Books - गायत्री का मन्त्रार्थ
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रपञ्चसार तंत्रोक्त अर्थ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भूःपदाद्या व्याहृतयो भूः शब्द स्तदितिवर्तते ।
तत्पदं सदिति प्रोक्तं सन्मात्रत्वात् तु भूरतः ।।
व्याहृतियों में भूः शब्द आरम्भ में है। जिसका अर्थ तत् है। तत् सत् का द्योतक है। सत कहने से सत्ता का भान होता है। इससे सगुण ब्रह्म का परिचय मिलता है।
भूतत्वात् कारणत्वाच्च भुवः शब्दस्य संगतिः ।
सर्वस्य स्वीरणात् स्वात्मतया च स्वरितीरितम् ।।
भू तत्व से उपादान कारण का अर्थ निकलता है। भुवः से संगति लगती है और स्वः से स्वर्ग सुख का संकेत मिलता है।
तद् द्वितीयैकवचनमनेनाऽस्विल वस्तुनः ।
सृष्ट्यादि कारणं तेजो रूपमादित्य मण्डले ।।
अभिध्येयं सदानन्दं पर ब्रह्माऽमिधीयते ।
यत्तत् सवितुरित्युक्तं षष्ठ्येक वचनात्मकम् ।।
तद् शब्द द्वतीया का एक वचन है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण वस्तुओं का जो सृष्टि कर्त्ता। आदि में कारिणी भूत, तेजोमय आदित्य मण्डल में जो आनन्द रूप परब्रह्म है, उसका ध्यान करने के लिए तत् का प्रयोग है। यह तत् सत है, वह सविता है जो कि षष्ठी का एक वचन है।
धातोरिह विनिष्पन्नं प्राणि प्रसव वाचकात ।
सर्वासां प्राणिजातीनामिति प्रसवितुः सदा ।।
वह धाता है उससे प्राणियों का प्रसव होता है। वह सर्व प्राणियों का निरन्तर प्रसव करता है इसलिए उसे सविता कहते हैं।
वरेण्यं वरणीयत्वात् सेवनीयतया तथा ।
भजनीय तथा सर्वेः प्रार्थनीयतया स्मृतम् ।।
वरणीय होने के कारण उसे वरेण्य कहते हैं वह उपासना करने के योग्य है, भजन करने के योग्य है तथा सबों के द्वारा प्रार्थना करने योग्य है।
पूर्वस्याष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भूरिति स्मृता ।
पापस्य भर्जनाद्भर्गो भक्तस्निग्धतया तथा ।।
इन पहले आठ अक्षरों के लिए भूः व्याहृति का प्रयोग होता है। पापों के भर्जन और भक्तों के लिए स्नेह न होने के लिए वह भर्ग कहलाता है।
देवस्य वृष्टि दानादि गुणयुक्त स्यनित्यशः ।
प्रभूतेन प्रकाशेन दीप्य मानस्य वै तथा ।।
वृष्टि, दान आदि गुण होने से वह देव कहलाता है प्रभूत है, प्रकाशवान् है, तथा वह दीप्यमान है।
ध्यै चिन्तायामतो धातो निष्पन्नं धमहीत्यदः
निगमाद्येन दिव्येन विद्यारूपेण चक्षुषा ।।
‘ध्यै’ धातु का अर्थ चिन्तन है उससे धीमहि बनता है वह निगम आदि दिव्य विद्या तथा दिव्य चक्षु द्वारा चिन्तन में आता है।
दृश्यो हिरंमयो देव आदित्ये नित्यसंस्थितः ।
हीनता रहितं तेजो यथा स्यात स हिरण्मयः ।।
वह हिरण्मय देव का दृश्य है जो कि आदित्य में नित्य स्थिति है। उस तेज में किसी प्रकार की हीनता नहीं है इसीलिए उसे हिरण्यमय कहा जाता है।
यः सूक्ष्मः सोऽहमित्येवं चिन्तयामः सदैव तु ।
द्वितोयाष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भुव ईरिता ।।
यह जो सूक्ष्म है वही मैं हूं इस तरह का चिन्तन नित्य करना है। इन दूसरे आठ अक्षरों की भुवः व्याहृति है।
धियो बुद्धिर्मनोरस्य स्छान्दसत्वाद्य ईरितः ।
कृतश्च लिंगव्यत्यासः सूत्रात् सुपतिङ् उपग्रहात् ।।
धिय का अर्थ बुद्धि है, छन्द में इसका सुपतिङ ग्रहण के लिए लिंग व्यत्यय द्वारा यह रूप बनाया गया है।
यत्तु तेजो निरुपमं सर्ववेद (देव) भयात्मकम् ।
भजतां पापनाशस्य हेतु भूत मिहोच्यते ।।
यह जो निरूपम तेज है और जो देवों के तेज से युक्त है, पाप नाश के लिए इनका भजन करते हैं।
न इति प्रोक्त आदरोः षट्यसौ युष्मदस्मदोः ।
तस्मादस्माकमित्यर्थः प्रार्थनायां प्रचोदयात् ।।
