Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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परमार्थ-प्रेमियों का परिचय
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केवल अपने लाभ की बात सोचना और अपने से मतलब रखना यह ‘पशु प्रवृत्ति’ है। मनुष्य की विशेषता यह होती है कि वह अपने हित के साथ ही दूसरों की सुविधा और हित का भी ध्यान रखता है। जब मनुष्य में देवत्व विकसित होने लगता है तो वह अपने लाभ का बलिदान करके दूसरों के कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत्त होता है।
गृही और विरक्त, व्यापारी और भजनानन्दी दोनों ही प्रकार के लोगों में उपर्युक्त तीनों प्रकार की प्रकृतियाँ पाई जाती हैं। साधारण साँसारिक जीवन बिताने वाले तथा केवल जप-तप-उपासना में लगे- दोनों ही श्रेणी के व्यक्तियों में स्वार्थी और परमार्थी देखे जाते हैं। जिस प्रकार बहुत से स्वार्थी दुकानदार केवल दूसरों से मुनाफा उठाकर रुपया कमाना ही अपना लक्ष्य रखते हैं, उसी प्रकार भजनानन्दियों में भी अनेक ऐसे पाये जाते हैं जो केवल अपने लिये स्वर्ग मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा में तल्लीन रहते हैं। अनेक सन्त-महन्त तो ऐसे भी मौजूद हैं, जो दूसरों के दान पर सुख से रहते हैं पर किसी की सेवा या उपकार नाम मात्र को भी नहीं करते, केवल अपने ही लिए ‘पुण्य’ उपार्जन में लगे रहते हैं। ऐसे लोग देखने में भले ही साधु-संन्यासी लगें, कपड़े भले ही लाल-पीले पहन लें, पर वस्तुतः वे उस स्वार्थी दुकानदार से कम नहीं होते जो मुनाफा तो सबसे उठाता है, पर काम केवल अपने ही मतलब से रखता है। सच पूछा जाय तो भारतीय- समाज, विशेषतः हमारी हिन्दू- जाति के पतन का कारण यही है कि हमारे साधु-संत नामधारियों ने लोक-हित की ओर से मुँह मोड़कर केवल निजी स्वार्थ को ही अपना लक्ष्य बना लिया। हम स्पष्ट शब्दों में यह कह सकते हैं कि जो लोग गृहस्थ-आश्रम में रहते हुये साँसारिक जीवन बिताते हुये भी दूसरों की सेवा और उपकार का यथाशक्ति प्रयत्न करते रहते हैं वे इन कोरे साधु कहलाने वालों से कहीं अधिक ऊँची श्रेणी के भक्त और संत हैं।
गायत्री परिवार एक आध्यात्मिक संगठन है। इसकी शिक्षा यह है कि अपने लाभ से अधिक दूसरों के लाभ की बात सोची जाय, स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को अधिक महत्व दिया जाय। यह सच है कि अभी बहुत से व्यक्ति अपनी निजी कठिनाइयों को हल करने, अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक सुख−शांति की अभिवृद्धि के लिये उपासना कर रहे हैं। पर कितने ही उपासक ऐसे भी हैं अपने लाभ की अपेक्षा दूसरों को सुख शाँति के मार्ग पर अग्रसर करने के लिये गायत्री परिवार का कार्य में बड़े उत्साह से संलग्न हैं। वस्तुतः ब्रह्मदान और ज्ञान-यज्ञ संसार का सबसे बड़ा परमार्थ है। दूसरों को ज्ञान-दान देने में आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने में- जो परिश्रम किया जाता है, उससे अनेक आत्माओं को प्रकाश मिलता है। इस प्रकाश से उत्पन्न सुख−शांति, धर्म का श्रेय उस प्रेरणा देने वाले व्यक्ति को भी मिलता है। ऐसे व्यक्ति ही सच्चे पुण्यात्मा है।
धर्म-प्रचार एक महान परमार्थ है। वर्तमान समय की आवश्यकताओं को देखते हुए गायत्री प्रचार एक अत्यन्त उच्च कोटि का शुभ कार्य है। यह साधारण जप-तप से कहीं अधिक श्रेष्ठ सत्कर्म है। गायत्री परिवार में ऐसे अनेकों व्यक्ति निकलते हैं जो अपनी शक्ति इस प्रचार-कार्य में लगा रहे हैं। ऐसे लोग सच्चे अर्थों में संत-महात्मा हैं, चाहे वे घर में रहें या वन में, कपड़े सफेद पहने या लाल-पीले।
इस अंक में कुछ सज्जनों के फोटो छापे गये हैं यह सब इसी श्रेणी के सत्पुरुष हैं। क्रमशः नाम, पते, परिचय इस प्रकार हैं :-
1- श्री कन्हैयालाल जी मिश्र जोधपुर
2- श्री गोविन्दर राव सी. पंडित बड़वानी
3- श्री जगदीश नारायण मिश्र वैद्य अजीतगढ़
4- श्री रामकिशन शर्मा जुल्मी (कोटा)
5- श्री इन्द्रचन्द्र भोजक लाडनू
6- श्री रामकुमार त्रिपाठी पन्ना
7- श्री मनोहरलाल मंडाहर दिल्ली
8- श्री सुधाराम महाजन बिलासपुर
9- श्री बाबूराम जमीदार इन्दौर
10- श्री रामसाहय तिवारी झाँसी
11- श्री मानसिंह टाक जोधपुर
12- श्री यमुना प्रसाद पालीवाल वैद्य, सड़क अर्जुन
13- श्री नंदकिशोर उपाध्याय, खंडवा
14- श्री रामदास विष्णु पाटिल, सावदा
15- श्री भरतराम अवस्थी चौरसिया
16- श्री कैलास नारायण उपाध्याय, सुसनेर