Books - गायत्री का मन्त्रार्थ
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Language: HINDI
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भर्ग शब्द का अर्थ
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बुराइयों का, अज्ञानान्धकार का नाश करने वाली परमात्मा की शक्ति ‘भर्ग’ कहलाती है। इस शक्ति की भी हमें उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि वरेण्यं की। हमें श्रेष्ठता को देखना है परन्तु बुराई की ओर आंखों को बन्द नहीं कर लेना है। क्योंकि बुराइयों का आकर्षण अच्छाइयों की अपेक्षा अधिक चमकदार होता है। बुराइयों का आक्रमण भी बड़ी तेजी एवं दृढ़ता से, बड़े बल पूर्वक होता है, इसलिए देखा जाता है निर्बल शक्ति वाले व्यक्ति प्रायः बड़ी आसानी से बुराइयों का प्रलोभन सामने आती ही फिसल पड़ते हैं और उनके चंगुल में फंस जाते हैं।
सत् और असत् दो तत्व प्रधान हैं। एक ओर दैवी दूसरी ओर आसुरी शक्तियां भी इस संसार में काम करती हैं। यह देवासुर संग्राम सदा जारी रहता है। इसमें देव पक्ष का समर्थन करने के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि असुर पक्ष का विरोध किया जाय, उसे नष्ट किया जाय, उससे बचा जाय और सावधान रहा जाय। खेत को पशुओं और पक्षियों से न रखाया जाय तो वे उसे खा जायेंगे। आसुरी शक्तियों से न बचा जाय, उनका प्रतिरोध न किया जाय तो वे अपना काम बड़ी तत्परता से जारी रखती हैं और धीरे धीरे दैवी शक्तियों पर अपना कब्जा करती जाती हैं। बुराई छोटी है, यह समझकर यदि उसकी उपेक्षा की जाय तो वह क्षय रोग की तरह उस अपेक्षा से लाभ उठा कर चुपके चुपके अपना कब्जा जमाती जाती है और एक दिन उसका पूरा आधिपत्य हो जाता है।
इसलिए असत् का, आसुरी वृत्तियों का, नित्य निरीक्षण करना, उनका नित्य दमन करना आवश्यक है। शरीर पर मैल नित्य जमता है यदि उसे नित्य साफ न किया जाय तो देह में दुर्गन्ध आने लगेगी और चर्म रोग घेर लेंगे। अपने में नित्य पैदा होने वाले दोष और दुर्गुणों का भली प्रकार निरीक्षण करके उन्हें दूर न किया जाय तो वे भी अपनी श्रेष्ठता के ऊपर आक्रमण करके उसे परास्त करने का प्रयत्न करेंगे।
अन्य सब आवश्यक कार्यों की तरह यह भी आवश्यक है कि हम अपने दुरितों का नाश करें। अपने चारों ओर फैली हुई कुप्रवृत्तियों से लड़ें। गीता में अर्जुन को ‘‘सदा युद्ध में रत रहने का उपदेश किया गया है यह सतत् युद्ध नीच वृत्तियों के विरुद्ध जारी रखना चाहिए, बुराई को रोकना भलाई उत्पन्न करने के बराबर है।’’ यह आर्ष सिद्धान्त हमें पुण्य सम्पादन की भांति पाप नाश करने की ओर भी प्रोत्साहित करता है।
