Magazine - Year 1957 - Version 2
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दैवज्ञ की दृष्टि में संसार-चक्र
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(पं. हरदेव शर्मा त्रिवेदी-ज्योतिषाचार्य)
ज्यों-ज्यों संसार आध्यात्मिक शक्तियों की अवहेलना करते हुए भौतिक साधनों की ओर आगे बढ़कर उन्हें अपनाने की प्राणपण से चेष्टा करता जाता है, त्यों-त्यों प्रकृति भी इससे असहयोग करती जा रही है। प्राचीन समय में प्राकृतिक यज्ञों के प्रभाव से सर्वत्र शस्य श्यामलता रहती थी गहरे हरे वन थे, सर्वत्र शाँति का साम्राज्य था, हव्य-कव्य से दिशाएं धूसरित रहती थीं। तब उचित अवसर पर वर्षा होती थी और धन-धान्य की वृद्धि से लोग सन्तुष्ट रहते थे। मध्य-काल से ज्यों-ज्यों इस आश्रम परक अरण्य-संस्कृति का एवं यज्ञों का ह्रास होने लगा त्यों-त्यों धनधान्य की शून्यता होने लगी। तब से हमने कहीं अधिक भौतिक प्रगति कर ली है, तो भी देश में जीवनोपयोगी पदार्थों का अभाव होता जाता है। हम भौतिक साधनों को जुटाने में इतने तल्लीन हो गये हैं कि दूसरी बात कुछ सोच ही नहीं सकते। दूसरी ओर प्रकृति हमसे असहयोग कर बैठी है। अकालवृष्टि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध, रोग, महामारी से जनता का संहार क्यों हो रहा है? इस का ठीक-ठीक उत्तर, अथवा संसार के इस राजरोग का निदान जानने के लिए हमको भारत के तत्वदर्शी महर्षियों के उपदेशों पर ध्यान देना चाहिए। इन सब का मूल कारण भगवान आत्रेय ने ‘चरक संहिता’ के ‘जनपदो ध्वंसीय विमान’ शीर्षक विभाग में अधर्म बतलाया है। उन्होंने लिखा है कि ऐसे रोगों और उत्पातों का मूल कारण चार वस्तुएँ है- वायु, जल, देश और काल। ये जब बिगड़ खड़े होते हैं तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगते हैं। ये क्यों बिगड़ उठते हैं इसके सम्बन्ध में भगवान आत्रेय अपने शिष्य अग्निवेश से कहते हैं-
‘हे अग्निवेश, ऊपर बताये हुए वायु आदि में जो विकार उत्पन्न होते हैं, गड़बड़ मचती है उसका मूल कारण अधर्म है और उस अधर्म का कारण अपने पहले किये हुए कर्म हैं। इन दोनों का मूल कारण है प्रज्ञापराध अर्थात् बुद्धि का बिगड़ जाना।’ साराँश यह कि जब कुशिक्षा से बुद्धि बिगड़ जाती है तब मनुष्य अधर्म पर उतर पड़ते हैं और अधर्म बढ़ने से ये उत्पात होते हैं। इसका विशेष विवरण यह है कि जनता अधिकाँश में प्रधान पुरुषों का अनुसरण करती है, अतः ऐसे लोग जो देश, नगर, हाट-बाजार और देहात के प्रधान होते हैं, जब धर्म का उल्लंघन करके प्रजा को अधर्म में प्रवृत्त करने लगते हैं, तब उनके सहारे चलने वाले सभी छोटे-बड़े कर्मचारी, इतना ही नहीं शहरी और देहाती लोग और व्यापार धन्धे वाले सभी उस अधर्म को बढ़ाने लगते हैं। तब वह अधर्म इतना बढ़ जाता है कि बलात् धर्म को दबा देता है। जब धर्म लुप्त हो जाता है तो उन लोगों को देवता भी छोड़ देते हैं। इस प्रकार जिनका धर्म लुप्त हो जाता है, जिनमें अधर्म प्रधान हो जाता है, और देवता जिनकी सहायता नहीं करते, उनके यहाँ ऋतुएं बिगड़ उठती हैं। परिणाम यह होता है कि वर्षा समयानुसार नहीं होती, वायु अच्छी तरह नहीं चलती, पानी सूख जाता है और औषधियाँ अपना स्वभाव छोड़कर विकारी हो जाती हैं। तब एक दूसरे के संसर्ग से, खान-पान के दोष से देश उजड़ते हैं,” इतना ही नहीं वे आगे कहते हैं।
