Magazine - Year 1957 - Version 2
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अणु-बम का आविष्कार और उसकी शक्ति का रहस्य
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(श्री वन्दावन बिहारीलाल शर्मा, सा.वि.)
(यद्यपि संसार में खण्ड प्रलय होने की भविष्यवाणी बहुत समय से की जा रही थी, पर अधिकाँश लोग इस पर विश्वास नहीं कर सकते थे। क्योंकि उनको ऐसा साधन दिखाई नहीं पड़ता था जिससे एक साथ इतनी बड़ी नाशलीला संभव हो सके। पर अब पिछले आठ दस वर्षों में जिन अणु और उदजन (हाइड्रोजन) बमों का आविष्कार हुआ है उनसे यह बात सर्वथा संभव हो गई है कि अगर रूस और अमरीका खुलकर अणु शक्ति का प्रयोग करें तो संसार में से मनुष्यों का पूर्ण रूप से नाश हो सकता है, भले ही इधर-उधर दस बीस हजार या कुछ भाग जंगली और असभ्य जातियों के व्यक्ति भले ही बचे रहें। इस लेख से पाठकों को उसी अणु-बम का इतिहास और उसका वास्तविक रहस्य ज्ञात हो सकेगा)
आदिकाल से मनुष्य दो दिशाओं में खोज करता रहा है। प्रथम प्रकृति पर विजय पाना और दूसरे प्रकृति के शक्ति स्रोतों से अपने प्रयोग में लाना। इस प्रयास में उसने अग्नि का पता लगाया, सूर्य की गरमी का इस्तेमाल किया, हवा व पानी से शक्ति उत्पन्न की, और बिजली का आविष्कार किया। शक्ति के प्रयोग की निगाह से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को ‘भाफ का युग‘ कह सकते हैं। द्वितीय महासमर के बाद हमने शक्ति के एक नये युग में पैर रखा है, जिसे ‘अणु शक्ति का युग‘ का नाम देना उपयुक्त होगा। इस शक्ति की खोज तीस चालीस साल से की जा रही थी, पर इसका परिचय सर्व साधारण को सन् 1945 में लगा जब उसके द्वारा जापान के दो नगरों को कुछ सेकेंडों में ही पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया गया।
अपने पड़ोसियों से अधिक धनवान बनने की इच्छा से प्राचीनकाल से ही अनेक लोग लोहे, ताँबे को सोना बनाने की तरकीब ढूंढ़ा करते थे। हमारे देश में इसी विचारधारा ने ‘पारस पत्थर’ की कल्पना को फैलाया। आजकल के वैज्ञानिक जानते हैं कि प्राचीन लोगों ने इस कार्य की जितनी विधियाँ निकाली थीं वे सब गलत थीं। पर ये वैज्ञानिक एक नवीन विधि से इस उद्देश्य में सफल हो गये हैं। ये लोग बड़ी तादाद में तो नहीं अपनी प्रयोगशाला में बहुत छोटे परिमाण में एक धातु को दूसरी धातु में बदल सकते हैं। इसी धातु-परिवर्तन की खोज करते-करते लोगों को ‘अणु बम’ का पता लग गया।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में टामसन, रैजन आदि वैज्ञानिकों ने विभिन्न पदार्थों के सूक्ष्म अणु और परमाणुओं की जाँच आरम्भ की और यह पता लगाया कि कुछ भारी धातुओं के परमाणुओं में यह शक्ति है कि उनका संयोग जब अन्य धातुओं से होता है तो नये तत्वों की उत्पत्ति होने लगती है। इन भारी धातुओं में सबसे भारी तत्व यूरेनियम ही था। यूरेनियम की ‘रेडियो एक्टिविटी’ से प्रकट होता था कि उसका केन्द्र अस्थायी होता है। इस अस्थायी केन्द्र पर जब हलके परमाणुओं (न्यूट्रानों) को फेंका जाता है तो उसमें विस्फोट होने लगते हैं, जो शीघ्र ही बहुत विशाल रूप ग्रहण कर लेते हैं। इन विस्फोटों से उत्पन्न ताप इतना तीव्र होता है कि वह प्रत्येक वस्तु को क्षणमात्र में जला कर धुँआ के रूप में परिवर्तित कर देता है। साथ ही यह ताप वायुमण्डल को भी जलाने लगता है जिससे उसका प्रभाव बढ़ता चला जाता है और एक बम से दस बीस वर्ग मील या इससे भी अधिक क्षेत्र में कोई भी जीवित वस्तु शेष नहीं रह पाती।
एटम बम का आविष्कार किस देश ने किया, इसके सम्बन्ध में लोग तरह-तरह की बातें कहते रहते हैं। बहुत से लोगों का ख्याल है कि इसे पहले जर्मनी में बनाया गया था और अमरीका वाले वहाँ से ले गये। पर वे सब विज्ञान की जानकारी न रखने वाले लोगों की कल्पना है। विज्ञान के आविष्कार किसी के कहने से दो-चार सप्ताह या महीनों में नहीं हो सकते। इनका पता धीरे-धीरे लगता है और उस में अनेक देशों के अनेक वैज्ञानिक स्वतंत्र रूप से भाग लिया करते हैं। इन खोजों के फल से जब कोई चीज बन जाती है तो चाहे उसके बनाने वाला कोई एक ही वैज्ञानिक क्यों न हो उसका श्रेय सभी खोज करने वालों को होता है। एटम शक्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन तो जर्मनी के विश्वविख्यात प्रोफेसर अलबर्ट आइन्स्टीन ने किया था, पर उससे शक्ति उत्पन्न करने तथा बम तैयार करने का काम दूसरे वैज्ञानिकों का है।
प्रो. आइन्स्टीन यहूदी थे और जर्मनी के रहने वाले थे। पर जब हिटलर ने यहूदी जाति के नाश का बीड़ा उठा लिया तो ये जर्मनी से भाग कर अमरीका चले गये और कुछ वर्ष पश्चात वहीं के नागरिक बन गये। 2 अगस्त 1939 को उन्होंने अमरीका के प्रेसीडेन्ट रुजवेल्ट को एक पत्र लिखा था जिसमें बतलाया गया था कि “हाल की नवीन खोजों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यूरेनियम को शक्ति के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है और उससे बहुत अधिक शक्तिशाली बम बनाये जा सकते हैं। ऐसा एक बम अगर किसी बन्दरगाह पर फोड़ दिया जायेगा तो उससे पूरा बन्दरगाह और आसपास का बहुत सा प्रदेश भी नष्ट हो जायगा।” एटम बम का आविष्कार हो जाने के बाद प्रो. आइंस्टीन ने कहा था-
“मैं अपने को एटम शक्ति का पिता नहीं कह सकता। मेरा काम अप्रत्यक्ष था। मैंने सिद्धान्त रूप में उसका होना सिद्ध कर दिया था, पर मैं समझता था कि मेरे जीवनकाल में व्यवहारिक रूप में इसका प्रयोग न हो सकेगा। संयोगवश अनेक घटनाएं हो जाने से ही कार्य रूप में परिवर्तित हो सकी। इसका आविष्कार ‘हैन’ नामक जर्मनी के वैज्ञानिक ने किया था, पर वह अपनी खोज की वास्तविकता स्वयं ही न समझ सका था। उसके रहस्य को लीजमीटनर ने ठीक-ठीक समझा और उसी ने जर्मनी से भागकर ‘नील्स बोहर’ को उसका भेद बताया।”
