Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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नई दुनिया का निर्माण कैसे हुआ(अणु शक्ति की 14 वर्ष पूर्व लिखी एक कहानी)
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(श्री “भारतीय योगी”)
जिस समय रेडियम का आविष्कार हुआ था उसी समय वैज्ञानिक ज्योतिषियों ने कह दिया था कि यह संसार की काया पलट कर देगी। मानों इसी ‘भविष्यवाणी’ को सत्य सिद्ध करने के लिए सन् 1950 में अणु शक्ति का उपयोग आरम्भ हो गया और थोड़े ही समय में उसने भाप और तेल की शक्ति को निकम्मा बना दिया। हर देश में भाप और तेल के बजाय ‘रेडियो-इंजन’ चलने लगे और इसके फलस्वरूप संसार में हलचल मच गयी। क्यों? इसलिये कि जो अन्तर हाथ के काम और भाप के इंजिन में था उतना ही अन्तर भाप के इंजिन और रेडियो इंजिन में था। इस नये इंजिन से एक मोटर के 100 मील जाने में दो-चार आने का मसाला ही खर्च होता था। जो वायुयान पहले एक घन्टे में मुश्किल से 250 मील जा सकते थे वे अब 600 और 700 मील तक जाने लगे। सौ मजदूरों का काम दस मजदूर करने लगे। कोयले और पेट्रोल की जरा भी पूछ नहीं रही। जिन लोगों को भय था कि अब खानों में कोयला व तेल का भण्डार कम होता जाता है उनका डर व्यर्थ सिद्ध हो गया।
पर इस प्रकार की वैज्ञानिक उन्नति से हानि लाभ दोनों ही होते हैं। अणु शक्ति से अधिक काम होने के फलस्वरूप सभी देशों में लाखों करोड़ों मजदूर बेकार हो गये, सब काम मशीनें अपने आप करने लगीं। ऊपर की देख-रेख के लिए केवल दो-चार आदमियों की जरूरत पड़ती थी। इसलिए पहले जिन कारखानों में दस-दस हजार आदमी करते थे, अब उसमें दो-चार सौ की जरूरत रह गई। भूखे मजदूर रोटी के लिए शोर मचाने लगे और उनका पालन करते-करते सरकारों का दिवाला निकलने लगा। जो बात संसार के कल्याण के लिए निकाली गयी थी, जिसका जन्म पृथ्वी को स्वर्ग बना देने के लिये हुआ था, आरम्भ में किसी नियन्त्रण के न होने से उसने दुनिया में प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया।
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पर यह बेकारी की दशा ज्यादा दिन न रही। क्योंकि जिस प्रकार अणु शक्ति ने मनुष्य की कार्य शक्ति को सैकड़ों गुना बढ़ा दिया था, उसी प्रकार नाश करने की शक्ति भी अत्यधिक हो गई थी। प्रत्येक अस्त्र इस शक्ति के संयोग से सर्वनाशी बन गया। इधर इस नई शक्ति का अभिमान और उधर लाखों बेकार मनुष्यों को किसी काम में लगाने की चिन्ता, बस सब देशों ने पारस्परिक शत्रुता की बातों को बढ़ा-चढ़ाकर युद्ध का डंका बजा दिया।
युद्ध आरम्भ हुआ, पर वह भी पहले जमाने से भिन्न था। कहीं भी स्थल और जल सेना की हलचल दिखाई नहीं पड़ती थी। उनको तैयारी का हुक्म अवश्य मिल गया था, पर वे सब ऐसे गुप्त स्थानों में छुपी बैठी थीं, या ऐसी गुप्त रीति से भेजी जा रही थीं कि बाहर वालों की क्या बात देश वालों को भी उनका पता नहीं चलता था। जो फौजें हमले के लिए इधर-उधर भेजी गई थीं वे गुप्त रूप से अन्धकार में ही अग्रसर होती थीं। जगह-जगह हवाई मोर्चे लगाये गये थे। जिससे दुश्मन के वायुयानों को अपने देश से दूर ही रोका जा सके।
अब जरा लड़ाई के हैड-क्वार्टर में चलकर विज्ञान का कौशल देखिये। फ्राँस और जर्मनी की सीमा के पास गुप्त स्थान में बने एक बड़े हाल में मित्रराष्ट्रों के सेनापति बैठे हैं। उनके बीच में रखे एक बहुत बड़े टेबल पर युद्ध क्षेत्र का नक्शा फैला हुआ है। दीवारों पर भी बड़े-बड़े नक्शे लटक रहे हैं। जिनमें छोटे-छोटे मुकामों को भी साफ-साफ दिखलाया गया है। टेबल पर फैले नक्शे पर भिन्न-भिन्न फौजों और तोपखानों के चिन्ह स्वरूप लकड़ी के मुहरे रखे हुए हैं। प्रतिक्षण सेना के आगे पीछे हटने के जो समाचार बेतार के तार से आते हैं उनके अनुसार मुहरों का भी स्थान बदल दिया जाता है। इस प्रकार समस्त युद्ध क्षेत्र की वास्तविक स्थिति सदा सेनापतियों के सामने रहती है और वे उस पर गौर करके नई-नई चालें सोचते रहते है।