गायत्री में उस ईश्वर का तेजस्वी और श्रेष्ठ अंश अपने में धारण करने के साथ साथ यह भी आदेश छिपा हुआ है कि हम भर्ग को अपने में धारण कर बुराइयों, पापों, दुर्बलताओं कुप्रवृत्तियों से सावधान रहें और उन्हें नष्ट करने के लिए सदा धर्म युद्ध करते रहें। इसी भावना को भर्ग, शब्द के निम्नलिखित अर्थों में प्रकट किया गया है।
सवितास्वात्ममूतस्तु वरेण्यं सर्व जन्तुभिः ।
भजनोयं द्विजा भर्गः तेजचैतन्य लक्षणम् ।।
स्कन्द पुराण सूत संहित यां0
हे द्विजो! सविता देव का आत्म रूप तथा सर्व जन्तुओं से प्रार्थनीय, चैतन्य रूपी तेज तुम्हारे द्वारा भजनीय है।
भ्रस्ज घञ् आदित्यान्तगति ऐश्वरे तेजसि ।
—सायन भाष्ये ।
भस्ज धातु से घञ् प्रत्यय सूर्य मण्डल के अन्तर्गत विद्यमान ईश्वरीय तेज में होती है।
भाभिर्गतिरस्यहीति भर्गो भर्जयतीति वैस भर्गः ।
—मैत्र्यु प0 6।7
भा धातु गति अर्थ में है अतः जो किरणों द्वारा गति अर्थात् प्रवेश इत्यादि हो वह भर्ग है, अथवा जो संसार का नाश करे वह भर्ग है।
भ्राजते च यदा भर्गः पूर्णा रूपाच्च पुरुषः ।
सर्वात्मा सर्वभावस्तु आत्मा तेन निगद्यते ।।
—त्र्यासः ।
प्रकाश स्वरूप होने से भर्ग नाम है, परिपूर्ण होने से पुरुष है। सर्व रूप से आत्मा कहा गया है।
हृदव्योम्नि तपते ह्येष वाह्ये सूर्यस्य चान्तरे ।
अग्नौ ह्यधुमके ह्येषज्योतिश्चित्र तरंगवत् ।।
—आंगिरसः
यह भर्ग हृदयकाश में तथा बाहर सूर्य मण्डल में विद्यमान है और यह अनेक प्रकार की तरंगों के सदृश धुएं रहित अग्नि में विद्यमान रहता है।
कालाग्निरूपमास्थाय सप्ताचिः सप्तरश्मिमिः ।
भ्राजते स्वेन रूपेण तस्माद्भर्ग इति स्मृतः ।।
—औसनसः
कालाग्नि रूप में विद्यमान होकर सप्त स्फुल्लिंग वाला अग्नि रूप होता है और सप्त किरणों द्वारा अपने रूप से प्रकाशित होने से भर्ग कहा गया है।
सर्वस्यैवोपरिष्टस्य पूरणात्पुरुषः स्मृताः ।
भव भीत्यन्धकारेभ्यः शंकरोति ततः शिवः ।।
—वार्हस्पत्यः ।
यही भर्ग सबसे श्रेष्ठ तथा परिपूर्ण होने से पुरुष कहा गया है। यह भर्ग संसार से भयभीत पुरुषों का कल्याण करता है अतः शिवस्वरूप कहा गया है।
वीर्य वै भर्यः ।
—शतपथ व्रा0 5।451
निःसंशय बल भर्ग रूप है।
पापानां तापकं तेजोमण्डलम् ।
—साथण भाष्ये
पापों को नाश करने वाला सूर्य मण्डल का तेज है।
भञ्जो-आमर्दने भृजी भर्जन इत्येततोर्धात्वोर्भंर्गः ।
भजतां पाप भञ्जन हेतुभूतमित्यर्थः ।
भ्राजृ दीप्तावित्यस्य धीतोर्वा भर्गः तेज इत्यर्थः ।
—भारद्वाज0