“एटम बम बनने से कोई नई समस्या पैदा न हुई है। जब तक पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न राष्ट्र मौजूद हैं तब तक युद्ध का होना अनिवार्य है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि लड़ाई कब होगी, पर वह होगी अवश्य, क्योंकि जो कारण एटम बम बनने के पहले थे, वे अब भी मौजूद हैं। एटम बम से केवल इतना अवश्य हुआ है कि युद्ध की नाशक शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी है। तो भी मैं यह विश्वास नहीं करता कि एटम बम के युद्ध से मानवीय सभ्यता का नाश हो जायगा। यह हो सकता है कि इसके द्वारा संसार के दो तिहाई या पौन हिस्सा लोग मारे जायें। तो भी कुछ विद्वान व्यक्ति बचे रहेंगे और पुस्तकें भी बच सकेंगी। इनके द्वारा फिर सभ्यता का निर्माण किया जा सकेगा।”
अणु बम तथा उद्जन बम के आविष्कार के सम्बन्ध में हाल ही में एक लेख में बताया गया है कि सन् 1941 से 1945 तक अमरीका में अणु-शक्ति सम्बन्धी प्रयोग बहुत भारी मात्रा में किये गये थे। इसके लिए अमरीका की सरकार ने अनेक वैज्ञानिकों को नियुक्त किया था। इन लोगों को सब तरह का साधन और सुविधायें भी अत्यधिक मात्रा में प्राप्त थी। ये लोग 4 वर्ष तक करोड़ों ही नहीं कई अरब रुपया खर्च करके तरह-तरह के प्रयोग करते रहे, तब कहीं जाकर पहला एटम बम तैयार हो सका। जब उसकी परीक्षा 16 जुलाई 1945 को मेक्सिको के विशाल रेगिस्तान में कर ली गयी तब 6 अगस्त को हिरोशिमा पर और 9 अगस्त को नागासाकी पर दो एटम बम फेंके गये। अणु-बम फोड़ने वाले यंत्र और उसको चलाये जाने का एक फौजी रहस्य है, जिसे सरकारों ने बहुत छुपा रखा है। पर मोटे तौर पर उसका विवरण वैज्ञानिकों को ज्ञात हो चुका है। वह यह है कि रेडियोधर्मी विस्फोटक यूरेनियम के दो टुकड़े अर्द्ध-दृढ़ तरीके से अलग-अलग रखे जाते हैं। जब इन्हें याँत्रिक विधि से एक सीमा से एक दूसरे के अधिक निकट लाया जाता है तो उसका परिणाम टुकड़ों में निहित अणुओं का विस्फोट होता है, जिससे एक विध्वंसात्मक शक्ति-ताप और विस्फोट के रूप में पैदा होती है। यूरेनियम के विस्फोटक भारी अणु के छितराने की क्रिया से अणुबम बनता है। इसके विपरीत हाइड्रोजन बम में हलके तत्वों की विस्फोट क्रिया से एक भारी तत्व बनता है। इस प्रकार एटम बम न्यूकलर विस्फोट की क्रिया का परिणाम है और हाइड्रोजन बम न्यूकलर मिश्रण का। इन दोनों ही क्रियाओं से असाधारण मात्रा में शक्ति पैदा होती है जो करोड़ों मन तेज बारूद से भी अधिक होती है।
हाइड्रोजन (उदजन) बम का आविष्कार
“सम्भवतः सबसे प्रथम उदजन बम का प्रयोग 1 नवम्बर 1951 को पैसफिक महासागर स्थिति ऐनीवेटाक नामक जन शून्य द्वीप में किया गया था। इसके ताप तथा विस्फोट का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सारा द्वीप एक आग के गोले से लिपट सा गया था और बाद में उसके स्थान पर समुद्री जल से भरा एक 175 फीट गहरा गड्ढा बन गया था। वैज्ञानिकों का मत है कि उस परीक्षण से जो विस्फोट हुआ था वह 80 लाख टन टी.एन.टी. (तेज बारूद) के विस्फोट के बराबर या उसके द्वारा पैदा ताप लगभग 10 लाख डिग्री सेंटीग्रेड का था।”
