Magazine - Year 1957 - Version 2
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पूँजीवाद और साम्यवाद का भयंकर संघर्ष
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(श्री एस॰ केशवन)
दूसरे महासमर में धन और जन का नाश देख कर जनता के छक्के छूट गये। बड़े-बड़े देशों का सर्वनाश हो गया और कई करोड़ कार्यक्षम और शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुये। जितनी सामग्री और सम्पत्ति युद्ध में खर्च और नष्ट हुई उसका तो हिसाब लगाना ही कठिन है। इसलिये लोगों ने स्वभावतः यह विचार किया कि इससे राजनीतिज्ञों की आँखें खुल जायेंगी और अब संसार में से लड़ाई का अन्त हो जायगा। दूसरा कारण यह भी था कि इस बार दूसरे पक्ष के देश जर्मनी, जापान, इटली आदि इस प्रकार सर्वस्व दाँव पर लगाकर लड़े थे कि उनकी कमर पूरी तरह से टूट गई थी और सैकड़ों वर्ष तक उनके खड़े हो सकने की आशा न थी।
पर लड़ाई को समाप्त हुये एक वर्ष भी न हुआ था कि तीसरे महायुद्ध की बातें सुनाई देने लगीं। महायुद्ध में जर्मनी आदि के विरोध में लड़ने वाले मुख्य देश चार थे। अमरीका, रूस, इंग्लैंड और फ्राँस। इनमें से फ्राँस को तो जर्मनी ने पूर्णतया हरा कर कई वर्ष तक अपने अधिकार में रखा था, जिससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा बहुत कम हो गई। इंग्लैंड की रक्षा भी स्पष्टतया अमरीका की सहायता से ही सम्भव हो सकी। इसलिए उसे भी अमरीका का आश्रित बन जाना पड़ा। पर रूस की स्थिति तथा नीति सदैव स्वतंत्र रही। वैसे तो अमरीका, इंग्लैंड आदि पूँजीवादी होने के कारण रूस के साम्यवादी शासन के सदा से विरोधी थे, पर इस द्वितीय महायुद्ध के संकटपूर्ण समय में स्वार्थवश उससे मिल गये थे। उनका यह भी ख्याल था कि जर्मनी की प्रबल सैनिक शक्ति रूस का विध्वंस कर देगी और इस प्रकार वे एक ही चाल से अपने दो शत्रुओं का काम तमाम कर सकेंगे। इसमें संदेह नहीं कि जर्मनी का रूस पर आक्रमण बड़ा प्रबल था और उसके फल से उसके बड़े प्रदेश का नाश हो गया, पर रूस की महान शक्ति पर इस सामयिक आक्रमण का प्रभाव अस्थायी ही सिद्ध हुआ और युद्ध के समाप्त होते ही उसने अपनी स्थिति को फिर सुदृढ़ बना लिया। इस प्रकार एक मात्र रूस ही अमरीका का प्रतिद्वन्दी रहा और उसी का मुकाबला करने तथा दबाने के लिए अमरीका की नवीन युद्ध योजना आरम्भ हुई।
अमरीका में युद्ध की तैयारी होने का दूसरा मुख्य कारण यह है कि वह सबसे बड़ा पूँजीवादी देश है और वहाँ का शासन वास्तव में पूँजीपतियों द्वारा चलाया जाता है। वैसे अमरीका की आबादी 16-17 करोड़ है, पर जहाँ की असली शक्ति आठ व्यापारिक संगठनों के हाथ में है। इनमें 5 संगठन तो भिन्न-भिन्न देशों के हैं और तीन विशिष्ट नगरों के स्थानीय संगठन हैं। इनकी सम्पत्ति का अनुमान एक सरकारी रिपोर्ट में निम्नलिखित लगाया गया था।
मौरगन...........................30 अरब डालर
कुहन लौव ......................11 अरब डालर
राकफेलर .......................6 अरब डालर
शिकागो ग्रुप ....................4 अरब डालर
मैलन ..............................3 अरब डालर
ड्यू पौंट ..........................2 अरब डालर
क्वीलैण्ड ग्रुप....................1 अरब डालर