भञ्ज धातु आमर्दन अर्थात् नाशन अर्थ में है। और भृज धातु भर्जन-भृजने अर्थात् नाश करने में है। अतः इन दोनों धातुओं से निर्मित भर्ग का अर्थ भजन करने वालों के पापों को नाश करने वाला है। दीप्ति अर्थ में भ्राज धातु से निर्मित भर्ग का अर्थ है।
अविद्या दोष भर्जनात्मक ज्ञानैक विषयत्वम् ।
—शंकर महीधर0
अविद्या जनित दोषों को नाश करने वाला तथा एक मात्र केवल ज्ञानस्वरूप है।
भञ्र्जन्ति पापानि संसार जन्म मरणादि
दुःख मूलानि येन असौ भर्गः ।
—सं0 भा0
संसार के जन्म मृत्यु आदि दुःखों के मूल भूत पापों को जो नाश करता है वह भर्ग है।
भर्गोऽविद्यात्त्कार्ययोर्मर्जनाद्भर्गः ।
स्वयं ज्योतिः परब्रह्मात्मकं तेजः ।।
—सायन0 विद्यारण्य0 भट्टे दी0
अविद्या और उसके कार्यों को नाश करने से भर्ग है। वह स्वयं जाति परब्रह्म तेज है।
भर्गस्तेजः—प्रकाशः प्रकाशो ज्ञानम् ।
यन्निरुपद्रवं निष्पापं निर्गुणं शुद्धं सकल दोष
रहितं पक्वं परमार्थ विज्ञानं स्वरूपं तद्भर्गः ।।
—निरुक्ते तारानाथ0
भर्ग—तेज है। प्रकाश है। प्रकाश-वान है जो उपद्रव रहित, पाप रहित, निर्गुण, शुद्ध, सबल, दोषों से रहित परिपक्व, परमार्थ, ज्ञानस्वरूप है, वही भर्ग है।
प्रकाश प्रदानेन जगतो वाह्याभ्यन्तर तमोमञ्जकस्याद्भर्गः ।
—वरदराज0
जो प्रकाश द्वारा जगत के वाह्य तथा आन्तरिक अन्धकार को नष्ट करता है वह भर्ग है।
भ्रस्ज पाके भवेद्धातुर्यस्मात्पाचयते ह्यसौ ।
भ्राजते दीप्यते यस्माज्जगदन्ते हरन्त्यपि ।।
वृ0 यो0 याज्ञ0 अ0 9-52-53
पचाने अर्थ में भ्रस्ज धातु से भर्ग बनता है अतः जो पचाता है जो संसार को प्रकाशित करता है। तथा अन्त में लय करता है वह भर्ग है।
प्रकाश रूपं यत्प्रकाशेन सर्व प्रकाशः प्रकाशते ।
—सन्ध्या भा0
प्रकाश रूपी जिसके प्रकाश से समस्त प्रकाशों को प्रकाशित करता है वह भर्ग है।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा
विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।
—कठोपनिषद्
न वहां सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा, न तारागण, न विद्युत प्रकाशित होती है, तब अग्नि का प्रकाश वहां कैसे हो सकता है। जब उसके प्रकाशित होने पर उसके प्रकाश से ये समस्त प्रकाशित होते हैं ऐसा वह भर्ग है।
भेति—भासयते लोकान् रेति रञ्जयते प्रजाः ।
ग—इत्यागच्छतेऽजस्रं भरगादर्ग उच्चते ।।
—वृ0 यो0 याज्ञ0 अ0 9
भ—सर्व लोकों को प्रकाशित करता है, र—प्रजा को आनन्दित करता है, ग—बारम्बार लय करता है, इस कारण से भर्ग कहा जाता है।
भ—भासयतीमां ल्लोकानिति ।
र—रज्जयति इमानि भूतानि ।
ग—गच्छन्त्यस्मिन्ना गच्छन्त्यस्मादिमाः
प्रजास्तस्माद्भरणत्वाद्भर्गः ।
—मैत्र्यु प0 6।7