“इस दिशा में और अधिक गहन प्रयत्न किये गये। पहले अधिक गर्मी और विस्फोट पैदा करने के लिए आणविक मिश्रण के तत्वों का भी उपयोग किया गया। लेकिन सभी बमों में कुछ मात्रा में यूरेनियम का प्रयोग भी करना पड़ा, क्योंकि बिना विस्फोटक यूनियम की कुछ मात्रा के उदजन बम चल नहीं सकता था। यह विस्फोटक यूरेनियम यू-235 कहलाता है जब कि मुख्य यूरेनियम तत्व यू-238 कहा जाता है। यद्यपि सन् 51 और 52 में भी उदजन बम के परीक्षण किये गये, पर वह सुविधा पूर्वक युद्ध में काम देने लायक न था। उसमें कई तरह के सुधारों की आवश्यकता थी। इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने कई तरह से सुधार करके नया उदजन बम बनाया और और उसकी परीक्षा 1 मार्च 1954 को पैसफिक सागर के ‘बिकनी’ टापू में की गयी। इस अवसर पर सभी राष्ट्रों के जहाजों को बिकनी से कई सौ मील दूर रहने की चेतावनी दे दी गयी थी। पर किसी तरह भूल से जापानियों का ‘लकी ट्रैगन’ मछली पकड़ने वाला जहाज इस निषिद्ध क्षेत्र के भीतर आ गया। जिस समय बम का परीक्षण हुआ वह बिकनी से 100 मील की दूरी पर था। जैसे ही उदजन बम का विस्फोट हुआ उसकी बहुत सी राख ऊपर की ओर उड़ी और उसी का थोड़ा सा अंश ‘लकी ट्रैगन’ के 23 मल्लाहों पर गिरा। वे मल्लाह बुरी तरह से जल गये और उनके शरीर में यूरेनियम का विष व्याप्त हो गया। बाद में बतलाया गया कि इस बम में साधारण यूरेनियम का एक बड़ा छिलका भी लगाया गया था। इस बड़े उदजन बम के विस्फोट से निकली शक्ति इतनी अधिक थी कि उससे यह यूरेनियम अन्य तत्वों में बदल गया। इनमें से एक ‘स्ट्रोन्टियम 90’ था। यह तत्व बहुत खतरनाक साबित हुआ। जाँच करने से पता चला कि यह तत्व हवा की गति से बहुत दूर-दूर तक फैल गया है। उसके गिरने से केवल मनुष्य का खून और हड्डी ही विषाक्त नहीं हो जाती, वरन् वह छोटे जीवों जैसे मछली आदि और पेड़-पौधों पर भी अपना विषैला असर डाल देता है। जो मनुष्य या अन्य प्राणी इन मछलियों या पेड़ पौधों को काम में लाते हैं उन पर भी उस विष का प्रभाव पड़ जाता है। जापान में ऐसी मछलियों को खाने से अनेक लोग बीमार पड़ चुके हैं।
मानवता के संहार का भय
“इस प्रकार जो वैज्ञानिक व राष्ट्र उदजन बमों का प्रयोग कर रहे हैं वे स्वयं उनसे भयभीत होने लगे हैं। उदजन बम के आविष्कार का उद्देश्य है पहले से लाखों गुना अधिक ताप और विस्फोट पैदा करना। किन्तु अब संयोगवश यह भी प्रकट हो गया है कि उदजन बम एक विशेष स्थान को मटियामेट करने के साथ ही कुछ ऐसे तत्व भी पैदा करता है जो संसार के समस्त वातावरण पर विषैला प्रभाव डालते हैं और सम्पूर्ण मनुष्य जाति को हानि पहुँचाते हैं। यह भी संयोग है कि अमरीका रूस को नष्ट करने के लिए जो हाइड्रोजन बम चलायेगा उनसे उत्पन्न यह विषैला तत्व हवा की गति से अमरीका के ऊपर ही पहुँच जाय और साल-दो साल बाद वहाँ के करोड़ों व्यक्तियों को मारने का कारण बन जाय। इस परिस्थिति को देखकर अब वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ दोनों इस उलझन में फंसे हैं कि यदि उदजन बमों का परीक्षण और प्रयोग बन्द न किया गया तो क्या संसार का विध्वंस न हो जायगा?