बोस्टन ग्रुप ....................... 1 अरब डालर
ये ही आठ व्यापारिक संगठन अमरीका के सर्व शक्तिशाली व्यवसाय-संघ ‘नेशनल एसोसिएशन ऑफ मैन्युफैक्चरर्स’ (एन.ए.एम.) पर नियन्त्रण रखते हैं। ये ही महाविशाल आर्थिक संगठन अमरीका के असली शासक हैं। वहाँ की दोनों प्रमुख राजनैतिक पार्टियों- रिपब्लिकन और डेमोक्रेट नेता इन्हीं व्यापारिक संघों के चुने हुए लोग ही हैं। शासन-सभा में इन्हीं व्यापारियों के एजेन्ट अपने मालिकों की इच्छानुकूल कार्यवाही किया करते हैं। अगर कोई मामला अन्य प्रतिनिधियों का जोर बढ़ जाने से उनकी इच्छा के विपरीत पास हो जाता है तो उसमें तरह-तरह के अड़ंगा उपस्थित करते हैं और बाद में अपने अनुकूल रूप में बदलवा लेते हैं। अपने यहाँ एक मजदूर विरोधी कानून पास हुआ है जिस पर बारह वर्ष तक विवाद चलता रहा और अन्त में ‘एन.ए.एम.’ ने अपने सब विरोधियों को हराकर पास कराके छोड़ा।
सरकारी कार्यालयों और कमेटियों में पूँजीपतियों के आदमी भरे रहते हैं और जिनमें से कितने ही तो पूँजीपतियों के ही सम्बन्धी अथवा हिस्सेदार होते हैं। पूर्ववर्ती सरकार के कॉमर्स-सेक्रेटरी ए. डब्लू. हरीमैन न्यूयार्क की एक बहुत बड़ी बैंक के हिस्सेदार थे। योरोप को सहायता देने वाली मार्शल प्लैन की कमेटी के प्रथम सहायक अधिकारी राबर्ट लोबेट भी उपर्युक्त बैंक के ही आदमी थे। इसी प्रकार अन्य अनेकों बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साझीदार ऊँचे सरकारी पदों और कमेटियों के अधिकारी बना दिये जाते हैं। और तो क्या युद्ध कालीन प्रेसीडेन्ट ट्रुमन स्वयं ‘मिडवेस्ट’ नामकी बड़ी बैंक के हिस्सेदार थे।
इस प्रकार अमरीका के अरबपति ही वह असली शासक हैं और द्वितीय महायुद्ध के अवतरण पर इन्होंने मनमाना नफा कमाया। व्यापारिक मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका के व्यवसाइयों ने सन् 1940 से 1954 तक पाँच वर्षों में 52 बिलियन डालर (बिलियन= 10 खरब) का लाभ कमाया था। पर यह नफा सब व्यवसाइयों को समान नहीं मिल सका। जो सबसे बड़ी कॉरपोरेशन थी उनको बड़ा हिस्सा मिल गया और छोटी कार्पोरेशनों को साधारण हिस्सा मिला। महायुद्ध का नतीजा यह भी हुआ कि ये कॉरपोरेशन और भी महाकाय और शक्तिशाली हो गये। इसका पता इससे लगता है कि महायुद्ध से पहले 10 हजार या इससे अधिक मजदूरों को नौकर रखने वाले कारखानों की संख्या 49 थी, पर महायुद्ध के अन्त में यह संख्या 344 तक पहुँच गई। पर इसका नतीजा यह भी हुआ कि बीस लाख छोटे-छोटे कारखानों का सफाया हो गया।
पर युद्ध का अन्त हो जाने पर इनके सामने वही कठिनाई आई। युद्ध के फल से इनके साधन तथा कारखानों का आकार तो बहुत बढ़ गया, पर उन कारखानों का बना माल कहाँ बेचा जाय यह समस्या इनके सामने उपस्थित हुई। युद्ध के बाद सभी देश अपने-अपने कारखानों को सँभालने और उनकी वृद्धि करने में लगे, इसलिये विदेशों का बाजार घटने लगा। साथ ही अमरीका के मजदूरों का वेतन भी घटाया जाने लगा जिसके फल से उनकी क्रय-शक्ति भी कम हो गई। पहले जमाने में एशिया के बड़े अच्छे व्यापारिक क्षेत्र थे, पर महायुद्ध के बाद यहाँ भी सर्वत्र राष्ट्रीय जागृति होने लगी और ये देश यथा संभव स्वावलम्बी बनने की चेष्टा करने लगे। इस प्रकार एक ओर तो कारखानों की पैदावार ड्यौढ़ी-दुगुनी बढ़ने लगी और दूसरी ओर आमदनी की कमी से लोगों का खरीदना कम होने लगा। इससे पूँजीपतियों के गोदामों में तैयार माल का ढेर जमा होने लगा अथवा उनको जबर्दस्ती अपने कारखाने कुछ समय के लिए बन्द करने पड़े। दोनों ही दशाओं में उनको हानि होने लगी।
