Books - गायत्री का मन्त्रार्थ
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Language: HINDI
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धीमहि’ शब्द का अर्थ
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धीमहि, कहते हैं ध्यान को। ध्यान का चमत्कार प्रत्यक्ष है। जिस वस्तु का हम ध्यान करते हैं उस पर मन जमता है, मन जमने से उसमें रुचि उत्पन्न होती है। रुचि उत्पन्न होने से उसे प्राप्त करने की आकांक्षा बढ़ती है, इस आकांक्षा से प्रयत्न उत्पन्न होता है और यह प्रयत्न अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति करा देता है। ध्यान बीज है और सफलता उसका फल। बीज अपनी क्रमिक अवस्थाओं में विकसित होता हुआ फल के रूप में परिणित होता है। बिना बीज के न वृक्ष हो सकता है न फल।
यह ठीक है कि अनेक बार बोये गये बीज निरर्थक चले जाते हैं, उनमें अंकुर उगते नहीं या लग कर सूख जाते हैं। इसके अनेक कारण होते हैं, बीज का निर्जीव होना, भूमि अच्छी न मिलना, ऋतु अनुकूल न होना, समय पर खाद पानी न मिलना, कीड़े, मकोड़े, चिड़ियों या पशुओं से रक्षा न होना, आदि कारणों से कई बार बोये हुए बीज निष्फल होते देखे गये हैं। इतना होने पर भी बीज की अनिवार्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि जब कभी भी कोई पेड़ पौधा उगेगा, बढ़ेगा या फल देगा तो उसके मूल में कोई न कोई बीज अवश्य रहा होगा। यह हो नहीं सकता कि शाखाओं में रहने वाले ग्रन्थि बीज या फलों में रहने वाले सुष्ठ बीज में से किन्हीं किसी बीज के बिना वह पौधा उत्पन्न हुआ हो। वृक्ष के मूल में बीज का रहना अनिवार्य है। जिसे पौधा उपजाना होगा उसे यह जानते हुए भी कि अनेक बार बीज निरर्थक भी चले जाते हैं आखिर बीज का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा।
कोई भी कार्य पहले कल्पना में आता है, फिर उसकी योजना बनती है तब यह क्रिया के रूप में प्रकट होता है। ध्यान में यही मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया काम करती है। किसी तथ्य पर चित्त वृत्तियों का एकाग्र करना ध्यान कहलाता है। ध्यान का सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि उससे चित्त की बिखरी हुई वृत्तियों को एक स्थान पर एकत्रित होने का अभ्यास होता है। यह अभ्यास ही योग साधन है। पातंजलि योग में चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। ध्यान के द्वारा वह साधना होती है, एकाग्रता आती है, चित्त स्थिर होता है और मन के ऊपर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। यह एकाग्रता एक ऐसी शक्ति है जिससे मैस्मरेजम जैसे छोटे-मोटे खेल तो चुटकी बजाते बजाते होते हैं। थोड़ा अभ्यास बढ़ने पर भी जीवन की प्रत्येक दशा में लाभ ही लाभ, सफलता ही सफलता दृष्टिगोचर होती है।