इस भय से रक्षा पाने के निमित्त अब अमरीका की सरकार ‘स्वच्छ’ उदजन बम तैयार कराने का प्रयत्न करने लगी है जिससे ताप और शक्ति तो उत्पन्न होगी, पर विषैले तत्व उत्पन्न नहीं होंगे। इस प्रकार इसका प्रभाव विस्फोट स्थान से दूर रहने वाले बेकसूर लोगों पर नहीं पड़ेगा। अब भी अमरीका में ऐसे उदजन बम बनाये जा रहे हैं। जिसका विषैला प्रभाव पहले बमों से 96 प्रतिशत कम है।” इससे यह अनुमान किया जाता है कि अमरीका ने कोई ऐसी विधि निकाल ली है जिससे बिना यूरेनियम को प्रयोग किये ही उदजन बम का विस्फोट किया जा सकता है।
यह सब होने पर भी रूस और अमरीका में खुल कर युद्ध हो गया तो मानवता का बहुत बड़ा नाश अनिवार्य है। क्योंकि संसार के ज्यादातर देश अमरीका या रूस के पक्ष में शामिल हैं और इसलिये उन सब पर अणु बमों का प्रयोग होना संभव है। इसके सिवाय अब तक जो अणुबम बनाये जा चुके हैं और जिनमें बहुत अधिक विषाक्त प्रभाव मौजूद है, जरूरत पड़ने पर भी वे चलाये ही जायेंगे। फिर अमरीका की बात को सच मानकर हम ‘स्वच्छ’ उदजन बम की बात पर विश्वास कर भी लें तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि रूस भी वैसे ही ‘स्वच्छ’ बम बना सकता है। इसलिये जब लड़ाई शुरू होगी तो रूस अपनी रक्षा और मुकाबला करने के लिए उसके पास जैसे बम होंगे उन्हीं से काम लेगा। इसी बात को ध्यान में रखकर इसी 11 अगस्त सन् 1957 को टोकियो (जापान) में होने वाले विश्व सम्मेलन में इंग्लैंड के अणु वैज्ञानिक प्रोफेसर रोटबाल्ट ने कहा है कि “अमरीका और सोवियत रूस के बीच यदि पूरे पैमाने पर युद्ध हुआ तो उसमें कम से कम समय के भीतर ‘स्वच्छ’ और ‘गंदे’ सब तरह के बमों का इस्तेमाल होगा। दस वर्ष में दूरमारक यंत्र इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि उनके द्वारा संसार के किसी भी भाग पर उदजन बम फेंके जा सकेंगे। युद्ध शुरू हो जाने पर दोनों पक्ष ऐसे आयुधों से तुरन्त ही अधिक से अधिक उदजन बम छोड़ेंगे, क्योंकि उस समय वे यह प्रतीक्षा करते नहीं रह सकते कि दूसरा पक्ष कितने बम छोड़ता है। उस समय तक प्रत्येक पक्ष के पास 20 मेगाटन वाले कम से 1000 बम होंगे। गंदे बमों की विध्वंसक शक्ति साफ बम से कम से कम तिगुनी है। उनका विस्फोट जब होगा तो उसका प्रभाव बहुत बड़े क्षेत्र पर पड़ेगा। अमरीका का क्षेत्रफल 30 लाख वर्ग मील है। अगर वहाँ उदजन बमों का विस्फोट हुआ तो लाखों वर्ग मील भूमि तुरंत नष्ट हो जायेगी और करोड़ों आदमी मर जायेंगे। एक हजार बमों से उत्पन्न 25 प्रतिशत ‘विकिरण’ (हानिकारक किरणें) अमरीका पर पड़ेंगी। पर यह हानि केवल अमरीका और रूस तक सीमित नहीं रहेगी, क्योंकि बमों के ‘विकिरण पदार्थ’ समस्त पृथ्वी पर फैल जायेंगे और उन सभी लोगों को नुकसान पहुँचायेंगे। इन दोनों देशों के बाहर के करोड़ों लोग रक्त-श्वेतता (ल्यूकोमिया) हड्डियों के कैंसर तथा प्रजनन शक्ति को क्षति पहुँचाने वाले रोगों से पीड़ित हो जायेंगे।’ इन सब तथ्यों और जानकार लोगों के कथनों पर ध्यान देने से अभी संसार का खतरा जैसे का तैसा मौजूद है और लड़ाई छिड़ने से प्रलयकाल का दृश्य दिखलाई पड़ना अनिवार्य है।