इस अवस्था के सुधार के लिए अमरीका के प्रमुख राजनीतिज्ञों और व्यवसाय पतियों ने मार्शल प्लैन बनाया जिसके अनुसार योरोपियन देशों को लगभग 70 अरब रु. की सहायता देने का निश्चय किया गया। पर यह सहायता विशेषतर सामग्री के रूप में देनी निश्चय की गई, और वह भी ऐसी सामग्री, जिसके देने से अमरीकन कारखानों का लाभ हो और वह चलते रह सकें। उदाहरण के लिए योरोपियन देश खास तौर से मशीनों की माँग करते थे, जिससे युद्ध-काल में नष्ट होने वाले कारखानों को फिर से काम लायक बना सकें। पर अमरीका ने मशीनें तो नाम मात्र को भेजीं, ज्यादातर सामग्री यहीं भेजी जो अमरीका के कारखानों में बची पड़ी थी- जैसे तम्बाकू, फलों का रस, अंडों का सूखा चूर्ण आदि। पेरिस कांफ्रेंस ने 40 करोड़ डालर का स्टील माँगा, पर उसे घटाकर आधा कर दिया गया। इसी प्रकार योरोप के कारखानों के लिए जो कच्चा लोहा और टूटा-फूटा लोहा माँगा गया वह भी घटाकर एक तिहाई कर दिया गया। इसके बदले में अमरीका के कारखानों का बना लोहे का सामान तीन गुना अधिक भेजा गया, इससे स्पष्ट प्रकट हो गया कि अमरीका वाले चाहते हैं कि योरोप के लोहे के कारखाने न चल सकें और उनके स्थान में अमरीकन कारखानों को काम मिलता रहे। इतना ही नहीं इन लोगों ने यह योजना की योरोप को जो माल सहायतार्थ दिया जाय और जिसकी कीमत वह अदा न कर सकें उसके बदले में योरोप के कारखानों को ही खरीद कर उन पर अमरीका के पूँजीपतियों का आधिपत्य कायम कर दिया जाय।
मार्शल प्लैन और एशिया को दी जाने वाली सहायता का दूसरा उद्देश्य साम्यवाद के प्रचार को रोकना और पुरानी साम्राज्यवादी शासनों की यथा शक्ति रक्षा करना है। अमरीका का सबसे बड़ा विरोधी रूस है और संसार में एक नवीन प्रकार की सामाजिक और शासन व्यवस्था का श्रीगणेश कर रहा है। वहीं वहाँ के पूँजीपतियों के मार्ग में एक मात्र सबसे बड़ी बाधा है। इसलिये मार्शल प्लैन और दूसरी योजनाओं का प्रकट उद्देश्य तो जनता और व्यवसाय की दशा को सुधारने का बताया जाता है, पर उनका भीतरी उद्देश्य रूस और उसके साथी देशों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करना और समस्त सहायता पाने वाले देशों को अपना अड्डा बना लेना है। यही कारण है कि अमरीका योरोपियन देशों में सबसे अधिक सहायता पश्चिमी जर्मनी को देता है जो रूस का मुकाबला करने के लिये सबसे प्रमुख स्थान है। इसी प्रकार एशिया में उसकी तरफ से सबसे अधिक सहायता चीन के राष्ट्रवादी दल अर्थात् चियाँग काईशेक को दी जाती है, जिसके द्वारा चीन को दबाया जा सकता है। इसी उद्देश्य से हमारे पड़ोस में पाकिस्तान को भी कई अरब रुपये की सहायता दी जा चुकी है।