सेनापति गण बैठे हुए युद्ध क्षेत्र की चालों के बारे में वादविवाद कर रहे थे। इतने में आसमान में बहुत ऊपर एक काली चीजें उड़ती दिखाई दीं। वास्तव में वह दुश्मन का एक बिना चालक का रेडियो शक्ति से उड़ने वाला जहाज था। हेड क्वार्टर के बाहर खड़े लोग उसको भली प्रकार देख भी नहीं पाये थे कि वह ठीक सर पर आ पहुँचा और एकाएक जमीन पर गिर पड़ा। जमीन से कुछ सौ फीट के ऊपर ही वह बड़े भयंकर शब्द के साथ जलने लगा और एक आग के विशाल गोले के रूप में पृथ्वी पर गिरा।
यह गोला कैसा था? यह भी अणुशक्ति की करामात का एक नमूना था। इसमें ‘यूरेनियम’ तथा ‘हाइड्रोजन’ आदि रासायनिक पदार्थ भरे थे जिनसे बढ़कर नाशकारी पदार्थ अभी तक संसार में देखा नहीं गया था। पहले के युद्धों में जो गोले काम आते थे वे दो चार मिनट में ही अपनी नाशलीला समाप्त कर देते थे, जो कुछ हानि होती थी उसी समय हो जाती थी। पर यह ‘यूरेनियम’ अपना कार्य बहुत समय तक जारी रखता था। वह जहाँ गिरता था वहाँ तो दस-बीस मील तक आग ही आग जला देता था, और उसके बाद भी उसका धुँआ और राख जहाँ-जहाँ गिरती जाती थी वहाँ भी नाश के नये केन्द्र बनते जाते थे। जो भी मनुष्य या अन्य प्राणी उसके पास होते वे शीघ्र ही मृत्यु के ग्रास बन जाते।
हाँ तो उस गोले का क्या हुआ। ज्यों ही वह पृथ्वी पर पड़ा एक साथ नीचे चला गया। दूसरे ही क्षण में जब उसकी शक्ति का प्रवाह ऊपर की तरफ हुआ तो ज्वालामुखी का दृश्य देखने में आया। न कहीं उस बड़े हाल का पता था और न उसमें बैठे सेनापतियों का जो पाँच मिनट पहले ही गद्देदार कुर्सियों पर बैठे-बैठे संसार के भाग्य का फैसला कर रहे थे। एटम बम के जोर से कई मील तक की जमीन के बड़े-बड़े टुकड़े उड़कर आसमान को जा रहे थे। और दसों दिशाओं में सिवाय आग के और कोई चीज दिखलाई नहीं पड़ती थी।
अपने हेडक्वार्टर के नाश की सूचना जब मित्र राष्ट्रों की हवाई छावनी में पहुँची तो वहाँ सन्नाटा छा गया। तुरन्त ही वहाँ का कप्तान दुश्मन से बदला लेने को निकला। उसने भी गुप्त स्थान से तीन शक्तिशाली राकेट निकलवाये और उनके द्वारा तीन महाभयंकर बम दुश्मन की राजधानी और दो अन्य प्रधान नगरों का लक्ष्य करके छोड़ दिये। पन्द्रह मिनट से भी कम समय में वे तीनों विशाल नगर अग्नि कुण्ड के रूप में दिखाई पड़ने लगे और उनमें बने बड़े-बड़े कारखाने, महल, होटल और अन्य इमारतें राख होकर आसमान में उड़ गई।
इस प्रकार अणु युद्ध का श्रीगणेश हो गया और उसके आरम्भ करने में जो प्रारम्भिक भय या संकोच था वह जाता रहा। बस फिर हर एक राष्ट्र अपने प्रतिद्वन्दी पर अणु-अस्त्रों का प्रहार करने लगा और दस-बीस दिन के भीतर ही लंदन, न्यूयार्क, वाशिंगटन, मास्को, बर्लिन, रोम, टोकियो, देहली, कलकत्ता, कराची, लाहौर, कुस्तुनतुनियाँ, जरुशलम, काहिरा आदि संसार की सब राजधानियाँ जल रही थीं। अणु शक्ति के फल से संसार के दो सौ प्रधान नगर ज्वालामुखी भड़कने का सा दृश्य दिखला रहे थे।
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मानव जाति और सभ्यता का ऐसा नाश देख कर लोगों को होश आने लगा। अब तक फौजों और जहाजों की लड़ाई तो नाम मात्र को हुई थी। अकेले अणु बमों से ही करोड़ों मनुष्य मर चुके थे और बाद में भी वातावरण में बिखरी हुई उनकी जहरीली राख के द्वारा मर रह थे। ये बम जहाँ कहीं पड़े थे वहाँ की पृथ्वी चलने-फिरने लायक भी नहीं रही थी। बहुत बड़े-बड़े गड्ढों के सिवाय वहाँ रेडियो एक्टिव किरणें इतनी तीव्रता से निकलती थी कि उनके संसर्ग में आकर कोई मनुष्य जीवित बच नहीं सकता