दूसरा लाभ ध्यान का यह है कि जिस वस्तु का ध्यान करते हैं वह धीरे धीरे हमारे मन की रुचि का प्रधान विषय बन जाती है। जो व्यक्ति कामिनियों का ध्यान करते रहते हैं उनका अन्तःकरण कालान्तर में व्यभिचारी हो जाता है। जो धर्म का, ईश्वर का, चिन्तन करते हैं वे कालान्तर में साधु वृत्ति के बन जाते हैं। गायत्री मन्त्र के पूर्वार्ध में उस सविता, वरेण्य, भर्ग और देव शक्ति वाले ईश्वर का ध्यान करने का आदेश किया है ताकि ईश्वर की इन्हीं शक्तियों को विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित किया जा सके। इन शक्तियों को ध्यान करने का परिणाम यही हो सकता है कि हम तेजस्विता, श्रेष्ठता दम, एवं दिव्यता को अपने अन्दर अधिकाधिक मात्रा में धारण करते जायं और अन्ततः हम सत्य शिव सुन्दर सत्ता से अपने को ओत-प्रोत करलें। धीमहि का अर्थ है ध्यान करना। मन को जिस कार्य में लगा दिया जाता है शरीर के अन्य भाग भी उसी ओर अग्रसर होते हैं। जिन तथ्यों का हम ध्यान करेंगे वे ही हम में प्रकट होंगे।
ध्यानेन हेया वृत्तयः ।
यो0 सू0 पा0 2।11
ध्यान द्वारा नीच वृत्तियां त्याग देनी चाहिए।
रागो पहिमध्यानं ।
—सांख्य सूत्रे अ0 3 सू0 30
किसी वस्तु में अनुराग से युक्त हो जाना ध्यान है।
धीमहि-आत्मना आत्मरूपेणध्यानं कृता ।
ध्यानं नाम सर्व शरीरेषु चैतन्यैकतानता ।।
आत्मा रूप द्वारा हम आत्मा का ध्यान करते हैं, समस्त शरीर में चेतना का फैलना ध्यान कहलाता है।
वयंध्यायेम—ध्येयतया मनसा धारयेम वा
वयम् उपसीमहि उपास्महे वा ।
हम मन में ध्येय वस्तु को धारण करते हैं अथवा हम उपासना करते हैं।
ध्यायते अनया ध्यानं वा धीः
ध्यायते सम्प्रसारणं च इतिं ।
धियः सम्प्रसारणे इति दीर्घः ।।
—निर्ण कल्पव्याख्या सं0 भा0
जिसके द्वारा ध्यान किया जाय उसको ध्यान अथवा धीः कहते हैं।
ध्यानेन लभते मोक्षं मोक्षेण लभते सुखम् ।
सुखेनानन्द वृद्धिः स्यादानन्दोब्रह्म विग्रहः ।।
रुद्रयामलोत्तर तन्त्रे पट0 24-139-3
ध्यान द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष से सुख प्राप्त होता है। सुख से आनन्द की वृद्धि होती है और आनन्द ही ब्रह्मस्वरूप है।
ब्रह्मैव साक्षिरूपमिति तल्लक्षणतया ।
ध्याति तमुपपन्नमिति ।।
—निर्णय क0
ब्रह्म ही साक्षी रूप है, इस उद्देश्य से ध्यान करना उचित है।
अहं ब्रह्मेति धीमहि ।
—अग्नि पु0 अ0 216।18
मैं ब्रह्म रूप हूं ऐसा ध्यान करता हूं।
* धीमहि की सिद्धि *
धीङ् आधारे, लिङ बहुलं छन्दसीति विकरणस्य ।
लुकाध्यातृध्येय व्यापारा मिन्नत्वमेव ध्यानम्
गृह्यपरिशिष्टे सायन0
आधार अर्थ में धीङ् धातु से (लिङि बहुलं छन्दसि) इस सूत्र से विकरण का लोप हो ध्यान बनता है, अर्थ-ध्यान करने वाले का ध्येय वस्तु से अभिन्न सम्बन्ध होना-ध्यान कहलाता है।
ध्यै—चिन्तायाम् । ध्यायतेर्लिङ् बहुलं छन्दसीति
सम्प्रसारणम् अव्यत्ययेनात्मने पदम्ध्यायामः
चिन्तयामः निगमनिरुक्तविधानरूपेण चक्षुपा
निदिध्यासं तद्विषयं कुर्मइति ।
—भारद्वाज गृह्य परिशिष्ट ।
चिन्तवन अर्थ में ध्यौ धातु से (बहुल छन्दसि) इस सूत्र से सम्प्रसारण होकर व्यत्यय करने से आत्मनेपद हुआ। अर्थ-निगम, निरुक्त, विधानरूपी नेत्रों से उस स्वरूप का चिन्तन करता हूं, ध्यान करता हूं।