अमरीका और उसके साथियों की यही स्वार्थ पूर्ण योजना कि अमरीका के पूँजीपतियों का आधिपत्य कायम हो जाय और कोई ऐसा राष्ट्र शेष न रहे जो उनके मार्ग में बाधक सिद्ध हो, युद्ध का सबसे बड़ा कारण है। खासकर जबसे अणु शक्ति का पता लगा है और अमरीका ने एटब बमों द्वारा जापान जैसे प्रबल देश को एक सप्ताह के भीतर पराजय स्वीकार करने को विवश कर दिया, तबसे इन लोगों के हौसले बहुत बढ़ गये हैं। ये लोग सन् 1947 और 48 से ही इस बात का इरादा कर रहे हैं कि किसी प्रकार रूस से युद्ध छेड़कर उसे सदा के लिए नष्ट भ्रष्ट कर दिया जाय। इस सम्बन्ध में इंग्लैंड के प्रधान मन्त्री और युद्ध-प्रचारक चर्चिल साहब ने सन् 1948 में कहा था-
“हमको इसी समय पूरी शक्ति से काम लेकर मामले को सदा के लिए तय कर देना चाहिए। पश्चिमी देश अगर इसी समय अपनी न्याययुक्त माँगें पेश करें तो सब तरह के झगड़ों का स्थायी फैसला शीघ्र ही हो सकता है, क्योंकि इस समय हम लोगों के पास एटम बम हैं और रूस अभी उनको नहीं बना सका है।”
क्या इसका स्पष्ट अर्थ यह नहीं है कि समस्त साम्राज्यवादी शक्तियाँ सम्मिलित रूप से अपनी माँगें रूस के सामने रखकर, उसे बंधनों से जकड़ दें और वह इनकार करे तो उस पर एटम बमों से आक्रमण कर दिया जाय।”
इससे अधिक बेशर्मी की बात विलियम वुलिट ने कही। यह पहले रूस में अमरीका के राजदूत की हैसियत से काफी समय तक रह चुका था और वहाँ की परिस्थिति को भली प्रकार जानता था। उसने सन् 1946 में ही जब कि रूस, पश्चिमी देशों का युद्ध में सहयोगी माना जाता था, एक पुस्तक ‘दी ग्रेट ग्लोब इटसेल्फ’ लिखी और उसमें स्पष्ट शब्दों में कहा-
“अब केवल एक ही देश ऐसा है कि जिसकी तरफ से हमें भय है कि वह किसी दिन हमारे खिलाफ एटम बम का प्रयोग कर सकेगा- और वह रूस है। इस समय तो एटम बम केवल हमारे ही पास है, पर अफसोस, हम उसका प्रयोग करना नहीं जानते।”
ये तो ऊँची श्रेणी के राजनीतिज्ञ हुये। वैसे अमरीकन पूँजीपतियों के पास रुपये के जोर से सैकड़ों किराये के टट्टू लेखक रहते हैं। जो सदा ही उनका राग गाया करते हैं। ये लोग भी सन् 48 और 49 से ही रूस का भय दिखाकर प्रचार कर रहे हैं। इनमें से एक ऐली कलवर्टसन ने 1947 में लिखा था-
“इस समय संसार के राष्ट्रों में शक्ति की राजनीति का ही नियम काम कर रहा है। दस साल के बाद रूस उद्योग धंधों की दृष्टि से अमरीका के मुकाबले में आ जायगा और फिर उससे भी आगे निकल जायगा। हम लोग अधिक से अधिक तीन वर्ष तक एटम बम के रहस्य के स्वामी रह सकते हैं, बाद में अन्य देश भी उसे जान जायेंगे। इसलिए जब कि केवल एक ही देश के हाथ में सबसे अधिक सैनिक और नैतिक शक्ति भी आ गई हो तो अंतर्राष्ट्रीय समस्यायें बहुत ही सरलता से हल की जा सकती हैं।” अर्थात् संसार पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिये एटम शक्ति का प्रयोग करो।
कलवर्टसन अभी नया रंगरूट है और उसने अमरीकन पूँजीपति-पक्ष की बात भद्दे ढंग से कही है, जिस पर कोई भी बाहरी आदमी आक्षेप कर सकता है। पर वहाँ के चतुर पत्रकार भी दूसरे शब्दों में यही बात कहते हैं। प्रसिद्ध अमरीकन पत्रकार ने सन 1947 के आरंभ में ही पत्र में लिखा था-
अणु-अस्त्रों में जो महा विशाल शक्ति निहित है उससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हम संसार भर में एक ही शासन तथा एक ही कानून की स्थापना कर सकते हैं।”
