Magazine - Year 1957 - Version 2
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तीसरा महासमर कब तक?
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(श्री बी.बी. रमन सम्पादक ‘एस्ट्रोलोजिकल मैगजीन’, बंगलौर)
अमरीका की वैदेशिक राजनीति के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बयान- जिसे ‘आइजन होबर सिद्धान्त’ भी कहा जाता है- ता. 5 जनवरी 1947 को अमरीका की शासन सभा के सम्मिलित अधिवेशन के सम्मुख दिया गया था। इसमें स्वेज नहर की घटना से उत्पन्न तनातनी को कम करने तथा मध्य पूर्व की कम्यूनिज्म के प्रभाव से रक्षा करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव किये गये थे और काँग्रेस से उन पर विचार करने का आग्रह किया गया था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रेसीडेन्ट की यह योजना राहु शनि योग के बाद ही घोषित की गयी थी, और इसी योग के फल स्वरूप स्वेज का संघर्ष उत्पन्न हुआ था। प्रेसीडेन्ट का उपरोक्त बयान रूस के लिए एक चेतावनी के रूप में था कि वह भ्रम में पड़कर कोई ‘गलती’ न करे। इतिहास अपने को दुहराता रहता है। जिसके परिणाम स्वरूप प्रमुख राष्ट्रों का उत्थान, वृद्धि, विकास होकर वे संसार में प्रमुख स्थान पा जाते हैं और इसके बाद अपने अहंकार और लालच के फलस्वरूप नष्ट-भ्रष्ट होकर सर्वनाश के गर्त में फेंक दिये जाते हैं। इस दृष्टि से अमरीका और रूस इस नियम के अपवाद नहीं माने जा सकते। इस प्रकार की घटनायें आकाश स्थित ग्रहों के योग और उनकी कुदृष्टि के फल से उत्पन्न होती है, और उनका प्रभाव जिस प्रकार व्यक्तियों पर पड़ता है उसी प्रकार राष्ट्रों पर भी पड़ता है। आजकल कुछ बड़े राज-पुरुष सदैव संसार की शाँति को स्थिर रखने की बात किया करते हैं और संघर्षग्रस्त जगत में राम-राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि बड़े-बड़े युगों में जो समय व्यतीत हुआ है उनमें पृथ्वी पर कभी दो-चार सौ वर्ष पीछे भी शाँति नहीं रही। यह सब घटनाएँ ग्रहों के प्रभाव से होती हैं, जिसको मिटा सकने में राजनीतिज्ञ समर्थ नहीं हो सकते।
अगर हम अमरीका के इतिहास पर ध्यान दें तो हमको ग्रहों की प्रबलता का प्रमाण प्रत्यक्ष रूप से मिल सकता है। सन् 1914 से आरम्भ होने वाले प्रथम योरोपियन महायुद्ध में अमरीका सम्मिलित नहीं हुआ, और 1917 तक उसे भरोसा रहा कि वह निष्पक्ष ही रह सकेगा, पर उसे विवश होकर युद्ध में भाग लेना पड़ा। फिर उसे आशा हुई कि युद्ध में विजय प्राप्त करके वह स्वार्थी और ‘प्रजातंत्र’ के अनुकूल शाँति की स्थापना कर सकेगा। इस उद्देश्य की पूर्ति में विजय तो प्राप्त हुई पर शाँति न हो सकी। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर अमरीका ने विश्वास किया कि अगर भविष्य में दूसरा युद्ध हुआ तो वह उससे अलग ही रहेगा। पर जब अवसर आया तो फिर उसका इरादा पूरा न हो सका। द्वितीय महासमर के दरम्यान उसने आशा की कि नाजी और फैसिस्ट दलों की पराजय हो जाने पर संसार में न्याय और स्थायी शाँति का युग आ सकेगा। इस बार भी विजय तो मिल गई पर शाँति के दर्शन न हो सके। दो महायुद्धों में सफलता प्राप्त करके भी विभिन्न राष्ट्र तीसरे महायुद्ध की सम्भावना पर विचार कर रहे हैं। इन