भकार समस्त लोगों को प्रकाशित करता है, रकार प्राणियों को आनन्दित करता है। जिस आत्मा में प्रजा प्रलय काल में लय होती है और सृष्टि काल में जिससे उत्पन्न होती है ग-कार है। इस कारण भर्ग कहते हैं।
मण्डलं पुरुषो रश्मय इति त्रयं भर्ग पद वाच्यम् ।
—शुक्ल यजुर्वेद, काजसनेय सं0
सूर्य मण्डल, पुरुष (ईश्वर) किरण, ये तीन भर्ग के नाम हैं।
गायत्र्येव भर्गः तेजो वै गायत्री ।
—गोपथ ब्रा0 रा0 5।15
गायत्री ही भर्ग है, और भर्ग ही गायत्री है।
एतदूब्रह्मैतदमृतमेतद्भर्गः ।
मैत्र्यु प0 6।35
यही ब्रह्म है, यही अमृत है, यही भर्ग है।
तज्ज्योतिः परमं ब्रह्म है इस कारण भर्ग तेज रूप है।
भर्गः—अद्वयाननन्दलक्षणं सर्वजगदुपदानं परिपूर्ण
ज्योति रूपं विम्वस्थानीयं ब्रह्म वाक्यार्थतया ।
पर्यवसन्नं एतादृग्ब्राह्मं तद्रूपत्वेनेति शेषः ।।
—निर्णय कल्पवल्याख्य
द्वैत रहित, आनन्द स्वरूप, समस्त जगत का आधार परम ज्योति स्वरूप, मण्डलस्थान वर्ती, ब्रह्म वाक्यों के अर्थ से सम्पन्न ऐसा ब्रह्म स्वरूप वह भर्ग है।
ईश्वरं पुरुषाख्यं तु सत्यधमार्णामव्ययम् ।
भर्गाख्यं विष्णु संज्ञंतु यं ज्ञात्वाऽसृतमश्नुते ।।
—व्यासः
ईश्वर, पुरुष नामक, सत्य धर्मवान, अविनाशी, भर्ग विष्णु का तेज है, जिसको जानकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है।
तेजो वै ब्रह्मवर्चसम् । गायत्री तेजस्वी वर्चसी भवति ।
—ऐतरेय व्रा0 अ0 1 ख0 1 ब्राह्मण
निश्चय करके भर्ग ब्रह्म तेज है, अतः गायत्री तेज स्वरूप है।
शिखं केचित्पठतिस्म शक्ति रूपं पठन्ति व ।
केचित्सूर्य केचिदग्निं वेदगा अग्नि होत्रिणः ।।
—भार्गवः
इस भर्ग को कोई शिव कहते हैं, कोई शक्तिमान कहते हैं, कोई सूर्य, कोई वैदिक अग्निहोत्रीय अग्नि कहते हैं।
भादीप्ताविति रूपं हि भृस्जपाकेऽथास्मृतम् ।
ओसध्यादिकं पचति भ्राजू दीप्तौ तथा भवेत् ।।
भर्गस्याद्भ्राजत इति बहुलं छन्द ईस्तिम् ।
—अग्नि पुराण0
दीप्ति अर्थ में भा धातु से निर्मित भर्ग का अर्थ तेज रूप है। भ्रस्ज धातु से पाक अर्थ में निर्मित भर्ग का अर्थ जो औषधि आदि को पचाता है। प्रकाश स्वरूप भर्ग को वेद में अनेक प्रकार से कहा गया है।
भर्ग की व्युत्पति ।
भ्रस्ज-पाके, असुन्, (भ्रस्जो रोपधयोरन्यतरस्या)
मिति रोपधयोर्लोपः रमागमः न्यङ् क्वादित्वात्कुत्वम् ।
—गृह्य परिशिष्टे
पाक अर्थ में भ्रत्ज धातु से असुन प्रत्यय होकर (भ्रस्जो रोपधयोरन्यतरस्याम्) इति सूत्र से उपधा का लोप और रमागम होकर (न्यङ्ग) आदि से कुत्व होता है इससे भर्ग सिद्ध हुआ है।