“शस्त्रों के द्वारा देश उजड़ने (युद्ध -महायुद्ध) का कारण भी अधर्म ही है। जिन लोगों में रोष, मोह और अभिमान बहुत बढ़ जाते हैं, वे दुर्बलों का अपमान करके अपने पराये सबको मारने को शस्त्र चलाते हैं, दूसरों पर चढ़ाई करते हैं। तब वे राक्षसों आदि द्वारा या किसी अन्य प्रकार से नष्ट हो जाते हैं। इसलिये यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि “प्रागपि चाधर्माट्टते नाशुभोत्पत्तिरमूत” और पुराने समय में भी बिना अधर्म के कभी अशुभ उत्पत्ति नहीं हुई।”
इसके बाद महर्षि ने बुद्धि के बिगड़ने के कारण बतला इस परिस्थिति के सुधारने का उपाय भी बतलाया है, क्योंकि एक चिकित्सक की हैसियत उन सभी प्रकार के रोगों का इलाज बतलाना आवश्यक था। महर्षि चरक ने राष्ट्र के उद्धार के ये उपाय बतलाये हैं-
सत्यं, भूतेदया, दानं, बलयो, देवतार्चनम्।
सद्वृत्तरयानुवृत्तिश्च प्रशमो गुप्तिरात्मनः॥
हितं जनपदानाँच शिवानामुपसेवनम्।
सेवनं ब्रह्मचर्यस्य तथैव ब्रह्मचारिणाम्॥
संकथा धर्मशास्त्राणाँ महर्पोणाँ जितात्मनाम्।
धार्मिकैः सात्विकैर्नित्यं सहास्या वृद्धसंमतैः॥
इत्येतद् भेषजं प्रोक्तमायुषः परिपालनम्।
येषामनियते मृत्युस्तस्मिन् काले सुदारुणे॥
अर्थात्- (1) सत्य, (2) प्राणियों पर दया, (3) दान, (4) देवताओं के लिए भेंट और उनका पूजन, (5) सदाचार की प्रवृत्ति, (6) शाँति, (7) आत्म रक्षा, (8) देशवासियों का भला, (9) उत्तम आचरण विचार तथा पदार्थों का सेवन, (10) ब्रह्मचर्य एवं ब्रह्मचारियों का सेवन, (11) धर्मशास्त्रों तथा मन को विजय करने वाले महर्षियों की कथा, (12) वृद्धों को सम्मानित सात्विक धर्मात्माओं के साथ सदा के साथ सदा बैठना-उठना ये सब बातें ऐसे दारुण समय में (जीवन) की रक्षा करने वाली होती है।
यह सत्य है कि उपरोक्त नियम सात्विक प्रवृत्ति के लोगों के ही अनुकूल हैं। प्रातःकाल के समय बुद्धि वाले तो अधर्म को धर्म मानते हैं और हानिकारक कार्यों से अपना हित समझते हैं। आजकल सर्वत्र प्राकृतिक यज्ञों का संहार हो रहा है। अधिकाँश वन जंगल नष्ट हो चुके हैं। पशु-पक्षियों का भी संहार हो रहा है। युद्ध रोगादि द्वारा जन संहार के छोटे-छोटे दौर तो आरम्भ हो गये हैं। संसार अनार्यता की मोह मदिरा में उन्मत्त होकर राजरोग ग्रस्त हो चला है। उन्माद, श्वाँस आदि के रोगियों को जैसे पहले छोटे-छोटे दौर आते हैं, कभी महीने, दो महीने, कभी 6 महीने व वर्ष बाद भी आते हैं, पर रोग-वृद्धि की दशा में पहले दौर से आगे के दौर अधिक भयानक होते हैं। इसी प्रकार विश्व विनाशक तृतीय महायुद्ध के छोटे दौरे कोरिया और मिश्र में आ चुके हैं। अब आगे का दौर इससे भी भयानक होगा इसमें संदेह नहीं। यदि इस राजरोग को भारतीय चिकित्सा पद्धति से उचित चिकित्सा करके न रोका गया तो विश्व विनाश के मुख में जाने को प्रस्तुत है ही। रूस और अमरीका के पास संसार के राजरोग की औषधि नहीं है। वह केवल भारत के पास है और वह यह है पंचशील का पालन और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की उदार भावना से प्राकृतिक यज्ञों का प्रचलन।
