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Books - गुरुगीता

Media: TEXT
Language: HINDI
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भावनाओं का हो सद्गुरू की पराचेतना में विसर्जन

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First 19 21 Last
     गुरूगीता का गायन करते हुए शिष्यों की अन्तश्चेतना श्रद्धा रस में भीग रही है। भक्ति का उफान उनकी भाव चेतना में हिलोरें ले रहा है। इन हिलोरों में न केवल अतीत के कल्पष घुले हैं; बल्कि प्रखरता प्रकाश की नयी आभा भी फैली है। गुरूगीता के मंत्रों का प्रभाव ही कुछ ऐसा है। ये भगवान् महादेव के वचन हैं, जो सदा सर्वदा अमोघ हैं। भगवान् सदाशिव की वाणी तीनों कालों में सत्य है। महाकाल के वचनों पा काल का कोई प्रभाव नहीं है। काल का पाश, देश की सीमाएँ इन्हें छू भी नहीं सकती। इन वचनों का सही- सही मर्म तो केवल माता पार्वती ने ही समझा। जो प्रथम श्रोता होने के साथ भगवान् साम्ब सदाशिव की प्रथम शिष्या भी हैं। अपने सद्गुरू की अनुगत और उन्हीं में विलीन।      शिष्यों के लिए वह परम आदर्श हैं। समर्पण- विसर्जन व विलय की सघनता की साकार मूर्ति। जो शिष्य हैं, वे इन सजल श्रद्धा के साकार भाव विग्रह से श्रद्धा के कुछ कण पाकर स्वयं को प्रखर प्रज्ञा रूपी गुरूदेव मे लय कर सकते हैं। इस भाव प्रवाह में अवगाहन करने वालों ने गुरू भक्ति की पूर्व कथा में पढ़ा कि सद्गुरू का नाम मंत्रराज है। इसका जप करने से बुद्धि खरा सोना बनती है। इसके स्मरण- चिंतन से महासंकटों से रक्षा होती है। हर किसी अवस्था में चलते- फिरते, बैठते- उठते यह मंत्रराज साधक की रक्षा करता है। जो भी शिष्य इसकी साधना करता है, उसे अविनाशी, निराकार व निर्विकार आत्म तत्त्व की अनुभूति होती रहती है।      गुरूदेव के इस अद्भुत स्वरूप के एक अन्य रहस्यमय आयाम को प्रकट करते हुए भगवान् भोलेनाथ आदिमाता भवानी से कहते हैं- 
अपूर्वाणां परं नित्यं स्वयं ज्योतिर्निरामयम्। विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम् ॥ ६४॥ श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानश्चतुष्टयम्। यस्य चात्मतपो वेद देशिकं च सदा स्मरेत्॥ ६५॥ मननं यद्वरं कार्य तद्वदामि महामते। साधुत्वं च मया दृष्ट्वा त्वयि तिष्ठति साम्प्रतम्॥ ६६॥ 
     सद्गुरू चेतना का यह तत्त्व सब भाँति अपूर्व है, नित्य है, स्वयं प्रकाशित एवं निरामय है। इसमें किसी तरह का विकार नहीं है। यह परमाकाश रूप, अचल, अक्षय और आनन्द का स्त्रोत है॥ ६४॥ वेद स्तोत्र भी यही कहते हैं। प्रत्यक्ष, शब्द आदि चारों प्रमाणों से भी यही सत्य सिद्ध होता है। गुरूदेव की आत्मचेतना ,तपश्चेतना का सदा- सदा स्मरण करना चाहिए॥६५॥ हे महामति देवि! इसके मनन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं। तुम्हारी साधुता को देखकर ही मैंने यह सत्य तुम्हें बताया है।      गुरूगीता के मंत्रों में इस परम सत्य का उद्घाटन है कि गुरूदेव ही स्मरणीय हैं, चिंतनीय हैं और मननीय हैं ।। उनकी पराचेतना में रमण करने से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। कई शिष्य- साधक बौद्धिक रूप से इस सच्चाई को जानते हैं; किन्तु भावरूप से वे इसमें डूब नहीं पाते, निमग्न नहीं हो पाते। इसका कारण यह होता है कि उनकी बुद्धि तरह- तरह सांसारिक गणित लगाती रहती है। इस बुद्धि को श्रीमद्भगवद्गीता के गायक व्यावसायित्मका बुद्धिः कहते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस इसके लिए पटवारी बुद्धि का शब्द उपयोग करते थे। जोड़- तोड़, कुटिलता- कु्ररता में निरत रहने वालों के लिए न तो साधना सम्भव है और न ही उनसे समर्पण बन पड़ता है और जो अपनी अहंता का सिर उतार कर गुरूचरणों पर रखने का साहस नहीं कर सकते, भला उनके लिए गुरू भक्ति कहाँ और किस तरह से सम्भव है। ऐसों को सद्गुरू चाहकर भी नहीं अपना पाते। शिष्य की भाव मलीनता उन्हें यह करने ही नहीं देती।      