राष्ट्रों की नीति का निर्धारण करने वालों ने यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि इस समय जो ‘शीतयुद्ध’ चल रहा है। वह धीरे-धीरे गर्म होकर अंत में उबलने लगेगा। इन बातों से प्रत्येक निष्पक्ष व्यक्ति को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ये राज-पुरुष नहीं जानते कि किस प्रकार युद्ध को रोका जा सकता है और युद्ध के पश्चात किस प्रकार शाँति की जा सकती है। वे संभवतः एक यही बात जानते हैं कि किस प्रकार कलह को जारी रखा जा सकता है। अगर ऐसा न होता तो क्या कारण है कि ये लोग एक स्थान पर बैठकर कठिनाईयों का हल नहीं निकाल सकते, विशेषतः जब कि वे जानते हैं कि अगर कलह जारी रहेगा तो उसका अवश्यम्भावी परिणाम यही होगा कि तीसरे महायुद्ध की ज्वाला भड़क उठेगी, जो पिछले युद्ध से कहीं अधिक नाशकारी और भयंकर होगी। विभिन्न राष्ट्र युद्धों के ऐसे चक्र में फँसे हैं कि उससे नवीन युद्धों की उत्पत्ति होती रहती है जो पूर्ववर्ती युद्ध की अपेक्षा अधिक बर्बरतापूर्ण होते हैं। ज्योतिष-शास्त्र के रहस्यों को जानने वाले भली प्रकार समझते हैं कि यह युद्धों का चक्र एक विशेष नियमानुसार चलता है,जिसका घनिष्ठ सम्बन्ध ग्रहों के प्रभाव से होता है।
पिछले पचास वर्षों में होने वाले ग्रहों के मुख्य-मुख्य योगों पर अगर हम ध्यान दें तो मालूम होता है कि उनके प्रभाव से बराबर शाँति में बाधा डालने वाली शक्तियों की उत्पत्ति होती रही है। अभाग्यवश राजनीतिज्ञों ने करोड़ों व्यक्तियों के जीवन और स्वार्थों से सम्बन्ध रखने वाले प्रभावशाली निर्णय ऐसे अवसरों पर किये जब कि ग्रहों का प्रभाव बहुत विपरीत और हानिकारक था। इसी का परिणाम यह हुआ कि हमने इन 50 वर्षों में बड़ी-बड़ी आदर्श और आशापूर्ण योजनाओं को असफल और नष्ट भ्रष्ट होते देखा है। अमरीका के राष्ट्रपति विल्सन की निष्पक्षता की घोषणा, उनके 14 सिद्धान्त, लीग आफ नेशंस का विधान, वाशिंगटन की निशस्त्रीकरण संधि और कीलाग पैक्ट, डावेस प्लान, यंगप्लान हूवर की संसार को पुनर्निर्माण की योजना, स्टिमसन योजना, प्रेसीडेन्ट रुजवेल्ट की ‘क्वारनटाइन स्पीच’ और चार स्वाधीनताओं की घोषणा, हुल के 17 सिद्धान्त, अटलाँटिक चार्टर, याल्टा की घोषणा, राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ.) की स्थापना, ट्रुमन की घोषणा, भारतवर्ष का विभाजन, काश्मीर की समस्या, भारतवर्ष में भाषा के आधार पर प्रान्तों का निर्माण, आइजनहोवर की घोषणा आदि सैकड़ों इसके उदाहरण सामने मौजूद हैं। इन असफलताओं का मुख्य कारण ग्रहों से ही सम्बन्धित है। इनका कारण भौतिक परिस्थितियाँ नहीं हैं, लेकिन हमारे मस्तिष्क स्वभाव और विचार-हैं और इनका आधार कान्फ्रेंसों में निर्णय करने वाले राजनीतिज्ञों के ग्रहों पर होता है। उदाहरण के लिए ‘लीग आफ नेशंस’ की कुण्डली को देखिये। इंग्लैंड के शासक-ग्रह मंगल ने वर्सेलीज की संधि कान्फ्रेंस में उपस्थित समस्त राजनीतिज्ञों पर ऐसा प्रभाव डाला कि उसमें इंग्लैंड की बात को ही सफलता मिली और उसके प्रभाव से ‘लीग आफ नेशंस’ की नीति का विकास ऐसे मार्ग से हुआ जिसका परिणाम द्वितीय विश्वव्यापी महायुद्ध के रूप में प्रकट हुआ। ‘लीग‘ की उत्तराधिकारिणी यू.एन.ओ. की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है, क्योंकि उसका जन्म भी ग्रहों के ऐसे ही प्रतिकूल प्रभाव में हुआ है।