तेज को, बल को, शक्ति को, धारण करने की मनुष्य को अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि बल के बिना न जीवन धारण हो सकता है न उन्नति हो सकती है और न घातक तत्वों से आत्म रक्षा हो सकती है। निर्बल को देख कर हर किसी को आक्रमण, अन्याय एवं शोषण करने का लालच आता है, इसलिये न्याय रक्षा के लिए जहां शक्तिवानों को धर्मात्मा बनना उचित है वहां दुर्बलों को भी अपना बल बढ़ाना आवश्यक है। भर्ग शब्द का सन्देश है कि हम अपना शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, चारित्रिक तथा संगठन बल बढ़ावें जिससे दुर्बलता अन्य हानियों से बच सकें।
सत् और असत् दो तत्व प्रधान हैं। एक ओर दैवी दूसरी ओर आसुरी शक्तियां भी इस संसार में काम करती हैं। यह देवासुर संग्राम सदा जारी रहता है। इसमें देव पक्ष का समर्थन करने के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि असुर पक्ष का विरोध किया जाय, उसे नष्ट किया जाय, उससे बचा जाय और सावधान रहा जाय। खेत को पशुओं और पक्षियों से न रखाया जाय तो वे उसे खा जायेंगे। आसुरी शक्तियों से न बचा जाय, उनका प्रतिरोध न किया जाय तो वे अपना काम बड़ी तत्परता से जारी रखती हैं और धीरे धीरे दैवी शक्तियों पर अपना कब्जा करती जाती हैं। बुराई छोटी है, यह समझकर यदि उसकी उपेक्षा की जाय तो वह क्षय रोग की तरह उस अपेक्षा से लाभ उठा कर चुपके चुपके अपना कब्जा जमाती जाती है और एक दिन उसका पूरा आधिपत्य हो जाता है।
इसलिए असत् का, आसुरी वृत्तियों का, नित्य निरीक्षण करना, उनका नित्य दमन करना आवश्यक है। शरीर पर मैल नित्य जमता है यदि उसे नित्य साफ न किया जाय तो देह में दुर्गन्ध आने लगेगी और चर्म रोग घेर लेंगे। अपने में नित्य पैदा होने वाले दोष और दुर्गुणों का भली प्रकार निरीक्षण करके उन्हें दूर न किया जाय तो वे भी अपनी श्रेष्ठता के ऊपर आक्रमण करके उसे परास्त करने का प्रयत्न करेंगे।
अन्य सब आवश्यक कार्यों की तरह यह भी आवश्यक है कि हम अपने दुरितों का नाश करें। अपने चारों ओर फैली हुई कुप्रवृत्तियों से लड़ें। गीता में अर्जुन को ‘‘सदा युद्ध में रत रहने का उपदेश किया गया है यह सतत् युद्ध नीच वृत्तियों के विरुद्ध जारी रखना चाहिए, बुराई को रोकना भलाई उत्पन्न करने के बराबर है।’’ यह आर्ष सिद्धान्त हमें पुण्य सम्पादन की भांति पाप नाश करने की ओर भी प्रोत्साहित करता है।
गायत्री में उस ईश्वर का तेजस्वी और श्रेष्ठ अंश अपने में धारण करने के साथ साथ यह भी आदेश छिपा हुआ है कि हम भर्ग को अपने में धारण कर बुराइयों, पापों, दुर्बलताओं कुप्रवृत्तियों से सावधान रहें और उन्हें नष्ट करने के लिए सदा धर्म युद्ध करते रहें। इसी भावना को भर्ग, शब्द के निम्नलिखित अर्थों में प्रकट किया गया है।
सवितास्वात्ममूतस्तु वरेण्यं सर्व जन्तुभिः ।
