करने की आवश्यकता है। इस पाठ से सभी संकटों का नाश होता है। आपत्तियाँ दूर होती हैं। सद्गुरू की कृपा मिलती है एवं चित्त में आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश होता है। यह कथन केवल शाब्दिक नहीं है, बल्कि इसमें अर्थ की गहनता समायी है। जो भी गुरूगीता की साधना करते हैं, अथवा करेंगे, उन्हें इसकी अनुभूति होने में कोई सन्देह नहीं। ऐसा ही अनुभव दक्षिण भारत में कृष्ण नदी के किनारे बसे गाँव त्र्यंगम के निवासी मुरली कृष्णन को हुआ। मुरली कृष्णन जन्म से ब्राह्मण थे। उनकी शिक्षा सामान्य ही हो पायी थी। परिवार में गरीबी थी, उस पर शत्रुओं का आतंक। पिताजी बचपन में ही चल बसे थे। घर में अकेली माँ और दो बहनें थीं, जिन पर गाँव के जमीदार की कुदृष्टि थी। असहाय ,, अकेलापन, न कोई मार्गदर्शन और न कोई राह बताने वाला। कहाँ जायें, किसके पास जायें। जो राह मिली भी, वे दुष्कर थी। किसी ने उन्हें किसी ज्योतिषी के पास जाने को कहा, किसी ने तांत्रिकों के पते बताए। मुरली कृष्णन की माँ काफी समय तक इधर- उधर भटकती फिरीं। परन्तु मिला कुछ नहीं उलटे घर की हालत और बिगड़ती गई और शत्रुओं का आतंक बढ़ता गया। एक दिन शाम के समय मुरली कृष्णन ने अपनी माँ से कहा- माँ भगवान् सद्गुरू हैं, वे सभी का मार्गदर्शन करते हैं- क्यों न हम उन्हीं की शरण में जायें? प्रभु जो चाहेंगे- वही अच्छा होगा। ऐसा निश्चय करके मुरली कृष्णन ने पूर्णिमा की तिथि से गायत्री महामंत्र के जप के साथ गुरूगीता के पाठ का निश्चय किया। नियमित सन्ध्योपासना, अल्पाहार, अस्वादव्रत के साथ मुरली कृष्णन की साधना चलने लेगी। गायत्री महामंत्र के जप की ग्यारह मालाएँ पूरी करने में उसे लगभग एक घण्टे का समय लगता। पूजा के विधान सहित गुरूगीता के पाठ में भी लगातार एक घण्टा लग जाता। इस क्रम से प्रातः सायं उसकी साधना चलने लगी। प्रारम्भ में तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। शत्रु और शत्रुता ज्यों के त्यों बने रहे। लेकिन तीन महीने के बाद गुरूगीता की पाठ- साधना के प्रभाव स्पष्ट दिखने लगी। लोगों की बढ़ती उपेक्षा कम होने लगी। गाँव के कई प्रभावी लोग उनके पक्ष में खड़े हो गए ।माँ की मेहनत एवं पुरखों के खेती में आय से घर का सामान्य खर्च चलने लगा। आतंक की छाया, शान्ति की शीतलता में बदलने लगा। अब तक मुरली कृष्णन का मन भी साधना में रमने लगा। साधना के तीन वर्ष पूरे होते- होते न केवल स्थितियों में सुखद परिवर्तन हुआ, बल्कि मनः स्थितियों में भी आध्यात्मिक भाव उभरने लगा। अन्तश्चेतना में भगवान् सदाशिव एवं जगदम्बा पार्वती की झलकियाँ मिलने लगी। एक दिन ध्यान की गहनता में उसने स्वयं को भगवान् भोलेनाथ के समीप पाया। उसने अनुभव किया कि प्रभु स्वयं उसे स्वीकार करते हुए कह रहे हैं, वत्स ! मैं ही वह गुरूतत्त्व हूँ जो जगती पर भिन्न- भिन्न नाम रूपों में प्रकट होता है। भगवान् की यह वाणी सुनकर मुरली कृष्णन के अन्तस् से बस यह स्वर निकले- मुझे अपना लें प्रभु ! और उसे लगा- भगवान् कह रहे हैं कि गुरूगीता को जो अपनाता है, उसे मैं स्वभावतः अपना लेता हूँ। प्रभु का यह आश्वासन प्रत्येक साधक के साथ है।
समुद्रे च यथा तोयं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम्। भिन्ने कुम्भे यथाकाशः तथात्मा परमात्मनि॥ १६२॥ तथैव ज्ञानी जीवात्मा परमात्मनि लीयते। ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र तत्र दिवानिशम् ॥ १६३॥ एवंविधो महामुक्तः सर्वदा वर्त्तते बुधः। तस्य सर्वप्रयत्नेन भावभक्तिं करोति यः॥१६४॥ सर्वसंदेहरहितो मुक्तो भवति पार्वति। भुक्तिमुक्तिद्वयं तस्य जिह्वाग्रे च सरस्वती॥१६५॥