कुछ ज्योतिषियों ने पत्रों में लिखा है कि तीसरा विश्वव्यापी महासमर अक्टूबर 1957 में आरम्भ हो जायगा। उन लोगों की भविष्यवाणी का आधार यह है कि इस वर्ष के भीतर बृहस्पति तीन राशियों में होकर गुजर रहा है और भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक तथा मार्गशीर्ष के महीनों में 4 और 5 ग्रहों का योग हो रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि ज्योतिष के कुछ प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है-
एकस्मिन वत्सरे जीवे राशित्रय मुपागते।
तदावसुन्धराकीर्णाकुणपेस्सप्तकोटिभिः॥
चत्वारो राष्ट्रनाशाय हंति पंच जगत्रयम्।
“जिस वर्ष बृहस्पति तीन राशियों में प्रविष्ट होगा उस वर्ष पृथ्वी सात करोड़ शवों से ढ़क जायगी।..... और राष्ट्रों अथवा पृथ्वी का नाश हो जायगा।”
अगर इन श्लोकों के शब्दार्थ पर विचार किया जाय तो उपरोक्त ज्योतिषियों की भविष्यवाणी को ठीक ही मानना पड़ेगा। पर जब विश्वव्यापी महायुद्ध जैसी अत्यन्त महत्व की घटना की भविष्यवाणी करनी पड़े तो और भी कितनी ही बातों पर विचार करना आवश्यक है। 23 सितम्बर 1957 को मंगल, चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक साथ कन्या राशि में होंगे। पर इसमें बृहस्पति की स्थिति ऐसी है कि इस योग से कोई बड़ा कुफल नहीं हो सकता। 23 अक्टूबर को भी सूर्य, चन्द्रमा, बुध और राहु तुला राशि में होंगे। फिर 21 नवम्बर को सूर्य, चन्द्रमा, बुध और शनि का वृश्चिक राशि में योग होगा। सूर्य और शनि तक दूसरे से बहुत दूर हैं और इस कारण उनके योग से विश्वव्यापी युद्ध के समान कोई घटना नहीं हो सकती। बृहस्पति की गति भी इतनी शक्तिशाली नहीं है कि पृथ्वी 7 करोड़ शवों से ढ़क जाय। चार, पाँच या छः ग्रहों के संयोग से बहुत बड़ी उत्तेजना अवश्य उत्पन्न हो सकती है, चाहे वह फिर से स्वेज नहर का झगड़ा उठ खड़े होने से हो और चाहे इसराइल और मध्य पूर्व के किसी देश के झगड़े के फलस्वरूप उत्पन्न हो। इस तरह की घटनायें समुचित मानी जा सकती हैं, क्योंकि ऊपर वर्णित दोनों ग्रह सम्बन्धी घटनाओं के अतिरिक्त मार्च 1958 में ‘काल सर्प-योग‘ भी होने वाला है। इन सबके प्रभाव से युद्ध का भय बढ़ सकता है, और उत्तरदायी राज-पुरुष अपने ढंग पर युद्ध की धमकियाँ भी दे सकते हैं।
यह ‘काल सर्प-योग‘ भी पूरा नहीं है, क्योंकि जहाँ और सब ग्रह राहु और केतु के बीच में यथा स्थान होंगे, बृहस्पति राहु से 3 अंश पीछे होगा। इसलिए इस योग की शक्ति उतनी अधिक नहीं होगी, जितनी कि बृहस्पति के भी इस अर्ध-वृत्त के बीच में रहने से हो सकती थी। शनि और मंगल का योग जनवरी के तीसरे सप्ताह में होगा और इसके फल से भी अमरीका की तरफ से युद्ध जैसी परिस्थिति पैदा होगी। पर रूस दिखाने के रूप में ‘शाँति’ की अभिलाषा ही प्रकट करता रहेगा। इस समय रूस अपने घरेलू राजनैतिक परिवर्तनों से चिन्ताग्रस्त रहेगा। किसी खास रूसी राजनीतिज्ञ की मृत्यु होना भी संभव है। जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है, आगामी कुछ वर्षों में ग्रहों की स्थिति से तीव्र आन्दोलन, असंतोष, घरेलू उपद्रव और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से एक प्रकार की पृथकता का उत्पन्न होना ही संभव है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा वैदेशिक मामलों पर भी बहुत से झगड़े होते रहेंगे।
