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Books - गायत्री का मन्त्रार्थ

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


प्रचोदयात् का रहस्य

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प्रचोदयात् का अर्थ है—प्रेरणा करना, जोड़ना, बढ़ाना। गायत्री द्वारा उस सविता, वरेण्य, भर्ग, देव का ध्यान करते हैं। यह ध्यान इसलिए करते हैं कि उसमें सद्बुद्धि की याचना परमात्मा से की गई है। पर वह आज दीन हीन विधि से नहीं वरन् वैदिक संस्कृति के अनुसार, आत्म गौरव से युक्त भावना से की गई है। दीनता के साथ भिक्षा मांग लेने का भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाता फिर चाहे वह भिक्षा ईश्वर से ही क्यों न मांगी गई हो।
प्रचोदयात् कह कर परमात्मा से बुद्धि को प्रेरित करने की याचना की गई है। वे हमारी बुद्धि को प्रेरणा दें जिससे उत्साहित होकर हम अपने अन्तःकरण का निर्माण करने में जुट जावें। अपनी कुबुद्धि से लड़ कर उसे परास्त करें और उसके स्थान पर सुबुद्धि के स्थापन का पुरुषार्थ दिखावें। भारतीय संस्कृति कर्मवाद की संस्कृति है, उसमें पुरुषार्थ, प्रयत्न, संघर्ष और श्रम करके अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त करने का आदेश है। ईश्वर से जो भी प्रार्थनाएं की गई हैं उनमें ईश्वर का आशीर्वाद, पथ प्रदर्शन, नेतृत्व मांगा गया है। गुरुजनों कसे भी शुभ कार्यों से आरम्भ में इसी प्रकार से आशीर्वाद मांगा जाता है। जब बालक परीक्षा देने जाते हैं तब गुरुओं से उत्तीर्ण होने का आशीर्वाद मांगते हैं। आशीर्वाद को पाकर छात्र का उत्साह बढ़ता है। वह अपने प्रयत्न से परीक्षा में उत्तीर्ण होता है। कोई छात्र यह आशा रखे कि मुझे स्वयं कुछ प्रयत्न न करना पड़े और केवल मात्र आशीर्वाद की शक्ति से उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र मिल जाय तो यह अनुचित आशा कही जायगी।
ईश्वरीय विधान में कर्म के साथ फल को जोड़ा गया है, यत्न की पूंछ से सफलता बंधी हुई है। आज जो प्रारब्ध या भाग्य के रूप में हमारे सामने मौजूद है वह एक समय का कर्म है, कालान्तर में कर्म का जब परिपाक हो जाता है तो उसे भाग्य कहते हैं। भाग्य का कारण ईश्वर की कृपा या अकृपा नहीं वरन् भूतकाल में किये हुए अपने कर्म ही हैं जो पक कर समयानुसार हमारे सामने उगते हैं और प्रारब्ध कहलाते हैं। ईश्वर किसी पर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता, उसके लिए सब प्राणी समान हैं, सबको उसने समान अवसर और अधिकार दिये हैं। साथ ही यह स्वाधीनता भी दी है कि भले या बुरे जैसे चाहे वैसे कर्म करे परन्तु कर्म फल की दृष्टि से उसे परतन्त्र रखा है, अपने किये हुए कर्मों के फल से बचना कठिन है।
गुरुजनों से या ईश्वर से आशीर्वाद मांगना ही उचित है, क्योंकि उनका अन्तःकरण सदा ही सत्प्रयत्न करने वालों के लिए स्वयमेव प्रवाहित होता रहता है। जैसे ही हम सन्मार्ग की ओर कदम उठाते हैं वैसे ही वह आशीर्वाद और भी बल पूर्वक हमारे साथ संयुक्त हो जाता है, परन्तु यदि हम कुपथ पर चलें या आलसी, प्रमादी बने बैठे रहें और ईश्वर से सहायता की आशा रखें तो ऐसी आशा फलवती नहीं हो सकती। कर्मफल की सुदृढ़ व्यवस्था को तोड़ कर ईश्वर ऐसा नहीं करता कि किसी की निन्दा स्तुति से, प्रसन्न अप्रसन्न होकर चाहे जैसी उलटी सीधी व्यवस्था बनावे।