इस भाव सत्य से जुड़ा एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग है। यह प्रसंग श्री श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के गृही शिष्य श्री रामचन्द्र दत्त के जीवन का है। श्री दत्त महाशय की भक्ति अपने गुरू के प्रति बढ़ी- चढ़ी थी; परन्तु इसी के साथ उनमें सांसारिक बुद्धि की भी छाया थी। उनमें अपनी विद्या- बुद्धि एवं धन- पैसे का अहंकार भी था। उनके संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है कि श्री परमहंस देव के संन्यासी शिष्य स्वामी अद्भुतानन्द पहले इन्हीं के यहाँ नौकरी करते थे। इन अद्भुतानन्द को श्री रामकृष्ण के भक्त समुदाय में लाटू महाराज के नाम से जाना जाता है। दत्त महाशय ने ही उन्हें ठाकुर से मिलवाया था। बाद में उनकी भक्ति भावना को देखकर उन्हें ठाकुर की सेवा में अर्पित कर दिया।      यही दत्त महाशय एक दिन श्री श्री ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर आये हुए थे। स्वाभाविक रूप से वे अपने गुरूदेव के लिए कुछ फल- मिठाइयाँ एवं कुछ अन्य सामान लाये हुए थे। ठाकुर ने स्वभावतः यह सामान युवा भक्त मण्डली में बाँट दिया। उन्हें लगा कि इतना कीमती सामान और इन्होंने इन लड़कों में बाँट दिया। अच्छा होता कि ये इस सबको अपने लिए रख लेते और बहुत दिनों तक इसका उपयोग करते रहते। उनकी ये सांसारिक भावनाएँ ठाकुर से छिपी नहीं रहीं। जिस समय वे यह सब सोच रहे थे, उस समय शाम का समय था और वे परमहंस देव के पास बैठे उनके पाँव दबा रहे थे।      इन भावनाओं के उनके मन में उठते ही श्री श्रीरामकृष्ण देव ने अपने पाँव से उनके हाथ झटक दिये और बाँटने से बचा हुआ उनका सामान उनके पास फेंकते हुए बोले- तू अब जा यहाँ से। मैं तुझे अब तक यहाँ लाया करता था, वह भी और उससे ज्यादा तुझे मिल जायेगा। मैं माँ से प्रार्थना करूँगा कि वह सब कुछ बल्कि उससे बहुत ज्यादा तुझे लौटा दे। अचानक ठाकुर में आये इस भाव परिवर्तन से दत्त महाशय तो हतप्रभ रह गये; पर साथ ही वे यह भी समझ गये कि अन्तर्यामी ठाकुर ने उनके मन में उठ रही सभी भावनाओं को जान लिया है।      पर अब किया भी क्या जा सकता था? शाम गहरी हो गयी थी। वापस कलकत्ता भी नहीं लौट सकते थे। वैसे भी ऐसे मन स्थिति में वह कलकत्ता लौटना भी नहीं चाहते थे। बस भरे हुए मन से सोचा ठाकुर के द्वारा तिरस्कृत जीवन अब किस काम का? और उनके अन्दर उमड़ आयी भक्ति भावना ने यह प्रेरणा दी कि क्यों न माँ के मन्दिर के पास बैठकर ठाकुर के नाम का जप किया जाय। बस ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय उनके कण्ठ से, प्राणों से और हृदय से बहने लगा। उनकी भावनाएँ अपने दिव्य गुरू में विलीन होने लगी। रात गहरी होती गयी और वह अपने सद्गुरू की पराचेतना में विलीन होते गये। भाव विलीनता इतनी प्रगाढ़ हुई कि शिष्यवत्सल श्री परमहंस देव स्वयं उनके पास आ गये और बोले- चल तेरा परिमार्जन हो गया। श्री ठाकुर के चरणों को अपने आँसुओं से धोते दत्त महाशय अनुभव कर रहे थे कि सद्गुरू की पराचेतना ही चिंतनीय- मननीय है। इस सत्य को हम भी अनुभव कर सकते हैं।
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