धियः शब्द का आदेश यह है कि हम अपने ध्यान क्षेत्र में उन विचारों की ही प्रतिष्ठा करें जो हमारे आत्मकल्याण के लिये श्रेयष्कर हैं। ध्यान, विचार भान्य, संकल्प, स्मृति, कल्पना, इच्छा, आकांक्षा की अन्तःभूमि में जैसे आदर्श स्थापित किये जायेंगे, जिस दिशा में उनकी गति विधि होगी उसी के आधार पर जीवन की कार्य प्रणाली बनेगी और वैसे ही परिणाम उपलब्ध होंगे। इसलिये सबसे अधिक सतर्कता, सबसे अधिक पवित्रता जिसकी रखी जानी चाहिए वह ध्यान क्षेत्र ही है। हमारे मस्तिष्क में, मन में, तत् (ईश्वरीय) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (शक्तिशाली) देवस्य (दिव्य) की धीमहि (धारण) होनी चाहिये। तभी हम गायत्री में निहित लक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
यह ठीक है कि अनेक बार बोये गये बीज निरर्थक चले जाते हैं, उनमें अंकुर उगते नहीं या लग कर सूख जाते हैं। इसके अनेक कारण होते हैं, बीज का निर्जीव होना, भूमि अच्छी न मिलना, ऋतु अनुकूल न होना, समय पर खाद पानी न मिलना, कीड़े, मकोड़े, चिड़ियों या पशुओं से रक्षा न होना, आदि कारणों से कई बार बोये हुए बीज निष्फल होते देखे गये हैं। इतना होने पर भी बीज की अनिवार्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि जब कभी भी कोई पेड़ पौधा उगेगा, बढ़ेगा या फल देगा तो उसके मूल में कोई न कोई बीज अवश्य रहा होगा। यह हो नहीं सकता कि शाखाओं में रहने वाले ग्रन्थि बीज या फलों में रहने वाले सुष्ठ बीज में से किन्हीं किसी बीज के बिना वह पौधा उत्पन्न हुआ हो। वृक्ष के मूल में बीज का रहना अनिवार्य है। जिसे पौधा उपजाना होगा उसे यह जानते हुए भी कि अनेक बार बीज निरर्थक भी चले जाते हैं आखिर बीज का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा।
कोई भी कार्य पहले कल्पना में आता है, फिर उसकी योजना बनती है तब यह क्रिया के रूप में प्रकट होता है। ध्यान में यही मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया काम करती है। किसी तथ्य पर चित्त वृत्तियों का एकाग्र करना ध्यान कहलाता है। ध्यान का सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि उससे चित्त की बिखरी हुई वृत्तियों को एक स्थान पर एकत्रित होने का अभ्यास होता है। यह अभ्यास ही योग साधन है। पातंजलि योग में चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। ध्यान के द्वारा वह साधना होती है, एकाग्रता आती है, चित्त स्थिर होता है और मन के ऊपर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। यह एकाग्रता एक ऐसी शक्ति है जिससे मैस्मरेजम जैसे छोटे-मोटे खेल तो चुटकी बजाते बजाते होते हैं। थोड़ा अभ्यास बढ़ने पर भी जीवन की प्रत्येक दशा में लाभ ही लाभ, सफलता ही सफलता दृष्टिगोचर होती है।
दूसरा लाभ ध्यान का यह है कि जिस वस्तु का ध्यान करते हैं वह धीरे धीरे हमारे मन की रुचि का प्रधान विषय बन जाती है। जो व्यक्ति कामिनियों का ध्यान करते रहते हैं उनका अन्तःकरण कालान्तर में व्यभिचारी हो जाता है। जो धर्म का, ईश्वर का, चिन्तन करते हैं वे कालान्तर में साधु वृत्ति के बन जाते हैं। गायत्री मन्त्र के पूर्वार्ध में उस सविता, वरेण्य, भर्ग और देव शक्ति वाले ईश्वर का ध्यान करने का आदेश किया है ताकि ईश्वर की इन्हीं शक्तियों को विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित किया जा सके। इन शक्तियों को ध्यान करने का परिणाम यही हो सकता है कि हम तेजस्विता, श्रेष्ठता दम, एवं दिव्यता को अपने अन्दर अधिकाधिक मात्रा में धारण करते जायं और अन्ततः हम सत्य शिव सुन्दर सत्ता से अपने को ओत-प्रोत करलें। धीमहि का अर्थ है ध्यान करना। मन को जिस कार्य में लगा दिया जाता है शरीर के अन्य भाग भी उसी ओर अग्रसर होते हैं। जिन तथ्यों का हम ध्यान करेंगे वे ही हम में प्रकट होंगे।