प्रार्थना का अर्थ है किसी पदार्थ को श्रद्धापूर्वक अपने में अभिमन्त्रित करना, अपने अन्दर स्थापित करना, अपनी वृत्तियों को उस ओर लगाना। अपनी आन्तरिक स्थिति इस प्रकार की बनाना जिसमें कि अभीष्ट इच्छा की पूर्ति के लिए विचार और कार्यों के लिए समुचित भूमि तैयार हो जाय। दिव्य शक्तियां हमें आशीर्वाद, प्रेरणा और प्रोत्साहन देती हैं। यह सूक्ष्म दान हमारी अन्तः प्रवृत्तियों को मोड़ने में सहायक सिद्ध होता है। इसलिये उसका महत्व असाधारण है, विश्वास बीज का किसी दिशा में मुड़ जाना इस बात का दृढ़ आधार है कि मन की अन्य वृत्तियां भी उसी दिशा में मुड़ेंगी। प्रार्थना एक मनोवैज्ञानिक सम्मत धार्मिक क्रिया है जो हमारी मनोभूमि को ऐसी उर्वर बनाती है जिसमें मनोवांछित स्थिति भली प्रकार उग सके और फलफूल सके।
गायत्री मन्त्र में प्रचोदयात् शब्द बहुत ही शानदार है। उसमें आत्मा के गौरव की पूर्णतया रक्षा की गई है। आत्मा शक्तियों का भण्डार है। उसमें वे सब तत्व मौजूद हैं जिसकी सहायता से वह मनचाही स्थितियां तथा वस्तुएं प्राप्त कर सके। उसे किसी वस्तु या स्थिति की याचना करने की आवश्यकता नहीं, केवल ऐसी प्रेरणा की आवश्यकता है जिससे बुद्धि शुद्ध हो जाय, कुबुद्धि का निवारण होकर उसका स्थान सुबुद्धि ग्रहण करले। जब सुबुद्धि आ जायगी तो संसार का कोई ऐश्वर्य उसके लिए दुर्लभ न होगा। गायत्री में सद्बुद्धि के लिए नहीं, सद्बुद्धि की प्रेरणा, प्रोत्साहन, आशीर्वाद देने की ईश्वर से प्रार्थना की गई है क्योंकि सद्बुद्धि भी अपने प्रयत्न से ही आती है, इसके लिए संयम, व्रत, उपवास, जप, तप, स्वाध्याय, सत्संग सेवा आदि सत्कर्मों का आश्रय लेना पड़ता है, पर उसकी प्रेरणा ईश्वर से ही प्राप्त होती है। अन्तःप्रेरणा न हो तो उपरोक्त सारे कर्मकाण्ड निरर्थक हैं। आत्म दर्शन के ब्रह्म प्राप्ति के दैवी वरदान के लिए जिस अन्तः प्रेरणा की आवश्यकता है उसी की परमात्मा से प्रार्थना याचना की गई है। प्रचोदयात् शब्द इसी प्रेरणा का बोधक है। नीचे के प्रमाणों में यही बताया भी गया है :—
प्रेरयति, अयमायः सर्वस्याश्चेतनाय ।
अचेतनचेतनोऽपि भगवांश्चात्र प्रतिप्रेरयति ।।
—विष्णु0 भा0
प्रेरयति का यह भावार्थ है, समस्त अचेतनों को तथा समस्त चेतनाओं को भी भगवान यहां चैतन्य करता है।
योजयति धर्मार्थकाममोक्षे चास्मदादीनां बुद्धिम् ।
—भारद्वाज0 यो0 याज्ञ0
हमारी बुद्धि को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में युक्त करता है।
चुदू-र्प्रेरणे, प्रकर्षैण चोदयति प्रेरयति ।
—सायन0 महीधर0
चुद् धातु प्रेरणा करने में है, अतः प्रचोदयात् का अर्थ, सम्यक् प्रकार से हमारी बुद्धि को प्रेरणा करे।
प्रचोदयात्-प्रेरयत् ।
—भार्गव0
प्रचोदयात् अर्थात् प्रेरणा करे।
प्रचोदयात्-प्रकर्षेण प्रेष्यति, सकलं कर्मानुष्ठान
प्रवीण दुष्कर्म विमुखाश्चास्मद् बुद्धिः करोति,
वृत्तोः प्रकाशयतीत् वा ।
—तैत्तरीय0 सन्ध्या भाष्य
अच्छी प्रकार हमारी बुद्धि को पवित्र कर्मों में प्रवीण और दुष्कर्म से विमुख करें, अन्तःकरण की वृत्ति को प्रकाशित करें।
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