भजनोयं द्विजा भर्गः तेजचैतन्य लक्षणम् ।।
स्कन्द पुराण सूत संहित यां0
हे द्विजो! सविता देव का आत्म रूप तथा सर्व जन्तुओं से प्रार्थनीय, चैतन्य रूपी तेज तुम्हारे द्वारा भजनीय है।
भ्रस्ज घञ् आदित्यान्तगति ऐश्वरे तेजसि ।
—सायन भाष्ये ।
भस्ज धातु से घञ् प्रत्यय सूर्य मण्डल के अन्तर्गत विद्यमान ईश्वरीय तेज में होती है।
भाभिर्गतिरस्यहीति भर्गो भर्जयतीति वैस भर्गः ।
—मैत्र्यु प0 6।7
भा धातु गति अर्थ में है अतः जो किरणों द्वारा गति अर्थात् प्रवेश इत्यादि हो वह भर्ग है, अथवा जो संसार का नाश करे वह भर्ग है।
भ्राजते च यदा भर्गः पूर्णा रूपाच्च पुरुषः ।
सर्वात्मा सर्वभावस्तु आत्मा तेन निगद्यते ।।
—त्र्यासः ।
प्रकाश स्वरूप होने से भर्ग नाम है, परिपूर्ण होने से पुरुष है। सर्व रूप से आत्मा कहा गया है।
हृदव्योम्नि तपते ह्येष वाह्ये सूर्यस्य चान्तरे ।
अग्नौ ह्यधुमके ह्येषज्योतिश्चित्र तरंगवत् ।।
—आंगिरसः
यह भर्ग हृदयकाश में तथा बाहर सूर्य मण्डल में विद्यमान है और यह अनेक प्रकार की तरंगों के सदृश धुएं रहित अग्नि में विद्यमान रहता है।
कालाग्निरूपमास्थाय सप्ताचिः सप्तरश्मिमिः ।
भ्राजते स्वेन रूपेण तस्माद्भर्ग इति स्मृतः ।।
—औसनसः
कालाग्नि रूप में विद्यमान होकर सप्त स्फुल्लिंग वाला अग्नि रूप होता है और सप्त किरणों द्वारा अपने रूप से प्रकाशित होने से भर्ग कहा गया है।
सर्वस्यैवोपरिष्टस्य पूरणात्पुरुषः स्मृताः ।
भव भीत्यन्धकारेभ्यः शंकरोति ततः शिवः ।।
—वार्हस्पत्यः ।
यही भर्ग सबसे श्रेष्ठ तथा परिपूर्ण होने से पुरुष कहा गया है। यह भर्ग संसार से भयभीत पुरुषों का कल्याण करता है अतः शिवस्वरूप कहा गया है।
वीर्य वै भर्यः ।
—शतपथ व्रा0 5।451
निःसंशय बल भर्ग रूप है।
पापानां तापकं तेजोमण्डलम् ।
—साथण भाष्ये
पापों को नाश करने वाला सूर्य मण्डल का तेज है।
भञ्जो-आमर्दने भृजी भर्जन इत्येततोर्धात्वोर्भंर्गः ।
भजतां पाप भञ्जन हेतुभूतमित्यर्थः ।
भ्राजृ दीप्तावित्यस्य धीतोर्वा भर्गः तेज इत्यर्थः ।
—भारद्वाज0
भञ्ज धातु आमर्दन अर्थात् नाशन अर्थ में है। और भृज धातु भर्जन-भृजने अर्थात् नाश करने में है। अतः इन दोनों धातुओं से निर्मित भर्ग का अर्थ भजन करने वालों के पापों को नाश करने वाला है। दीप्ति अर्थ में भ्राज धातु से निर्मित भर्ग का अर्थ है।
अविद्या दोष भर्जनात्मक ज्ञानैक विषयत्वम् ।
—शंकर महीधर0
अविद्या जनित दोषों को नाश करने वाला तथा एक मात्र केवल ज्ञानस्वरूप है।
भञ्र्जन्ति पापानि संसार जन्म मरणादि
दुःख मूलानि येन असौ भर्गः ।
—सं0 भा0
संसार के जन्म मृत्यु आदि दुःखों के मूल भूत पापों को जो नाश करता है वह भर्ग है।