यहाँ तक हमने चार ग्रहों के योगों पर विचार किया जो आगामी कुछ महीनों में होंगे। हमारी सम्मति वे ऐसे शक्तिशाली और प्रभाव डालने वाले नहीं हैं जैसा कि कुछ ज्योतिषियों ने प्रगट किया है। ऐसा 4 या 5 ग्रहों का योग, जब तक कि उसमें मंगल का प्रभाव जोरदार न हो, बीमारी, अकाल, उपद्रव और प्राकृतिक दुर्घटनाओं के रूप में ही लोगों को कष्ट पहुँचा सकता है। खासतौर पर चूँकि मंगल और शनि इन ग्रह योगों में नहीं हैं, इस कारण हमको ऐसा जान पड़ता है कि इस अवसर पर विश्वव्यापी महासमर की संभावना नहीं की जा सकती। युद्ध की तनातनी पैदा हो सकती है और अमरीका तथा रूस के सम्बन्ध में भी खिंचाव उत्पन्न हो सकता है। ‘आइजन होबर घोषणा’ के अनुसार स्वेज और कोरिया के आसपास फौजों का भेजना भी सम्भव है।
बड़े राष्ट्रों में युद्ध तभी हो सकते हैं जब कि ग्रहदशा बहुत खास तरह की हो। जब शनि, राहु और मंगल एक से केन्द्र में हो, और जिस राशि या नक्षत्र मंडल में हों, वह भी विशेष रूप से उत्तेजना पैदा करने वाला हो, तब ऐसी घटना सम्भव होती है। अगर प्रथम महायुद्ध के समय की ग्रह दशा पर विचार किया जाय तो मालूम होगा कि उस समय राहु, बृहस्पति और मंगल केतु द्विरद-दशा में थे, शनि और मंगल एक केन्द्र में थे और राहु-शनि एक से त्रिकोण में थे। इसी प्रकार अगर द्वितीय महासमर के समय की ग्रह दशा का निरीक्षण किया जाय तो उस अवसर पर भी ग्रहों की स्थिति बड़े भय की थी। प्रजातंत्र का शक्तिशाली ग्रह शनि मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में केतु के साथ योग में था, जिस पर मंगल की पूर्ण दृष्टि पड़ रही थी। बृहस्पति और शनि द्विरद-दशा में थे और राहु-बृहस्पति षष्ठाष्टक (एक दूसरे से 6 और 8 अंशों) पर थे। इस प्रकार संसार के प्रसिद्ध युद्ध प्रभावशाली ग्रह दशा में ही लड़े गये हैं। जिस समय शनि धनु राशि में प्रवेश करेगा रूस में बहुत से षडयंत्र और प्रमुख व्यक्तियों की हत्या की चेष्टायें होगी। लौह आवरण के पीछे बहुत से चौंकाने वाले परिवर्तन होंगे जिससे रूस का आन्तरिक संगठन बहुत कुछ बदलेगा। इनके फल से उस देश में अशाँति रहेगी और वह अमरीका से झगड़ा करने की चेष्टा न करेगा।
अगर हम 1959 की ग्रह दशा पर विचार करें तो मालूम पड़ता है कि अगस्त के अन्त में शनि, मंगल और राहु एक केन्द्र की स्थिति में आ जाएंगे। शनि और मंगल की दृष्टि एक दूसरे पर होगी और राहु मंगल के सहयोग में होगा और शनि के साथ उसकी द्विरददशा होगी। इस ग्रह दशा के प्रभाव से संसार के बड़े राष्ट्रों में तनातनी बढ़ेगी। और राष्ट्र संघ आवश्यकता के वशीभूत होकर नैतिकता को त्याग देगा। राष्ट्रों के बीच झगड़ों और फूट में वृद्धि होगी और परिस्थिति संकट जनक हो जायगी। पर असली संकट सन् 1962 में ही आने वाला है।