न, आदेश रूप में प्रयुक्त हुआ है जो कि युष्मद् अस्मद् की षष्ठी रूप में आया है। जो प्रार्थना के लिए हमें प्रेरणा देता है।
तत्पदं सदिति प्रोक्तं सन्मात्रत्वात् तु भूरतः ।।
व्याहृतियों में भूः शब्द आरम्भ में है। जिसका अर्थ तत् है। तत् सत् का द्योतक है। सत कहने से सत्ता का भान होता है। इससे सगुण ब्रह्म का परिचय मिलता है।
भूतत्वात् कारणत्वाच्च भुवः शब्दस्य संगतिः ।
सर्वस्य स्वीरणात् स्वात्मतया च स्वरितीरितम् ।।
भू तत्व से उपादान कारण का अर्थ निकलता है। भुवः से संगति लगती है और स्वः से स्वर्ग सुख का संकेत मिलता है।
तद् द्वितीयैकवचनमनेनाऽस्विल वस्तुनः ।
सृष्ट्यादि कारणं तेजो रूपमादित्य मण्डले ।।
अभिध्येयं सदानन्दं पर ब्रह्माऽमिधीयते ।
यत्तत् सवितुरित्युक्तं षष्ठ्येक वचनात्मकम् ।।
तद् शब्द द्वतीया का एक वचन है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण वस्तुओं का जो सृष्टि कर्त्ता। आदि में कारिणी भूत, तेजोमय आदित्य मण्डल में जो आनन्द रूप परब्रह्म है, उसका ध्यान करने के लिए तत् का प्रयोग है। यह तत् सत है, वह सविता है जो कि षष्ठी का एक वचन है।
धातोरिह विनिष्पन्नं प्राणि प्रसव वाचकात ।
सर्वासां प्राणिजातीनामिति प्रसवितुः सदा ।।
वह धाता है उससे प्राणियों का प्रसव होता है। वह सर्व प्राणियों का निरन्तर प्रसव करता है इसलिए उसे सविता कहते हैं।
वरेण्यं वरणीयत्वात् सेवनीयतया तथा ।
भजनीय तथा सर्वेः प्रार्थनीयतया स्मृतम् ।।
वरणीय होने के कारण उसे वरेण्य कहते हैं वह उपासना करने के योग्य है, भजन करने के योग्य है तथा सबों के द्वारा प्रार्थना करने योग्य है।
पूर्वस्याष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भूरिति स्मृता ।
पापस्य भर्जनाद्भर्गो भक्तस्निग्धतया तथा ।।
इन पहले आठ अक्षरों के लिए भूः व्याहृति का प्रयोग होता है। पापों के भर्जन और भक्तों के लिए स्नेह न होने के लिए वह भर्ग कहलाता है।
देवस्य वृष्टि दानादि गुणयुक्त स्यनित्यशः ।
प्रभूतेन प्रकाशेन दीप्य मानस्य वै तथा ।।
वृष्टि, दान आदि गुण होने से वह देव कहलाता है प्रभूत है, प्रकाशवान् है, तथा वह दीप्यमान है।
ध्यै चिन्तायामतो धातो निष्पन्नं धमहीत्यदः
निगमाद्येन दिव्येन विद्यारूपेण चक्षुषा ।।
‘ध्यै’ धातु का अर्थ चिन्तन है उससे धीमहि बनता है वह निगम आदि दिव्य विद्या तथा दिव्य चक्षु द्वारा चिन्तन में आता है।
दृश्यो हिरंमयो देव आदित्ये नित्यसंस्थितः ।
हीनता रहितं तेजो यथा स्यात स हिरण्मयः ।।
वह हिरण्मय देव का दृश्य है जो कि आदित्य में नित्य स्थिति है। उस तेज में किसी प्रकार की हीनता नहीं है इसीलिए उसे हिरण्यमय कहा जाता है।
यः सूक्ष्मः सोऽहमित्येवं चिन्तयामः सदैव तु ।
द्वितोयाष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भुव ईरिता ।।
यह जो सूक्ष्म है वही मैं हूं इस तरह का चिन्तन नित्य करना है। इन दूसरे आठ अक्षरों की भुवः व्याहृति है।
धियो बुद्धिर्मनोरस्य स्छान्दसत्वाद्य ईरितः ।
कृतश्च लिंगव्यत्यासः सूत्रात् सुपतिङ् उपग्रहात् ।।
धिय का अर्थ बुद्धि है, छन्द में इसका सुपतिङ ग्रहण के लिए लिंग व्यत्यय द्वारा यह रूप बनाया गया है।
यत्तु तेजो निरुपमं सर्ववेद (देव) भयात्मकम् ।
भजतां पापनाशस्य हेतु भूत मिहोच्यते ।।
यह जो निरूपम तेज है और जो देवों के तेज से युक्त है, पाप नाश के लिए इनका भजन करते हैं।
न इति प्रोक्त आदरोः षट्यसौ युष्मदस्मदोः ।
तस्मादस्माकमित्यर्थः प्रार्थनायां प्रचोदयात् ।।
न, आदेश रूप में प्रयुक्त हुआ है जो कि युष्मद् अस्मद् की षष्ठी रूप में आया है। जो प्रार्थना के लिए हमें प्रेरणा देता है।