समुद्र में जिस तरह से जल ,दुग्ध में दुग्ध ,घृत में घृत, घड़े का आकाश घड़े के फूट जाने से बाह्याकाश में मिल जाता है, उसी तरह से आत्मा परमात्मा में मिल जाती है॥ १६२॥ इसी तरह से ज्ञानी जीवात्माएँ परमात्मा चेतना में लीनता का अनुभव करती हैं। इस एकता के कारण ही ज्ञानी दिन- रात आनन्द में निमज्जित रहता है॥ १६३॥ इस तरह सक ज्ञानी सदा जीवन मुक्त होकर वास करता है, जो साधक प्रयत्नपूर्वक उसकी भावभक्ति करता है, वह सन्देह रहित होकर मुक्त होता है। उसे भोग एवं मोक्ष दोनों ही मिलते हैं, उसकी जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है॥ १६४- १६५॥ भगवान् सदाशिव के इन वचनों में न केवल गुरूगीता के पाठ का महत्त्व है, बल्कि पाठ करने वाले को भी महत्त्वपूर्ण बताया गया है। जो गुरूगीता की शरण में है, उसे किसी अन्य की आवश्यकता नहीं रहती। बस सद्गुरू की मूर्ति, चित्र के सामने पंचोपचार पूजन के पश्चात् पाठ करने की आवश्यकता है। इस पाठ से सभी संकटों का नाश होता है। आपत्तियाँ दूर होती हैं। सद्गुरू की कृपा मिलती है एवं चित्त में आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश होता है। यह कथन केवल शाब्दिक नहीं है, बल्कि इसमें अर्थ की गहनता समायी है। जो भी गुरूगीता की साधना करते हैं, अथवा करेंगे, उन्हें इसकी अनुभूति होने में कोई सन्देह नहीं। ऐसा ही अनुभव दक्षिण भारत में कृष्ण नदी के किनारे बसे गाँव त्र्यंगम के निवासी मुरली कृष्णन को हुआ। मुरली कृष्णन जन्म से ब्राह्मण थे। उनकी शिक्षा सामान्य ही हो पायी थी। परिवार में गरीबी थी, उस पर शत्रुओं का आतंक। पिताजी बचपन में ही चल बसे थे। घर में अकेली माँ और दो बहनें थीं, जिन पर गाँव के जमीदार की कुदृष्टि थी। असहाय ,, अकेलापन, न कोई मार्गदर्शन और न कोई राह बताने वाला। कहाँ जायें, किसके पास जायें। जो राह मिली भी, वे दुष्कर थी। किसी ने उन्हें किसी ज्योतिषी के पास जाने को कहा, किसी ने तांत्रिकों के पते बताए। मुरली कृष्णन की माँ काफी समय तक इधर- उधर भटकती फिरीं। परन्तु मिला कुछ नहीं उलटे घर की हालत और बिगड़ती गई और शत्रुओं का आतंक बढ़ता गया। एक दिन शाम के समय मुरली कृष्णन ने अपनी माँ से कहा- माँ भगवान् सद्गुरू हैं, वे सभी का मार्गदर्शन करते हैं- क्यों न हम उन्हीं की शरण में जायें? प्रभु जो चाहेंगे- वही अच्छा होगा। ऐसा निश्चय करके मुरली कृष्णन ने पूर्णिमा की तिथि से गायत्री महामंत्र के जप के साथ गुरूगीता के पाठ का निश्चय किया। नियमित सन्ध्योपासना, अल्पाहार, अस्वादव्रत के साथ मुरली कृष्णन की साधना चलने लेगी। गायत्री महामंत्र के जप की ग्यारह मालाएँ पूरी करने में उसे लगभग एक घण्टे का समय लगता। पूजा के विधान सहित गुरूगीता के पाठ में भी लगातार एक घण्टा लग जाता। इस क्रम से प्रातः सायं उसकी साधना चलने लगी। प्रारम्भ में तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। शत्रु और शत्रुता ज्यों के त्यों बने रहे। लेकिन तीन महीने के बाद गुरूगीता की पाठ- साधना के प्रभाव स्पष्ट दिखने लगी। लोगों की बढ़ती उपेक्षा कम होने लगी। गाँव के कई प्रभावी लोग उनके पक्ष में खड़े हो गए ।माँ की मेहनत एवं पुरखों के खेती में आय से घर का सामान्य खर्च चलने लगा। आतंक की छाया, शान्ति की शीतलता में बदलने लगा। अब तक मुरली कृष्णन का मन भी साधना में रमने लगा। साधना के तीन वर्ष पूरे होते- होते न केवल स्थितियों में सुखद परिवर्तन हुआ, बल्कि मनः स्थितियों में भी आध्यात्मिक भाव उभरने लगा। अन्तश्चेतना में भगवान् सदाशिव एवं जगदम्बा पार्वती की झलकियाँ मिलने लगी। एक दिन ध्यान की गहनता में उसने स्वयं को भगवान् भोलेनाथ के समीप पाया। उसने अनुभव किया कि प्रभु स्वयं उसे स्वीकार करते हुए कह रहे हैं, वत्स ! मैं ही वह गुरूतत्त्व हूँ जो जगती पर भिन्न- भिन्न नाम रूपों में प्रकट होता है। भगवान् की यह वाणी सुनकर मुरली कृष्णन के अन्तस् से बस यह स्वर निकले- मुझे अपना लें प्रभु ! और उसे लगा- भगवान् कह रहे हैं कि गुरूगीता को जो अपनाता है, उसे मैं स्वभावतः अपना लेता हूँ। प्रभु का यह आश्वासन प्रत्येक साधक के साथ है।