सन् 1962 की 5 फरवरी को केवल सूर्य ग्रहण ही नहीं पड़ेगा, वरन् आठ ग्रह एक साथ इकट्ठे हो जाएंगे। ये आठ ग्रह हैं- सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि और केतु। यह योग वास्तव में बड़ा शक्तिशाली है और भयंकर फल उत्पन्न करने लायक है। उस दिन प्रातः 5 बजे ग्रहों की स्थिति इस प्रकार होगी कि सूर्य, चन्द्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र और केतु- ये सब घनिष्ठा नक्षत्र में स्थित होंगे, जिसका स्वामी मंगल है। यह योग भारतीय स्वतन्त्रता की कुण्डली के 9 वें घर, पाकिस्तान के 10 वें घर, अमरीका के 8 वें घर और रूस के 12 वें घर से सम्बन्धित है। यह 8 ग्रहों का मकर राशि में- जिसका स्वामी शनि है- योग होना बड़ा भयजनक है। हमको जान पड़ता है कि इस अवसर पर रूस अमरीका दोनों केवल धमकी और शक्ति प्रदर्शन ही न करेंगे, वरन् विश्वव्यापी संग्राम के लिए तैयार होकर मैदान में उतरेंगे। इस समय कम्यूनिज्म और पश्चिमी प्रजातन्त्रवाद की शक्ति की परीक्षा होगी। और इसके परिणाम स्वरूप अधिकाँश में ‘आक्रामक कम्यूनिज्म’ का अन्त हो जायगा। संसार में बहुत अधिक जन-संहार होगा। पर चूँकि मकर एक चर राशि है इसलिये यह संघर्ष बहुत लम्बे समय तक नहीं चलेगा। ग्रहों के प्रभाव से बड़ी शीघ्रता से प्रहार होगा, नाश भी शीघ्रता से होगा और युद्ध का अन्त भी शीघ्र आयेगा। निश्चय ही संसार को एक महान संकट का सामना करना पड़ेगा और राज-पुरुष मंगल के प्रभाव को रोकने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध होंगे। हाँ, अगर वे अभी से भविष्य को जान कर सावधान हो जायें और राजनैतिक जोश को काबू में रखें तो हानि कम हो सकती है। भारत को अपनी रक्षा की तरफ ज्यादा ध्यान देना चाहिए और और कम्यूनिज्म के खतरे को समझ कर अपनी वैदेशिक नीति का तदनुसार संशोधन करना चाहिए। ज्योतिष की निगाह से इस बात का तो भय नहीं जान पड़ता कि अणु अस्त्रों का प्रयोग होने से समस्त मानव जाति नष्ट हो जायेगी। कुछ राजनीतिज्ञ बहुत ही भयभीत होकर यह ख्याल कर रहे हैं कि हाइड्रोजन बम के कारण संसार नष्ट हो जायगा और इसलिये वे बराबर अहिंसा की महिमा संसार को सुनाते रहते हैं। पर वे यह नहीं समझते कि अगर अहिंसा के ख्याल से बुरे सिद्धान्तों के साथ समझौता कर लिया जाय तो वह अहिंसा भी निकम्मी हो जाती है और उसकी नैतिक शक्ति लोप हो जाती है। तीसरे महायुद्ध के बाद भी मनुष्य जाति का अस्तित्व रहेगा। ऐसे अवसर पर ईश्वर और प्रकृति मनुष्य की गलती से रक्षा का कोई मार्ग निकाल ही देते हैं।
यह आठ ग्रहों का योग रूस और अमरीका के युद्ध का ही कारण नहीं बनेगा वरन् इसके प्रभाव से जनता को और भी अनेकों तरह से कष्ट उठाना पड़ेगा जैसे अस्त्र का अभाव, चोरों और अग्निकाँडों का भय, शासकों का अन्त, अकाल और दैनिक जीवन में अव्यवस्था। बराह मिहिर ने लिखा है :- कि “जब मंगल का संयोग सूर्य ग्रहण से होता है तो दुनिया में तरह-तरह के कष्ट होते हैं।” इसी प्रकार श्री लक्षमण सूरि के ‘दैवज्ञ विलास’ नामक प्राचीन ग्रन्थ में लिखा है कि जब शनि मकर राशि में आता है तो उसके फल से वर्षा की अधिकता महामारी का प्रकोप और भवनों का नाश (दशार्णदेशे यवनाथ नष्टः, आदि घटनायें होती हैं।” इससे कुछ ऐसा अनुमान भी होता है कि युद्ध का आरम्भ मध्य पूर्व की किसी समस्या पर होगा। लक्ष्मण सूरि यह भी कहते हैं कि ‘जब शनि धनु राशि में प्रवेश करते हैं तो पंजाब, कुरु कोसल (यू.पी.) काश्मीर, कलिंग (उड़ीसा) और वंग (बंगाल) में बड़े संकट उत्पन्न होने हैं-