था। इस प्रकार संसार भर में जगह-जगह ऐसे मृत्यु-क्षेत्र बन जाने से स्थल द्वारा याद कर सकना तो असम्भव ही हो गया था। जल में हाइड्रोजन बमों का बढ़ा घातक प्रभाव पड़ा था और असंख्यों मछलियाँ तथा जल जन्तु मर कर तैरते रहते थे। समुद्र में यात्रा करने पर भी मनुष्य पर इस घातक शक्ति का प्रभाव पड़ता था। ऐसी अवस्था में केवल हवाई जहाज ही आने-जाने के साधन थे, पर उनमें भी वे ही लोग यात्रा कर सकते थे जो अब खास तरह के यंत्रों और कपड़ों द्वारा अपने को वायुमण्डल में फैली हुई अणु बमों के राख से बचने का उपाय कर सकते थे।
इस प्रकार वास्तविक युद्ध तो एक-दो महीने ही खत्म हो गया, क्योंकि सब देशों की सैनिक और राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी। और शासनकर्ता या बड़े पदाधिकारी बचे भी थे तो जमीन के बहुत अन्दर बने हुए गुप्त स्थानों में रहकर अपनी रक्षा करते थे। डाक, तार आदि की व्यवस्था पूर्णतया नष्ट हो गयी थी केवल बेतार के यंत्र और रेडियो कुछ काम देते थे, और उन्हीं के द्वारा शासनकर्ता परस्पर में थोड़ा बहुत एक दूसरे समाचार पा सकते थे और जनता को कुछ सूचना भेज सकते थे। खाने-पीने का सब सामान और वस्त्र आदि अणु बमों के जहरीले असर से इतने खराब हो गये कि इन बड़े लोगों को भी जीवन निर्वाह में कठिनाई होती थी। उन्होंने सुरक्षित भूगर्भ स्थित गृहों में जो सामान रख दिया था या काम दे रहा था, पर उसमें भी सब तरह की सामान नहीं मिल सकता था। साधारण जनता तो, जो कुछ मिल सकता था उसी से काम चलाती थी और फलस्वरूप अनगिनत आदमी बिना किसी प्रकार के युद्ध के ही मरते रहते थे।
पर अब रक्षा का उपाय क्या था? संसार में शाँति प्रेमी इसकी चेष्टा बहुत समय से कर रहे थे, पर भिन्न-भिन्न देशों के शासकों के दुराग्रह और अहंकार के कारण उनको सफलता नहीं मिलती थी। अब सब शासक अपनी हीनता समझ गये। तब उनका ध्यान इन शान्ति-प्रचारकों की बातों की तरफ गया और बहुत कुछ प्रयत्न करने के बाद तिब्बत में एक ‘विश्व-शाँति-परिषद’ का आयोजन किया गया। इस समय बहुत से देशों के शासक तो पूर्णतया नष्ट हो गये थे और वहाँ जो कुछ व्यवस्था शेष थी वह वायुयान अधिकारियों के हाथ में थी। इसलिये इस कान्फ्रैन्स में विभिन्न राष्ट्रों के प्रेसीडेन्टों और प्रधानमन्त्रियों के बजाय वायुयान-विभागों के संचालक और इंजीनियरिंग विभागों के अध्यक्ष आदि ही शामिल हुये। ये लोग संसार की स्थिति से भी प्रकार परिचित थे और उन्होंने समझ लिया था कि अगर मानव सभ्यता का अस्तित्व कायम रखना है तो संसार में से विभिन्न शासनों का अन्त करना आवश्यकीय है। किसी भी देश को अलग सेना रखने की आवश्यकता नहीं और न आवागमन, लेन−देन, व्यापार में किसी तरह की रोक लगाना उचित है। प्रत्येक देश वाले अपना भीतरी प्रबन्ध स्वयं करते रहें, पर विदेशी और सैनिक मामलों में संसार भर की व्यवस्था एक ही केन्द्र से होनी चाहिए।
इस प्रकार एक संसार-व्यापी जनसभा का निर्माण आरम्भ हुआ। अब संसार की जनसंख्या चौथाई से भी कम रह गयी थी और लोगों को नित्य प्रति संसार की राजनैतिक हलचलों से परिचित कराने का कोई साधन न था। तो भी नवीन शासन ने प्रत्येक समझदार और कार्यक्षम व्यक्ति को मत देने का अधिकार दिया और सबके साथ समानता तथा न्याय का व्यवहार किये जाने का वचन दिया गया। गोरी, काली और पीली जातियों की कलह का अन्त हो गया। इसी प्रकार ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, बौद्ध, यहूदी आदि मजहबों का निरर्थक भेदभाव भी समाप्त हो गया। एक दूसरे को हानि पहुँचाने के बजाय एक दूसरे की सेवा और परोपकार को ही सबसे बड़ा धर्म माना गया और इसके अनुसार चलने से कुछ समय बाद पृथ्वी पर सच्ची शाँति और प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो गया।