भर्गोऽविद्यात्त्कार्ययोर्मर्जनाद्भर्गः ।
स्वयं ज्योतिः परब्रह्मात्मकं तेजः ।।
—सायन0 विद्यारण्य0 भट्टे दी0
अविद्या और उसके कार्यों को नाश करने से भर्ग है। वह स्वयं जाति परब्रह्म तेज है।
भर्गस्तेजः—प्रकाशः प्रकाशो ज्ञानम् ।
यन्निरुपद्रवं निष्पापं निर्गुणं शुद्धं सकल दोष
रहितं पक्वं परमार्थ विज्ञानं स्वरूपं तद्भर्गः ।।
—निरुक्ते तारानाथ0
भर्ग—तेज है। प्रकाश है। प्रकाश-वान है जो उपद्रव रहित, पाप रहित, निर्गुण, शुद्ध, सबल, दोषों से रहित परिपक्व, परमार्थ, ज्ञानस्वरूप है, वही भर्ग है।
प्रकाश प्रदानेन जगतो वाह्याभ्यन्तर तमोमञ्जकस्याद्भर्गः ।
—वरदराज0
जो प्रकाश द्वारा जगत के वाह्य तथा आन्तरिक अन्धकार को नष्ट करता है वह भर्ग है।
भ्रस्ज पाके भवेद्धातुर्यस्मात्पाचयते ह्यसौ ।
भ्राजते दीप्यते यस्माज्जगदन्ते हरन्त्यपि ।।
वृ0 यो0 याज्ञ0 अ0 9-52-53
पचाने अर्थ में भ्रस्ज धातु से भर्ग बनता है अतः जो पचाता है जो संसार को प्रकाशित करता है। तथा अन्त में लय करता है वह भर्ग है।
प्रकाश रूपं यत्प्रकाशेन सर्व प्रकाशः प्रकाशते ।
—सन्ध्या भा0
प्रकाश रूपी जिसके प्रकाश से समस्त प्रकाशों को प्रकाशित करता है वह भर्ग है।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा
विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।
—कठोपनिषद्
न वहां सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा, न तारागण, न विद्युत प्रकाशित होती है, तब अग्नि का प्रकाश वहां कैसे हो सकता है। जब उसके प्रकाशित होने पर उसके प्रकाश से ये समस्त प्रकाशित होते हैं ऐसा वह भर्ग है।
भेति—भासयते लोकान् रेति रञ्जयते प्रजाः ।
ग—इत्यागच्छतेऽजस्रं भरगादर्ग उच्चते ।।
—वृ0 यो0 याज्ञ0 अ0 9
भ—सर्व लोकों को प्रकाशित करता है, र—प्रजा को आनन्दित करता है, ग—बारम्बार लय करता है, इस कारण से भर्ग कहा जाता है।
भ—भासयतीमां ल्लोकानिति ।
र—रज्जयति इमानि भूतानि ।
ग—गच्छन्त्यस्मिन्ना गच्छन्त्यस्मादिमाः
प्रजास्तस्माद्भरणत्वाद्भर्गः ।
—मैत्र्यु प0 6।7
भकार समस्त लोगों को प्रकाशित करता है, रकार प्राणियों को आनन्दित करता है। जिस आत्मा में प्रजा प्रलय काल में लय होती है और सृष्टि काल में जिससे उत्पन्न होती है ग-कार है। इस कारण भर्ग कहते हैं।
मण्डलं पुरुषो रश्मय इति त्रयं भर्ग पद वाच्यम् ।
—शुक्ल यजुर्वेद, काजसनेय सं0
सूर्य मण्डल, पुरुष (ईश्वर) किरण, ये तीन भर्ग के नाम हैं।
गायत्र्येव भर्गः तेजो वै गायत्री ।
—गोपथ ब्रा0 रा0 5।15
गायत्री ही भर्ग है, और भर्ग ही गायत्री है।
एतदूब्रह्मैतदमृतमेतद्भर्गः ।