मंदेस्थिते धन्विनि वृष्टिहानि स्वाध्भूपतन्ति कलहेनचार्धम् पाँचाल, काशी, कुरु कोसलाश्च काश्मीर कलिंग बंग॥
भारत की वर्तमान परिस्थिति को देखते हुये यह अनुमान होता है कि राष्ट्रीय हित को इस कारण हानि पहुँचेगी क्योंकि नेतागण देश की भलाई के बजाय व्यक्तिगत प्रतियोगिता और झगड़ों पर ज्यादा ध्यान देंगे। इस आठ ग्रहों के फल उत्पन्न होने वाले भयंकर खतरे का ख्याल करके हमारे नेताओं को राष्ट्र की समस्याओं का ऐसा रचनात्मक हल खोजना चाहिये, जो संसार की वास्तविक परिस्थितियों और हमारी प्राचीन संस्कृति के अनुकूल हो। हमारी कम्यूनिज्म की तरफ झुकी हुई शंकास्पद प्रवृत्तियों पर पुनः विचार करना चाहिए। मकर राशि में एकत्रित होने वाला अभूतपूर्व शक्तियों का योग स्वतः प्रकट करता है कि सन् 1962 ‘भाग्य निर्णायक वर्ष’ होगा। अमरीका रूस की योजनाओं को पहले से ही समझ कर ‘पहली चोट’ करेगा। पर मकर राशि में बृहस्पति के रहने के कारण- यद्यपि उसकी शक्ति क्षीण होगी- संघर्ष का वेग हलका पड़ जायगा और शीघ्र ही शान्ति स्थापित हो जायगी। बराह मिहिर के मतानुसार बृहस्पति का योग किसी भी रूप में क्यों न हो वह शुभ ही होता है, जैसे कि “जलती हुई आग पर पानी डाल दिया जाय।”
सब बातों पर विचार करने से इस में कोई संदेह नहीं जान पड़ता है कि 1960 से 1962 तक का समय संसार के लिए वास्तव में बड़े संकट का है। प्रकृति स्वयं बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें उत्पन्न करेगी विशेष रूप से योग होने के अवसर पर, जैसे भूमि का धँस जाना, पृथ्वी में बड़ी दरारें पड़ना, भयंकर भूकम्प, समुद्री लहर और अन्य दुर्घटनायें। उस समय मनुष्य इनको रोकने में सर्वथा असमर्थ होगा। पूर्व और पश्चिम में भयंकर संघर्ष होने लगेगा। ज्योतिष द्वारा ऐसी घटनाओं की पहले से चेतावनी ही दी जा सकती है। यह सत्य है कि घटनाओं का होना रोका नहीं जा सकता, पर उचित उपाय करने से आपत्ति और कष्टों में कमी की जा सकती है।
रूस और पश्चिमी राष्ट्रों में जो प्रतियोगिता का भाव दिखलाई पड़ता है वह मार्क्स, लेनिन या स्टालिन के समय से आरम्भ नहीं हुआ है, और सोवियत शासन का अन्त अथवा पराजय हो जाने पर भी यह प्रतियोगिता मिट नहीं सकती। संसार में संस्कृतियों तथा आदर्शों की भिन्नता अति प्राचीन काल से पाई जाती है। विश्व-राज्य की बात किसी विकृत मस्तिष्क की मिथ्या कल्पना है। पर विश्व-राज्य के स्थान पर शक्तियों का संतुलन रहना चाहिए और उनका प्रभाव क्षेत्र पृथक-पृथक स्वीकार किया जाना चाहिए। सच्ची बात तो यह है कि विभिन्न प्रकार के ग्रहों के प्रभाव के कारण विभिन्न देश एक बन कर नहीं कर सकते।
[उपर्युक्त लेख से प्रकाशित होने के बाद सीरिया ने रूस से हथियार प्राप्त किये जिस पर इंग्लैण्ड और अमरीका में बड़ी हलचल पैदा हो गई और हमारे प्रधानमंत्री नेहरूजी का कहना है यह घटना आगे चलकर युद्ध का कारण बन सकती हैं। इसके बाद रूस ने दूर-मारक ‘राकेट’ में सफलता प्राप्त कर ली, जिसमें अमरीका अभी तक पिछड़ा हुआ है। इससे भी अमरीका में घोर सनसनी उत्पन्न हो गई। इस प्रकार नहीं कहा जा सकता कि कौन दिन किस घटना के कारण संसार को मटियामेट कर देने वाला संघर्ष आरम्भ हो जाय।]