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Books - गायत्री का मन्त्रार्थ

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


‘तत्’ शब्द का विवेचन

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तत् कहते हैं ‘उस’ या ‘वह’ को। तत् शब्द किसी की ओर संकेत करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। गायत्री में यह शब्द उस परमात्मा को संकेत करता है। परमात्मा की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
केवल संकेत मात्र इसलिए किया गया है कि परमात्मा के विषय में जितना भी वर्णन किया जाता है वह पूर्ण नहीं वरन् सर्वथा अपूर्ण है। कोई भी परमात्मा का वर्णन चाहे वह कितने ही विस्तार से क्यों न किया हो अपूर्ण ही रहेगा, क्योंकि उसकी महिमा मानव बुद्धि की सीमा से बाहर है। यह सब वर्णन केवल मात्र परमात्मा की ओर एक संकेत मात्र है, जैसे उंगली का इशारा करके किसी दूरस्थ वस्तु को दिखाते हैं कि देखो वह वस्तु वहां है। उस वस्तु को देखना, उस देखने वाले की आंखों पर, नेत्र ज्योति पर निर्भर है। उंगली के इशारे से तो एक दिशा का ज्ञान कराया जाता है कि वह वस्तु इस दिशा में है। गायत्री के आरम्भिक पद में उस मर्यादा का ध्यान रखा गया है। ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करने की अपेक्षा केवल संकेत मात्र किया गया है कि ‘उस’ परमात्मा को देखो। वह परमात्मा कैसा है उसका ज्ञान शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की पंच भौतिक तन्मात्राओं से नहीं वरन् देखने वालों की अन्तरात्मा द्वारा ही हो सकता है। आत्मा जब परमात्मा के समीप पहुंचता है तभी उसे उसका रूप प्रतीत होता है। भाषा और लिपि की असमर्थता को, सीमितता को ध्यान में रखते हुए गायत्री ने परमात्मा को ‘तत्’ शब्द से अंगुली निर्देश किया है। जिसे आवश्यकता होगी, जो उसका महत्व समझेगा वह स्वयं उसका स्वरूप जानने का प्रयत्न करेगा और उसे प्राप्त कर लेगा।
नीचे के प्रमाणों में ‘तत्’ शब्द ईश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। इससे जाना जा सकता है कि यहां ‘तत्’ शब्द का संकेत ईश्वर की ओर है—
तच्छब्देन प्रत्यग्भूतंस्वतः सिद्धं परं ब्रह्मोच्यते ।
—शांकर भाष्यः
‘तत्’ शब्द से प्रत्यक्ष तथा स्वतः सिद्ध ब्रह्म कहा जाता है।
तदति अव्ययं परोक्षार्थे ।
—संध्या भाष्य
‘तत्’ शब्द परोक्षार्थ में अव्ययवाची है परोक्षार्थ उसको कहते हैं जो दृष्टिगोचर न हो।
तच्छब्दः स्वबुद्धि भेदकृतः अतिदूरतमे
अत्युकर्साख्येऽर्थे वर्तते ।
—विष्णु भाष्य
‘तत्’ शब्द बुद्धिकृत अर्थ से अति दूर और अति श्रेष्ठ अर्थ वाला है।
ओं तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्रिविधस्मृतः ।
—गीता अ. 17।3
ॐ ‘‘तत्’’ सत्, ये तीन ब्रह्म नाम परब्रह्म के कहे गये हैं अतः तत् ब्रह्मस्वरूप है।
तत्, तस्य सर्वासु श्रुतिषु प्रसिद्धस्य ।
तत् उसका नाम है, जो समस्त श्रुतियों में प्रसिद्ध है।
तदित्यनमिसन्ध्याय फलं यज्ञ तपःक्रिया ।
दानक्रियाश्च विविधा क्रियन्ते मोक्ष कांक्षिभिः ।।
यज्ञ, तप, दान इत्यादिक क्रियाओं के फल की आशा रहित हो ‘तत्’ पदार्थ परमात्मा को लक्ष्य करके मुमुक्षुगण कार्य करते हैं।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा ।
गच्छंत्य पुनरावृत्ति ज्ञाननिर्धूतकल्मषा ।।
—गीता अ0 5।17
‘‘तत्’’ अर्थात् इस परमात्मा के रूप में जिसकी बुद्धि, आत्मा, प्रतिष्ठा और परायणता है वह ज्ञान द्वारा पाप रहित हुआ मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।
तद्विद्वि प्रणिपातेन परप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्व दर्शिनः ।।
‘तत्’ अर्थात् उस ईश्वरीय ज्ञान को, प्रणाम, प्रश्न तथा सेवा द्वारा जान। वे ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
गायत्री मन्त्र ‘तत्’ शब्द से प्रारम्भ होता है इस प्रारम्भिक शब्द में ईश्वर की ओर संकेत किया गया है, ताकि इस परब्रह्म परमात्मा की सर्व व्यापकता को ध्यान में रख कर साधक उसी प्रकार बुराइयों से बचे जैसे पुलिस को सामने खड़े देख कर चोर को भी दुष्कर्म करने का साहस नहीं होता। उस परमात्मा को इसलिए भी याद रखना आवश्यक है कि प्रत्येक जड़ चेतन के साथ सद्भावना पूर्ण सद्व्यवहार करने का साधक को ध्यान रहे तत् (उस) परमात्मा की ओर गायत्री के प्रथम पद में इसीलिए संकेत किया गया है।
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