ध्यानेन हेया वृत्तयः ।
यो0 सू0 पा0 2।11
ध्यान द्वारा नीच वृत्तियां त्याग देनी चाहिए।
रागो पहिमध्यानं ।
—सांख्य सूत्रे अ0 3 सू0 30
किसी वस्तु में अनुराग से युक्त हो जाना ध्यान है।
धीमहि-आत्मना आत्मरूपेणध्यानं कृता ।
ध्यानं नाम सर्व शरीरेषु चैतन्यैकतानता ।।
आत्मा रूप द्वारा हम आत्मा का ध्यान करते हैं, समस्त शरीर में चेतना का फैलना ध्यान कहलाता है।
वयंध्यायेम—ध्येयतया मनसा धारयेम वा
वयम् उपसीमहि उपास्महे वा ।
हम मन में ध्येय वस्तु को धारण करते हैं अथवा हम उपासना करते हैं।
ध्यायते अनया ध्यानं वा धीः
ध्यायते सम्प्रसारणं च इतिं ।
धियः सम्प्रसारणे इति दीर्घः ।।
—निर्ण कल्पव्याख्या सं0 भा0
जिसके द्वारा ध्यान किया जाय उसको ध्यान अथवा धीः कहते हैं।
ध्यानेन लभते मोक्षं मोक्षेण लभते सुखम् ।
सुखेनानन्द वृद्धिः स्यादानन्दोब्रह्म विग्रहः ।।
रुद्रयामलोत्तर तन्त्रे पट0 24-139-3
ध्यान द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मोक्ष से सुख प्राप्त होता है। सुख से आनन्द की वृद्धि होती है और आनन्द ही ब्रह्मस्वरूप है।
ब्रह्मैव साक्षिरूपमिति तल्लक्षणतया ।
ध्याति तमुपपन्नमिति ।।
—निर्णय क0
ब्रह्म ही साक्षी रूप है, इस उद्देश्य से ध्यान करना उचित है।
अहं ब्रह्मेति धीमहि ।
—अग्नि पु0 अ0 216।18
मैं ब्रह्म रूप हूं ऐसा ध्यान करता हूं।
* धीमहि की सिद्धि *
धीङ् आधारे, लिङ बहुलं छन्दसीति विकरणस्य ।
लुकाध्यातृध्येय व्यापारा मिन्नत्वमेव ध्यानम्
गृह्यपरिशिष्टे सायन0
आधार अर्थ में धीङ् धातु से (लिङि बहुलं छन्दसि) इस सूत्र से विकरण का लोप हो ध्यान बनता है, अर्थ-ध्यान करने वाले का ध्येय वस्तु से अभिन्न सम्बन्ध होना-ध्यान कहलाता है।
ध्यै—चिन्तायाम् । ध्यायतेर्लिङ् बहुलं छन्दसीति
सम्प्रसारणम् अव्यत्ययेनात्मने पदम्ध्यायामः
चिन्तयामः निगमनिरुक्तविधानरूपेण चक्षुपा
निदिध्यासं तद्विषयं कुर्मइति ।
—भारद्वाज गृह्य परिशिष्ट ।
चिन्तवन अर्थ में ध्यौ धातु से (बहुल छन्दसि) इस सूत्र से सम्प्रसारण होकर व्यत्यय करने से आत्मनेपद हुआ। अर्थ-निगम, निरुक्त, विधानरूपी नेत्रों से उस स्वरूप का चिन्तन करता हूं, ध्यान करता हूं।
धियः शब्द का आदेश यह है कि हम अपने ध्यान क्षेत्र में उन विचारों की ही प्रतिष्ठा करें जो हमारे आत्मकल्याण के लिये श्रेयष्कर हैं। ध्यान, विचार भान्य, संकल्प, स्मृति, कल्पना, इच्छा, आकांक्षा की अन्तःभूमि में जैसे आदर्श स्थापित किये जायेंगे, जिस दिशा में उनकी गति विधि होगी उसी के आधार पर जीवन की कार्य प्रणाली बनेगी और वैसे ही परिणाम उपलब्ध होंगे। इसलिये सबसे अधिक सतर्कता, सबसे अधिक पवित्रता जिसकी रखी जानी चाहिए वह ध्यान क्षेत्र ही है। हमारे मस्तिष्क में, मन में, तत् (ईश्वरीय) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (शक्तिशाली) देवस्य (दिव्य) की धीमहि (धारण) होनी चाहिये। तभी हम गायत्री में निहित लक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।