आत्म साक्षात्कारी महापुरुषों के अनुभूतिपूर्ण ओजस्वी शब्दों में यज्ञ ही एक ऐसा उपाय है जिससे संसार की रक्षा हो सकती है। छोटा यज्ञ छोटी रक्षा और बड़ा यज्ञ बड़ी रक्षा करने में समर्थ होगा। व्यक्तिगत हित का यज्ञ छोटा और समष्टि के हित का यज्ञ बड़ा माना जाता है। समष्टि का सुधार प्राकृतिक यज्ञ से ही सम्भव है। साधारणतः व्यावहारिक अग्नि में लकड़ी, घी आदि पदार्थों को कुछ अक्षरात्मक मंत्र पढ़ आहुति देना यज्ञ समझा जाता है। पर एक यज्ञ और भी है। ज्ञानवान पुरुष जिस वस्तु को जिस स्थान पर हितकर समझते हैं उस वस्तु को वही पहुँचाना यज्ञ है। अन्न और वस्त्र यह प्रत्येक मनुष्य को अत्यधिक आवश्यक माना जाता है। उस अन्न और वस्त्र की सारे मनुष्य समाज के लिए उचित व्यवस्था एक महान प्राकृतिक यज्ञ है। जिस पदार्थ के बिना कोई जो पदार्थ जीवित न रह सके उस पदार्थ को उसके पास पहुँचाना ही यज्ञ है। हम भौतिकवादी युग में संसार के बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों को और बड़े व्यक्ति छोटे निर्बल प्राणियों को खा जाने की फिक्र में रहते हैं, यही इस संसार को अशाँति का मुख्य कारण है। इस अवस्था में आदर्श भारतीय आर्य-साम्यवाद और प्राकृतिक यज्ञों के द्वारा ही विश्व शाँति सम्भव है।
पर इस बात की आशा कम ही दिखाई पड़ती है कि बड़े राष्ट्र और बड़े व्यक्ति स्वार्थ भावना को त्याग कर शीघ्र ही न्याय-भावना को स्थान देंगे। इसके परिणामस्वरूप संसार के सभी देशों के निवासियों को कम या अधिक परिमाण में संकट सहन करने पड़ेंगे। ग्रहों के प्रभाव के अनुसार इसी वर्ष (2014 वि.) पौष से फाल्गुन तक वृश्चिक राशि में शनि-मंगल का योग रहेगा। इस अवधि में अनेक अवाँछनीय और अकल्पित घटनायें घटेंगी। कहीं सशस्त्र क्रान्ति और रक्षा-पंक्ति पर सैनिक आक्रमण होगा। अधिभौतिक और आधिदैविक उत्पात भी अधिक होंगे। चोर डाकुओं के उपद्रव और हत्याकाण्ड होंगे। पश्चिमी एशिया में तीसरे महायुद्ध की ज्वाला भड़कती दिखायी देगी। पर यहाँ पंच-ग्रही पर बृहस्पति की मित्र दृष्टि है तथा अन्य ग्रह भी ऐसे हैं कि शान्तिप्रिय उदार राष्ट्रों के सहयोग तथा भारत के अथक प्रयत्न से विश्व विनाश के मुख में जाने से बच जायगा। तृतीय विश्व युद्ध का भयानक योग सं. 2018 (सन् 1962) में आने वाला है। उस समय माघ कृष्ण अमावस्या रविवार को मकर राशि में आठ ग्रह एकत्र होने से विनाशकारी कालकूट योग बनेगा। यही समय सबसे अधिक चिंताकारक होगा, जिसके सम्बन्ध में विस्तृत रूप से फिर कभी आगे चलकर विवेचना की जायेगी।