इन युद्ध-प्रचारकों की बातें निरर्थक नहीं गई। सन् 1947 से ही अमरीका अपना सैनिक व्यय बढ़ाने लगा। सन् 47 में यह रकम 21 बिलियन डालर थी जो संपूर्ण बजट का 54 प्रतिशत था। सन् 1949 में वह 66.3 प्रतिशत हो गया। उसी समय भाषण करते हुए प्रेसीडेंट ट्रु मन ने कहा था कि हम वास्तव में अपने बजट का 79 प्रतिशत भावी युद्ध को रोकने की चेष्टा में (अथवा नये युद्ध की तैयारी में?) खर्च कर रहे हैं। केवल 21 प्रतिशत ही अन्य सामाजिक और नागरिक उद्देश्यों की पूर्ति में खर्च किया जा रहा है।
अमरीका ने ये सब तैयारियाँ रूस पर आक्रमण करने के लिए की हैं, इस बात को अनेक अमरीका वक्ताओं ने खुले शब्दों में कहा है सन् 1948 में अमरीका की प्रभावशाली मासिक पत्रिका “यूनाइटेड स्टेट्स न्यूज एण्ड वर्ल्ड रिपोर्ट” ने लिखा-
“अमरीका रूस पर विशेषतः वायु द्वारा ही आक्रमण करेगा। भूमध्य सागर और मध्य-पूर्व का क्षेत्र इस दृष्टि से विशेष महत्व का है। इस आक्रमण में उत्तरी समुद्र का महत्व अधिक नहीं है। दक्षिणी इटली, सिसली और टर्की महत्वपूर्ण अड्डों का काम देंगे। केन्द्रीय रूस पर हमला करने में एटमबमों से ही काम लिया जायगा।”
इन साम्राज्यवादियों में रूस और उसके साथी देशों का इतना भय समाया हुआ है कि वे एटम बम से ही सन्तुष्ट नहीं है, वरन् कीटाणु -युद्ध की भी तैयारी करते रहते हैं। अमरीका की सबसे बड़ी दवा बनाने वाली कम्पनी के प्रेसीडेन्ट जार्ज डब्लू मर्क ने कहा था-
“कीटाणु, जीवाणु, विषैले पदार्थ आदि जीवित पदार्थों से तैयार किये जा सकते हैं और उनके द्वारा असंख्य लोगों का संहार किया जा सकता है। इस तरह के युद्ध की तैयारी दवा बनाने या कीटाणु विज्ञान की खोज करने के नाम पर भली प्रकार छिपाकर की जा सकती है।”
यद्यपि आजकल के समय में जब कि अणु-अस्त्रों का इतना अधिक विकास हो चुका है कि एक बम दस-बीस हजार वर्ग मील भूमि को ऐसा नष्ट-भ्रष्ट कर सकता है कि वहाँ मनुष्यों की तो बात क्या कीड़े-मकोड़े और घास पत्ते का भी चिन्ह नहीं रहता, तो घातक कीटाणुओं या जहरीली गैस आदि का प्रयोग निकम्मा जान पड़ता है। तो भी सैनिक तैयारियों का अर्थ यही समझा जाता है कि भविष्य में सामने आने वाली प्रत्येक परिस्थिति के लिये तैयार रहा जाय। यही कारण है कि बेतार के तार का पूर्ण प्रचार हो जाने पर भी सेना में पत्र ले जाने वाले कबूतर भी सिखाये जाते हैं। इसी दृष्टि से अणु-अस्त्रों के बन जाने पर भी अभी अन्य प्रकार के हथियारों का उपयोग सिखाया जाता है।
इस प्रकार अमरीका के पूँजीपति, जिनका सबसे बड़ा केन्द्र न्यूयार्क नगर की ‘वाल स्ट्रीट’ में है, संसार की शाँति के सबसे बड़े शत्रु सिद्ध हो रहे हैं। वे शाँति स्थापना की अथवा अणु-शक्ति के नियंत्रण की सब प्रकार की चेष्टाओं का गुप्त या प्रकट रूप से विरोध करते रहते हैं। उनको अपना हित इसी में जान पड़ता है कि संसार में बराबर युद्ध होते रहें और उनके फलस्वरूप उनको हथियारों, फौजी मोटरों, हवाई जहाजों और गोला बारूद के लम्बे-लम्बे आर्डर हमेशा मिलते रहें। जो शाँति सम्मत जनता के लिए जीवन -दायक है वही उनको मृत्यु के सदृश भयंकर जान पड़ती है, और उनकी आँतरिक अभिलाषा यही रहती है कि किसी प्रकार संसार में युद्ध की आग जलती रहे। इस दृष्टि से विचार करने पर यही कहना पड़ता है कि संसार में युद्ध की ज्वाला को भड़काने का उत्तरदायित्व अमरीका के पूँजीपतियों पर ही है जो वहाँ की शासन-संस्था पर भी पूरा अधिकार रखते हैं।