मैत्र्यु प0 6।35
यही ब्रह्म है, यही अमृत है, यही भर्ग है।
तज्ज्योतिः परमं ब्रह्म है इस कारण भर्ग तेज रूप है।
भर्गः—अद्वयाननन्दलक्षणं सर्वजगदुपदानं परिपूर्ण
ज्योति रूपं विम्वस्थानीयं ब्रह्म वाक्यार्थतया ।
पर्यवसन्नं एतादृग्ब्राह्मं तद्रूपत्वेनेति शेषः ।।
—निर्णय कल्पवल्याख्य
द्वैत रहित, आनन्द स्वरूप, समस्त जगत का आधार परम ज्योति स्वरूप, मण्डलस्थान वर्ती, ब्रह्म वाक्यों के अर्थ से सम्पन्न ऐसा ब्रह्म स्वरूप वह भर्ग है।
ईश्वरं पुरुषाख्यं तु सत्यधमार्णामव्ययम् ।
भर्गाख्यं विष्णु संज्ञंतु यं ज्ञात्वाऽसृतमश्नुते ।।
—व्यासः
ईश्वर, पुरुष नामक, सत्य धर्मवान, अविनाशी, भर्ग विष्णु का तेज है, जिसको जानकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है।
तेजो वै ब्रह्मवर्चसम् । गायत्री तेजस्वी वर्चसी भवति ।
—ऐतरेय व्रा0 अ0 1 ख0 1 ब्राह्मण
निश्चय करके भर्ग ब्रह्म तेज है, अतः गायत्री तेज स्वरूप है।
शिखं केचित्पठतिस्म शक्ति रूपं पठन्ति व ।
केचित्सूर्य केचिदग्निं वेदगा अग्नि होत्रिणः ।।
—भार्गवः
इस भर्ग को कोई शिव कहते हैं, कोई शक्तिमान कहते हैं, कोई सूर्य, कोई वैदिक अग्निहोत्रीय अग्नि कहते हैं।
भादीप्ताविति रूपं हि भृस्जपाकेऽथास्मृतम् ।
ओसध्यादिकं पचति भ्राजू दीप्तौ तथा भवेत् ।।
भर्गस्याद्भ्राजत इति बहुलं छन्द ईस्तिम् ।
—अग्नि पुराण0
दीप्ति अर्थ में भा धातु से निर्मित भर्ग का अर्थ तेज रूप है। भ्रस्ज धातु से पाक अर्थ में निर्मित भर्ग का अर्थ जो औषधि आदि को पचाता है। प्रकाश स्वरूप भर्ग को वेद में अनेक प्रकार से कहा गया है।
भर्ग की व्युत्पति ।
भ्रस्ज-पाके, असुन्, (भ्रस्जो रोपधयोरन्यतरस्या)
मिति रोपधयोर्लोपः रमागमः न्यङ् क्वादित्वात्कुत्वम् ।
—गृह्य परिशिष्टे
पाक अर्थ में भ्रत्ज धातु से असुन प्रत्यय होकर (भ्रस्जो रोपधयोरन्यतरस्याम्) इति सूत्र से उपधा का लोप और रमागम होकर (न्यङ्ग) आदि से कुत्व होता है इससे भर्ग सिद्ध हुआ है।
तेज को, बल को, शक्ति को, धारण करने की मनुष्य को अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि बल के बिना न जीवन धारण हो सकता है न उन्नति हो सकती है और न घातक तत्वों से आत्म रक्षा हो सकती है। निर्बल को देख कर हर किसी को आक्रमण, अन्याय एवं शोषण करने का लालच आता है, इसलिये न्याय रक्षा के लिए जहां शक्तिवानों को धर्मात्मा बनना उचित है वहां दुर्बलों को भी अपना बल बढ़ाना आवश्यक है। भर्ग शब्द का सन्देश है कि हम अपना शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, चारित्रिक तथा संगठन बल बढ़ावें जिससे दुर्बलता अन्य हानियों से बच सकें।